Monday, March 30, 2009

चुनावी फार्मूलों की राजनीति

15 वें लोक सभा के चुनाव के लिए तारीखें घोषित हो चुकी हैं. लेकिन पूरे भारत की सत्‍ता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा, न ही कांग्रेस और तीसरा मोर्चा भी नहीं जो अभी तक न संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीन दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है, उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है। इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू। तभी तो 14 वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोडा. इस बार वो इन नेताओं और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे.लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.१५ वें लोक सभा के चुनाव की तारीके पड़ चुकी हैं .लेकिन पुरे भारत की सता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .सभी बड़े राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक स्तर की पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा ,न ही कांग्रेस और न ही तीसरा मोर्चा .जो अभी न ही संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीं दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है .उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखाती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू तभी तो ४ वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुहं दिखने लायक नही छोडा.इस बार वो इन नेतावो और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे .लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.१५ वें लोक सभा के चुनाव की तारीके पड़ चुकी हैं .लेकिन पुरे भारत की सता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .सभी बड़े राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक स्तर की पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा ,न ही कांग्रेस और न ही तीसरा मोर्चा .जो अभी न ही संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीं दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है .उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखाती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू तभी तो ४ वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुहं दिखने लायक नही छोडा.इस बार वो इन नेतावो और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे .लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.

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