सबसे पहले बात भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी या आतंकवादी होने पर. पर इससे भी पहले क्रांति और आतंक शब्दों को समझने की कोशिश. भगत की नज़र में क्रांति का अर्थ विदेशी शासकों से सत्ता हासिल करना ही नहीं था. उनके शब्दों में “क्रांति का अर्थ सिर्फ उथल-पुथल या रक्त-रंजित संघर्ष नहीं होता. क्रांति में, मौजूदा हालत(यानी सत्ता) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज के सुव्यवस्थित पुनर्निमाण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अंतर्निहित रहता है. ...समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक साधनों से नहीं हो सकती है बल्कि उसे अंदर से प्रस्फुटित और विकसित होना चाहिए....”
यह 1930 के दशक में एक पीढ़ित, शोषित, दमित लेकिन संघर्षरत भारतीय का नज़रिया था. इसी समय में पल रहा दूसरा नज़रिया अंग्रेज़ी सरकार का भी था. उनके लिए भगत आतंकवादी थे. उनकी शब्दावली के हिसाब से वह आतंकवादी थे भी. लेकिन वह आतंक किसके लिए था. कौन उससे भयभीत था और किसने इस शब्द को जन्म दिया था, यह सवाल ज़्यादा अहमियत रखता है. उस समय में भी भगत को कोसने वाले भारतीयों की संख्या कम नहीं थी. वजह यह कि उन्हें आसानी से चीजें हासिल थी और यह तथ्य उनकी सेहत पर असर नहीं डाल सकता था कि शासक अंग्रेज हों या भारतीय. सवाल यह है कि आप कहां खड़े होकर सोचते है.
माओ को इतिहास में महज इसीलिए याद नहीं किया जाता कि उसने चीन में मार्क्सवादी और लेलिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर एक नये सिद्धांत माओवाद को जन्म दिया. इससे इतर यह बात मायने रखती है कि ऐसा क्यों किया गया और उसके परिफलन क्या रहे. चीन के किसानों की हालत या उस समाज में उससे क्या असर पड़ा.
एक अहम सवाल यह भी है कि सरकार या आम लोगों से आपका आशय क्या है. सरकार की और लोगों की भूमिका किसी भी राज्य में क्या होनी चाहिए. राज्य के संसाधनों पर पहला हक किसका बनता है. किसी राज्य के नागरिकों को जल-जंगल और ज़मीन जारी करने वाली सरकार कैसे हो जाती है. कहीं आपका आशय यह तो नहीं कि किसी भू-भाग में उपलब्ध संसाधनों पर सरकार का हक रहता है और वही इस बात को तय करने की स्थिति में रहती है कि किसे उसका दोहन करने दिया जाए.
आम नागरिकों से आपका आशय उन लोगों से तो नहीं जिनकी सबसे बड़ी चिंता सुबह ऑफिस जाने और रात को किस रेस्तरॉं में खाना खाया जाय की होती है. अगर हां ते हमें दुख के साथ कहना होगा कि अभी आपके आम नागरिकों को मुश्किलों के और दौर देखने बाकी हैं. कम से कम झारखंड जैसी जगहों पर जहां सरकार उग्र रूप से फैसले कर रही है कि संसाधनों पर किसका हक है. अर्जुन सेन गुप्त की रिपोर्ट में अचानक शामिल हुए करीब 70 फीसदी लोगों के लिए आपकी शब्दावली में क्या नाम है जो 20 रूपयो में रोज गुजारा करते हैं. क्योंकि वह तो ग्रेट शाइनिंग इंडिया के आम नागरिक नहीं हो सकते.
किसी राज्य के आपके विकास के पैमाने क्या हैं. वहां सड़कों, रेललाइनों, फ्लाइओवरों और एअरपोर्टों का जाल बिछा दिया जाए. वह राज्य विकास करने लगेगा. बिहार की आर्थिक प्रगति का दावा कर रहे लोगों को वहां की भूखी जनता और कुपोषित बच्चों से विकास से पहले और बाद का फर्क पूछना चाहिए.
ग्रीन हंट के बारे में आपको ऐसा क्यों लगता है कि इसके समर्थन और स्वागत में राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर समारोह होने चाहिए थे. क्या आपको इल्म नहीं है कि भारत में कई लोग अभी भी आपकी सरकार के जंगलों पर निर्भर हैं. वही जंगल उनका घर, आजीविका के साधन है. उन्हे खाने को फल, अनाज, खाना बनाने को लकड़ियां मुहैया कराते हैं. नहीं शायद वे लोग आपकी सरकार और उनकी एमएनसीज का हक छीन रहे हैं.
nice.....................................
ReplyDeleteक्या मैं इस पोस्ट का मूल प्रसंग या लिंक जान सकती हूं। तभी यहां पड़ी पोस्ट को समझ पाने में कोई समर्थ होगा।
ReplyDeleteदूसरी पोस्ट पढ़ी शायद तुम ने माओवादी बन गए हैं माफिया… का जवाब दिया है, लेंकिन इसे तो कौशल ने लिखा है तुम ने दूसरा नाम क्यों डाल रखा है।
ReplyDeletebhayanak galti ho gayi...mafi chahta hun..darasal sbse pehle ye post buzz par dekhi thi.Wahan Vibhu samvad se bhi connected hai or mene socha ki ye usne hi likha hai..nam badal diya hai..
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