Tuesday, December 16, 2008

खाद की किल्लत - किसान की मजबूरी




उत्तर प्रदेश का सिद्दार्थ नगर जिला नेपाल सीमा से सटा हुआ है। वहां का मुख्यालय नौगढ़ है। नवंबर माह के अंतिम सप्ताह में कुछ कारण से मैं वहां गया था। यह समय किसानों के लिये व्यस्तापूर्ण रहता है, क्योंकि धान की कटाई के तुरंत बाद गेहुं की बुआई शुरु हो जाती है। पहले तो किसानों के सामने बीज की समस्या छाई रही और अब खाद की किल्लत से दो – चार होना पड़ रहा है। 26 नवंबर को तहसील के बगल सहकारी समिति पर गया। पिछले कई दिनों से यह सूचना मिल रही थी, कि आज खाद मिलेगा। वहां पहुंच कर ऐसा लगा जैसे गांव के किसी मेले में पहुंच गया हूं। सैकड़ों की भीड़ में अनेक तरह के लोग थे। कुछ की फटी चप्पलें उनकी गरीबी बता रही थी। वहीं दूसरी ओर कुछ की वेश – भूषा उनके संभ्रांत होने की घोषणा कर रही थी। किसानों से पूछने पर पता चला कि कई लोग छह बजे सुबह से ही खाद के इंतजार में लाईन में लगे हैं। सचिव से पूछने पर पता चला कि 300 बोरी डीएपी खाद आई है। जो लोग समिति के सदस्य है उन्हें ही पास बुक के आधार पर दो – दो बोरी खाद दी जायेगी। खाद बंटना शुरु हुआ तो रुपया जमा करने वाले कर्मचारी ने बताया कि खाद का मुल्य 471 रुपये है। जबकि रुपया लेते समय वह 480 रुपये लेने लगा। कई लोगों द्वारा बाकी के नौ रुपया मांगने पर उसने छुट्टे न होने का हवाला दिया। कुछ किसानों द्वारा अधिक दबाव डालने पर खाद बाद में लेने को कहने लगा। ऐसी स्थिति में मजबूरी वश 480 रुपये का भुगतान करना पड़ा। इसी बीच कुछ किसानों ने खाद का वजन कम होने का शक जाहिर किया। पहले तो सचिव ने ना - नुकुर किया। परंतु माहौल की गंभीरता और किसानों की संख्या देख कर तौल के लिये राजी हुआ। जिसके फलस्वरुप कई बोरों में 3 से 4 किलो खाद कम पाई गयी। पहले तो किसानों ने कम खाद लेने से मना कर दिया। लेकिन खाद की किल्लत को सोचकर कम खाद स्वीकार कर लिया। इस विषय में वहां के कर्मचारियों ने कहा कि यह बात हम लिखकर अन्य अधिकारियों को भेज देंगे। कई किसान ने यह भी बताया कि ऐसे अनेक लोग हैं जो समिति के सदस्य नहीं है इसके बावजूद उन्हें खाद पहले मिल जा रही है। सिद्धार्थनगर, महाराजगंज, संत कबीरनगर, बहराइच, बलरामपुर, गोंडा सहित पूर्वांचल के अन्य जिलों में खाद की जबरदस्त किल्लत है। जिसका प्रमुख कारण भारत नेपाल की खुली सीमा है। आये दिन भारी मात्रा में खादों की तस्करी इसी रास्ते होती है। खाद तस्करी का प्रमुख कारण भारत की अपेक्षा नेपाल में खाद का महंगा होना है। भारत में 251 रुपये प्रति बोरी वाली यूरिया नेपाल में 600 रुपये, 471 रुपये प्रति बोरी वाली डीएपी नेपाल में 1000 रुपये तथा 327 रुपये प्रति बोरी वाली फास्फोरस खाद नेपाल में 500 रुपये में बिक रही है। छिटपुट रुप से रोज कुछ बोरी खाद सीमा पार करते समय पकड़ ली जाती है। परंतु व्यापक स्तर पर फैले खाद तस्करी को रोकने के लिये सरकार के पुख्ता इंतजाम नहीं है। भारत नेपाल की 15 किलोमीटर खुली सीमा में पर्याप्त संख्या में एसएसबी के जवानों के न होने से निगरानी नही हो पाती है। इतना ही नही भारत के रास्ते नेपाल गयी खाद को निकाल कर नेपाली खाद कंपनियों की बोरी में डाल दी जाती है। भारतीय खादों को नेपाली उर्वरक बनाकर बांगलादेश भेजा जा रहा है। नेपाल में यूरिया का प्रयोग कच्ची शराब बनाने में भी हो रहा है। किसानों के सम्मुख आज भी सबसे बड़ी समस्या बीज, खाद और सिंचाई है। पूर्वांचल में इतनी बड़े पैमाने पर हो रही भ्रष्टाचार तथा तस्करी पर सरकार अभी तक चुप्पी साधे हुऐ है। सरकार को यह समझना होगा कि जबतक किसानों की बुनियादी समस्याऐ दूर नही होगी तबतक उनके कर्जे माफ करने का कोई फायदा नही होगा। आखिर कबतक गांव के एक गरीब किसान 9 रुपये अधिक देकर प्रत्येक बोरी में 3 किलो खाद कम पाने को अभिशप्त रहेगा। इससे भी बड़ी बात ऐसी वास्तविक समस्याऐ कब चुनावी मुद्दा बनेगी।


