Tuesday, December 7, 2010

लोकतंत्र के लिए शर्मनाक ;बसपा के नेता ने चुनाव जीतने के लिए करवाया अपहरण

उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार के शासन में अराजकता कितनी बढ गयी है इसका उदाहरण बसपा नेता पूर्व सांसद भालचंद यादव द्वारा अपने पुत्र को जिताने के लिए जिला पंचायत सदस्यों का अपहरण करना है।
रविवार को उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर जिला न्यायालय व कलेक्ट्रेट के सामने गुंडई की जो घटना हुई वह यहाँ के इतिहास में पहली बार है। दबंगों ने जिले के माथे एक कलंकित दास्तान लिख दी, जबकि डीएम व एसपी घटना से चंद कदमों की दूरी पर बैठे हुए थे। सैकड़ों पुलिस कर्मियों व भीड़ के समक्ष एक पूर्व जिला अध्यक्ष साधना चौधरी गिड़गिड़ाती व बिलबिलाती रहीं और असलहों की नोक पर दबंग उनके दो प्रस्तावकों को उठा ले गये।
भाजपा समर्थित प्रत्याशी साधना चौधरी के मुताबिक वह दोपहर 1।45 बजे अपने प्रस्तावकों समेत पैदल कलेक्ट्रेट की तरफ जा रही थी। इस दौरान दूसरे प्रत्याशी के समर्थकों ने असलहे का प्रदर्शन करते हुए उनके प्रस्तावक/जिला पंचायत सदस्य राजाराम लोधी व प्रेम नारायण को जबरिया एक लक्जरी वाहन में बैठा लिया और फरार हो गये। इसका विरोध करने पर दूसरे प्रत्याशी के समर्थकों ने साधना चौधरी के पुत्र सिद्धार्थ चौधरी व भाजपा कार्यकर्ताओं से मारपीट की।
नामांकन के बाद अपराह्न 3 बजे से हुई जांच के दौरान जिलाधिकारी द्वारा प्रस्तावक की गैरहाजिरी के सवाल पर साधना चौधरी ने बताया कि उनके प्रस्तावक को अगवा कर लिया गया है, ऐसे में उनकी उपस्थिति संभव नहीं है। उन्होंने बताया कि अपहरण के मामले में उन्होंने सदर थाने में नामजद तहरीर भी दिया है।
रविवार दोपहर ने बदनामी की जो दास्तान लिखी उससे जनपदवासी वर्षो उबरने वाले नहीं हैं। ठीक उस वक्त जब जिलाधिकारी प्रज्ञान राम मिश्र व पुलिस अधीक्षक महेश कुमार मिश्रा नामांकन कक्ष में बैठकर नामांकन कार्य में लगे हुए थे, बाहर मर्यादा की धच्जियां उड़ाई जा रही थीं। ऐसा भी नहीं था कि बाहर फोर्स की कोई कमी थी। दो पुलिस क्षेत्राधिकारी, छह थानाध्यक्ष समेत सैकड़ों पुलिस कर्मी कलेक्ट्रेट द्वार से लेकर इर्द-गिर्द मोर्चा संभाले हुए थे। यही नहीं कलेक्ट्रेट के दोनो तरफ बैरियर बनाये गये थे। बावजूद इसके दर्जनों चौपहिया वाहन भीतर कैसे पहुंचे। इसका आसान सा जवाब यही है कि बिना प्रशासनिक मिली भगत के नहीं। यही नहीं हाथों में असलहा लहराते हुए उन्होंने सारी मर्यादाएं तार-तार कर दीं। नियमत: जिले में धारा 144 लागू है। बावजूद इसके लोग एक दो नहीं बल्कि सैकड़ों की संख्या में नजर आये। इतना ही कलेक्ट्रेट परिसर के ठीक बाहर लगा पंडाल तथा वहां मौजूद दर्जनों कुर्सियां इस बात की गवाही देने के लिए काफी हैं कि सबकुछ प्रशासन की जानकारी में था। घटना के ऐन मौके पर सभी मीडिया कर्मियों को एक व्यक्ति द्वारा गुमराह किया जाना भी साजिश का एक अंग बताया जाता है। बाद में मीडिया कर्मी जब प्रेस कांफ्रेंस के लिए लोनिवि विभाग के डाक बंगले पर पहुंचे तो पता चला कि वहां प्रेस कांफ्रेंस की कोई तैयारी ही नहीं थी। आनन-फानन में जब वह लौटकर कलेक्ट्रेट परिसर के पास पहुंचे तो पता चला कि सामने असलहा लहराते हुए दबंगों की फौज, जिला पंचायत अध्यक्ष पद की भाजपा प्रत्याशी व पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष साधना चौधरी के दो प्रस्तावकों को अगवा करने में लगे हुए थे। इस दौरान कुछ मीडिया कर्मियों को दबंगो चेतावनी भी दी कि यदि उन्हें कवरेज की कोशिश की तो अच्छा नहीं होगा। जाहिर है कि सबकुछ प्री-प्लान था। इस दौरान अज्ञात दबंगों ने साधना चौधरी के पुत्र सिद्धार्थ चौधरी के ऊपर वाहन चढ़ाने की भी कोशिश की, यह और बात थी कि बगल होकर उसने अपने आप को बचा लिया।
सिद्धार्थनगर में पिछले कुछ महीनों से संतकबीर नगर के बसपा नेता पूर्व सांसद भालचंद यादव हाल ही में हुए पंचायत चुनाव में धन बल -बाहुबल से अपने पुत्र प्रमोद यादव को जिला पंचायत सदस्य बनाने में सफल रहे। इसके बाद रविवार को उनके गुंडों ने लोकतान्त्रिक मूल्यों को तार-तार कर दिया। मजे कि बात यह है कि यह सारी घटना जिले में तब हुयी जब प्रदेश सरकार के पंचायती राज्य मंत्री दद्दू प्रसाद डाक बगले पर मौजूद थे.
हालांकि जिलाधिकारी प्रज्ञान राम मिश्रा का कहना है कि पुलिस अधीक्षक से घटना की आख्या मांगी गयी है और जो भी दोषी मिलेगा, उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जायेगी।
"मशाल"

Wednesday, June 16, 2010

ऐसा था फैसले का दिन

भोपाल गैस त्रासदी में निचली अदालत का फैसला आ चुका है। फैसले से सभी लोग खफा होंगे और गुस्से में भी। लेकिन मैं यहां न तो हमारी सुस्त न्याय प्रणाली पर कोई बात दोहराना चाहता हूं और न ही एंडरसन के करोड़ों-अरबों के वारे न्यारे का जिक्र करना चाहता हूं। मैं तो बस चंद वे बातें आपसे साझा करना चाहता हूं जो मैंने पिछले तीन दिनों के दौरान महसूस की। ये सारी बातें इस भीषण त्रासदी से अलग नहीं हैं। यदि आपके पास इसके लिए भीषण शब्द से भी भीषण कोई शब्द हो तो मुझे सुझाइगा जरूर। क्योंकि यह शब्द मुझे इस त्रासदी को त्रासदी कहने के लिहाज से बहुत छोटा लगता है।

बहरहाल आज की बात है तो फैसले से ही जुड़ी हुई लेकिन उस तरह नहीं जिस तरह अखबारों में खबरें छपीं। मैं इन दिनों भोपाल में ही हूं और संयोग से मुझे गैस पीड़ितों से मिलने, उनके साथ खाने-पीने, उस इलाके को देखने और उसकी आबो-हवा को महसूस करने का मौका मिला। खबरनवीस अपनी जगह हैं, वे अपने तरीके से खबरें देते हैं। मुझे उनसे कोई शिकवा नहीं है। इस मुद्दे पर अब तक कई बुद्धिजीवियों की कलम चल चुकी है। लेकिन मैं यहां किसी खबरनवीस या बुद्धिजीवी की हैसियत से नहीं बल्कि मुल्क के एक संवेदनशील और सिस्टम द्वारा प्रताड़ित शख्स की हैसियत से ये सारी बातें आपसे साझा करना चाहता हूं। ये बातें उस वक़्त की हैं, जब अदालत में फैसले की कार्रवाई चल रही थी। ये बातें उस समय की हैं, जब लोग धारा 144 को धता बताते हुए झुंड के झुंड में अदालत के बाहर जमावड़ा लगाये हुए थे। ये बातें उस समय की भी हैं, जब मध्यप्रदेश पुलिस की इतनी हिमाकत हो गयी कि उसने वरिष्ठ पत्रकार और इस मामले में सबसे पुराने कार्यकर्ता राजकुमार केसवानी की गिरेबान तक में हाथ डाल दिया और उनके साथ धक्का-मुक्की हुई।

दरअसल फैसले की सुबह मैं भोपाल के जेपी नगर, कैंची छोला, रिसालदार कॉलोनी, राजेंद्र नगर और यूनियन कार्बाइड कारखाने के ही चक्कर लगा रहा था। ये सभी गैस से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में हैं। मैं वहां इस बात की टोह लेने पहुंचा था कि कहीं गुस्साये लोग कोई प्रदर्शन या धरने की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं। लेकिन वहां ऐसा कुछ भी नहीं था। फैसले के दिन की सुबह रोजाना जैसी थी भी और नहीं भी। जब वहां कोई धरना प्रदर्शन नहीं हो रहा था, तो बड़ा सवाल यह है कि आखिर उस सुबह वहां हो क्या रहा था।

यूनियन कार्बाइड कारखाने के सामने चिलचिलाती धूप में तपती उस औरत का वह स्टेच्यू आज जैसे अकेले ही अदालत के फैसले के इंतजार में था। यह स्टेच्यू हादसे के बाद बनाया गया था। जेपी नगर की सुबह आज कुछ ज्यादा अलग नहीं थी। रोजाना की तरह आज भी लोग अपने-अपने काम पर चले गये थे। लड़कों का झुरमुट जो शायद स्टेच्यू के पास वाली दुकान पर बैठने के लिए ही बना था, आज भी वैसे ही गपबाजी कर रहा था। वहीं पास में चौकड़ी लगाये कुछ आदमी ताशों के सहारे अपना वक्त काट रहे थे। लेकिन इन सबके बीच जेपी नगर की हवा में यूनियन कार्बाइड की 25 साल पुरानी वह गैस जैसे आज फिर से फैल रही थी। फर्क सिर्फ इतना था कि आज उसकी रफ्तार बहुत धीमी थी। दरअसल वक्त की रफ्तार के आगे वह हार मान चुकी थी।

ताश खेलते लोगों के बीच अदालत के फैसले को लेकर न तो बहुत उत्साह था और न ही बहुत ज्यादा मायूसी। उनके बीच फैसले की छुटपुट बातें तो हो रही थीं लेकिन वे तो अपना फैसला जैसे बहुत पहले ही सुना चुके थे। अब उनमें से ज्यादातर लोग उस बारे में बात करने के इच्छुक नहीं थे। घूम-फिरकर जुबां पर मुआवजे की बातें ही आ जाती थीं। तभी पास की चाय वाली गुमटी से गालियों की आवाजें सुनाई पड़ीं। गुमटी में जाकर चाय पीते हुए उनमें घुल मिल जाने पर मालूम हुआ कि ये ‘श्रीवचन’ वॉरेन एंडरसन के लिए थे। फिर मेरे अनजानेपन को दूर करते हुए 30 साल का एक नौजवान अतीत को याद करते हुए बताने लगा कि उस रात गैस को जमीन पर चलते हुए साफ देखा जा सकता था। इतने में एक दूसरा लड़का बोल उठा, तब हिंदू मुसलमान सब बराबर थे। बस लाशों के ढेरों को जलाया और दफनाया जा रहा था। उफ! वह कितना खौफनाक मंजर था। तभी तीसरा लड़का बताने लगा, अरे वह बबली याद है? कैसे वह भैंसों के बीच दबी हुई थी और अल्लाह का शुक्र है कि वो जिंदा थी। जबकि सारी भैंसे मर चुकी थीं। फिर अदालत के फैसले की बात करते हुए वे कहने लगे, एंडरसन इतना पैसा दे चुका है, अब उसे क्या सजा होगी। उस दिन के बाद वह इधर दिखाई नहीं दिया वरना उसका निपटारा तो तभी कर देते। इतने में चाय बनाने वाली अम्मा अपना दर्द बांटने लगी। वह कहने लगी कि कुछ मुआवजा मिले तो हम बूढ़े लोगों का गुजारा हो। गुमटी के बाहर जिंदगी अपनी रफ्तार से चल रही थी। बच्चे और महिलाएं पानी के लिए लाइन में लगे हुए थे। इस बीच एक फेरी वाला आ गया और वे सूट देखने में व्यस्त हो गयीं।

यूनियन कार्बाइड कारखाने में आज सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी। आम दिनों में यहां 30 सुरक्षाकर्मी होते हैं लेकिन आज इनकी तादाद लगभग 150 थी। ये कारखाने के अलग अलग दरवाजों पर खाटों पर आराम फरमाते हुए पहरेदार थे। हालांकि एएसआई वीके सिंह इस बात से इनकार करते हैं कि इतनी सुरक्षा आज ही बढ़ायी गयी है। उनके मुताबिक रोजाना इस कारखाने की सुरक्षा में इतने ही लोग रहते हैं। जबकि दो दिन पहले ही कारखाने के सुरक्षाकर्मियों ने मुझे बताया था कि यहां रोजाना 30 लोगों की ड्यूटी रहती है।

कैंची छोला में अपनी दो जून की रोटी के लिए राशन की लाइन में लगे लोग सार्वजनिक बात से बेखबर दिखाई दिये कि अदालत का कोई फैसला भी आने वाला है। उनके बीच पड़ोसियों के झगड़े और काम धंधे की बातें होती रहीं। लगभग यही हाल राजेंद्र नगर इलाके का भी रहा। हां, छोला फाटक से दस कदम की दूरी पर एक मिठाई की दुकान पर लोगों में उत्सुकता थी कि फैसला क्या हुआ। सवा बारह से साढ़े बारह बजे तक आने वाला हर आदमी पूछ रहा था क्यों क्या फैसला हुआ। कयास लगाये जा रहे थे, जुर्माना हुआ होगा। उनके पास सिर्फ इतनी खबर थी कि फैसला आ चुका है। वे टीवी पर पल पल की खबर देखना चाहते थे लेकिन मजबूर थे, बिजली नहीं थी।

रिसालदार कॉलोनी पहुंचते पहुंचते एक बज चुका था। गलियों में इक्का दुक्का लोग ही बैठे नजर आये। यहां भी आज का फैसला किसी बड़ी चर्चा का विषय नहीं बन पाया था। शब्बन चचा ने बताया कि लोगों में हल्की फुल्की बातें तो सुबह हो रही थीं कि आज फैसला आने वाला है। लेकिन उसके बाद सभी अपने अपने काम पर निकल गये। उनका कहना था कि जब कोई मुआवजा ही नहीं तो फिर किस बात का फैसला। वहीं रिसालदार कॉलोनी के सुमित की दुकान लड़कों का अड्डा बनी हुई है। इस दुकान पर कानूनी पेचीदगियों की बातें सुनने को मिलीं। वहां चर्चा हो रही थी कि सजा ज्यादा से ज्यादा तीन साल की हो सकती है। उसके बाद भी वे अपील कर सकते हैं। तो फैसला किस बात का। बस जल्दी से जल्दी मुआवजा मिलना चाहिए। वैसे भी समय निकलता जा रहा है, तो सजा का कोई मतलब नहीं रहा। इनके बीच भी बिजली न होने का अफसोस दिखाई दिया। अब सभी को एक साथ तीन चीजों का इंतजार था। दो बजने का, बिजली आने का और भोपाल के गुनहगारों को हुई सजा सुनने का।

यह पोस्ट मोहल्ला लाइव पर प्रकाशित हो चुकी है.

