Tuesday, December 29, 2009
न्याय या अन्याय
हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि शायद रूचिका की वजह से हमारी न्याय प्रणाली में व्याप्त खामियों का कोई समाधान ढ़ूढ़ने की सार्थक पहल की जाएगी।
उलझ कर रह जाएगा विकास
ऐसा नहीं कि बँटवारा होते ही इन इलाकों में विकास की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी। बँटवारे की घोषणा होने के बाद तीन-चार साल बँटवारे की प्रक्रिया पूरी होने में लगेंगे। इसके बाद, बिहार और झारखंड की तरह अधिकारी दोनों राज्यों के बीच झुलते रहेंगे। यही नहीं, एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी पाँच सालों तक चलेगा, हो सकता है इससे भी लंबा चले। इस बीच आम जनता का विकास हो-न-हो, नेताओं का विकास जरूर हो जाएगा। नये मंत्रालय बनेगें, नये विभागों का गठन होगा और लाल बत्ती वाली नई गाड़ियाँ मिलेंगी। हो सकता है, इनमें से कोई नया ‘मधु कोड़ा’ भी बन जाए।
इन राजनीतिक दाँव-पेंचों के बीच वास्तविक विकास कहीं उलझ कर रह जाएगा और आम जनता की हालत वहीं रहेगी जो नया राज्य बनने के पहले थी।
यूनिक आईडी के बाद अब यूनिक नंबर डायल xxx
भारत में सुरक्षा व्यवस्था मजबूत करने के लिए गृह मंत्रालय द्वारा 24 घंटे फ्री हेल्पलाईन लाने की योजना है। इस योजना के आने के बाद आम नागरिक कहीं से भी कोई भी खुफिया सूचना दे सकता है, साथ ही उस व्यक्ति की पहचान भी गुप्त रखी जाएगी। इससे पहले सुरक्षा की नजर से देश के प्रत्येक नागरिक को यूनिक आईडी देने की योजना है। इस यूनिक आईडी का जिम्मा नंदन नीलकेनी पर है। यह आईडी वोटर आईडी कार्ड से भी ज्यादा यूनिक होगी।
इससे पहले भी पुलिस द्वारा गुप्त सूचना प्राप्त करने के लिए टोल फ्री नंबर 100 उपलब्ध है। यह नंबर ज्यादा कारगर साबित नहीं हो रहा है। इसकी वजह नंबर व्यस्ता या उपरी दबाव के कारण उस पर कार्रवाई नहीं होना है। ऐसे में गृह मंत्रालय विदेशों में चलने वाले नंबर 911 की तर्ज पर एक नया नंबर आम नागरिक को मुहैया कराने वाली है।
कैसे काम करता है नंबर 100
किसी भी फोन से 100 डायल करने पर उस स्थान के नजदीकी पुलिस कंट्रोल रूम (पीसीआर) पर कॉल पहुंचता है। पीसीआर का एक पुलिस का जवान (कॉल आपरेटर) सूचना लेता है और संबंधित अधिकारी तक वह सूचना पहुंचाता है। उस सूचना के आधार पर कार्रवाई की जाती है। डायल 100 छोटे शहरों की आपेक्षा बड़े शहरों में ज्यादा प्रभावशाली है। डायल 100 पर आने वाली सूचनाओं पर कार्रवाई की जाती है लेकिन कुछ वक्त के बाद।
