Sunday, February 21, 2010

धँधे की अँधी दौर में घायल होता ‘लोकतंत्र’ का ‘लोक’!

पुणे में हुए धमाके ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया है जिसमें एक क्षणिक बदलाव शायद मीडिया के धँधे में भी दिखाई पड़ा, तभी तो आम तौर पर बड़बोलेपन की आदत के विपरीत थोड़ा संतुलित व्यवहार दिखाया गया। इस बदलाव का कारण शायद मुंबई धमाकों की गूँज का वह भूत है जो मीडिया का पीछा अभी तक कर रहा है। 2008 के मुंबई धमाकों की अपनी तथाकथित संघर्षशील रिपोर्टिंग पर हुई जग-हँसाई ने शायद इस बार भावनओं के ज्वार को फूटकर बहने से रोक लिया हो मगर आदत तो आदत होती है, छूटेगी कैसे?
अतिश्योक्ति में हर बात कहने के कीड़े ने मीडिया के धँधे को इतना प्रभावित कर दिया है कि गाहे-बगाहे इसका प्रदर्शन होना लाजमी हो ही जाता है! इस साल की शुरूआत को ही देख लीजिए, पूरी जनवरी वही चेहरा दिखता रहा है जिसके लिए वो विख्यात(कुख्यात) है। बात चाहे भाषा के मामले में फूटे तथाकथित देशप्रेम की हो या संवैधानिक अधिकारों की, मीडिया की बहसों ने इन्हें एक अलग ही रूप में ढ़ाल कर रख दिया। हर तरह की बातों में सिनेमाई नाटकीयता घुसेड़ने और सार्थक बहसों की जगह तू-तू मैं-मैं की शैली ने गंभीर से गंभीर मुददों को भी चलताऊ सा बना दिया है। संवेदनशील और देश से जुड़े सवालों को अब व्यक्तिगत बहसों में तब्दील कर दिया जाता है और इनमें घुसेड़ दिए जाते हैं कुछ पात्र जिन्हें सिनेमा की हीं तर्ज पर नायक और खलनायक की उपाधी भी दे दी जाती है। आलम ये है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नजरअंदाज किए जाने जैसे संवेदनशील मुददे, जिनसे दोनों देशों के बीच खटास और बढ़ सकती है, को खान और ठाकरे के वर्चस्व की लड़ाई तक हीं सीमित कर दिया गया। ऐसा महसूस हुआ मानो इन दोनों को देश का ढ़ेकेदार समझ बैठे हैं हमारे मीडियामानुष! एक चैनल ने तो सबसे आगे निकलने का होड़ में देश के नाम शाहरूख खान का संदेश भी जारी कर दिया जिसके तुरंत बाद ही शुरू हो गई वही पुरानी भेड़चाल!
जिस धंधे में बुँदेलखंड के विवश और लाचार लोगों की कहानी सिर्फ राहुल गाँधी और मायावती के बीच का टकराव बनकर रह जाती हो उससे ज्यादा उम्मीद करना भी तो एक तरह की नाइन्साफी ही है! खबरों के इस खेल में आज हर मुददा मुखौटों से हीं तो बिकता है चाहे वो महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद का दंश झेल रहे लोगों की ही कहानी क्यों ना हो, जब तक युवराज का दौरा ना दिखाया जाए तो खेल में मजा कहाँ रह जाएगा? अब इसे नाटकीयता हीं तो कहेंगे ना कि जब महँगाई को लेकर सारे देश की जनता त्राहिमाम कर रही हो तब मीडिया इसे प्रधानमंत्री और कृषि-मंत्री के बयानों तक सीमित कर देता है। कुछ हिन्दी के चैनलों ने तो खुला खेल फरूक्खाबादी ही बना डाला जब मुलायम सिंह और अमर सिंह के मामले को बेवजह इतनी तूल देकर पूरी तरह मसाला लगाकर पेश किया। धारावाहिक और सिनेमा की तर्ज पर बकायदा सीन और ऐक्ट जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ और अमर सिंह से तो गाने भी गवाए गए।
हिन्दी सिनेमा को गुरू द्रोण और खुद को एकलव्य मानने वाले मीडिया के लिए इन नाटकों को चलाने के दरमियान परेशानियाँ भी कम नहीं आती हैं। अब जैसे बीटी बैंगन के मामले को ही देख लें जहां मुखौटे के रूप में एक चेहरा तो पर्यटन मंत्री के रूप में मिल गया मगर प्रतिद्वंदी के रूप में बेचारे बैंगन को कैसे दिखाएँ टीवी पर! पात्र की इस कमी को पूरा किया गया अनाप-शनाप और ऊल-जलूल दावों और आंकड़ों की सहायता लेकर। गंभीर मुददों को दिखाने पर टीआरपी नहीं पाने वाले इस बेचारे से हमें पूरी हमदर्दी है मगर चुनाव जैसे मुददों पर भी यही रूख दिखाने की बात गले नहीं उतरती। 2009 के लोकसभा चुनावों में चुनाव लड़ने वालों में तो मुददों का अभाव समझ में आता है मगर आम आदमी को मीडिया से इतनी उम्मीद तो रहती ही है कि उसके मुददों को उठाएगा, लेकिन समाज के पहरेदारों ने बस खानापूर्ति कर अपने कर्तव्य से इतीश्री कर ली। कभी-कभी इस उद्योग की चिमनी से भी संवेदनशीलता का धुँआ उठता दिखाई पर जाता है मगर अपवाद तो हर जगह होते हैं, यहाँ भी हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ठेकेदार कहलाता है ये मीडिया उद्योग मगर वह स्वतंत्रता यहाँ काम करने वाले श्रमिकों को खुद मयस्सर नहीं है, शायद इसी वजह से इन लोगों ने आम जनता को भी इस अधिकार से महरूम रखना उचित समझा है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारन है कि दर्शक बेचारा कोई भी चैनल देख ले उसे शाहरूख खान से राहुल गाँधी तक ले जाया जाएगा और वापस शाहरूख पर ला कर हीं छोड़ा जाएगा। एक बात का खयाल जरूर रखा जाएगा कि दो चेहरों से लोग उब नहीं जाएँ, तभी तो बीच-बीच में आमिर खान और अमिताभ बच्चन के चेहरे भी देखने को मिल जाएँगे(आखिर चेहरा ही तो बिकता है ना!)