आजकल हर तरफ हो रही चर्चाओं में मीडिया एक ‘हॉट टॉपिक’ बना हुआ है। कॉलेजों की कैंटीन से लेकर चाय की गुमटियों तक ये चर्चा पीछा नहीं छोड़ती, और तो और खुद मीडिया भी यही करता नजर आ रहा है। समाचार चैनलों पर आसानी से कोई संपादक टीआरपी का रोना रोता नजर आ जाएगा तो कोई इसे ‘आम जनता की आवाज’ भी बता डालेगा, भले हीं सवा सौ करोड़ के देश में उस आम जनता का मतलब सिर्फ 10 से 12 हजार लोग हों। इसकी भी बड़ी सटीक वजह है इन लोगों के पास, इस तथाकथित आम जनता की आवाज में इतना दम जो है, क्योंकि ये लोग दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में जो रहते हैं। यही तो हमारी मीडिया के ‘टारगेट ऑडियंस’ भी हैं, और सिर्फ मीडिया ही क्यों हमारी सत्ता भी तो ऐसा हीं मान कर चलती आई है। दूर गावों और छोटे शहरों की उस बेनाम जनता से भला इन्हें क्या सरोकार, इसलिए तो जब भूख और गरीबी से बिलबिला कर ये बेनाम लोग सड़कों पर उतरते हैं तो बेचारा इलीट मीडिया उसे आवारा और जाहिल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
जिस समाज में सत्ता से लेकर विकास की हर प्रक्रिया का केंद्रीकरण हो रहा हो वहाँ की मीडिया भी इसी भेड़चाल में चले तो मुझे कोइ ताज्जुब नहीं होता मगर सौ चूहे खाकर बिल्ली का हज पे जाना अच्छा भी नहीं लगता। आज मीडिया की खबरों से लेकर उसके प्रचार-प्रसार और स्वामित्व तक का केंद्रीकरण होता जा रहा है। बाजार को हड़पने की इस अंधी दौड़ में मीडिया का धंधा करने वाले लोग भला क्यों पीछे रहें? मीडिया में काम तलाशने वाले लोगों की प्रवृति भी ऐसी हीं संकुचित होती दिखाई पड़ती है, अखबार हो या समाचार चैनल हर रिपोर्टर आज दिल्ली में ही काम करना चाहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मीडिया के उत्पाद यानि खबरों पर भी देखा जा सकता है। अखबारों से लेकर 24 घंटे के समाचार चैनलों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन महानगरों की होती हैं और इन जगहों की छोटी घटना भी मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। स्वाइन फ्लू से भले हीं दिल्ली में गिने-चुने लोग प्रभावित हुए हों मगर इसे महीने भर खबरों में रहने का ठेका मिल जाता है। दूसरी तरफ पूर्वी उत्तर-प्रदेश में जापानी इंसेफ्लेटाईटिस से हज़ारों बच्चों की मौत भी इसे खबर नहीं लगती। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारवाद के बाद से हीं मीडिया भी सार्वजनिक हित की जगह एक लाभकारी उद्योग कहलाने के पथ पर अग्रसर होता दिखाइ पड़ता है, जिसका एकमात्र मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना रह गया है।
थोक के भाव में उग रहे समाचार चैनलों में समाचार भी पिज़्ज़ा-बर्गर की तरह एक उत्पाद बनकर रह गया है जिसमें अधिक से अधिक मसाला लगाकर लोगों को चटकारे दिलाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। समाचारों में विविधता के नाम पर जो कचड़ा परोसा जाने लगा है उसे ना तो मनोरंजन कह सकते हैं और ना हीं सूचना। समाचारों की जगह उल-जलूल दिखाने की इस सनक नें कौन जानता है कहीं राखी सावंत के स्वयंवर की अगली कड़ी में उसके सुहाग-रात को भी दिखा दिया जाए! गंभीर से गंभीर मुद्दों का सतहीकरन कर उसे सड़कछाप बहस में तब्दील कर देना तो आजकल वैसे भी फैशन सा हो चुका है और शायद इतना काफी नहीं रहता इसलिए कभी-कभी अपराधबोध भी जग जाता है जिसमें अपनी मजबूरी दिखाने का सबसे अच्छा फंडा है टीआरपी और बाजार की दुहाई देना। इस बहाव में कुछ छोटे-बड़े लोग अच्छा काम करते हैं तो तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम’ वाले उन्हें ‘डायनासोर युग’ में पहुँचा हुआ घोषित करने सें जरा भी देर नहीं लगाते। ऐसा लगता है कि मीडिया की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ने का श्रेय उसी संस्कृति की देन है जो पूँजी की सत्ता को सर्वमान्य मानकर चलती है और जिसने उपभोकतावाद को प्रचारित-प्रसारित किया है। इसके कारन समाचार और उत्पाद के बीच की रेखा इतनी धुँधली होती गई है कि समाज में मीडिया की साख और मीडिया में समाज की समझ के बीच एक गहरी खाई पैदा हुइ है जिसमें मीडिया की वास्तविक छवि भी कहीं खो गई है।