Thursday, May 20, 2010

लौट कर आना नीरू

कविता समर्पित हैं हमारी पूर्व साथी निरुपमा को जो हमारे बीच हो कर भी हैं


लौट कर आना नीरू
तुम चली गई यूँ ही सबसे रूठ कर
बिना कुछ कहे बिना कुछ बोले बिना लड़े
तुम चली गई नीरू
तुम्हे जाना पड़ा जानती हो क्यूँ
मैं जानती हूँ नीरू क्यूंकि मैं भी तुम्हारी ही तरह औरत हूँ
तुम्हे जाना पड़ा क्यूंकि तुम समर्थ थी स्वतंत्र थी
तुम थी एक सोच लिए तुम्हारी अपनी पसंद थी
इसका कर्ज तुमने चुकाया और चुकाना भी था
क्यूंकि तुम एक औरत थी ना नीरू
लेकिन तुम आना, फिर से आना नीरू
और मैं जानती हूँ
तुम आओगी, तुम लौट कर आओगी मुझ में
हर उस लड़की में जो तुम जैसी है
मासूम निष्पक्ष अपने दम पर जीने की चाह लिए
तुम आओगी उन हजारो आँखों में
जो तुम्हारी चमकीली आँखों सी चमक लिए है
तुम आओगी उन दिलों में जो तुम सी चाह लिए हैं
उन पंखो में जो तुम्हारी तरह उड़ने को तैयार खड़े हैं
तुम आओगी नीरू
लौट कर आना नीरु

'स्मिता मुग्धा
दैनिक भास्कर

Tuesday, May 18, 2010

आतंकवादी हैं नक्सली


बस अब बहुत हुआ....अब हम और कत्लेआम नहीं देख सकते....अभी पिछले हमले के बारे में लिखते हुए स्याही भी नहीं सूखी थी कि एक बार फिर नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में ही 40 लोगों को मौत के घाट उतार दिया....नक्सलियों ने जवानों के साथ-साथ आम लोगों से भरी बस को लैंड माइन ब्लास्ट में उड़ा दिया....बस में सवार लोगों के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए....लेकिन कब तक आखिर कब तक ये सिलसिला इस कदर चलता रहेगा....आखिर कब तक नक्सली खूनी खेल खेलते रहेंगे....अगर अब भी सरकार नहीं चेती तो इसका परिणाम बेहद भयावह होगा....नक्सलियों को अपना आदमी अपना आदमी मानकर उनके खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा....लेकिन कोई उनसे ये पूछे कि क्या अपना आदमी अपने आदमी के सीने पर बंदूक चला सकता है....क्या अपने आदमी को ब्लास्ट से उड़ा सकता है....शायद नहीं अगर कोई वास्तव में अपना आदमी होगा तो वो ऐसा नहीं करेगा....वास्तविकता यही है कि नक्सली अपने आदमी नहीं हैं....नक्सली आतंकवादी बन चुके हैं....वो बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं....जिस विचारधारा को लेकर वो अपना अभियान चला रहे हैं....अब वो विचारधारा बहुत दूर जा चुकी है....जो लड़ाई नक्सली लड़ रहे हैं....वो जल, जंगल और जमीन की लड़ाई नहीं वो सत्ता हथियाने की लड़ाई है....जल, जंगल और जमीन की आड़ लेकर नक्सली सरकार के समांतर अपने आप को खड़ा करना चाहते हैं....जैसा नेपाल में देखने को मिल रहा है....कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि सरकार आदिवासियों से उनकी जमीन छीन रही है....कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है....लाल डोरा के अंतर्गत आने वाले इलाकों में विकास कार्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा....अलग-अलग लोगों पर नक्सलियों के खिलाफ सहानुभूति दिखाने के लिए अपने अलग-अलग तर्क हो सकते हैं....माना नक्सलियों के ये तर्क वाजिब हैं....अगर किसी से उसका घर, जमीन छिनी जाएगी तो बेशक वो हथियार उठाने को मजबूर हो सकता है....लेकिन बेगुनाहों का खून बहाना कहां तक उचित है....सत्ता बंदूक की नली से होकर गुजरती है....नक्सली माओ के इस कथन को लेकर भले ही अपनी लड़ाई लड़ रहे हों....लेकिन वो शायद इस बात से अंजान हैं कि वर्तमान दौर में सत्ता बंदूक की नली से होकर नहीं गुजरती....विशेषकर एक लोकतांत्रिक देश में सत्ता और बंदूक के बीच कोई संबंध नहीं होता....सरकार की इच्छाशक्ति की देर है वरन् आज नहीं तो कल सरकार इन आतंकवादियों के खिलाफ सेना के इस्तेमाल को हरी झंडी दे ही देगी और उसे दे देनी चाहिए....बस ज्यादा वक्त नहीं लगेगा नक्सलियों का सफाया करने में....आखिर कब तक हम अपने जवानों का खून पानी की तरह बहते देखेंगे.....


अमित कुमार यादव

Monday, May 10, 2010

वक्त करवट लेता है

निरूपमा की मौत के मामले में अब मीडिया ट्रायल शुरु हो गया है....निरूपमा जिसकी कोई उपमा नहीं है

उसे तरह-तरह की उपमाएं दी जाने लगी हैं....साथ ही प्रियभांशु को भी बख्शा नहीं जा रहा....इस मामले में अब मीडिया ट्रायल शुरु हो चुका है....वो प्रियभांशु रंजन जो मीडिया ट्रायल पर आईआईएमसी में किए एक नाट्य मंचन का हिस्सा था....आज वो खुद मीडिया ट्रायल का शिकार हो चुका है....निरूपमा की मौत का मामले जब प्रकाश में आया तो प्रियभांशु को निरुपमा का दोस्त बताया गया....हर चैनल प्रियभांशु को निरुपमा का दोस्त लिखकर संबोधित कर रहा था....कहानी धीरे-धीरे आगे बढी और चैनल वालों को इसमें मसाला दिखने लगा....निरुपमा का दोस्त अब निरुपमा का प्रेमी, निरूपमा का आशिक बन चुका था....यही नहीं मीडिया प्रियभांशु को ही कठघरे में खड़ा करने लगा....कई चैनलों ने अपने पैकेज में चलाया....कठघरे में आशिक....आशिक पर कसा शिकंजा....मीडिया से पूछा जाना चाहिए कि प्रेमी, आशिक जैसे फूहड़ शब्दों का प्रयोग करना कितना जायज है और किसने हक दिया इन चैनलों को जो प्रियभांशु को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं....मुझे याद आ रहा है आईआईएमसी का वो नाटक जब एक मीडिया ट्रायल की एक सत्य घटना पर आधारित कहानी पर हमने एक नाट्य मंचन का आयोजन किया था....प्रियभांशु इस नाटक में टीवी एंकर की भूमिका में था और मैं इस नाटक में रिपोर्टर का किरदार निभा रहा था....इस नाटक में हमने दिखाने की कोशिश की थी कि कैसे मीडिया एक दंपत्ति की मौत का कारण बन जाता है....एक लड़की अपने मामा पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगाती है....ये खबर मीडिया में हाथों-हाथ ली जाती है और शुरु होता है मीडिया ट्रायल....मीडिया मामा पर आरोप साबित होने से पहले ही उसे वहशी मामा, दरिंदा मामा कहना शुरु कर देता है....नतीजा बदनामी के डर से लड़की के मामा-मामी आत्महत्या कर लेते हैं....लेकिन बाद में जब वास्तविकता से पर्दा उठता है तो सबके होश उड़ जाते हैं....इस मामले में मामा बिल्कुल बेगुनाह निकलता है....वो लड़की जो अपने मामा पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगा रही थी वो एक लड़के के साथ शादी करना चाहती थी और मामा इस शादी के खिलाफ थे....इसके चलते उसने ये सारा नाटक रचा....लेकिन इसमें मीडिया की जो भूमिका रही वो कई सवाल खड़े करती है....आखिर मामा-मामी की मौत का जिम्मेदार कौन था....क्या वो मीडिया नहीं था जिसने मामा को जमाने के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा....कभी-कभी वक्त कैसे करवट लेता....कल तक जो प्रियभांशु मीडिया की इस गंदगी को पर्दे पर पेश करने की कोशिश कर रहा था....आज वही प्रियभांशु खुद गंदमी का शिकार हो रहा है....

Wednesday, May 5, 2010

एक थी निरूपमा


आज मेरी जुबान लड़खड़ा रही है....मेरे गले से शब्द नहीं निकल रहे....मैंने कभी नहीं सोचा था कि अपने बीच से ही किसी को खबर बनते देखूंगा....कल तक जो निरुपमा मेरी एक दोस्त हुआ करती थी और दोस्त से ज्यादा मेरे करीबी दोस्त प्रियभांशु की होने वाली जीवनसंगिनी यानि हमारी भाभी....आज वो साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है....मेरे सामने उसी निरुपमा पाठक की स्टोरी वाइस ओवर के लिए आती है....एक आम स्टोरी की तरह जब मैं इस स्टोरी को अपनी आवाज में ढालने की कोशिश करता हूं तो मेरी जुबान लड़खड़ाने लगती है....मेरे गले से शब्द नहीं निकलते....इस स्टोरी को पढ़ता-पढ़ता मैं अपने अतीत में लौट जाता हूं....मुझे याद आने लगते हैं वो दिन जब आईआईएमसी में प्रियभांशु और निरुपमा एकांत पाने के लिए हम लोगों से भागते-फिरते थे और हम जहां वो जाते उन्हें परेशान करने के लिए वही धमक जाते....हमारा एक अच्छा दोस्त होने के बावजूद प्रियभांशु के चेहरे पर गुस्से की भंगिमाएं होतीं लेकिन हमारी भाभी यानि नीरु के मुखड़े पर प्यारी सी मुस्कान....हम नीरु को ज्यादातर भाभी कहकर ही बुलाते थे हालांकि इसमें हमारी शरारत छुपी होती थी....लेकिन नीरु ने कभी हमारी बातों का बुरा नहीं माना....उसने इस बात के लिए हमें कभी नहीं टोका....नीरु गाती बहुत अच्छा थी....हम अक्सर जब भी मिलते थे नीरु से गाने की फरमाइश जरुर करते और नीरु भी हमारी जिद को पूरा करती....शुरुआती दिनों में हमें इन दोनों के बीच क्या पक रहा है इस बारे में कोई इल्म नहीं था....बाद में एक दिन प्रियभांशु जी ने खुद ही नीरु और अपने सपनों की कहानी हमें बतायी....दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते थे....दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते थे....दोनों अपने प्यार की दुनिया बसाने के सपने संजो रहे थे....मजे की बात ये कि प्रियभांशु बाबू भाभी की हर बात मानने लगे थे....आईआईएमसी के दिनों प्रियभांशु बाबू और मैं सुट्टा मारने के आदि हुआ करते थे....एक दिन जब मैंने प्रियभांशु से सुट्टा मारने की बात कही तो उसने ये कहते हुए मना कर दिया कि नीरु ने मना किया है....मतलब प्रियभांशु पूरी तरह से अपने आप को नीरु के सपनों का राजकुमार बनाना चाहता था....वो क्या चाहती है क्या पसंद करती है प्रियभांशु उसकी हर बात का ख्याल रखता....हालांकि उस वक्त हम उसे अपनी दोस्ती का वास्ता देते लेकिन तब भी वो सिगरेट को हाथ नहीं लगाता.....अचानक वॉइस ओवर रुम के दरवाजे पर थपथपाने की आवाज आती है....मैं एकदम अपने अतीत से वर्तमान में लौट आता हूं....वर्तमान को सोचकर मेरी रुह कांप उठती है....मेरी आंखें भर आती हैं....टीवी स्क्रीन पर नजर पड़ती है और उस मनहूस खबर से सामना होता है कि वो हंसती, गाती, नीरु अब हमारे बीच नहीं है....समाज के ठेकेदारों ने उसे हमसे छीन लिया है....नीरु अब हमारी यादों में दफन हो चुकी है....नीरू साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है....वो मर्डर मिस्ट्री जिससे पर्दा उठना बाकी है....क्यों मारा गया नीरु को....किसने मारा नीरु को....आखिर नीरु का कसूर क्या था ?....क्या अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनना इस दुनिया में गुनाह है....क्या किसी के साथ अपनी जिंदगी गुजारने का सपना देखना समाज के खिलाफ है....हमें मर्जी से खाने की आजादी है....मर्जी से पहनने की आजादी है....मर्जी से अपनी करियर चुनने की आजादी है तो फिर हमें इस बात की आजादी क्यों नहीं है कि हम किस के साथ अपनी जिंदगी बिताएं....आज ये सवाल मुझे झकझोर रहे हैं....