नए नंबर के आ जाने के बाद इसका सीधा संपर्क खुफिया विभाग से होगा। इस नंबर पर आने वाली प्रत्येक कॉल पर उसकी नजर होगी। हर छोटी से छोटी जानकारी को गंभीरता से लिया जाएगा। इस योजना को जिला स्तर तक लाने की बात चल रही है। इससे देश के प्रत्येक जिला का हर एक व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी निभाने का अवसर प्राप्त होगा।
फोटो - गूगल
Tuesday, December 22, 2009
दिल्ली पुलिस की वर्दी फिर हुई दागदार
दिल्ली पुलिस कि जितनी भी ईमानदारी के कसीदे पढ़े जाए सभी रिश्वतखोरी के सामने कम पड़ जाते हैं। दिल्ली पुलिस की वर्दी पर फिर से एक बार रिश्वतखोरी का दाग लग गया है। मामला दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे (आईजीआई) का है। हवाई अड्डे पर पुलिसकर्मी 24 लाख रूपए रिश्वत लेकर 100 टैक्सी को अवैध रूप से चलने का परमिट देते थे। इस धंधे में लगभग 20 दलाल लिप्त हैं जो पुलिस को प्रतिदिन 4 हजार रूपए रिश्वत देते थे। रिश्वत की कुल रकम जोड़ें तो 20 दलाल के प्रतिदिन 4 हजार के हिसाब से 80 हजार रूपए होते हैं। इस तरह पुलिस प्रतिमाह टैक्सी दलालों से 24 लाख रूपए वसूल करती थी। यह रकम भ्रष्ट पुलिस आपस में बांट लेते और पुलिस की वर्दी को बदनाम करने से ना चूकते। पिछले कई महीनों से जारी इस धंधे से पुलिस तो करोड़पति बन गए लेकिन जेब कटी उन टैक्सी ड्राईवरों की जो अपना पेट पालने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
आईजीआई पर रिश्वतखोरी रोकने के लिए पुलिस ने नए हथकंडे अपना लिए हैं जिसके तहत अवैध रूप से टैक्सी चलाने वालों पर लगने वाला जुर्माना बढ़ा कर 10 हजार रूपए कर दिया है। जुर्माना बढ़ाने का कारण यह है कि पहले मामूली जुर्माना लगाया जाता था, इसे टैक्सी वाले आराम से देते थे कारण यह जुर्माना उसके दिन भर की आमदनी के मुकाबले बहुत कम थी। दूसरा हवाई अड्डे पर बायोमीट्रिक पहचान प्रणाली लगाई जा रही है जिससे सिर्फ पहचान पत्र वाले को ही काम करने की अनुमति मिलेगी। हवाई अड्डे पर फिलहाल लगभग 1800 अधिकृत टैक्सी ड्राईवर काम कर रहे हैं।
दिल्ली पुलिस की जितने भी ईमानदारी के पुल बांधे जांए लेकिन वो ईमानदारी अंत में आकर ईनामदारी में बदल ही जाती है। पहले ऐसे कई मामले आएं हैं जिसमें दिल्ली पुलिस के जवान ने अपनी ईमानदारी का परिचय दिया है। लेकिन उनकी कामयाबी एक पल में चकनाचूर हो जाता है जब कोई पुलिसवाला रिश्वत लेते पकड़ा जाता है।
ब्लॉग आगंतुकों को मेरा नमस्कार
धन्यवाद
कौशल विश्वकर्मा
Tuesday, December 1, 2009
Saturday, November 28, 2009
Friday, November 27, 2009
पत्रकारों को क्या हो गया है...