मणेन्द्र मिश्रा (मशाल) छात्र,


हिन्दी पत्रकारिता

Friday, December 5, 2008

कबतक मढ़ेंगे दूसरों के सिर...

आज किस के पास समय नही है कि वह समस्या को सुलझाये। वह समस्या को सुलझाने के बजाये दूसरों के सिर मढ़ने लगते हैं। ऐसा ही एक वाक्या मेरे एक मित्र के साथ हुआ।
मेरा मित्र दिल्ली के एक प्रतिष्ठत मीडिया संस्थान में हिन्दी पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा है। इस दौरान मेरे मित्र ने एक दिन अपने संस्थान में फीस जमा करने के लिये जेएनयू में स्थित एसबीआई एटीएम से रुपये निकाले। निकाले गये रुपयों में एक हजार का नोट जाली था। नोट की शक्ल व सूरत देख अच्छे – अच्छे धोखा खा जाये। मित्र ने अपने फीस जमा करने के लिये उन रुपयों को संस्थान के कैशियर के पास लेकर गया। संस्थान के कैशियर को उक्त एक हजार के नोट पर शक हुआ। उसने उस नोट को संस्थान के करीब सीबीआई बैंक में जांच कराने के लिये भेज दिया। बैंक के कर्मचारियों ने उक्त नोट को जाली करार दे दिया। यह बात संस्थान के कैशियर को पता चला। उसने वह नोट मेरे मित्र को लौटाते हुए कहा कि यह नोट जाली है दूसरा नोट दो। नोट के जाली साबित हो जाने से मेरे मित्र के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी। वह सोच में पड़ गया कि क्या किया जाये। जाहिर है ऐसी स्थिति में दिमाग काम करना बंद कर देती है। वह भी ऐसी परिस्थिति जब गलती उसकी न हो और आरोप लगाया जा रहा हो। मेरे मित्र को गुस्सा आया और वह नोट को जाली करार देने वाले सीबीआई बैंक के पास उक्त नोट को लेकर गया। मेरे मित्र ने बैंक के कर्मचारियों से कहा कि आप कैसे कह सकतें हैं कि यह एक हजार का नोट जाली है। जबकि यह नोट मैंने जेएनयू में स्थित एसबीआई के एटीएम से निकाले हैं। मेरे मित्र ने गर्मजोशी से सवाल दागे थे जिसकी वजह से बैंक के कर्मचारी उखड़ गये। वह कहने लगे कि हमने तुम्हारे उपर एहसान किया कि तुम्हारे नोट को काली स्याही से क्रास नहीं किया। मेरे मित्र को समझ में आने लगी कि यहां गर्म होकर बात करने से बात नहीं बनने वाला है। उसने अपना गुस्से को काबू में कर बैंक के कर्मचारियों से समस्या का उपाय पूछने लगा। उपाय एक ही था कि उस नोट को बाजार में चला दिये जायें। जिससे एक हजार का नुकसान से बचा जा सकता था। मेरे मित्र ने भी यह तरीका अपनाया और उस एक हजार के नोट को किसी सर मढ़ दिया।
बात यहीं खत्म नही हो जाती है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कब तक यह सिलसिला चलता रहेगा, कबतक मेरे मित्र जैसे इस देश के नागरिक गलती सुधारने के बजाये उसे दूसरों के सिर मढ़ते रहेंगे। गलती की बात की जाये तो इस मामले में जेएनयू कैंपस में स्थित एसबीआई बौंक के मैनेजर की गलती थी जिसने एटीएम मशीन में जाली नोट रखा। ऐसा एक वाक्या नोयडा में हो चुका है। जहां जाली नोट के एटीम से निकल जाने पर उस ब्रांच के मैनेजर की नौकरी चली गयी।
इन सभी मामलों में जरुरत है जागरुक होने की। आप जागरुक हैं तो आप समस्त समस्याओं से बच सकते हैं। लेकिन आज किसी के पास समय कहां है जागरुक होने की। बस काम होता रहे और दुनिया चलती रहे।