Monday, May 3, 2010

हरित क्रांति

हरित क्रांति के सन्दर्भ में मेरे द्वारा जो भी बात कही गयी है, उन सबसे यंही निष्कर्ष निकलता है कि देश को कृषि क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति कि जरुरत है..

Friday, April 30, 2010

आर, टीवी बैच की निरुपमा नहीं रही

मैं इस समय अपने बेंगलुरू के ऑफिस में बैठी ये पोस्ट लिख रही हूं। आज सवेरे ही पता लगा कि हमारे बैच की एक साथी निरुपमा पाठक ने अपने घर पर आत्महत्या कर ली। निरुपमा पाठक या नीरू आर, टीवी बैच की भोली सी लड़की थी। हमारे हिंदी बैच के ज्यादातर साथी उसे प्रियभांशु रंजन की दोस्त के रूप में जानते थे। हम सभी जानते थे कि वह दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं। पता तब भी था कि दोनों के जीवन की राहें उनके साथ रहने के फैसले के बाद रपटीली हो जाएंगी। लेकिन ये नहीं पता था कि ये समाज उन्हे जीने भी नहीं देगा।

 नीरू के बारे में आत्महत्या की खबरें आ रही हैं । नीरू बिजनेस स्टैंडर्ड इंग्लिश की एक पत्रकार थी। वह किसी गांव, कस्बे की भोली, असहाय, परिवार पर निर्भर लड़की नहीं थी। जिसके पास अपने परिवार का तालिबानी फरमान मानने के अलावा कोई चारा ना रहा हो।  इसलिए यह मसला आत्महत्या से ज्यादा कहीं और कुछ प्रतीत होता है। वह आत्म-निर्भर थी। अपने फैसले लेने का उसे पूरा हक था। जाहिर है इस शिक्षा और संस्कार ने ही उस में अपने फैसले खुद लेने की योग्यता भरी थी। वही लड़की जब दिल्ली से अपने माता-पिता को मनाने घर जाती है तो इतनी कमजोर हो जाती है कि आत्महत्या का निर्णय ले लेती है। ये बेहद आश्चर्यजनक है। 

मुझे यहां बेंगलुरू में बैठ कर मोहल्ला और भड़ास फॉर मीडिया के माध्यम से जो खबरें मिलीं। उस से मुझे लगता है कि मामला सिर्फ इतना नहीं है। पोस्ट मार्टम रिपोर्ट आने के बाद ही पता चलेगा कि असली बात क्या है? लेकिन हम सब जो पूरा साल प्रियभांशु और नीरू की प्रेमकहानी के गवाह रहे हैं। उनसे ये अपील है कि इस मामले को दबने ना दें। शायद यही वह इकलौती चीज है जो हम नीरू के लिए कर सकते हैं। 

स्वागत का टेक्स्ट बदला


मित्रों!

आप सभी ने ' इसमंच का क्या करें ' वाली पोस्ट पढ़ी होगी। कुछ महत्वपूर्ण सुझाव आये हैं । आज से स्वागत का टेक्स्ट बदल दिया गया है ।

सुझाओं का अब भी स्वागत है।

संवाद

Wednesday, April 28, 2010

सब अपनई हयेन

मैंने अपने मित्र अरविन्द का एक लेख पढा जिसमें भारत की विद्वानों की यूनीवर्सिंटी माने जाने वाली जेएनयू में बदलते राजनैतिक बहार की महक महसूस हुई। सच में बदलाव ही किसी प्रक्रिया की व्यवहारिकता है। हम सभी किसी न किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं उस विचारधारा के समर्थक होने के नाते हमारा उस विचारधारा के प्रति झुकाव भी जायज है लेकिन उस विचारधारा के चलते हम मानवीयता के पैमानों को भूल जायें ये कौन सी विचारधारा का हिस्सा है। राजनीति में तो मानवीय पहलू ही केंद्र में होते हैं अगर आदिवासीयों के हक की लड़ाई लड़ रहे लोग मानवीयता की दुहाई देते हैं तो दंतेवाड़ा में मारे जाने वाला सिपाही कौन हैं । आखिर मानवीयता का कौन सा पैमाना इस हिंसा को जायज ठहरा सकता हैं। दंतेवाड़ा की हिंसा को किसी भी कीमत पर सहीं नहीं कहाँ जा सकता है। अभी हिन्दुस्तान की ओर से हमें लखनऊ भेजा गया हैं और दंतेवाड़ा में मारे गयें जवानों में से 42 उत्तर प्रदेश के थे और उन में से 25 जवानों के पार्थिव शरीर को अमौसी हवाई अड्डे पर उतार कर उनके गृह जनपदों को भेजा जाना था तो हमें भी मौका मिला वहाँ जाने का । बड़ा ही खामोश मंजर था सच में 400 से 500 की भीड़ के बाद इतनी खामोशी मैनें अपने जीवन में कभीं नहीं महसूस की, एक एक करके 25 शवों के बाद विचारशून्यता सी स्थिति न कोई भाव न कोई नक्सलवाद की बहस का विचार सिर्फ एकटक उनकी ओर निहारता रहा जो वहाँ थे ही नहीं। नया नया पत्रकार तो खबर लिखनी ही थी तो कुछ ऐसा लिखनें की इच्छा थी जो सच्चे चित्र उभार सके, तो देखा कि पास में कुछ महिलाएं रो रहीं है सारा मि़डिंया का मुँह उन्हीं की ओर सबने समझा किसी शहीद के परिवारी जन होगें । पहला सवाल आप का कोई परिवारीजन इसमें हैं कया ? जवाब मिला “सब अपनई त हयेन” इसके बाद किसी ने कुछ नहीं पूछाँ। सच में ये मानवीय पहलू हैं जिसें हमें समझना होगा।

Monday, April 19, 2010

'मेरी फितरत ऐसी तो नहीं थी'

इंसान के लिए इंसान के पास वक्त नहीं....बस सब एक-दूसरे से दूर भागने में लगे हैं और आज मैं भी उन लोगों की जमात में शामिल हो गया हूं जो किसी को मरता देखकर भी उसकी मदद करने के बजाय मुंह उठाकर आगे बढ़ जाते हैं....दोपहर के करीब ढाई बजे थे....मैं रिंग रोड पर चिड़ियाघर की रेड लाइट के पास से गुजर रहा था....तभी अचानक मेरी नजर सड़क किनारे पड़े एक युवक पर पड़ी....वो सड़क के किनारे खून से लथपथ पड़ा था....उसके सिर से लगातार खून बह रहा था और उसके आसपास की सड़क खून से लाल हो चुकी थी....लोग उसे देखकर रहम की आह भरकर आगे बढ़ते जा रहे थे लेकिन किसी ने इतनी जहमत नहीं उठाई कि वो उस इंसान की मदद करें....जबकि वो इंसान अपनी आखिरी सांसें गिन रहा था....एकाएक मेरे दिल में ख्याल आया कि मैं रुककर इस शख्स की मदद करुं....लेकिन उसी क्षण मेरे अंदर एक और आवाज आई और उसने मुझसे कहा आखिर क्या जरुरत पड़ी है पंगा मोल लेने की....सड़क पर इतने लोग हैं न कोई तो रहम खाकर इसकी मदद कर ही देगा....ये सोचते हुए मैंने अपनी बाइक की रफ्तार और तेज कर दी और मैं वहां से आगे बढ़ गया....बाइक चलाने के दौरान भी वो शख्स मेरी आंखों के आगे घूम रहा था....वही खून से लथपथ पड़ा शख्स बार-बार मुझे झकझोर रहा था....मुझे लगता था कि कहीं वो शख्स मर तो नहीं जाएगा....अब मैं अपने आपसे सवाल करने लगा कि आखिर क्यों मैंने इस शख्स की मदद नहीं की....क्यों मैंने सड़क किनारे जिंदगी के लिए जूझ रहे उस इंसान पर रहम नहीं खाया....कल को मेरे साथ भी कोई खतरनाक हादसा पेश आ सकता है....मैं भी सड़क पर खून से लथपथ जिंदगी और मौत के बीच झूल सकता हूं....ये क्या हो गया है मुझे....मैं इतना स्वार्थी कैसे हो गया लेकिन इन सवालों का जवाब मेरे पास भी नहीं....मैं खुद नहीं जानता कि आखिर मैं कैसे इतना पत्थरदिल हो चुका हूं....मेरी फितरत तो ऐसी नहीं थी....रात को बिस्तर पर जाने के बाद भी मैं खुद से यही सवाल करता रहा लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं सुझा....आज भी वो चेहरा मेरी आंखों से ओझल नहीं होता....मैं अब भी इन सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश कर रहा हूं....

Saturday, April 3, 2010

इस मंच का क्या करें




प्रिय दोस्तों !

आशा है आप सभी जहाँ भी हैं सकुशल हैं। पिछले कुछ वर्षों से संवाद के जरिये हम सब अपने को अभिव्यक्त करते रहें हैं। इसमें बुनियादी सूत्र आईआईएमसी रहा है। लेकिन आप सभी को पता होगा कि मै भौतिक रूप से आईआईएमसी में नहीं हूँ। हालाँकि इस परिवर्तन से आप सभी से लगाव में कोई फर्क पड़ा है ऐसा कत्तई नहीं है । परन्तु संवाद के परिचय में आईआईएमसी की कार्यशाला लिखकर चलाने में थोड़ी असुविधा लग रही है। क्योंकि आगामी बैच से मेरा सीधा वास्ता नहीं होगा ।

आप सभी की राय जानना चाहूँगा कि इस मंच का क्या करें ?

आप सभी के सुझाव का इंतजार रहेगा। उम्मीद है बातचीत से नयी राह मिलेगी ।

शुभकामनाओं सहित

संवाद

Saturday, March 20, 2010

उच्चारण

शिखा सिंह

 

 

 

अपनी भावनाओं ,विचारों और सूचना बताने के लिए हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। और भाषा गठन शब्दों से होता है। शब्द हमारी अभिव्यक्ति की इकाई होते हैं। हम शब्दों से ही वाक्य विन्यास होता है। वाक्य सूचना, विचार और भावनाओं को सम्प्रेषित करते हैं। यहां हम बोलकर और लिखकर सूचना सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं। जब हम बोलकर अपने संदेश को प्रेषित करते हैं, तब शब्दों का वजन बढ जाता है। हमारा संदेश किसी को कितना प्रभावित करता है। प्रभावपूर्ण संदेश संप्रेषण हमारे उच्चारण पर निर्भर करता है। उच्चारण की एक गलती पूरी बात को बदल देती है।

 

हम सभी का उच्चारण या प्रननसियेशन हमारी पृष्ठभूमि निर्धारित करता है। हम किस समाज या किस प्रदेश से आ रहे हैं जैसे ऐसा माना जाता है उत्तर भारतीय लोगों की हिन्दी काफी अच्छी होती है। वहीं पश्चिम बंगाल के लोगों का हिन्दी में बंग्ला का पुट लिए होती है। यहां मेरी चर्चा का विषय हिन्दी भाषा नहीं है बल्कि उच्चारण है। यहां मैं उच्चारण को लेकर अपनी बात आप सबके सामने रखना चाहती हूं।

 

अक्सर ये देखने को मिलता है कि एक ही शब्द को लोग अलग- अलग तरह से उच्चारण बोलते हैं। अंग्रेजी भाषा में तो सबसे ज्यादा दिक्कत आती ेहै। विटामिन को वाइटामिन, एटिट्यूड , प्रोनाउनसिएशन ऐसे ढेरे शब्द है जिनको लेकर सही उच्चारण को लेकर क्या है। कोई नहीं जानता । उच्चापण की इसी समस्या के समाधान के लिए 2000 में इन्टरनेशनल फोनेटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य यह है कि ईन्टरनेशनल भाषा का उच्चारण पूरे विश्व में एक जैसा हो। भारत, ब्रिटेन, इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया फ्रान्स हर जगह अंग्रेजी बोली जाती है। हर देश के लोग अपनी सुविधानुसार उच्चारण करते है। इसकी कई खामियाँ सामने आती है। शब्द का वास्तविक उच्चारण खो जाता है और सुविधा वाला उच्चारण हावी हो जाता है। पूरे विश्व में एक समान अंग्रेजी बोले जाने के लिए यह ऑर्गनाईजेशन फोनेटिक डिक्शनरी बना चुकी है। जिसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ अलग अलग चिन्ह बनाए गए है ये चिन्ह उच्चारण के संकेत हैं।

 

^...अ  cup  /k^p/

Double     /D^bal/

Monk       /m^nk/

^...ae

Cat        /kaet/

Stamp     /staemp/

Dad       /daed/

ये कुछ संकेत हैं जिनके माध्यम से एक समान उच्चारण किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। और अब पूरी दुनिया इस उच्चारण पर अमल कर रही है। कुछ शब्द एक समान ध्वनि के साथ बोले जाते हैं जिन्हें डिपथांग्स कहते हैं। इसका विवरण भी दिया गया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और कम्युनिकेशन के छात्रों से शुद्ध उच्चारण की आशा की जाती है।

हिन्दी भाषा में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो सही उच्चारण की पैरवी करे। इसीलिए इसमें स,श,ष,र,ड,को लेकर गलतियां बड़े पैमाने पर मतभेद बना हुआ है। और स्वान्त़: सुखाय उच्चारण अधिकतर लोग करते हैं।



Thursday, March 18, 2010

क्या भारतीय नागरिकों के जीवन की कीमत इतनी सस्ती है?