घटना एक ही थी लेकिन उसे देखने का तरीका अलग अलग। कैसे कोई एक रिपोर्टर अपने ख़ास एंगल की वजह से आगे बढ़ता जाता है। लेकिन गन्ना किसानों के इस मामले में मुझे कहीं से अखबारों का कोई अलग एंगल नज़र नहीं आया। नज़र आया तो सिर्फ ये कि उन्होंने किसी दूसरे चशमे से उस घटना को देखा।
संयोगवश उस रोज़ मैं भी अपने क्लासरूम में ना होकर सड़क पर ही था लेकिन मुझे नवभारत, हिंदुस्तान, नई दुनिया, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंन्दुस्तान टाइम्स जैसी चीज़ें तो महसूस नहीं हुई। शायद इसलिए कि जिस चश्मे से ये सारे बड़े और राष्ट्रीय कहलाने वाले समूह इस घटना को देख रहे थे मेरे पास वह चश्मा नहीं था और आज भी नहीं है।
कुछ अखबारों की लीड की तरफ ध्यान चाहूंगा
KISAN JAM – TIMES OF INDIA
BITTER HARVEST, THEY PROTESTED, DRANK, VANDALISED AND PEED – HINDUSTAN TIMES
हिंसा की खेती – नवभारत टाइम्स
तर्क दिया जाता है कि इन अखबारों के टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर ही इन्होंने ख़बर को इस तरह पेश किया। जिस टारगेट ऑडियंस की बात की जाती वह लक्षित जनसमूह खुद उस मीडिया समूह की बनाई हुई एक परिधि होती है जिसके इर्द गिर्द वह घूमता रहता है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। एक कमरे में बैठकर करोड़ों पाठकों की रूचि को परिभाषित कर दिया जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम में सवाल यह उठता है कि किसी भी घटना के चरित्र को बदलने का हक इन अखबारों को किसने दिया। यह पहले भी कई अध्ययनों में साबित हो चुका है कि मीडिया छवि को बनाने में अहम भूमिका अदा करता है। ओबामा को किसने पॉपुलर बनाया, राहुल गांधी को किस तरह से प्रोजेक्ट किया जा रहा है, कलावती की चर्चाओं का बाज़ार किसने गर्म किया। बहुतेरे उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की इस भूमिका को साफ देखा जा सकता है।
यहां जिस तरह से किसानों की तस्वीर पेश की गई उसने पूरी तरह से किसानों की छवि को दागदार बनाया। नई दुनिया को ज़रा भी शर्म नहीं आई किसानों को उत्पाती कहते हुए।
अगर यह तर्क दिया जाए कि इन अखबारों ने एक अलग एंगल लिया तो फिर इन अखबारों के संपादकों को एक बार पत्रकारिता के स्कूलों में जाकर पत्रकारिता सीखनी चाहिए। क्योंकि जिस खबर को इन्होंने ‘बनाया’ वह दरअसल कोई एंगल नहीं था। बनाया शब्द यहां इसीलिए इस्तेमाल किया गया कि इस खबर को बनाया गया, असल में वह खबर थी नहीं। एंगल में खबर के ही किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से को लिया जाता है। अब महत्त्वपूर्ण को परिभाषित करना भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग बातें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं।
पत्रकारिता के सिद्धांतों के आधार पर महत्त्वपूर्ण वह है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रभावित करे। जो नया हो और लोकहित में हो। कम से कम जाम लगना तो महत्त्वपूर्ण नहीं था। दिल्ली में जाम लगना आम बात है। कितने ही रूट ऐसे हैं जहां सुबह शाम जाम का नज़ारा आम होता है। उसमें नया क्या था।
अब समझ यह नहीं आता कि इसे पत्रकारिता का बदलता हुआ स्वरूप कहें या पत्रकारों का बदलता नज़रिया...