Wednesday, December 3, 2008

अब पाक भी हुआ मेहरबान...

मुंबई में हुए आतंकवादी हमले की जांच के लिये पाक ने भारत के साथ साझा जांच तंत्र गठित करने का प्रस्ताव अमेरिका के दबाव में आकर रखा है। पाक विदेश मंत्री शाह मेहमूद कुरैशी ने सरकारी टेलीविजन पीटीवी में जारी बयान में कहा कि भारत की मदद के लिये पाक एक जांच दल बनाने के लिये तैयार है। यह प्रस्ताव कुरैशी ने संयुक्त राष्ट्र के पी – 5 देश अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, फ्रांस और रुस के राजदूत के साथ एक बैठक में रखा।
अबतक हुए बड़े आतंकी हमले के बाद यह संभव है कि हर कोई मदद के लिये हाथ बढ़ायेगा और सहानुभूति दिखा कर अपना हित साधने की कोशिश करेगा। मुंबई आतंकी हमले के बाद कई देशों ने घटना की कड़ी निंदा की साथ ही गहरी संवेदना भी प्रकट किया। उन देशों के द्वारा घटना की निंदा और संवेदना व्यक्त कर यह जताना की वह दुःख की घड़ी में भारत के साथ है तो यह बेमानी साबित होगा क्योंकि कोई भी बिना स्वार्थ के कुछ नहीं करता है। जबकि हकीकत यह है कि वह देश आतंकी घटना में मारे गये अपने नागरिकों के लिये बेचैन है कि वह अपने देश की जनता को क्या जवाब दे कि दुसरे देश में उसकी जनता के लिये सुरक्षा के क्या उपाये है।
भातर के मित्र देश घटना की जांच के लिये अपनी-अपनी जांच एजेंसी को भेजा है। यहां भी उनका स्वार्थ साफ झलकता है। वे देश जो घटना की जांच के लिये आतुर है वह इसलिये कि उनके देश के भी नागरिक मारे गये हैं।
अगर पाक की बात करें तो उन्होंने मदद के लिये साझा जांच दल गठन करने का प्रस्ताव भेज कर इतिश्री कर लिया है। इस मामले में पाक भारतीय जांच एजेंसी को पाक में जांच करने के लिये पूरी छूट मुहैया करा सकती थी अगर उसकी नियती साफ होती। इसका सीधा अर्थ निकलता है कि पाक भारतीय जांच एजेंसी को गुमराह करना चाहती है। क्योंकि जांच के दौरान पाक अधिकारी भारतीय जांच अधिकारी को वही दिखायेंगे जो पाक सरकार दिखाना चाहती है।
पाक यदि भारत की मदद करना चाहता है तो वह अपने देश और पाक अधिकृत कश्मीर में सभी आतंकवादी शिविरों को ध्वस्त कर दे और आतंकवादियों को शरण देना बंद कर दे।