। अब इन लोगों की गलती भी क्या है, इस धंधे में तो खुद पर हो रहे जुल्म की आवाज उठाने तक की मनाही है। दिन-रात अर्थव्यवस्था के पुनर्विकास के कलमे पढ़ने वाले इन बेचारों से कौन पूछे कि भाई जब इस तरह का विकास हो रहा है तो आप क्यों इससे अछूते रह जा रहे हैं? क्यूँ आपके सैकड़ों भाई-बँधुओं को मंदी के नाम पर बेघर किया गया और वेतन में भी मनमाने ढ़ंग से कटौतियाँ की गईं और किसी ने कोई सवाल उठाने की हिम्मत तक नहीं की? शायद इस क्षेत्र की अभिव्यक्ति भी उन्हीं चंद उद्योगपतियों की बपौती बन कर रह गई है। मुनाफा सबका बाप बन बैठा है और शेयर बाजार के ग्राफ से ही लोगों का भाग्य तय होने लगा है। सोने पर सुहागा तो तब लगता है जब यही लोग जनता को यह पाठ पढ़ाते नजर आते हैं कि मँदी तो भईया अमेरिका में आई है, भारत में तो बस आर्थिक सुस्ती का दौर चल रहा है!
अब सुस्ती है तो कुछ खुराक लेने से दूर भी होगी और हो भी रही है। एक पत्रिका की मुख्य खबर तो हमें यह समझाती भी है कि किस तरह हमारे ग्रामीण क्षेत्र के मजबूत आधार ने हमें मँदी के इस भँवर से सुरक्षित रखा और भारत पुनर्विकास के पथ पर अग्रसर भी हो चुका है। लेकिन विकास की यह धारा फिर से शहरी मीडिया तक हीं सीमित दिखाई दे रही है, वह मजबूत आधार तो फिर परदे से नदारद ही रहा। किसानों की इस अदृश्य विकास की कपोल कल्पनओं को मँच देने का बीड़ा उठाया है महाराष्ट्र के एक विकसित मीडिया घराने ने जिससे खुद सरकार के कुछ मंत्रियों का जुड़ाव है। अब यह लोग तो सच हीं बता रहे होंगे मगर खुद सरकार इन लोगों की बात से इत्तेफाक नहीं रखती है तभी तो सरकार कृषि क्षेत्र में नगण्य विकास की बातें बता रही है। जिस दिन इस तथाकथित विकास के किस्से सुनाए जा रहे थे उसी दिन राष्ट्रीय अपराध लेखा शाखा ने अपनी वेबसाईट पर 2008 में आत्महत्या करने करने वाले किसानों की सँख्या जारी की, जिसमें बताया गया कि वर्ष 2008 में 16,196 किसानों ने अपना जीवन समाप्त कर विकास की इस अवधारना पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वर्ष 1997 से लेकर अब तक 1,99,132 किसानों के आत्महत्या का आंकड़ा शायद यही कहता है कि इन नासमझ और बेचारे लोगों के कानों तक शायद विकास की ये मँगल गाथा पहुँच ही नहीं पाई थी।
पुनर्विकास की ये गाथाएँ विरोधाभास की स्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं क्योंकि सरकार द्वारा जारी किए गए ढ़ेर सारी रिपोर्टें विकास की इन लकीरों को लंबवत काट देते हैं। गरीबी-रेखा को परिभाषित करने वाली सुरेश तेंदुलकर समीति की रिपोर्ट, सँयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट और कई अन्य रिपोर्ट इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि सिर्फ वर्ष 2008-2009 के दौरान इस तथाकथित आर्थिक सुस्ती ने लगभग 3.5 करोड़ लोगों को गरीबी के अभिशाप से ग्रसित किया है। इतना ही नहीं 1991 से 2001 के दौरान करीब 80 लाख लोगों ने खेती से अपना मुँह मोड़ लिया है, यानि कि हर दिन लगभग 2000 लोग। मीडिया के लिए इसके बावजूद भी विकास तो हो ही रहा है क्योंकि कारपोरेट घराने और बड़े होते जा रहे हैं और अधिग्रहन और धँधे का विस्तार तो दिन दूनी रात चौगुनी गति से हो रहा है। सावन के अँधे की भूमिका को बड़ी बेखूबी से निभा रहा है ये धँधा जहाँ हर तरफ हरियाली ही दिखाई जा रही है। उद्योग और सिनेमा की चकाचौंध भरी दुनिया में भला फटे-पुराने कपड़े पहने लोगों की तस्वीर कैसे अपील कर सकती है?
एक दौर था जब टीवी पर क्रिकेट का भूत दिन-रात सवार रहता था मगर इस खेल के औद्योगिकरण(आईपीएल) ने यह समस्या भी हल कर डाली है, अब तो सिर्फ उद्योग और सिनेमा पर पूरी एकाग्रता से ध्यान लगाने की जरूरत है! धँधे के नफा-नुकसान से हीं तो मुददों की अहमियत तय की जाती है फिर चाहे इनसे लोकतंत्र के लोक का कोई सरोकार हो या ना हो। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के इस तथाकथित ठेकेदार के धँधे की अँधी दौर वाली यही प्रवृति खुद इसके और पूरे तंत्र को सड़ाने में योगदान दे रही है जिसकी गँध भविष्य में दिमाग की नसें तक फाड़ दे तो ताज्जुब नहीं!