विकास की दिशा विनाशकारी हो और राजनीति का चरित्र जनविरोधी तब सत्तासीन लोगों के फैसले में इसकी झलक साफ दिख जाती है। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार आजकल अपने अत्यंत महत्वकांक्षी परमाणु दायित्व विधेयक को लेकर काफी चर्चा में है। आम आदमी का हाथ अपने साथ बताकर सत्ता में आई इस सरकार का आम आदमी के सरोकारों से कितना वास्ता है यह एक बार फिर दिखाई देने लगा है। पहले महंगाई, किसानें की दुर्दशा और शिक्षा जैसे जनसाधारण से जुड़े मुददों पर अपने तेवर दिखा चुकी यह सरकार अब लोगों की सुरक्षा से खिलवाड़ करने के पथ पर अग्रसर होती दिखाई पर रही है।
विपक्ष के भारी विरोध को देखते हुए यह सरकार फिलहाल तो इस विधेयक को पेश करने से पीछे हट गई है मगर असल सवाल तो इस विधेयक के इतने तीव्र विरोध की पड़ताल का है। इस विधेयक के इतना मुखर विरोध होने के पीछे इसका जनविरोधी चरित्र ही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस देश की जनता किसी दुर्घटना की शिकार हो उसे ही इसका हर्जाना भी उठाना पड़े! यही है इस विधेयक के कुरूप चेहरे की सच्चाई! विधेयक के पास होने की स्थिती में किसी भी दुर्घटना के बाद देनदारी की सीमा तय कर देने से सीमा के ऊपर के भुगतान में इस्तेमाल होने वाली धनराशी का बोझ भी भारतीय जनता पर पड़ेगा, जबकि आपूर्ति करनेवाली विदेशी कंपनियाँ मुक्त घूमेंगी।
जरा इस तथाकथित विकासोन्नमुखी(विनाशोन्नमुखी) विधेयक का इतिहास भी देख लेते हैँ! इसकी शुरूआत हुई वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ हुए नागरिक परमाणु समझौते के साथ। इस समझौते के तहत अमेरिकी कांग्रेस ने परमाणु व्यापार सहयोग और परमाणु अप्रसार समझौते(एनसीएएनईए) जैसी कई शर्तों के बोझ तले भारत को दबाकर रख दिया। इस समझौते की कामयाबी का ढ़ोल पीटने वाले प्रधानमंत्री ने इससे अपने प्रेम के लिए भारतीय संसद की भूमिका बिलकुल गौण बनाकर रख दी। यहाँ तक कि उन्होंने संसद को इस समझौते के विभिन्न प्रावधानों के निरिक्षण के लायक भी नहीं समझा। मुख्य समझौते पर किनारे पर रखे गए संसद को अब इस विधेयक को पास कराने का जरिया बनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि परमाणु समझौते के वक्त हीं अमेरिकी कंपनियों ने इस तरह के विधेयक की माँग की थी जिससे उन्हें देनदारी के मामले में राहतों का पिटारा मिल सके। इस सिलसिले में एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन वादों का हवाला देकर इस समझौते को बेचा गया था, उन्हें एक-एक करके तोड़ा जा रहा है। इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण पिछले महीने भारतीय रक्षा मंत्री द्वारा अपने अमेरिकी समकक्ष रॉबर्ट गेट्स से जताई गई वह चिंता है जिसमें उन्होंने अमेरिकी रक्षा संबंधी तकनीकों के निर्यात की लाइसेंस देने में की जा रही आनाकानी पर असंतोष जताया। यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2008 में किए उन दावों की पोल खोलने के लिए काफी है जिसमें उन्होंने तकनीक के क्षेत्र में सभी प्रतिबंधों के खात्मे की घोषणा कर डाली थी। 2007 में इन्ही प्रधानमंत्री ने 123 समझौता पूरा होने के बाद कहा था कि इससे भारत को परमाणु ईंधन के पुर्नसंवर्धन का अधिकार मिल जाएगा, मगर आज 2010 में भी भारत इसके लिए अमेरिका के आगे गिड़गिराता नजर आ रहा है।
इस कड़ी का सबसे हास्यासपद पहलू इस समझौते को देश की अपार ऊर्जा जरूरतों का समाधान बताया जाना है। परमाणु ऊर्जा किसी भी देश की ऊर्जा जरूरतों का समाधान कतई नहीं हो सकता है। खासकर भारत जैसे विकासशील देश के लिए तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि किसी भी परमाणु संयंत्र को लगाने में सालों लग जाते हैं और लागत भी कमरतोड़ होती है। भारत में इस समझौते के तहत बिजली पैदा करने वाले संयंत्र को पूरा होने में कम से कम 2016 तक का समय लगने की बात कही जा रही है। लेकिन संयंत्र निर्माण में लगे तीनों मुख्य देशों अमेरिका, रूस और फ्रांस की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखते हुए इसके 2020 से पहले अस्तित्व में आने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी। तीनों देशों में अग्रणी अमेरिका ने पिछले कई सालों में किसी भी संयंत्र का निर्माण नहीं किया है, जबकि रूस भी भारत के कुंडकुलम में बना रहे संयंत्र को लेकर संघर्ष करता ही नजर आ रहा है। फ्रांस की स्थिति भी सकारात्मक नहीं है। उसके दोनों संयंत्रों, जिसमें से एक उसकी जमीन पर ही बन रहा है और दूसरा फिनलैंड में, का काम समयसीमा से काफी पीछे चल रहा है और प्रस्तावित बजट से कहीं ज्यादा खर्च आने की भी संभावना है।
भारत में परमाणु संयंत्रों से बिजली पैदा करने की बात तो काफी जोर-शोर से की जा रही है मगर इस महत्वपूर्ण सवाल से बचा जा रहा है कि विदेशों से आयातित इन संयंत्रों से पैदा होने वाली बिजली पहले से महंगाई तले दबी जनता को और कितना दबाएगी। भारी मात्रा में सरकारी सब्सिडी मिलने के बावजूद 1990 में बने संयंत्र तीन रूपये प्रति यूनिट के आसपास बिजली उत्पादन कर रहे हैं जो परंपरागत बिजली दरों में भारी कटौती के दावों को खोखला साबित करता है। विदेशी संयंत्रों से मिलने वाली बिजली इस दर में भारी इजाफा करने वाली है क्योंकि इन कंपनियों को दी जानेवाली सब्सिडी का बोझ भी भारत की जनता को ही उठाना है। इन कंपनियों पर पूरी तरह मेहरबान इस अधिनियम में भारत में संयंत्र लगानेवाली कंपनियों की जिम्मेदारी को बहुत ही सीमित और हल्का बनाया गया है। दुर्घटना होने की सूरत में संबंधित कंपनी को अधिकतम 500 करोड़ रूपये का हर्जाना देकर मुक्त कर दिया जाएगा जो 1984 में हुए भोपाल गैस हादसे के पीड़ितों को मिले हर्जाने के एक चौथाई से भी कम होगा! मुआवजे की ज्यादातर जिम्मेवारी सरकार की होगी जो 2300 करोड़ रूपये से ज्यादा नहीं होगी। इन कंपनियों को कानूनी लिहाज से भी हद से ज्यादा छूट देने का प्रावधान इस विघेयक के जनविरोधी तेवर का सूचक है। विधेयक में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि हादसे के बाद इन कंपनियों को भारतीय अदालतों में नही घसीटा जा सके। मुकद्दमों का सामना करने की जिम्मेवारी भी भारत सरकार की ही होगी। उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी और देश ने कभी पेश की होगी, जहाँ अपना घर लुटाकर दूसरों की विलासिता में इजाफा करने की जल्दबाजी साफ नजर आती है! इन कंपनियों से अपना स्नेह दर्शाने के चक्कर में भारत सरकार ने अपने नागरिकों के हितों को दांव पर लगाने तक में कोई कोताही नहीं बरती है। तभी तो इन्हें बाजार की खुली प्रतिस्पर्धा से बचाने का भी पुरजोड़ प्रयास किया जा रहा है। अमेरिका, रूस और फ्रांस की कंपनियों के लिए भारत में खासतौर पर जमीन की व्यवस्था तक की गई है।
शक की सूई तब और घूम जाती है जब हम भारत के सबसे चहेते दुकानदार अमेरिका में इस सिलसिले में बने नियमों पर एक नजर डालते हैं। अमेरिका में प्राइस एंडरसन अधिनियम, 1956 लागू है जिसके अनुसार मुआवजे की राशि 48,000 करोड़ रूपये से भी ज्यादा होती है। वहाँ मुआवजे में सरकार की कोई देनदारी नही होती है और कानूनी नियम-कायदे भी बहुत सख्त हैं। जर्मनी में तो मुआवजे को किसी भी सीमा तक ले जाने का प्रावधान है। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत के नागरिकों का जीवन इन देशों के मुकाबले कोई मूल्य नहीं रखता ? क्या सरकार ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है कि वह नहीं देख पा रही है कि इन कंपनियों के भारत में व्यापार करने के उतावलेपन के पीछे का सच क्या है ? इस सिलसिले में एक और गौर करने वाली बात यह है कि 1986 में रूस के चेरनोबिल परमाणु हादसे के बाद से किसी भी देश ने इस तरह के पहल करने का उतावलापन नहीं दिखाया है। जिन देशों में सबसे ज्यादा परमाणु संयंत्र स्थापित हैं, वो भी ऐसे किसी अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व संबंधी अधिनियम का समर्थन करते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। फिर भारत की इस उतावली की क्या वजह हो सकती है ? अमेरिका, चीन, जापान, रूस जैसे देशों में इसे लेकर कोई पहल नहीं होती दिखाई पड़ रही है। यह समझा जाना बेहद जरूरी है कि इस ढ़ीले-ढ़ाले विधेयक ने अगर कानून का शक्ल अख्तियार कर लिया तो इन कंपनियों का सारा ध्यान अपना मुनाफा बढ़ाने पर होगा, जहाँ तकनीकी गुणवत्ता से समझौते भी किए जा सकते हैं। यह समय विधेयक के प्रति उतावलापन दिखाने की जगह इस बात पर जोड़ देने का है कि नागरिकों की सुरक्षा से समझौता किसी कीमत पर नहीं किया जा सकता है। वैसे भी परमाणु हादसे से होने वाली तबाही अकल्पनीय है और हमें भोपाल हादसे से मिले सबकों को ध्यान में रखना चाहिए, जो एक परमाणु हादसे के मुकाबले कुछ भी नहीं था!

मैम साहब की माया

माया मेम साहब के गले से लिपटे हजार रूपए के अशंख नोट पर छपे बापू की तस्वीर, बापू के राम राज्य का कितना घटिया प्रतिबिंब था। दलितों को हरिजन से अलंकृत करने वाले बापू ने कभी भी ऐसा नही सोचा होगा कि समाज के हासिए से उठकर इनका (दलितो) एक प्रतिनिधि अपने धन के बल पर अपनी उन्नति का प्रर्दशन करेगा। जबकि वास्तव में बापू के जीवन काल से लेकर आज तक दलितों की स्थिति में मामूली बदलाव ही हुआ है। मायावती जैसे कुछ अपवादों को छोडकर गाँवों में रहने वाले दलितों की मासिक आय कुछ हजार – 2 हजार के बीच ही है। यहाँ तक नरेगा में भले ही रिकार्ड में इनके नाम आते है कमाता कोई और है। दलितों के नाम पर आई अब तक राज्य और केन्द्र सरकार की योजनाओं ने न जाने कितने अधिकारी और नेता टाइप लोगों का विकास झटके में कर डाला लेकिन गाँव का दलित अब भी रैलियों में बैठकर इस उम्मीद के साथ ताली बजाते हुए राजनीतिक ड्रामा देखता है कि शायद इस बार छलावा न हों। लेकिन हर बार आम आदमी के हिस्सें मे छलावे के अलावा कुछ नही आता ।माया मेम साहब लगातार उन कामों को कर रही हैं जिनमें दलितो का कोई उत्थान होता नही नजर आता । अब रूपयों की माला पहन कर वो कौन सा दलित उत्थान कर रही हैं। ये कौन उनसे पूछें।
मेरा गांव बच सके तो मेरी झोपड़ी जला दो............


भारतीय गणतंत्र की साठवीं सालगिरह की सुबह नई दिल्ली का ऐतिहासिक राजपथ घने कोहरे की चादर से ढका था। 5-10 मीटर के दायरे के बाहर कुछ नहीं दिख रहा था। लोग वायुसेना के जांबाजों के आसमानी करतब नहीं देख पाये। इसके बावजूद गणतंत्र दिवस परेड भव्य थी । लोंगो ने देश की सैन्य शक्ति और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को महसूस किया।


कार्यक्रम की शुरुआत प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और कोरिया गणराज्य के राष्ट्रपति ली म्युंग के अतिथि मंच पर आगमन से हुई। इसके बाद राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रध्वज फहराया गया। बैंड द्बारा राष्ट्रगान की प्रस्तुति हुई और इक्कीस तोपों की सलामी दी गई।


सात बजे तक ऐसा लग रहा था कि मौसम साफ रहेगा और धूप खिलेगी। लेकिन सात बजे के बाद कोहरा छाने लगा। धुंध के कारण सड़क के उस पार बैठे लोगों को भी देखना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि अतिथि मंच भी नहीं दिखाई दे रहा था।

इसी मौसम में तय कार्यक्रम के मुताबिक दस बजे परेड आरम्भ हुई। परमवीर चक्र और अशोक चक्र विजेताओं के बाद घुड़सवार दस्ता राजपथ से होकर गुजरा। इसके बाद अर्जुन टैंक आया। एक-एक करके मल्टीपल रॉकेट लांच सिस्टम, इंजीनियर टोही वाहन- ‘सर्वत्र’ और संचार वाहन- ‘संयुक्ता’ का प्रदर्शन किया गया। राजपथ के दोनों तरफ लोग ही लोग दीख रहे थे। कड़ी ठंड और कुहासे के बावजूद लोगों की आँखों में उत्साह था,चमक थी। इसके बाद मार्च करती सेना की टुकड़ियाँ सामने से गुजरीं। कठोर अभ्यास से तराशी गई गति,एकता और लय अद्भुत थी।


डीआरडीओ (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) की ओर से हल्के लड़ाकू विमान तेजस, अग्नि-3 मिसाइल,शौर्य मिसइल और रोहिणी रेडार का प्रदर्शन किय गया।यह पहला मौका था जब तेजस राजपथ पर दुनिया के सामने आया। 3500 किमी रेंज की

अग्नि-3 मिसाइल को देखकर लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से राष्ट्र भावना व्यक्त की।