जिस समाज में सत्ता से लेकर विकास की हर प्रक्रिया का केंद्रीकरण हो रहा हो वहाँ की मीडिया भी इसी भेड़चाल में चले तो मुझे कोइ ताज्जुब नहीं होता मगर सौ चूहे खाकर बिल्ली का हज पे जाना अच्छा भी नहीं लगता। आज मीडिया की खबरों से लेकर उसके प्रचार-प्रसार और स्वामित्व तक का केंद्रीकरण होता जा रहा है। बाजार को हड़पने की इस अंधी दौड़ में मीडिया का धंधा करने वाले लोग भला क्यों पीछे रहें? मीडिया में काम तलाशने वाले लोगों की प्रवृति भी ऐसी हीं संकुचित होती दिखाई पड़ती है, अखबार हो या समाचार चैनल हर रिपोर्टर आज दिल्ली में ही काम करना चाहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मीडिया के उत्पाद यानि खबरों पर भी देखा जा सकता है। अखबारों से लेकर 24 घंटे के समाचार चैनलों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन महानगरों की होती हैं और इन जगहों की छोटी घटना भी मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। स्वाइन फ्लू से भले हीं दिल्ली में गिने-चुने लोग प्रभावित हुए हों मगर इसे महीने भर खबरों में रहने का ठेका मिल जाता है। दूसरी तरफ पूर्वी उत्तर-प्रदेश में जापानी इंसेफ्लेटाईटिस से हज़ारों बच्चों की मौत भी इसे खबर नहीं लगती। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारवाद के बाद से हीं मीडिया भी सार्वजनिक हित की जगह एक लाभकारी उद्योग कहलाने के पथ पर अग्रसर होता दिखाइ पड़ता है, जिसका एकमात्र मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना रह गया है।
थोक के भाव में उग रहे समाचार चैनलों में समाचार भी पिज़्ज़ा-बर्गर की तरह एक उत्पाद बनकर रह गया है जिसमें अधिक से अधिक मसाला लगाकर लोगों को चटकारे दिलाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। समाचारों में विविधता के नाम पर जो कचड़ा परोसा जाने लगा है उसे ना तो मनोरंजन कह सकते हैं और ना हीं सूचना। समाचारों की जगह उल-जलूल दिखाने की इस सनक नें कौन जानता है कहीं राखी सावंत के स्वयंवर की अगली कड़ी में उसके सुहाग-रात को भी दिखा दिया जाए! गंभीर से गंभीर मुद्दों का सतहीकरन कर उसे सड़कछाप बहस में तब्दील कर देना तो आजकल वैसे भी फैशन सा हो चुका है और शायद इतना काफी नहीं रहता इसलिए कभी-कभी अपराधबोध भी जग जाता है जिसमें अपनी मजबूरी दिखाने का सबसे अच्छा फंडा है टीआरपी और बाजार की दुहाई देना। इस बहाव में कुछ छोटे-बड़े लोग अच्छा काम करते हैं तो तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम’ वाले उन्हें ‘डायनासोर युग’ में पहुँचा हुआ घोषित करने सें जरा भी देर नहीं लगाते। ऐसा लगता है कि मीडिया की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ने का श्रेय उसी संस्कृति की देन है जो पूँजी की सत्ता को सर्वमान्य मानकर चलती है और जिसने उपभोकतावाद को प्रचारित-प्रसारित किया है। इसके कारन समाचार और उत्पाद के बीच की रेखा इतनी धुँधली होती गई है कि समाज में मीडिया की साख और मीडिया में समाज की समझ के बीच एक गहरी खाई पैदा हुइ है जिसमें मीडिया की वास्तविक छवि भी कहीं खो गई है।
No comments:
Post a Comment