Saturday, February 20, 2010

I felt I was entitled.

I stopped living by the core values that I was taught to believe in. I knew my actions were wrong, but I convinced myself that normal rules didn't apply. I never thought about who I was hurting. Instead, I thought only about myself. I ran straight through the boundaries that a married couple should live by. I thought I could get away with whatever I wanted to. I felt that I had worked hard my entire life and deserved to enjoy all the temptations around me. I felt I was entitled. Thanks to money and fame, I didn't have to go far to find them.


एक
गोल्फ खिलाड़ी जिसने हारना कभी सीखा ही नहीं था। हमेशा शांत और शालीन दिखने वाला गोल्फ की दुनिया का धुरंधर, टाइगर वुड्स। वो टाइगर वुड्स जिसे इस खेल का भगवान कहा जाता रहा है। जिसमें कभी कोई कमी झलकी ही नहीं थी। दुनिया ने उसे संपूर्णता का परिचायक माना। और मानें भी क्यों न? अपने 13 साल के करियर में 71 बार प्रोफेशनल गोल्फ एसोशिएशन(पीजीए) टूर में जीत केपरचम के साथ गोल्फकोर्स पर 12 बड़े मुकाबलों और 70 अन्य मुकाबलों में चैम्यिपन बनकर यह साबित भी तो किया है। दुनिया भर में टाइगर वुड्स का नाम है और तमाम बड़े प्रायोजक वुड्स के साथ अपना नाम जोड़ने की जद्दोजहत में रहते हैं। टाइगर बुड्स ने अपने खेल और इससे बने अपने सार्वजनिक चेहरे से वो नाम कमाया कि मां-बाप बच्चों को टाइगर वुड्स जैसा बनने की नसीहत देते हैं।