सांस्कृतिक झांकी मनमोहक थी। राज्यों ने संस्कृति के विशिष्ट पहलू पेश किये। राजस्थान की ओर से जयपुर की खगोलीय वेधशाला की झांकी प्रस्तुत की गयी । मणिपुर की झांकी में “हियांग तनबा” दिखाया गया। हियांग तनबा एक परंपरागत नौकादौड़ है। इसका आयोजन राज्य की समृद्धि बढ़ाने के लिए किया जाता है। बिहार की झांकी में भागलपुर के रेशम उद्योग का प्रदर्शन किया गया। कर्नाटक की झांकी में आठवीं सदी में चालुक्य राजाओं द्वारा बनवाये गए पट्टादकल मंदिरों को दिखाया गया। मेघालय ने बांस ड्रिप सिंचाई को चित्रित किया। यह सिंचाई की 200 वर्ष पुरानी पद्धति है। जिसे खासी और जयंतिया पहाड़ियों के आदिवासी किसान सुपारी,पान या कालीमिर्च के फसलों के सिंचाई के लिये प्रयोग में लाते हैं। त्रिपुरा ने अपनी झांकी में महान संगीतकार सचिन देव बर्मन को दिखाया । जम्मू कश्मीर की झाँकी में राज्य के विभिन्न शिल्पों को दिखाया गया। छत्तीसगढ़ की झाँकी में कोटमसर की प्राचीन गुफाओँ के सौन्दर्य का चित्रण किया गया। केरल की झाँकी में वहाँ के एक धार्मिक त्यौहार ‘पदयानी’का चित्रण किया गया। पदयानी मध्य केरल में देवी काली के मंदिरों मे मनाया जाता है। इसमें सभी ग्रामीण जाति,पंथ के भेदभाव के बिना सक्रिय रूप में भाग लेते हैं। उत्तराखण्ड की झांकी में कुंभ मेले को दिखाया गया । समुद्र मंथन और हर की पौड़ी का दृश्य मनमोहक था ।


विभिन्न मंत्रालयों नें भी आकर्षक झांकियां प्रस्तुत कीं । संस्कृति मंत्रालय ने अपनी झांकी में भारत के वाद्य यंत्रो को दिखाया । इस झांकी में आभूषणो से अलंकृत वीणा,घुमावदार वाद्य यंत्र घुमसा , शंख, सुशीरावाद्य ,नाथवाद्य और बोर्तल का प्रदर्शन किया गया ।

रेल मंत्रालय की झांकी में भाप के इंजन को दिखाया गया । जनजातीय कार्य मंत्रालय की झांकी में वन्य अधिकार अधिनियम 2006 के जरिए देश की जनजातीय आबादी के अधिकारों को जनजातीय महिला की जीवंत मूर्ति के माध्यम से चित्रित किया गया । युवा कार्यक्रम तथा खेल मंत्रालय ने 19 वें राष्ठ्रमण्डल के आयोजन पर अपनी झांकी प्रस्तुत की । इसमें राष्ठ्रमंडल खेल 2010 के शुभंकर ‘शेरा’और स्टेडियमों

की झलक दिखायी गई । झांकियों के बाद राष्ट्रीय वीरता पुरुस्कार विजेता बच्चे राजपथ पर आये । लोगों ने हाथ हिलाकर उनका अभिवादन किया ।

सीमा सुरक्षा बल के जवानो नें मोटर साईकिलों पर करतब दिखाये । इन्हे देखकर रोंगटे खड़े हो गये। समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ।

अब तक मौसम साफ हो गया था । धूप खिल गयी थी । विमानों द्वारा सलामी हुई और मौसम विज्ञान विभाग की ओर गुब्बारे छोड़े गये ।

पूरे कार्यक्रम के दौरान कमेंन्ट्री अच्छी रही। अंत में कमेंटेटर ने कहा –लिव इंडिया, फील इंडिया , लव इंडिया और कहा कि, “मेरा गाँव बच सके तो मेरी झोपड़ी जला दो”। यही गणतंत्र की भावना है । कुर्बालनियों के बिना कोई देश महान नहीं बनता।

गणतंत्र दिवस इसी भावना की महान याद है ।

Saturday, March 13, 2010

बच्चे पैदा करने की मशीन


औरतों को बच्चे पैदा करने चाहिएं, सियासत नहीं करनी चाहिए....कल्बे जब्बाद के इस बयान की मैं काफी इज्जत करता हूं....इस देश में सभी को अपनी राय रखने की पूरी तरह से आजादी है....तो कल्बे जब्बाद जैसा सोचते हैं उन्होंने उसी सोच के मुताबिक अपनी राय जाहिर कर दी....लेकिन अगर वो थोड़ा सा इतिहास पलटकर देखते तो शायद उनकी राय कुछ जुदा हो सकती थी....इस देश की कई महिलाओं ने देश के स्वाधीनता संग्राम में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया और देश को आजादी दिलाने में उनकी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है....अगर वो सारी महिलाएं सिर्फ बच्चे पैदा करने पर ही ध्यान देती तो देश की तस्वीर कुछ और हो सकती....इतिहास बिल्कुल अलग होता....कल्पना कीजिए सभी महिलाएं बच्चे पैदा करने पर ही पूरा ध्यान देती....तो इतिहास में उनका नाम कुछ यूं लिया जाता....उस महिला ने साल 1947 में करीब पचास बच्चों को जन्म दिया....देश की भावी पीढी के लिए एक मिसाल कायम होती और लोग उन्हें आदर्श मानकर उनके नक्शे कदम पर चला करते....किसी के पचास बच्चे, किसी के सौ बच्चे ....पता नहीं ये आंकड़ा कहां जाकर थमता....देश में महिलाओं का जो इतिहास है वो पूरी तरह से पलट जाता....देश में जहां महिलाओं के लिए संसद में 33 फीसदी आरक्षण की बात की जा रही है....ऐसे में कल्बे जब्बाद का ये बयान पूरी तरह से पुरुषों की महिलाओं के लिए संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है....लेकिन मैं कल्बे जब्बाद के इस बयान की काफी इज्जत करता हूं क्योंकि इस देश में सभी को अपनी राय रखने की आजादी है....

मीडिया में पत्रकारों की दशा

मीडिया का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है और मीडिया मालिकों की आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हुई है। पर मीडिया में काम करने वालों पत्रकारों की आमदनी में कोई भी बढ़ोत्तरी का कोई भी पैमाना नही है। श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 पत्रकारों के लिए बनाया गया जिसमें बदलते समय के साथ कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया। कोई भी मीडिया संस्थान चाहे प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन कोई भी हो, युवाओं को सपनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। सभी मीडिया संस्थानों में इंटरर्नशिप के नाम पर महीनों काम कराया जा रहा है। सबसे पहले रेडियो सिटी के विषय में आप जानिए हर महीने तीन लोगों को तीन महीनें की इंटरर्नशिप पर रखता है। मजदूरो से भी बुरी तरह काम कराया जाता है क्योंकि उन्हें इन तीन महीनो में एक भी रूप्या नहीं दिया जाता है जबकि मजदूर कम से कम अपरी दिहाड़ी तो पा जाते हैं। चैनल के लोगों को कहना है कि हम थोड़ी न बुलाते हैं लोग खुद चलकर आते हैं। मतलब साफ है कि तीन महीने जमकर कर काम कराओ और फिर तीन महीने बाद नए इंटरर्न ले लो। एक इंगलिश न्यूज चैनल न्यूज एक्स लोगो को पहले इंटरर्न के नाम पर लेता है दो महीने काम लेता है और फिर बाहर का रास्ता दिखा देता है। मीडिया की पढ़ाई करने वाले को साफ बता देना चाहिए कि यह एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम है। पढ़ाने वाले को साफ तस्वीर रखनी चाहिए। इसी बात को लेकर मेरी कई बार हमारे पूर्व शिक्षकों से काफी बात हो चुकी है। बात स्नातक के स्तर पर पत्रकारिता को लेकर थी हमनें साफ कह दिया कि स्नातक में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद कम से कम ये तो समझ जाता है कि वो खुद पत्रकारिता कर पाएगा या नहीं। बल्कि जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और पोस्ट गेएजुएट स्तर पर ही पत्रकारिता करने के बाद अपना सिर पीटते नजर आते हैं। एक सुनिश्चित करियर लोगों के लिए दूसरी राह भी खोलता है पर यहाँ एक करियर ही सुनिश्चित नजर नहीं आता है। कुछ समय पहले लोगों को मीडिया से आर्थिक मंदी के नाम पर जमकर निकाला गया। यही नहीं समूह के विस्तार के नाम पर सिर्फ़ 150 लोगों को सीएनबीसी आवाज से निकाल दिया गया। एक काम ये भी तो किया जा सकता था कि उनकी सैलरी को घटा दिया जाता। कम से कम सड़क पर आने से पहले अपने और अपने परिवार के लिए कुछ तो इंतजाम कर लेते। आपका परिवार आप पर निर्भर रहता है और आप मीडिया मालिकों पर जो पता नहीं कब लात मार कर आप को निकाल दें। आप अंग्रेजी और हिंदी के मीडिया में भी ये अंतर देख सकते हैं। लाभ सबसे ज्यादा हिंदी के मालिक कमा रहे हैं और वेतन के मामले में अंग्रेजी अखबारों से मीलों दूर दिखते हैं। काम करने की आजादी भी अंग्रेजी वाले दे रहे हैं। गलती हमसे ही कही हुई है कि हम क्यों नहीं समझ पाए कि क्या कुछ हमारे साथ हो रहा है । कट, कापी और पेस्ट की दुनिया अब सिमटी हुई तो नजर आती है पर हर सख्स परेशान सा क्यों है इसको समझना आसान होकर भी मुश्किल होता जा रहा है। देश के बाकी तीन खम्भों की हर प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है आखिर चोथे खम्बे के अर्थात क्यों पत्रकारिता में पत्रकारों की जॉब के लिए कोई नियम कानून क्यों नही बनाये गए हैं।

Wednesday, March 10, 2010

निशाँ

बदलते मौसम बदलते मंज़र
जो तुमने देखे,जो हमने देखे
बदलते तेवर ज़माने लाये
जो हमने तुमने थे साथ देखे

न हम कभी भी हुए तुम्हारे
न तुम भी थे हुए हमारे
बंधी थे तुमसे जिसके सहारे
थी मेरी सरहद मेरे किनारे

यहीं कहीं पे वो एक तुम थे,
यहीं कहीं पे वो एक हम थे
बता रहीं है बची ये सरहद
सुना रहे है बचे किनारे

न अब हो तुम ना तुम्हारी बातें
न अब हूँ में ना पुरानी यादें
बची हैं सरहद बचे किनारे
दिखा रहे है निशाँ हमारे


शिखा सिंह

Monday, March 8, 2010

हाथी की ताकत का एहसास कराएंगी माया

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भले ही 26 माह बाद होने हैं। पर चुनावों की जमीन और सत्ता पर काबिज़ होने की धमक अभी से कानों में सुनाई पड़ने लगी है। फरवरी से उत्तर प्रदेश में प्रर्दशनों की बौछार विपक्षी पार्टियों की तरफ से राज्य में शासित बहुजन समाज पार्टी के लिए एक नई मुसीबत बनती जा रही है। कानपुर में हुए बलात्कार को लेकर कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के नेतृत्व में किए गए प्रदर्शन से इसकी शुरूआत हुई । वहीं 25 फरवरी को भाजपा ने प्रदेश बंद का ऐलान कर एक नई चुनौती पेश की। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह भी पानी की मोटी बौछारों के बीच 1 मार्च को राजधानी लखनऊ में महगांई को लेकर कुर्सी पटकते नजर आए। कांग्रेस और भाजपा का प्रदर्शन समाजवादी पार्टीं को कुछ बैचेन कर रहा था तो उसने भी 8 मार्च से गाँवों मे साइकिल रैली करने की घोषणा कर कर दी है। देश के सबसे बड़े राज्य पर राज करने वाली और हाथी को लखनऊ से नोएडा तक पत्थरों में सजाने वाली मुख्यमंत्री मायावती कैसे न अपनी हनक दिखातीं। रही सही कसर उन्होनें पूरी कर दी और 15 मार्च को बसपा पार्टी के स्थापना की रजत जयंती समारोह के मनाने के बहाने लखनऊ में एक विशाल रैली का आयाेिजत करने जा रही है जिससे विरोधी दलो को अपनी ताकत का एहसास कराया जा सके और विरोधी दल किसी तरह की गफलत में न दिखें। 1984 में बनी बसपा को अपनी रजत जयंती पिछले वर्ष 2009 में ही मनानी थी लेकिन लोकसभा चुनाव होने के कारण ये समोराह टाल दिया गया था। इस वर्ष 2010 में पार्टी के संस्थापक स्वर्गीय काशीराम के जन्म दिवस के अवसर पर विशाल रैली के साथ ही रजत जयंती समारोह मनाने की घोषणा की है। माया की नजर राहुल गांधाी पर भी है और राहुल की नजर अब रायबरेली, अमेठी से आगे जाकर कैफी आजमी के शहर आजमगढ़ और सूखे की मार झेल रहे बुदेलखंड पर इनायत हो गई है। अभी हाल में ही सोनिया गांधाी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में एक पुल के शिलान्यास से मचे विवाद की गूंज भी संसद में गूंजना दोनो पर्टियों के बीच सत्ता में काबिज रहने के लिए प्रयोग किए जाने वाले हथियारों की कहानी कह रही है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के 226 विधायक हाथी पर सवार है, समाजवादी पार्टी के साइकिल के पहिए की हवा कम है पर 87 विधायक साइकिल चला रहे हैं। कमल के 48 फूल लिए भाजपा विधायक विधानसभा में हैं।कांग्रेस हाथ के पंजे के रूप में 20 विधायक और गन्ना किसानों का रस चूसने वाले राष्ट्रीय लोकदल के 10 विधायक हैं। नौ विधायकों जिसमें से कुछ बाहुबली का दर्जा पाए है को किसी पार्टी का साथ न मिला तो वो निर्दलीय ही हो गए। मायावती ने दरकिनार किया तो अपनी अलग राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाकर अपना स्वाभिमान बचाए रखे हुए आर0 के0 चौधरी हैं। डुमरियागंज की सीट अभी भी अपने विधायक के इंतज़ार में है।
सचिन यादव छात्र हिंदी पत्रकारिता भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली।

Friday, March 5, 2010

सचिन तेंदुलकर और उसका खेल महान नहीं है...