Tuesday, December 2, 2008

समाचारपत्र का भविष्य

‘‘2040 ई।में अमेरिका में किसी भी समाचारपत्र की अंतिम प्रति छपेगी ‘‘ (द वेनेशिंग न्यूजपेपर)। फिलिप मेयर की इस भविष्यवाणी के बाद समाचारपत्र के भविष्य को लेकर बहसें तेज होने लगी और कहा जाने लगा कि तकनीक के हावी होने से समाचारपत्र खत्म हो जाऐंगे। लेकिन मेरी राय मेयर साहब की राय से मेल नहीं खाती। मेयर साहब का यह विश्लेसन अमेरिका/ब्रिटेन जैसे विकसीत देशों के लिए संभवतः सही हो भी सकता है,जहां अखबार अपनी विश्वसनीयता खो रहे है। मगर ‘सब धान बाइस पसेरी‘नहीं होते। विकासशील और अविकसीत देशों में भविष्य में भी समाचारपत्र ही सूचना के महत्वपूर्ण साधन बने रहेंगे। 90 के दशक में अचानक विश्व में सेटेलाइट चैनलों की बाढ़ आ गई। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। स्टार टीवी,जी टीवी और न जाने कितने ही चैनल घरों में घुस गए। लगा कि सूचना सर्वसुलभ हो गई,और अखबारों पर हमारी निर्भरता कम हो गई। लेकिन नहीं,सूचना को उपयोग की वस्तु के रूप में प्रस्तुत किया गया। राजीव शुक्ल भारतीय विमान अपहरण का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि नेपाल से भारत आ रहे विमान का जब अपहरण हुआ तो इलेक्ट्रानिक मीडिया ने इतनी उल्टी सूचनाएं दी कि आम भारतीयों के सर ही चकरा गए। लोगों को बताया गया कि अपहृत खिली धूप का आनंद ले रहे हैं जबकि मुक्त आए लोगों ने ठीक इसके उलट जानकारी दी।ठीक इसी तरह नई-नई वेबसाइटों को लेकर अभी भी आम भारतीयों के मन में संदेह बना हुआ है। तहलका डाॅट काॅम ने जोर-शोर से मनोज प्रभाकर को लेकर मैच फिक्सींग का भांडा फोड़ने का प्रयास किया लेकिन हुआ क्या? खुद मनोज अपनी जाल में फंसते नजर आए,सूचना को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। मैं इंटरनेट के खिलाफ नहीं हूॅ लेकिन मेरा मानना है कि लोगों ने सूचना के इस नए रूप का गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया। हालाॅकि इंटरनेट अभी तक बड़े शहरों की ही शान बना हुआ है जबकि कई वेबसाइट अस्त-व्यस्त स्थिति में चल रही हैं या दम तोड़ रही है। एलूल ने अपनी पुस्तक ‘ द टेक्नोलोजिकल सोसायटी ‘में लिखा है कि वर्तमान समय में मानव जीवन के तकनीकि अतिविशेषीकरण ने उसे विवश कर दिया है कि वह एक बंद कमरे में रहे। आस-पड़ोस में क्या हो रहा है कुछ पता ही नहीं चलता। एलूल की यह बातें टीवी पर बिल्कुल सही बैठती है। टीवी ने परिवारों में भाषाहीनता की स्थिति उत्पन्न कर दी है। व्यक्ति-से-व्यक्ति की बातचीत एकतान टेलीविजन देखने-सुनने में डूब गई है। बात ‘इलेक्ट्रानिक पेपर ‘की भी हो रही है। इस पर शोध विश्वप्रसिद्ध संस्थान ‘ मेसाचुसेट्स इंस्टीच्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी ‘ में पिछले कई सालों से हो रहा है। बताया जा रहा है कि इसके आने के बाद जैसी खबर आप चाहेंगे वैसी ही आपको दिखेगी। लेकिन हमारे देश में अखबार केवल सूचना का माध्यम