ऊपर की पंक्तियां (अंग्रेजी में) उसी खिलाड़ी ने करीब 84 दिनों के लंबे अंतराल के बाद पहली बार लोगों के सामने आकर कही हैं। 27 नबंवर 2009 को हुई कार दुर्घटना के बाद दुनिया ने टाईगर वुड्स का वो चेहरा देखा जो पहले वाले चेहरे के बिल्कुल विपरीत था। इस गोल्फ खिलाड़ी का एक के बाद एक कई सेक्स स्केंडल में लिप्त होने का मामला सामने आया। मॉडल्स और पोर्न स्टार से लेकर वेटरेस और असिस्टेंट्स तक को इस अरवों लोगों के आर्दश माने जाने वाले खिलाड़ी ने हमविस्तर बनाया। तमाम कामुक और सेक्सी लड़कियों को हर टूर में साथ रखा। यही नहीं अश्लील एसएमएस और वॉइस मेल से भी वुड्स का यह चेहरा सामने आया। पैसे और शोहरत के दम पर लंबे समय तक इनका मुंह भी बंद रखा। मगर जब सच्चई सामने आयी तो पहला प्रहार घर टूटने के रूप में टाइगर पर हुआ। मशहूर स्वीडिश मॉडल पत्नी की अपने दो बच्चों के साथ वुड्स से अलग होने की खबरें दुनिया भर में छायीं। वुड्स की गोल्फ से बिदाई की खबरों ने भी जोर पकड़ा और यह सुनकर बड़े प्रायोजकों ने भी वुड्ससे नाता तोड़ लिया।

वुड्स का यह कथन अपने में कई बातों की ओर इशारा कर रहा है। पैसे और शोहरत के मद में चूर वुड्स भूल गए कि हर चीज की कोई सीमा होती है और सीमा के भीतर बने रहने में गरिमा भी। मगर यह भी नहीं भूला जा सकता है कि वुड्स किस समाज और संस्कृति में रहते हैं। वह अमेरिकी समाज का हिस्सा हैं जहां पूंजी और रुतवा ही असली ताकत है और यही व्यक्ति को सीमा से बाहर जाकर वुड्स माफिक कृत्य करने के लिए उकसाता है। इससे पहले साल 1998 में अमेरिकी राष्ट्रपति भी इसका उदाहरण पेश कर चुके हैं। बिल क्लिंटन ने मोनिका लॉविंसकी के साथ नाजायज रिश्तो के लिए सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी थी। एक कारण अमेरिका में पेपराजी कल्चर यानि जानीमानी हस्तियों को 24 घंटे कवर करने वाले फोटोग्राफर्स, की अति-सक्रियता भी है। सेलीब्रिटी के निजी पलों को कैमरे में कैद कर मैग्जीन के कवर पर सजाने की होड़ के चलते वुड्स और क्लिंटन जैसे चर्चित लोग इसका शिकार बनते हैं। कई लोग इसे एक इंसानी गलती भी मान रहे हैं ।


खैर जो भी हो, टाइगर वुड्स ने अपनी मेहनत से जो प्रतिष्ठा और सम्मान पाया था, उसे गहरी क्षति हुई है। निजी और सार्वजनिक जिंदगी में अंसतुलन कितना घातक हो सकता है वुड्स इसके उदाहरण हैं। अब सार्वजनिक तौर पर माफी मांग कर वुड्स ने आगे बढ़ने का मन बनाया है । माफी उन तमाम लोगों से जिन्होने टाईगर वुड्स को बनाया है। वो उस खेल के प्रशंसक हैं जिसका टाइगर बादशाह है। टाइगर वुड्स को जानते है कि खेल से इस क्षति को पूरा किया जा सकता है। यकीनन इस खिलाड़ी पर दबाव दिखेगा, संपूर्णता दिखाने का और पुराने शौर्य को पाने का ।

