हर आँगन से उठती सिसकी
सदियों से खामोश है -
आँगन
से आँगन तक के सफर में । गुजरती रहीं सदियाँ
तमाम उम्र के बेगार का अंत
सचमुच बहुत भयावह है ।
बचपन गुज़रा ,जवानी गुज़री
बुढापे तक अस्तित्व पर पर्दा ही पर्दा।
देवी सी पूजी गई हो,
या दासी सी तिरस्कृत रही हो ,
मनुष्य की पहचान से हमेशा महरूम रही ।
पत्थर -युग से कंप्यूटर तक का
सफर तय कर चुका संसार
पर आधी दुनिया अभी तक
आँगन से आँगन तक के सफर में ही दफ़न है ।
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