ही नहीं है बल्कि हमारी दैनिक जरूरतों की पूर्ति भी अन्य कई तरीकों से करता है। क्या इलेक्ट्राॅनिक परदे को कोई गृहणी रद्दी के भाव बेच सकेंगी? कागज की थैलियाॅ कैसे बनेगी? गरीबों के सोने-बिछाने में कौन से पेपर उपयोग में लाए जाऐंगे? वैसे भी, किसी सूचना का संप्रेषण किसी माध्यम से कितना लोकतांत्रिक ढ़ग से हो रहा है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि सूचना का कितना प्रतिशत अंश कतार के अंतिम व्यक्ति तक पहुॅच रहा है? निश्चित तौर पर भारत जैसे देश में जहाॅ कई गांवों में अभी टेलीफोन की सुविधा भी ठीक तरह से उपलब्ध नहीं है वहाॅ इंटरनेट की बातें करना बेमानी ही होगी वर्ल्ड एस्सोसिअशन ऑफ़ न्यूजपेपर की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय समाचारपत्र की प्रसार संख्या 2001-05 के दौरान तैंतीस प्रतिशत बढ़कर 7।86 करोड़ तक पहुॅच गई है। जबकि वैश्विक स्तर पर 9.95 फीसद की बढ़ोतरी हुई है। भारत और चीन में तो पिछले एक साल में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि पिछले पाॅच सालों में 8.7 फीसद की वृद्धि होकर प्रसार संख्या 51 करोड़ तक पहुॅच गई है। अगर एशिया महादेश की बात करें तो इस सबसे बड़े महादेश में समाचारपत्रों की प्रसार संख्या में 0.04 प्रतिशत की बढ़ोतरी ही हुई है। दोस्तों, इलेक्ट्रानिक मीडिया में आकर्षण जरूर है लेकिन इसकी अपनी सीमांए भी है। यह तमाम मुद्दों को एक साथ विस्तार से नहीं रख सकता क्योंकि इसके साथ समय और स्थान का बंधन है। यह मनोरंजन का बेहतर साधन हो सकता है मगर पाठकों की बौद्धिक भूख मिटाने की क्षमता तो अखबारों में ही है। वहीं अखबारों के साथ हमारा भावात्मक लगाव भी होता है जबकि टीवी के साथ ऐसा नहीं होता। हम चैनल लगातार बदलते रहतें हैं, हमारे अंदर बैचेनी होती है और हम किसी चैनल के साथ वफादार नहीं हो पाते। लेकिन हम रोज पेपर बदल-बदल कर नहीं पढ़ते। अनेक ऐसे लोग हैं जिनके नथुने अखबारी कागज और उसकी स्याही की मादक गंध के आदी हैं। साथ ही अखबार का सामाजिक सरोकार इस पर हमारा विश्वास बढ़ाता है। मूलतः अखबार के भविष्य पर ही लोकतंत्र का भविष्य टिका है। आर्थिक गुलामी की कगार पर खड़े देश को बचाने के लिए जरूरी है कि अखबार जनता में अपनी विश्वसनीयता कायम रखे और अपने व्यवसायिक हितों और जनहित के बीच एक ईमानदार संतुलन कायम करे। साथ ही सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए ‘ अनमेट नीड ग्रोथ ‘ काॅन्सेप्ट पर काम करे, यानि जो लोग अखबार पढ़ना चाहते हैं लेकिन किन्ही कारणवश पढ़ नहीं पाते उन तक पहुॅचे। आॅकड़े बता रहे हैं कि भारत में ही इन लोगों की संख्या 35 करोड़ है। इसके अतिरिक्त, अखबारों में बहुलता और विविधता भी दिखे क्योंकि विविधता लोकतंत्र को मजबूत बनाती है। अगर इसी विश्वास पर अखबार काम करे तो समाचारपत्रों का ही नहीं बल्कि देश का भी भविष्य उज्जवल है क्योंकि अखबारों का भविष्य देश के भविष्य से अलग नहीं हो सकता।