Monday, February 15, 2010

मुंडेर की चिरैया

यह कविता मेरे पिता को समर्पित है।

सर्दी में आते थे चुपचाप रजाई ओढा कर चले जाते थे

भाप उड़ाती गर्म चाय के साथ मैं देखती थी आपके चेहरे को
स्निग्ध शांत लेकिन ना जाने क्यों पथराई सी आँखे
और आँखों का पीलापन आसपास को भी गुदुमी पीला बना देता था
अक्सर मैंने जानने की कोशिश की आपके अन्दर के तूफान को
पर आपके बाहर की सौम्यता ने मुझे पहुँचने ही नहीं दिया वहां तक
जहाँ से मैं ढूंढ लाती उस अनदेखे एहसास को जिसने
बेवक्त ही बना दिया आपको बेहद खामोश और चुपचाप
फिर मुझे लगने लगे आप एक ऐसे माँझी की तरह
जो हर बेतरतीब लहर को कुछ और हिम्मत के साथ
कुछ अधिक शांत बनकर पार कर जाता है
में जितना आपकी आँखों की गहराईयों में उतरने की कोशिस करती हूँ
मेरी नजरें उतनी ज्यादा हिचकती हैं आपकी ओर टकटकी लगाने में
और मेरी यह आकांक्षा कुछ और मजबूत होने लगती है
कभी तो मैं आपकी आँखों में देख कर यह कह सकूँ
कि मैं आपके मुंडेर की चिरैया नहीं हूँ
मैं एक मुट्ठी ही सही चुरा कर ले आऊंगी आपके हिस्से का आकाश
और आपकी दरो - दीवारों के उपर उसे बिछा कर
आपको महफूज़ कर दूंगी
मैं आपको कभी तो आश्वस्त कर सकूँ
मैं नहीं जाऊंगी आपकी मुंडेर छोड़ कर तब तक
किसी और के आंगन का चुग्गा खाने जब तक
आपकी आँखों से फैली दरो - दीवार के पीलेपन को
थोड़ा सा ही सही कम ना कर दूँ
और उनमें भर दूँ जिंदगी से भरे चटख रंगों के कुछ छींटे ।

दोस्त kaushal, भगत सिंह एक आतंकवादी ही था

सबसे पहले बात भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी या आतंकवादी होने पर. पर इससे भी पहले क्रांति और आतंक शब्दों को समझने की कोशिश. भगत की नज़र में क्रांति का अर्थ विदेशी शासकों से सत्ता हासिल करना ही नहीं था. उनके शब्दों में “क्रांति का अर्थ सिर्फ उथल-पुथल या रक्त-रंजित संघर्ष नहीं होता. क्रांति में, मौजूदा हालत(यानी सत्ता) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज के सुव्यवस्थित पुनर्निमाण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अंतर्निहित रहता है. ...समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक साधनों से नहीं हो सकती है बल्कि उसे अंदर से प्रस्फुटित और विकसित होना चाहिए....”