सचिन तेंदुलकर की नाबाद 200 रनों की पारी और भारत का किक्रेट के टेस्ट प्रारूप में नंबर एक और वन-डे में नंबर दो बनना भारतीय मीडिया में किक्रेट को फिर से सुर्खियां बना देता है। इसी बहाने सचिन के अंध भक्त उन्हें एक बार फिर क्रिकेट का सर्वकालिक महान खिलाड़ी बनाने के धंधे में जुट गये हैं। इसके अलावा एक और मुहिम छेड़ दी गई है, सचिन को भारत रत्न दिलवाने की। और छुपे शब्दों में ही सही सचिन ने भी इस सम्मान के प्रति अपनी चाह जता दी है। यानी लाबीईंग शुरू हो चुकी है। और संसद में यह मुद्दा उठने पर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने आपसी मतभेदों से इतर इस पर अपनी सहमति भी जताई है।

यहां पर सचिन के महान हो जाने की पड़ताल की जा रही है। एक खिलाड़ी के रूप में, हो सका तो एक भारतीय के रूप में और एक इंसान के रूप में भी। पर उससे पहले खेल के चरित्र खासकर किक्रेट के चरित्र को समझने की भी एक कोशिश। कहा जाता है कि खेल हमारे दैनिक जीवन का अति आवश्यक अंग होते हैं। यह हमारे अच्छे स्वास्थय और चरित्र(मजबूती, धैर्य, साहस, सहनशीलता आदि) निर्माण में भी सहायक होते हैं। लेकिन आज हम में से कितने लोग रोज कुछ भी खेल पाते हैं। खेल तो अब देखा और बेचा ही जाता है। बाजार प्रायोजित खेल किसी भी देश का भला नहीं कर सकते। जैसा कि सेप ब्लाटर(फीफा अध्यक्ष) का उदाहरण देते हुए प्रवीण कहते हैं कि, "फुटबाल पिछड़े और विकासशील देशों के लिए प्रगति और संपन्नता का औजार है।" सेप ब्लाटर से पूछा जाना चाहिए कि फुटबाल विश्व कप के पांच बार के विजेता और दो बार के उपविजेता, एक पिछड़े और विकासशील देश, ब्राजील का इस खेल ने कितना भला किया है। इसी तरह प्रवीण से भी पूछा जाना चाहिए कि क्रिकेट ने एशिया या भारत का, जहां इसका चरम देखने को मिलता है, कितना भला किया है।
आज भारत का हर क्रिकेट मैच खास होता है। इसे देखने के लिए लोग अपने काम के दिनों में छुट्टियां तक लेते हैं। अगर ऑफिस में ही रहना हुआ बॉस से लेकर चपरासी तक सभी लोग भेदभाव भुला कर टीवी सेट से चिपके रहते हैं। चाहे ऑफिस सरकारी हो या निजी संस्थान सभी जगह एक सा आलम रहता है। पूरी सड़कें, गलियां सुनसान हो जाती हैं। जीतने पर मिठाइयां बांटी जाती हैं। पटाखे छोड़े जाते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्रिकेट ने इस देश का कितना नुकसान किया है। हर मैच के दिन सामान्य दिनों की तुलना में कितना काम कम होता है। इस तरह से तो देश का कोई भला नहीं हो रहा और आगे भी ऐसे ही आसार हैं।
आशीष नंदी अपनी किताब 'The Tao Of Cricket' (1989) में भारत बल्कि पूरे भारतीय महाद्वीप में टेस्ट क्रिकेट के इंग्लैंड से भी ज्याद प्रचलित हो जाने के कारणों की खोज करते हैं। और इसी क्षेत्र में टेस्ट मैचों के ज्यादातर अनिर्णित समाप्त होने का कारण इन देशों के लोगों का जोखिम उठाने के बजाए भाग्य जैसी चीजों पर विश्वास और परम् संतोषी होना बताते हैं। इसी दौर में पश्चिमी देशों में ज्यादा टेस्ट मैचों के परिणाम निकला करते थे। आज स्थिति उलट है। यहां अवश्यंभावी परिणाम निकलने वाले, T-20 मैच सबसे ज्यादा पसंद किये और खेले जाते हैं। लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि अब भारतीय या भारतीय उपमहाद्वीप के लोग कर्म को भाग्य पर प्रमुखता देने लगे हैं। बल्कि क्रिकेट को तो आज धर्म कह कर प्रचारित किया जाता है। इसमें जीतने पर खिलाड़ियों को देवता और हारने पर गद्दार, कामचोर और भी बहुत कुछ कहा जाता है। आज भारतीय उपमहाद्वीप में क्रिकेट कट्टरता और अनावश्यक उन्माद के फैलते जाने का एक साधन भी बन गया है। खिलाड़ी भी महज पैसे के लिए(खेलभावना से दूर) खेलते हैं, जल्दी और ज्यादा कमाई वाले प्रारुप को चुनते हैं। बीसीसीआई और अकूत कमाई के लिए खेलते खिलाड़ी देश के खिलाड़ी, देश की शान बताए जाते हैं।
बात अगर सचिन की नाबाद 200 रन की पारी की की जाए तो वह पूर्व में दो बार ऐसा करते करते रह गये थे। एक बार न्यूजीलैंड के खिलाफ 186 रनों पर नाबाद रहे थे तो दूसरी बार ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रन बनाकर आउट हुए और प्रभाष जोशी को भी चलता कर गये। इस बार की पारी वाकई शानदार थी, लगभग बेदाग भी। लेकिन जिस बॉलिंग के खिलाफ और पिच पर यह कारनामा किया गया उसका भी इन 200 रनों में कुछ हाथ था। सचिन ने 200 रन, 147 गेंदे खर्च कर, 25 चौकों के साथ 136 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट से बनाए। वन-डे क्रिकेट में स्ट्राइक रेट का बड़ा महत्व होता है। भारतीय मीडिया ने एकिदवसीय क्रिकेट के इस पहले दोहरे शतकवीर को सिर-आंखों पर बैठाया। लेकिन सचिन से पहले भी यह कारनामा हो चुका था। अब सवाल यह उठता है कि यह सब जानते हुए भी सचिन की जय-जयकार क्यों हो रही थी। महज इसीलिए नहीं कि वह भारतीय हैं बल्कि इसीलिए भी क्योंकि वह एक पुरुष होने का विशेषाधिकार भी रखते हैं। सचिन से पहले यह कारनामा ऑस्ट्रेलिया की महिला खिलाड़ी बी.जे. क्लार्क अंजाम दे चुकी थीं। उनसे भी बेहतरीन अंदाज में। महज 155 गेदों में 147 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट से 22 चौकों के साथ नाबाद 229 रन बना कर। यह काम क्लार्क ने भारत में ही, 1997 में किया था, मगर हमें इसकी खबर नहीं है।
हो सकता हे कि हम में से कई लोग यह बात न जानते हों पर सचिन को यह मालूम न होगा ऐसा कहना बेवकूफी होगी। सचिन अगर एक महान खिलाड़ी और समझदार आदमी होते तो वह सामने आकर मीडिया के इस दोगलेपन और झूठ की पोल खोलते, लेकिन वह तो अपनी शानदार पारी, भविष्य की योजनाओं, अपने सपनों और भारत रत्न पाने की ख्वाहिश जताते ही दिखे। इस खेल में शामिल होती शारीरिक ताकत और क्रूरता हमेशा से महिलाओं को दोयम दर्जे का खिलाड़ी मानती है। वैसे भी सचिन कितने बड़े भारतीय हैं, यह उन्होंने 2002 में विदेश से उपहार स्वरूप मिली फरारी कार को भारी टैक्स से छूट दिलवा कर(बकायदा कानून में संशोधन करवा कर, 2003 में) दिखा ही दिया था। इस कारनामे का कारण वही महानता थी जो आज उन्हें भारत रत्न दिलाने के पीछे काम कर रही है।
खिलाड़ी के रूप में सचिन की तुलना ब्रेडमेन और लारा के साथ ही की जाती है(सुनील गावस्कर, रिचर्डस, स्टीव वॉ, रिकी पोंटिंग आदि अब पीछे रह गये हैं)। ब्रेडमेन और लारा दोनों क्रिकेट के सर्वाधिक मान्य प्ररूप टेस्ट के महान खिलाड़ी हैं जबकि तेंदुलकर के रिकार्ड टेस्ट में कम बेहतर हैं। ब्रेडमेन तब क्रिकेट खेलते थे जब हैलमेट और दूसरे बॉडी कवर्स ईजाद नहीं हुए थे। इसके अलावा एक दिन में सिर्फ 72 ओवरों का खेल होता था। फिर भी भी ब्रेडमेन दो बार 300 पार पहुंचे थे और एक बार तो एक ही दिन में। प्रथम श्रेणी में उनका उच्चतम स्कोर 452 नाबाद रहा था। ब्रायन लारा ने टेस्ट में 375 रन बना कर एक बारगी सभी को पीछे छोड़ दिया था। मैथ्यू हेडेन के 380 रन बनाने पर वे 400 नाबाद रन बनाकर फिर से सबसे आगे हो गये थे(अभी भी)। प्रथम श्रेणी का उच्चतम स्कोर भी उनके ही नाम है- 501 नाबाद। इनके मुकाबले सचिन का सर्वश्रेष्ठ स्कोर टेस्ट और प्रथम श्रेणी क्रिकेट में 248 नाबाद है। आंकड़े किसी को बेहतर साबित नहीं करते लेकिन टेस्ट मैचों के आवश्यक गुण विकेट पर देर तक टिकने को तो बताते ही हैं। प्रभाष जोशी के शब्दों में कहें तो ब्रेडमेन और लारा दोनों में ही सचिन से ज्यादा धारण कर सकने की क्षमता है।

Tuesday, March 2, 2010

सबसे बड़ी उपलब्धि होगी...



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किसी ने ठीक ही कहा है कि सच बोलने वाले को किसी का डर नहीं होता है। इसे जानने
के लिए हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। प्रभाष जोशी का पूरा जीवन ऐसे ही
उपलब्धियों से भरा है। सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं निजी जीवन में भी हमेशा अपने
शर्तों पर काम किया। हिन्दी पत्रकारिता को शिखर पर पहुंचाने वाले जोशी जी सदा
सक्रिय और संघर्षशील रहे। प्रभाष जोशी को प्रत्यक्ष रूप से सुनने का मौका मुझे
तीन बार मिला। उन मुलाकातों में उनको करीब से जानने का मौका मिला। उनके
व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित हुआ। उनके आदर्श और उनके जीवन को रत्तीभर भी
अपने जीवन में उतार पाया तो यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।




Sunday, February 21, 2010

धँधे की अँधी दौर में घायल होता ‘लोकतंत्र’ का ‘लोक’!

पुणे में हुए धमाके ने बहुत कुछ बदल कर रख दिया है जिसमें एक क्षणिक बदलाव शायद मीडिया के धँधे में भी दिखाई पड़ा, तभी तो आम तौर पर बड़बोलेपन की आदत के विपरीत थोड़ा संतुलित व्यवहार दिखाया गया। इस बदलाव का कारण शायद मुंबई धमाकों की गूँज का वह भूत है जो मीडिया का पीछा अभी तक कर रहा है। 2008 के मुंबई धमाकों की अपनी तथाकथित संघर्षशील रिपोर्टिंग पर हुई जग-हँसाई ने शायद इस बार भावनओं के ज्वार को फूटकर बहने से रोक लिया हो मगर आदत तो आदत होती है, छूटेगी कैसे?
अतिश्योक्ति में हर बात कहने के कीड़े ने मीडिया के धँधे को इतना प्रभावित कर दिया है कि गाहे-बगाहे इसका प्रदर्शन होना लाजमी हो ही जाता है! इस साल की शुरूआत को ही देख लीजिए, पूरी जनवरी वही चेहरा दिखता रहा है जिसके लिए वो विख्यात(कुख्यात) है। बात चाहे भाषा के मामले में फूटे तथाकथित देशप्रेम की हो या संवैधानिक अधिकारों की, मीडिया की बहसों ने इन्हें एक अलग ही रूप में ढ़ाल कर रख दिया। हर तरह की बातों में सिनेमाई नाटकीयता घुसेड़ने और सार्थक बहसों की जगह तू-तू मैं-मैं की शैली ने गंभीर से गंभीर मुददों को भी चलताऊ सा बना दिया है। संवेदनशील और देश से जुड़े सवालों को अब व्यक्तिगत बहसों में तब्दील कर दिया जाता है और इनमें घुसेड़ दिए जाते हैं कुछ पात्र जिन्हें सिनेमा की हीं तर्ज पर नायक और खलनायक की उपाधी भी दे दी जाती है। आलम ये है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नजरअंदाज किए जाने जैसे संवेदनशील मुददे, जिनसे दोनों देशों के बीच खटास और बढ़ सकती है, को खान और ठाकरे के वर्चस्व की लड़ाई तक हीं सीमित कर दिया गया। ऐसा महसूस हुआ मानो इन दोनों को देश का ढ़ेकेदार समझ बैठे हैं हमारे मीडियामानुष! एक चैनल ने तो सबसे आगे निकलने का होड़ में देश के नाम शाहरूख खान का संदेश भी जारी कर दिया जिसके तुरंत बाद ही शुरू हो गई वही पुरानी भेड़चाल!
जिस धंधे में बुँदेलखंड के विवश और लाचार लोगों की कहानी सिर्फ राहुल गाँधी और मायावती के बीच का टकराव बनकर रह जाती हो उससे ज्यादा उम्मीद करना भी तो एक तरह की नाइन्साफी ही है! खबरों के इस खेल में आज हर मुददा मुखौटों से हीं तो बिकता है चाहे वो महाराष्ट्र में क्षेत्रवाद का दंश झेल रहे लोगों की ही कहानी क्यों ना हो, जब तक युवराज का दौरा ना दिखाया जाए तो खेल में मजा कहाँ रह जाएगा? अब इसे नाटकीयता हीं तो कहेंगे ना कि जब महँगाई को लेकर सारे देश की जनता त्राहिमाम कर रही हो तब मीडिया इसे प्रधानमंत्री और कृषि-मंत्री के बयानों तक सीमित कर देता है। कुछ हिन्दी के चैनलों ने तो खुला खेल फरूक्खाबादी ही बना डाला जब मुलायम सिंह और अमर सिंह के मामले को बेवजह इतनी तूल देकर पूरी तरह मसाला लगाकर पेश किया। धारावाहिक और सिनेमा की तर्ज पर बकायदा सीन और ऐक्ट जैसे शब्दों का इस्तेमाल भी हुआ और अमर सिंह से तो गाने भी गवाए गए।
हिन्दी सिनेमा को गुरू द्रोण और खुद को एकलव्य मानने वाले मीडिया के लिए इन नाटकों को चलाने के दरमियान परेशानियाँ भी कम नहीं आती हैं। अब जैसे बीटी बैंगन के मामले को ही देख लें जहां मुखौटे के रूप में एक चेहरा तो पर्यटन मंत्री के रूप में मिल गया मगर प्रतिद्वंदी के रूप में बेचारे बैंगन को कैसे दिखाएँ टीवी पर! पात्र की इस कमी को पूरा किया गया अनाप-शनाप और ऊल-जलूल दावों और आंकड़ों की सहायता लेकर। गंभीर मुददों को दिखाने पर टीआरपी नहीं पाने वाले इस बेचारे से हमें पूरी हमदर्दी है मगर चुनाव जैसे मुददों पर भी यही रूख दिखाने की बात गले नहीं उतरती। 2009 के लोकसभा चुनावों में चुनाव लड़ने वालों में तो मुददों का अभाव समझ में आता है मगर आम आदमी को मीडिया से इतनी उम्मीद तो रहती ही है कि उसके मुददों को उठाएगा, लेकिन समाज के पहरेदारों ने बस खानापूर्ति कर अपने कर्तव्य से इतीश्री कर ली। कभी-कभी इस उद्योग की चिमनी से भी संवेदनशीलता का धुँआ उठता दिखाई पर जाता है मगर अपवाद तो हर जगह होते हैं, यहाँ भी हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ठेकेदार कहलाता है ये मीडिया उद्योग मगर वह स्वतंत्रता यहाँ काम करने वाले श्रमिकों को खुद मयस्सर नहीं है, शायद इसी वजह से इन लोगों ने आम जनता को भी इस अधिकार से महरूम रखना उचित समझा है। अगर ऐसा नहीं है तो फिर क्या कारन है कि दर्शक बेचारा कोई भी चैनल देख ले उसे शाहरूख खान से राहुल गाँधी तक ले जाया जाएगा और वापस शाहरूख पर ला कर हीं छोड़ा जाएगा। एक बात का खयाल जरूर रखा जाएगा कि दो चेहरों से लोग उब नहीं जाएँ, तभी तो बीच-बीच में आमिर खान और अमिताभ बच्चन के चेहरे भी देखने को मिल जाएँगे(आखिर चेहरा ही तो बिकता है ना!)। अब इन लोगों की गलती भी क्या है, इस धंधे में तो खुद पर हो रहे जुल्म की आवाज उठाने तक की मनाही है। दिन-रात अर्थव्यवस्था के पुनर्विकास के कलमे पढ़ने वाले इन बेचारों से कौन पूछे कि भाई जब इस तरह का विकास हो रहा है तो आप क्यों इससे अछूते रह जा रहे हैं? क्यूँ आपके सैकड़ों भाई-बँधुओं को मंदी के नाम पर बेघर किया गया और वेतन में भी मनमाने ढ़ंग से कटौतियाँ की गईं और किसी ने कोई सवाल उठाने की हिम्मत तक नहीं की? शायद इस क्षेत्र की अभिव्यक्ति भी उन्हीं चंद उद्योगपतियों की बपौती बन कर रह गई है। मुनाफा सबका बाप बन बैठा है और शेयर बाजार के ग्राफ से ही लोगों का भाग्य तय होने लगा है। सोने पर सुहागा तो तब लगता है जब यही लोग जनता को यह पाठ पढ़ाते नजर आते हैं कि मँदी तो भईया अमेरिका में आई है, भारत में तो बस आर्थिक सुस्ती का दौर चल रहा है!
अब सुस्ती है तो कुछ खुराक लेने से दूर भी होगी और हो भी रही है। एक पत्रिका की मुख्य खबर तो हमें यह समझाती भी है कि किस तरह हमारे ग्रामीण क्षेत्र के मजबूत आधार ने हमें मँदी के इस भँवर से सुरक्षित रखा और भारत पुनर्विकास के पथ पर अग्रसर भी हो चुका है। लेकिन विकास की यह धारा फिर से शहरी मीडिया तक हीं सीमित दिखाई दे रही है, वह मजबूत आधार तो फिर परदे से नदारद ही रहा। किसानों की इस अदृश्य विकास की कपोल कल्पनओं को मँच देने का बीड़ा उठाया है महाराष्ट्र के एक विकसित मीडिया घराने ने जिससे खुद सरकार के कुछ मंत्रियों का जुड़ाव है। अब यह लोग तो सच हीं बता रहे होंगे मगर खुद सरकार इन लोगों की बात से इत्तेफाक नहीं रखती है तभी तो सरकार कृषि क्षेत्र में नगण्य विकास की बातें बता रही है। जिस दिन इस तथाकथित विकास के किस्से सुनाए जा रहे थे उसी दिन राष्ट्रीय अपराध लेखा शाखा ने अपनी वेबसाईट पर 2008 में आत्महत्या करने करने वाले किसानों की सँख्या जारी की, जिसमें बताया गया कि वर्ष 2008 में 16,196 किसानों ने अपना जीवन समाप्त कर विकास की इस अवधारना पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। वर्ष 1997 से लेकर अब तक 1,99,132 किसानों के आत्महत्या का आंकड़ा शायद यही कहता है कि इन नासमझ और बेचारे लोगों के कानों तक शायद विकास की ये मँगल गाथा पहुँच ही नहीं पाई थी।
पुनर्विकास की ये गाथाएँ विरोधाभास की स्थितियाँ उत्पन्न कर देती हैं क्योंकि सरकार द्वारा जारी किए गए ढ़ेर सारी रिपोर्टें विकास की इन लकीरों को लंबवत काट देते हैं। गरीबी-रेखा को परिभाषित करने वाली सुरेश तेंदुलकर समीति की रिपोर्ट, सँयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट और कई अन्य रिपोर्ट इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि सिर्फ वर्ष 2008-2009 के दौरान इस तथाकथित आर्थिक सुस्ती ने लगभग 3.5 करोड़ लोगों को गरीबी के अभिशाप से ग्रसित किया है। इतना ही नहीं 1991 से 2001 के दौरान करीब 80 लाख लोगों ने खेती से अपना मुँह मोड़ लिया है, यानि कि हर दिन लगभग 2000 लोग। मीडिया के लिए इसके बावजूद भी विकास तो हो ही रहा है क्योंकि कारपोरेट घराने और बड़े होते जा रहे हैं और अधिग्रहन और धँधे का विस्तार तो दिन दूनी रात चौगुनी गति से हो रहा है। सावन के अँधे की भूमिका को बड़ी बेखूबी से निभा रहा है ये धँधा जहाँ हर तरफ हरियाली ही दिखाई जा रही है। उद्योग और सिनेमा की चकाचौंध भरी दुनिया में भला फटे-पुराने कपड़े पहने लोगों की तस्वीर कैसे अपील कर सकती है?
एक दौर था जब टीवी पर क्रिकेट का भूत दिन-रात सवार रहता था मगर इस खेल के औद्योगिकरण(आईपीएल) ने यह समस्या भी हल कर डाली है, अब तो सिर्फ उद्योग और सिनेमा पर पूरी एकाग्रता से ध्यान लगाने की जरूरत है! धँधे के नफा-नुकसान से हीं तो मुददों की अहमियत तय की जाती है फिर चाहे इनसे लोकतंत्र के लोक का कोई सरोकार हो या ना हो। ऐसा लगता है कि लोकतंत्र के इस तथाकथित ठेकेदार के धँधे की अँधी दौर वाली यही प्रवृति खुद इसके और पूरे तंत्र को सड़ाने में योगदान दे रही है जिसकी गँध भविष्य में दिमाग की नसें तक फाड़ दे तो ताज्जुब नहीं!

Saturday, February 20, 2010

I felt I was entitled.

I stopped living by the core values that I was taught to believe in. I knew my actions were wrong, but I convinced myself that normal rules didn't apply. I never thought about who I was hurting. Instead, I thought only about myself. I ran straight through the boundaries that a married couple should live by. I thought I could get away with whatever I wanted to. I felt that I had worked hard my entire life and deserved to enjoy all the temptations around me. I felt I was entitled. Thanks to money and fame, I didn't have to go far to find them.


एक
गोल्फ खिलाड़ी जिसने हारना कभी सीखा ही नहीं था। हमेशा शांत और शालीन दिखने वाला गोल्फ की दुनिया का धुरंधर, टाइगर वुड्स। वो टाइगर वुड्स जिसे इस खेल का भगवान कहा जाता रहा है। जिसमें कभी कोई कमी झलकी ही नहीं थी। दुनिया ने उसे संपूर्णता का परिचायक माना। और मानें भी क्यों न? अपने 13 साल के करियर में 71 बार प्रोफेशनल गोल्फ एसोशिएशन(पीजीए) टूर में जीत केपरचम के साथ गोल्फकोर्स पर 12 बड़े मुकाबलों और 70 अन्य मुकाबलों में चैम्यिपन बनकर यह साबित भी तो किया है। दुनिया भर में टाइगर वुड्स का नाम है और तमाम बड़े प्रायोजक वुड्स के साथ अपना नाम जोड़ने की जद्दोजहत में रहते हैं। टाइगर बुड्स ने अपने खेल और इससे बने अपने सार्वजनिक चेहरे से वो नाम कमाया कि मां-बाप बच्चों को टाइगर वुड्स जैसा बनने की नसीहत देते हैं।

ऊपर की पंक्तियां (अंग्रेजी में) उसी खिलाड़ी ने करीब 84 दिनों के लंबे अंतराल के बाद पहली बार लोगों के सामने आकर कही हैं। 27 नबंवर 2009 को हुई कार दुर्घटना के बाद दुनिया ने टाईगर वुड्स का वो चेहरा देखा जो पहले वाले चेहरे के बिल्कुल विपरीत था। इस गोल्फ खिलाड़ी का एक के बाद एक कई सेक्स स्केंडल में लिप्त होने का मामला सामने आया। मॉडल्स और पोर्न स्टार से लेकर वेटरेस और असिस्टेंट्स तक को इस अरवों लोगों के आर्दश माने जाने वाले खिलाड़ी ने हमविस्तर बनाया। तमाम कामुक और सेक्सी लड़कियों को हर टूर में साथ रखा। यही नहीं अश्लील एसएमएस और वॉइस मेल से भी वुड्स का यह चेहरा सामने आया। पैसे और शोहरत के दम पर लंबे समय तक इनका मुंह भी बंद रखा। मगर जब सच्चई सामने आयी तो पहला प्रहार घर टूटने के रूप में टाइगर पर हुआ। मशहूर स्वीडिश मॉडल पत्नी की अपने दो बच्चों के साथ वुड्स से अलग होने की खबरें दुनिया भर में छायीं। वुड्स की गोल्फ से बिदाई की खबरों ने भी जोर पकड़ा और यह सुनकर बड़े प्रायोजकों ने भी वुड्ससे नाता तोड़ लिया।

वुड्स का यह कथन अपने में कई बातों की ओर इशारा कर रहा है। पैसे और शोहरत के मद में चूर वुड्स भूल गए कि हर चीज की कोई सीमा होती है और सीमा के भीतर बने रहने में गरिमा भी। मगर यह भी नहीं भूला जा सकता है कि वुड्स किस समाज और संस्कृति में रहते हैं। वह अमेरिकी समाज का हिस्सा हैं जहां पूंजी और रुतवा ही असली ताकत है और यही व्यक्ति को सीमा से बाहर जाकर वुड्स माफिक कृत्य करने के लिए उकसाता है। इससे पहले साल 1998 में अमेरिकी राष्ट्रपति भी इसका उदाहरण पेश कर चुके हैं। बिल क्लिंटन ने मोनिका लॉविंसकी के साथ नाजायज रिश्तो के लिए सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी थी। एक कारण अमेरिका में पेपराजी कल्चर यानि जानीमानी हस्तियों को 24 घंटे कवर करने वाले फोटोग्राफर्स, की अति-सक्रियता भी है। सेलीब्रिटी के निजी पलों को कैमरे में कैद कर मैग्जीन के कवर पर सजाने की होड़ के चलते वुड्स और क्लिंटन जैसे चर्चित लोग इसका शिकार बनते हैं। कई लोग इसे एक इंसानी गलती भी मान रहे हैं ।


खैर जो भी हो, टाइगर वुड्स ने अपनी मेहनत से जो प्रतिष्ठा और सम्मान पाया था, उसे गहरी क्षति हुई है। निजी और सार्वजनिक जिंदगी में अंसतुलन कितना घातक हो सकता है वुड्स इसके उदाहरण हैं। अब सार्वजनिक तौर पर माफी मांग कर वुड्स ने आगे बढ़ने का मन बनाया है । माफी उन तमाम लोगों से जिन्होने टाईगर वुड्स को बनाया है। वो उस खेल के प्रशंसक हैं जिसका टाइगर बादशाह है। टाइगर वुड्स को जानते है कि खेल से इस क्षति को पूरा किया जा सकता है। यकीनन इस खिलाड़ी पर दबाव दिखेगा, संपूर्णता दिखाने का और पुराने शौर्य को पाने का ।

Monday, February 15, 2010

मुंडेर की चिरैया

यह कविता मेरे पिता को समर्पित है।

सर्दी में आते थे चुपचाप रजाई ओढा कर चले जाते थे

भाप उड़ाती गर्म चाय के साथ मैं देखती थी आपके चेहरे को
स्निग्ध शांत लेकिन ना जाने क्यों पथराई सी आँखे
और आँखों का पीलापन आसपास को भी गुदुमी पीला बना देता था
अक्सर मैंने जानने की कोशिश की आपके अन्दर के तूफान को
पर आपके बाहर की सौम्यता ने मुझे पहुँचने ही नहीं दिया वहां तक
जहाँ से मैं ढूंढ लाती उस अनदेखे एहसास को जिसने
बेवक्त ही बना दिया आपको बेहद खामोश और चुपचाप
फिर मुझे लगने लगे आप एक ऐसे माँझी की तरह
जो हर बेतरतीब लहर को कुछ और हिम्मत के साथ
कुछ अधिक शांत बनकर पार कर जाता है
में जितना आपकी आँखों की गहराईयों में उतरने की कोशिस करती हूँ
मेरी नजरें उतनी ज्यादा हिचकती हैं आपकी ओर टकटकी लगाने में
और मेरी यह आकांक्षा कुछ और मजबूत होने लगती है
कभी तो मैं आपकी आँखों में देख कर यह कह सकूँ
कि मैं आपके मुंडेर की चिरैया नहीं हूँ
मैं एक मुट्ठी ही सही चुरा कर ले आऊंगी आपके हिस्से का आकाश
और आपकी दरो - दीवारों के उपर उसे बिछा कर
आपको महफूज़ कर दूंगी
मैं आपको कभी तो आश्वस्त कर सकूँ
मैं नहीं जाऊंगी आपकी मुंडेर छोड़ कर तब तक
किसी और के आंगन का चुग्गा खाने जब तक
आपकी आँखों से फैली दरो - दीवार के पीलेपन को
थोड़ा सा ही सही कम ना कर दूँ
और उनमें भर दूँ जिंदगी से भरे चटख रंगों के कुछ छींटे ।

दोस्त kaushal, भगत सिंह एक आतंकवादी ही था

सबसे पहले बात भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी या आतंकवादी होने पर. पर इससे भी पहले क्रांति और आतंक शब्दों को समझने की कोशिश. भगत की नज़र में क्रांति का अर्थ विदेशी शासकों से सत्ता हासिल करना ही नहीं था. उनके शब्दों में “क्रांति का अर्थ सिर्फ उथल-पुथल या रक्त-रंजित संघर्ष नहीं होता. क्रांति में, मौजूदा हालत(यानी सत्ता) को पूरी तरह से ध्वस्त करने के बाद, एक नये और बेहतर स्वीकृत आधार पर समाज के सुव्यवस्थित पुनर्निमाण का कार्यक्रम अनिवार्य रूप से अंतर्निहित रहता है. ...समाजवादी समाज की स्थापना हिंसात्मक साधनों से नहीं हो सकती है बल्कि उसे अंदर से प्रस्फुटित और विकसित होना चाहिए....”