यह 1930 के दशक में एक पीढ़ित, शोषित, दमित लेकिन संघर्षरत भारतीय का नज़रिया था. इसी समय में पल रहा दूसरा नज़रिया अंग्रेज़ी सरकार का भी था. उनके लिए भगत आतंकवादी थे. उनकी शब्दावली के हिसाब से वह आतंकवादी थे भी. लेकिन वह आतंक किसके लिए था. कौन उससे भयभीत था और किसने इस शब्द को जन्म दिया था, यह सवाल ज़्यादा अहमियत रखता है. उस समय में भी भगत को कोसने वाले भारतीयों की संख्या कम नहीं थी. वजह यह कि उन्हें आसानी से चीजें हासिल थी और यह तथ्य उनकी सेहत पर असर नहीं डाल सकता था कि शासक अंग्रेज हों या भारतीय. सवाल यह है कि आप कहां खड़े होकर सोचते है.
माओ को इतिहास में महज इसीलिए याद नहीं किया जाता कि उसने चीन में मार्क्सवादी और लेलिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर एक नये सिद्धांत माओवाद को जन्म दिया. इससे इतर यह बात मायने रखती है कि ऐसा क्यों किया गया और उसके परिफलन क्या रहे. चीन के किसानों की हालत या उस समाज में उससे क्या असर पड़ा.
एक अहम सवाल यह भी है कि सरकार या आम लोगों से आपका आशय क्या है. सरकार की और लोगों की भूमिका किसी भी राज्य में क्या होनी चाहिए. राज्य के संसाधनों पर पहला हक किसका बनता है. किसी राज्य के नागरिकों को जल-जंगल और ज़मीन जारी करने वाली सरकार कैसे हो जाती है. कहीं आपका आशय यह तो नहीं कि किसी भू-भाग में उपलब्ध संसाधनों पर सरकार का हक रहता है और वही इस बात को तय करने की स्थिति में रहती है कि किसे उसका दोहन करने दिया जाए.
आम नागरिकों से आपका आशय उन लोगों से तो नहीं जिनकी सबसे बड़ी चिंता सुबह ऑफिस जाने और रात को किस रेस्तरॉं में खाना खाया जाय की होती है. अगर हां ते हमें दुख के साथ कहना होगा कि अभी आपके आम नागरिकों को मुश्किलों के और दौर देखने बाकी हैं. कम से कम झारखंड जैसी जगहों पर जहां सरकार उग्र रूप से फैसले कर रही है कि संसाधनों पर किसका हक है. अर्जुन सेन गुप्त की रिपोर्ट में अचानक शामिल हुए करीब 70 फीसदी लोगों के लिए आपकी शब्दावली में क्या नाम है जो 20 रूपयो में रोज गुजारा करते हैं. क्योंकि वह तो ग्रेट शाइनिंग इंडिया के आम नागरिक नहीं हो सकते.
किसी राज्य के आपके विकास के पैमाने क्या हैं. वहां सड़कों, रेललाइनों, फ्लाइओवरों और एअरपोर्टों का जाल बिछा दिया जाए. वह राज्य विकास करने लगेगा. बिहार की आर्थिक प्रगति का दावा कर रहे लोगों को वहां की भूखी जनता और कुपोषित बच्चों से विकास से पहले और बाद का फर्क पूछना चाहिए.
ग्रीन हंट के बारे में आपको ऐसा क्यों लगता है कि इसके समर्थन और स्वागत में राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर समारोह होने चाहिए थे. क्या आपको इल्म नहीं है कि भारत में कई लोग अभी भी आपकी सरकार के जंगलों पर निर्भर हैं. वही जंगल उनका घर, आजीविका के साधन है. उन्हे खाने को फल, अनाज, खाना बनाने को लकड़ियां मुहैया कराते हैं. नहीं शायद वे लोग आपकी सरकार और उनकी एमएनसीज का हक छीन रहे हैं.

Tuesday, February 9, 2010

माओवादी बन गए हैं माफिया…


माओ-त्से-तुंग ने चीन में मार्क्सवादी, लेलिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर जिस सिद्धांत को जन्म दिया उसे माओवादी कहा जाता है। भारत में माओवादी इसी विचारधारा पर चल रहें हैं। वे सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। झारखण्ड में माओवादी माफियावादी बन गए हैं। सरकार से जारी जल जंगल जमीन की जंग के आड़ में आम नागरिक का शोषण कर रहे हैं। हाल में ही नक्सली ने लेवी का फरमान जारी किया है। फरमान के मुताबिक बड़े- छोटे सरकारी कर्मचारियों को 20 प्रतिशत वार्षिक लेवी देना होगा।

माओ साम्यवादी थे। वे वर्ग विहीन समानता लाना चाहते थे। आज नक्सली माओवादी विचारधारा अपना कर आम नागरिक की हत्या कर कौन सी समानता लाना चाहते हैं। आम नागरिकों का शोषण कर कौन सी वर्ग समानता लाना चाहते हैं। नक्सलियों की लड़ाई सरकार के खिलाफ है तो वे आम नागरिको को परेशान क्यों कर रहे हैं। आए दिन नक्सली राज्य बंद का एलान कर देते हैं। वे शायद सरकार पर दबाव बनाने के लिए बंद करवाते हैं। लेकिन इसका खामियाजा तो आम नागिरक ही भुगतना पड़ता है। झारखण्ड गठन के लगभग 10 साल होने के हैं लेकिन इन 10 सालों में लगभग दो साल झारखण्ड बंद रहा है। जिससे राज्य विकास से दो साल पीछे चला गया है।

नक्सली हथियार के बल पर क्रांति कर रहे हैं वे क्रांति नहीं आतंक फैला रहे हैं। आजादी से पहले सरदार भगत सिंह ने भी हथियार के बल पर ही देश को आजाद कराने के लिए क्रांति किया था। शहीद भगत सिंह उस समय भारतीयों के नजर में क्रांतिकारी थे और अंग्रेंजो के नजर में आतंकवादी। आज हम भारतवर्ष में रह रहे हैं। कई कुर्बानियों के बाद हमने आजादी पाई है। आज हमारा अपना संविधान है और उसके मुताबिक देश चल रहा है। आज नक्सली जो कर रहे हैं वो क्रांति नहीं आतंक है। जल जंगल जमीन की लड़ाई के बहाने नक्सली सिर्फ आतंक फैला रहे हैं।

हाल में ही झारखण्ड में सरकार द्वारा चलाए जा रहे ग्रीन हंट का नक्सलियों ने तीन दिन बंद का अह्वान कर विरोध किया। नक्सलियों द्वारा ये बंद ना तो पहला है और ना ही आखिरी। सरकार नक्सलियों पर लगाम कसने के लिए अभियान चलाते रहेंगे और नक्सली इसका विरोध राज्य बंद कर, ट्रेन की पटरी उड़ा कर या विस्फोट कर करते रहेंगे। इस लड़ाई में फतह किसी की भी हो लेकिन मारे जाएंगे गरीब मजदूर जो अपनी जीविका के लिए रोज मजदूरी करते हैं।

फोटो - गूगल

Thursday, February 4, 2010

किस ओर जा रहा है हमारा ’मीडिया’!

आजकल हर तरफ हो रही चर्चाओं में मीडिया एक ‘हॉट टॉपिक’ बना हुआ है। कॉलेजों की कैंटीन से लेकर चाय की गुमटियों तक ये चर्चा पीछा नहीं छोड़ती, और तो और खुद मीडिया भी यही करता नजर आ रहा है। समाचार चैनलों पर आसानी से कोई संपादक टीआरपी का रोना रोता नजर आ जाएगा तो कोई इसे ‘आम जनता की आवाज’ भी बता डालेगा, भले हीं सवा सौ करोड़ के देश में उस आम जनता का मतलब सिर्फ 10 से 12 हजार लोग हों। इसकी भी बड़ी सटीक वजह है इन लोगों के पास, इस तथाकथित आम जनता की आवाज में इतना दम जो है, क्योंकि ये लोग दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में जो रहते हैं। यही तो हमारी मीडिया के ‘टारगेट ऑडियंस’ भी हैं, और सिर्फ मीडिया ही क्यों हमारी सत्ता भी तो ऐसा हीं मान कर चलती आई है। दूर गावों और छोटे शहरों की उस बेनाम जनता से भला इन्हें क्या सरोकार, इसलिए तो जब भूख और गरीबी से बिलबिला कर ये बेनाम लोग सड़कों पर उतरते हैं तो बेचारा इलीट मीडिया उसे आवारा और जाहिल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
जिस समाज में सत्ता से लेकर विकास की हर प्रक्रिया का केंद्रीकरण हो रहा हो वहाँ की मीडिया भी इसी भेड़चाल में चले तो मुझे कोइ ताज्जुब नहीं होता मगर सौ चूहे खाकर बिल्ली का हज पे जाना अच्छा भी नहीं लगता। आज मीडिया की खबरों से लेकर उसके प्रचार-प्रसार और स्वामित्व तक का केंद्रीकरण होता जा रहा है। बाजार को हड़पने की इस अंधी दौड़ में मीडिया का धंधा करने वाले लोग भला क्यों पीछे रहें? मीडिया में काम तलाशने वाले लोगों की प्रवृति भी ऐसी हीं संकुचित होती दिखाई पड़ती है, अखबार हो या समाचार चैनल हर रिपोर्टर आज दिल्ली में ही काम करना चाहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मीडिया के उत्पाद यानि खबरों पर भी देखा जा सकता है। अखबारों से लेकर 24 घंटे के समाचार चैनलों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन महानगरों की होती हैं और इन जगहों की छोटी घटना भी मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। स्वाइन फ्लू से भले हीं दिल्ली में गिने-चुने लोग प्रभावित हुए हों मगर इसे महीने भर खबरों में रहने का ठेका मिल जाता है। दूसरी तरफ पूर्वी उत्तर-प्रदेश में जापानी इंसेफ्लेटाईटिस से हज़ारों बच्चों की मौत भी इसे खबर नहीं लगती। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारवाद के बाद से हीं मीडिया भी सार्वजनिक हित की जगह एक लाभकारी उद्योग कहलाने के पथ पर अग्रसर होता दिखाइ पड़ता है, जिसका एकमात्र मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना रह गया है।
थोक के भाव में उग रहे समाचार चैनलों में समाचार भी पिज़्ज़ा-बर्गर की तरह एक उत्पाद बनकर रह गया है जिसमें अधिक से अधिक मसाला लगाकर लोगों को चटकारे दिलाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। समाचारों में विविधता के नाम पर जो कचड़ा परोसा जाने लगा है उसे ना तो मनोरंजन कह सकते हैं और ना हीं सूचना। समाचारों की जगह उल-जलूल दिखाने की इस सनक नें कौन जानता है कहीं राखी सावंत के स्वयंवर की अगली कड़ी में उसके सुहाग-रात को भी दिखा दिया जाए! गंभीर से गंभीर मुद्दों का सतहीकरन कर उसे सड़कछाप बहस में तब्दील कर देना तो आजकल वैसे भी फैशन सा हो चुका है और शायद इतना काफी नहीं रहता इसलिए कभी-कभी अपराधबोध भी जग जाता है जिसमें अपनी मजबूरी दिखाने का सबसे अच्छा फंडा है टीआरपी और बाजार की दुहाई देना। इस बहाव में कुछ छोटे-बड़े लोग अच्छा काम करते हैं तो तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम’ वाले उन्हें ‘डायनासोर युग’ में पहुँचा हुआ घोषित करने सें जरा भी देर नहीं लगाते। ऐसा लगता है कि मीडिया की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ने का श्रेय उसी संस्कृति की देन है जो पूँजी की सत्ता को सर्वमान्य मानकर चलती है और जिसने उपभोकतावाद को प्रचारित-प्रसारित किया है। इसके कारन समाचार और उत्पाद के बीच की रेखा इतनी धुँधली होती गई है कि समाज में मीडिया की साख और मीडिया में समाज की समझ के बीच एक गहरी खाई पैदा हुइ है जिसमें मीडिया की वास्तविक छवि भी कहीं खो गई है।