यह 1930 के दशक में एक पीढ़ित, शोषित, दमित लेकिन संघर्षरत भारतीय का नज़रिया था. इसी समय में पल रहा दूसरा नज़रिया अंग्रेज़ी सरकार का भी था. उनके लिए भगत आतंकवादी थे. उनकी शब्दावली के हिसाब से वह आतंकवादी थे भी. लेकिन वह आतंक किसके लिए था. कौन उससे भयभीत था और किसने इस शब्द को जन्म दिया था, यह सवाल ज़्यादा अहमियत रखता है. उस समय में भी भगत को कोसने वाले भारतीयों की संख्या कम नहीं थी. वजह यह कि उन्हें आसानी से चीजें हासिल थी और यह तथ्य उनकी सेहत पर असर नहीं डाल सकता था कि शासक अंग्रेज हों या भारतीय. सवाल यह है कि आप कहां खड़े होकर सोचते है.
माओ को इतिहास में महज इसीलिए याद नहीं किया जाता कि उसने चीन में मार्क्सवादी और लेलिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर एक नये सिद्धांत माओवाद को जन्म दिया. इससे इतर यह बात मायने रखती है कि ऐसा क्यों किया गया और उसके परिफलन क्या रहे. चीन के किसानों की हालत या उस समाज में उससे क्या असर पड़ा.
एक अहम सवाल यह भी है कि सरकार या आम लोगों से आपका आशय क्या है. सरकार की और लोगों की भूमिका किसी भी राज्य में क्या होनी चाहिए. राज्य के संसाधनों पर पहला हक किसका बनता है. किसी राज्य के नागरिकों को जल-जंगल और ज़मीन जारी करने वाली सरकार कैसे हो जाती है. कहीं आपका आशय यह तो नहीं कि किसी भू-भाग में उपलब्ध संसाधनों पर सरकार का हक रहता है और वही इस बात को तय करने की स्थिति में रहती है कि किसे उसका दोहन करने दिया जाए.
आम नागरिकों से आपका आशय उन लोगों से तो नहीं जिनकी सबसे बड़ी चिंता सुबह ऑफिस जाने और रात को किस रेस्तरॉं में खाना खाया जाय की होती है. अगर हां ते हमें दुख के साथ कहना होगा कि अभी आपके आम नागरिकों को मुश्किलों के और दौर देखने बाकी हैं. कम से कम झारखंड जैसी जगहों पर जहां सरकार उग्र रूप से फैसले कर रही है कि संसाधनों पर किसका हक है. अर्जुन सेन गुप्त की रिपोर्ट में अचानक शामिल हुए करीब 70 फीसदी लोगों के लिए आपकी शब्दावली में क्या नाम है जो 20 रूपयो में रोज गुजारा करते हैं. क्योंकि वह तो ग्रेट शाइनिंग इंडिया के आम नागरिक नहीं हो सकते.
किसी राज्य के आपके विकास के पैमाने क्या हैं. वहां सड़कों, रेललाइनों, फ्लाइओवरों और एअरपोर्टों का जाल बिछा दिया जाए. वह राज्य विकास करने लगेगा. बिहार की आर्थिक प्रगति का दावा कर रहे लोगों को वहां की भूखी जनता और कुपोषित बच्चों से विकास से पहले और बाद का फर्क पूछना चाहिए.
ग्रीन हंट के बारे में आपको ऐसा क्यों लगता है कि इसके समर्थन और स्वागत में राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर समारोह होने चाहिए थे. क्या आपको इल्म नहीं है कि भारत में कई लोग अभी भी आपकी सरकार के जंगलों पर निर्भर हैं. वही जंगल उनका घर, आजीविका के साधन है. उन्हे खाने को फल, अनाज, खाना बनाने को लकड़ियां मुहैया कराते हैं. नहीं शायद वे लोग आपकी सरकार और उनकी एमएनसीज का हक छीन रहे हैं.

Tuesday, February 9, 2010

माओवादी बन गए हैं माफिया…


माओ-त्से-तुंग ने चीन में मार्क्सवादी, लेलिनवादी विचारधारा को सैनिक रणनीति में जोड़कर जिस सिद्धांत को जन्म दिया उसे माओवादी कहा जाता है। भारत में माओवादी इसी विचारधारा पर चल रहें हैं। वे सरकार के खिलाफ मोर्चा संभाले हुए हैं। झारखण्ड में माओवादी माफियावादी बन गए हैं। सरकार से जारी जल जंगल जमीन की जंग के आड़ में आम नागरिक का शोषण कर रहे हैं। हाल में ही नक्सली ने लेवी का फरमान जारी किया है। फरमान के मुताबिक बड़े- छोटे सरकारी कर्मचारियों को 20 प्रतिशत वार्षिक लेवी देना होगा।

माओ साम्यवादी थे। वे वर्ग विहीन समानता लाना चाहते थे। आज नक्सली माओवादी विचारधारा अपना कर आम नागरिक की हत्या कर कौन सी समानता लाना चाहते हैं। आम नागरिकों का शोषण कर कौन सी वर्ग समानता लाना चाहते हैं। नक्सलियों की लड़ाई सरकार के खिलाफ है तो वे आम नागरिको को परेशान क्यों कर रहे हैं। आए दिन नक्सली राज्य बंद का एलान कर देते हैं। वे शायद सरकार पर दबाव बनाने के लिए बंद करवाते हैं। लेकिन इसका खामियाजा तो आम नागिरक ही भुगतना पड़ता है। झारखण्ड गठन के लगभग 10 साल होने के हैं लेकिन इन 10 सालों में लगभग दो साल झारखण्ड बंद रहा है। जिससे राज्य विकास से दो साल पीछे चला गया है।

नक्सली हथियार के बल पर क्रांति कर रहे हैं वे क्रांति नहीं आतंक फैला रहे हैं। आजादी से पहले सरदार भगत सिंह ने भी हथियार के बल पर ही देश को आजाद कराने के लिए क्रांति किया था। शहीद भगत सिंह उस समय भारतीयों के नजर में क्रांतिकारी थे और अंग्रेंजो के नजर में आतंकवादी। आज हम भारतवर्ष में रह रहे हैं। कई कुर्बानियों के बाद हमने आजादी पाई है। आज हमारा अपना संविधान है और उसके मुताबिक देश चल रहा है। आज नक्सली जो कर रहे हैं वो क्रांति नहीं आतंक है। जल जंगल जमीन की लड़ाई के बहाने नक्सली सिर्फ आतंक फैला रहे हैं।

हाल में ही झारखण्ड में सरकार द्वारा चलाए जा रहे ग्रीन हंट का नक्सलियों ने तीन दिन बंद का अह्वान कर विरोध किया। नक्सलियों द्वारा ये बंद ना तो पहला है और ना ही आखिरी। सरकार नक्सलियों पर लगाम कसने के लिए अभियान चलाते रहेंगे और नक्सली इसका विरोध राज्य बंद कर, ट्रेन की पटरी उड़ा कर या विस्फोट कर करते रहेंगे। इस लड़ाई में फतह किसी की भी हो लेकिन मारे जाएंगे गरीब मजदूर जो अपनी जीविका के लिए रोज मजदूरी करते हैं।

फोटो - गूगल

Thursday, February 4, 2010

किस ओर जा रहा है हमारा ’मीडिया’!

आजकल हर तरफ हो रही चर्चाओं में मीडिया एक ‘हॉट टॉपिक’ बना हुआ है। कॉलेजों की कैंटीन से लेकर चाय की गुमटियों तक ये चर्चा पीछा नहीं छोड़ती, और तो और खुद मीडिया भी यही करता नजर आ रहा है। समाचार चैनलों पर आसानी से कोई संपादक टीआरपी का रोना रोता नजर आ जाएगा तो कोई इसे ‘आम जनता की आवाज’ भी बता डालेगा, भले हीं सवा सौ करोड़ के देश में उस आम जनता का मतलब सिर्फ 10 से 12 हजार लोग हों। इसकी भी बड़ी सटीक वजह है इन लोगों के पास, इस तथाकथित आम जनता की आवाज में इतना दम जो है, क्योंकि ये लोग दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे शहरों में जो रहते हैं। यही तो हमारी मीडिया के ‘टारगेट ऑडियंस’ भी हैं, और सिर्फ मीडिया ही क्यों हमारी सत्ता भी तो ऐसा हीं मान कर चलती आई है। दूर गावों और छोटे शहरों की उस बेनाम जनता से भला इन्हें क्या सरोकार, इसलिए तो जब भूख और गरीबी से बिलबिला कर ये बेनाम लोग सड़कों पर उतरते हैं तो बेचारा इलीट मीडिया उसे आवारा और जाहिल साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।
जिस समाज में सत्ता से लेकर विकास की हर प्रक्रिया का केंद्रीकरण हो रहा हो वहाँ की मीडिया भी इसी भेड़चाल में चले तो मुझे कोइ ताज्जुब नहीं होता मगर सौ चूहे खाकर बिल्ली का हज पे जाना अच्छा भी नहीं लगता। आज मीडिया की खबरों से लेकर उसके प्रचार-प्रसार और स्वामित्व तक का केंद्रीकरण होता जा रहा है। बाजार को हड़पने की इस अंधी दौड़ में मीडिया का धंधा करने वाले लोग भला क्यों पीछे रहें? मीडिया में काम तलाशने वाले लोगों की प्रवृति भी ऐसी हीं संकुचित होती दिखाई पड़ती है, अखबार हो या समाचार चैनल हर रिपोर्टर आज दिल्ली में ही काम करना चाहता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मीडिया के उत्पाद यानि खबरों पर भी देखा जा सकता है। अखबारों से लेकर 24 घंटे के समाचार चैनलों में पचास फीसदी से ज्यादा खबरें इन महानगरों की होती हैं और इन जगहों की छोटी घटना भी मीडिया में बड़ी खबर बन जाती है। स्वाइन फ्लू से भले हीं दिल्ली में गिने-चुने लोग प्रभावित हुए हों मगर इसे महीने भर खबरों में रहने का ठेका मिल जाता है। दूसरी तरफ पूर्वी उत्तर-प्रदेश में जापानी इंसेफ्लेटाईटिस से हज़ारों बच्चों की मौत भी इसे खबर नहीं लगती। नब्बे के दशक में शुरू हुए नवउदारवाद के बाद से हीं मीडिया भी सार्वजनिक हित की जगह एक लाभकारी उद्योग कहलाने के पथ पर अग्रसर होता दिखाइ पड़ता है, जिसका एकमात्र मकसद अधिकतम मुनाफा कमाना रह गया है।
थोक के भाव में उग रहे समाचार चैनलों में समाचार भी पिज़्ज़ा-बर्गर की तरह एक उत्पाद बनकर रह गया है जिसमें अधिक से अधिक मसाला लगाकर लोगों को चटकारे दिलाने का भरपूर प्रयास किया जाता है। समाचारों में विविधता के नाम पर जो कचड़ा परोसा जाने लगा है उसे ना तो मनोरंजन कह सकते हैं और ना हीं सूचना। समाचारों की जगह उल-जलूल दिखाने की इस सनक नें कौन जानता है कहीं राखी सावंत के स्वयंवर की अगली कड़ी में उसके सुहाग-रात को भी दिखा दिया जाए! गंभीर से गंभीर मुद्दों का सतहीकरन कर उसे सड़कछाप बहस में तब्दील कर देना तो आजकल वैसे भी फैशन सा हो चुका है और शायद इतना काफी नहीं रहता इसलिए कभी-कभी अपराधबोध भी जग जाता है जिसमें अपनी मजबूरी दिखाने का सबसे अच्छा फंडा है टीआरपी और बाजार की दुहाई देना। इस बहाव में कुछ छोटे-बड़े लोग अच्छा काम करते हैं तो तथाकथित ‘मेनस्ट्रीम’ वाले उन्हें ‘डायनासोर युग’ में पहुँचा हुआ घोषित करने सें जरा भी देर नहीं लगाते। ऐसा लगता है कि मीडिया की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ने का श्रेय उसी संस्कृति की देन है जो पूँजी की सत्ता को सर्वमान्य मानकर चलती है और जिसने उपभोकतावाद को प्रचारित-प्रसारित किया है। इसके कारन समाचार और उत्पाद के बीच की रेखा इतनी धुँधली होती गई है कि समाज में मीडिया की साख और मीडिया में समाज की समझ के बीच एक गहरी खाई पैदा हुइ है जिसमें मीडिया की वास्तविक छवि भी कहीं खो गई है।