Wednesday, February 3, 2010

आईआईएमसी में स्पीक मैके का आयोजन

एक फरवरी को शाम पाँच बजे आईआईएमसी में एक स्पीक मैके का कार्यक्रम रखा गया था। इस मौके पर मोहन वीणा वादक पंडित विश्व मोहन भट्ट और पंडित रामकुमार मिश्र सादर आमंत्रित थे। आईआईएमसी के निदेशक सुनीत टंडन ने उनका अभिनंदन किया। संध्या का शुभारंभ दीप-प्रज्जवलन कर किया गया।

इस अवसर पर पंडित जी ने शास्त्रीय संगीत की खूबसूरती के बारे में छात्रों को बताया। उन्होंने कहा कि हमारे युवाओं को शास्त्रीय संगीत से जोड़ने की यह अच्छी पहल है। कार्यक्रम की शुरूआत आलाप से हुई और मोहन वीणा की झंकार श्रोताओं के दिलों में उतरती चली गई। आलाप के बाद तबले पर जब संगत शुरू हुई तो सब जैसे बँध-से गए। जब ताल द्विगुन, चौगुन होते हुए अठगुन तक पहुँच जाता तो छात्र उत्तेजित होकर ताली बजाने लगते। ताल की गति के साथ-साथ श्रोताओं के सिर भी हिलने लगे। यह एक सबसे बड़ा फर्क है हमारे शास्त्रीय संगीत और पश्चिमी संगीत में। पश्चिमी संगीत सुनते समय हमारे पैर थिरकते हैं जबकि शास्त्रीय संगीत सुनते समय हमारे सिर। उनके लिए वाद्य यंत्र केवल एक इंस्ट्रुमेंट है जबकि हमारे लिए माँ सरस्वती का दूसरा रूप।

कार्यक्रम के अंत में निदेशक सुनीत टंडन ने उन्हें शॉल भेंट की। कार्यक्रम में उपस्थित सभी प्रोफेसरों, संकाय सदस्यों और छात्रों ने खड़े होकर उनके प्रति अपना सम्मान प्रकट किया।