Wednesday, November 25, 2009
Saturday, November 21, 2009
सूचना का अधिकार : संशोधन क्यों
आम तौर पर किसी भी कानून में संशोधन करने का तात्पर्य होता है, देश के व्यापक हित में कानून में सुधार। लेकिन सूचना के अधिकार कानून 2005 के संशोधन में देश का व्यापक हित स्पष्ट नहीं हो रहा है। स्पष्ट न होने की भी ख़ास वजह है, कि क्या ये वास्तव में कानून का संशोधन है या फिर सरकारी दफ्तर और नौकरशाही ने ये तय कर लिया है कि हम नहीं सुधरेंगे। इसलिये कानून ही ऐसा बना दिया जाये कि हमारे सुधरने की कोई गुंजाइश ही न बचे। देखा जाय तो सरकारी महकमों के अलावा किसी की भी ये राय नही है कि सूचना के अधिकार में किसी तरह के संशोधन की जरूरत है।
सरकार इस संशोधन के द्वारा सूचना के अधिकार से फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार वापस लेने और अनावश्यक सवालों को ख़ारिज करने की बात कर रही है। अगर हम अनावश्यक सवालों की बात करें तो एक उदाहरण से सरकार की मंशा समझ सकते हैं। 14 नवम्बर को जंतर-मंतर के पास आर. टी. आई. में संशोधन रोकने के लिये धरना दिया गया। धरने में अरूणा राय भी शामिल थी। तमाम जद्दोजहद के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में उनकी मीटिगं तय हुयी। वहाँ से लौटने के बाद अरूणा जी ने धरने में बैठे लोगो को मीटिंग में हुयी अपनी बात-चीत का ब्योरा दिया। जहाँ उन्हे ही अनावश्यक सवाल का उदाहरण दे कर संशोधन की अवश्यकता समझाने की कोशिश की गयी।
दरअसल किसी व्यक्ती ने सूचना मांगी कि मैट्रो के निर्माण में कितने पेड़ काटे गये और उनके स्थान पर कितने पेड़ लगाये गये। ये सवाल सरकार के लिए अनावश्यक और परेशान करने वाला है। आज जब पर्यावरण वैश्विक स्तर पर एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और फिर हमारी दिल्ली सरकार ने इसी साल सितंबर माह में दिल्ली के पेड़ो की गिनती करवायी थी तो अब सवाल ये उठता है कि सरकार पेड़ो से संबंधित ये सूचना देने से क्यो कतरा रही है, अगर सरकार के पास रिकार्ड है तो उन्हे कतराना नही चाहिये।
जहाँ तक फाइल नोटिंग दिखाने की बात है, तो इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अधिकारियों को इमानदारी से काम करने में मुश्किल होगी क्योकि इससे वो बेइमानो और स्वार्थियों के नज़र में चढ़ जायेंगे। लेकिन प्रशन ये उठता है कि आज से चार साल पहले क्या सरकारी दफ्तरों और नौकरशाही में इमानदारी थी? क्या वहां कोई भ्रष्टाचार व्याप्त नहीं था? क्योकि इस कानून के आने से पहले न तो फाइल नोटिंग दिखाने की समस्या थी और नही बेइमानो के नज़र में चढ़ने की समस्या थी। ज़ाहिर है, हालात इससे बेहतर नही थे।
दरअसल आज़ादी के साठ सालों बाद भी हम ये नहीं मान पाये है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी में निहित होती है। लेकिन इस समस्या का समाधान इसी धरने में राजस्थान से आये एक व्यक्ती ने बखूबी सुझाया। उन्होंने कहा कि हम सरकार से जाकर बोलेंगे कि यदि आप को सूचना देने में तकलीफ हो रही है तो आप अपनी कुर्सी छोड़ दो। हममें से ही कोई ऐसा व्यक्ति कुर्सी संभाल लेगा जिसे सूचना देने में तकलीफ नही है। अब सरकार के सामने हमें अपना पक्ष मजबूती से रखना होगा कि हमें संशोधन नहीं सूचना चाहिये, गोपनीयता नहीं पारदर्शिता चाहिये।
Friday, November 20, 2009
कहाँ गए मोटे अनाज
हरित क्रान्ति के दौर में जिस एकफसली खेती को बढ़ावा मिला उसमें धान और गेहूं जैसी फसलों को केन्द्रीय भूमिका प्रदान की गई।इसका परिणाम यह हुआ कि कुल कृषि भूमि में से मोटे अनाजों की पैदावार घटती गई। उदाहरण के लिए1966 से लेकर 2006 तक के पिछले चार दशकों में चावल का उत्पादन 3.8 करोड़ टन से बढ़कर 8.6 करोड़ टन और गेहूं का उत्पादन 1.5 करोड़ टन से बढ़कर सात करोड़ टन हो गया जबकि दूसरी तरफ मोटे अनाजों का उत्पादन 1.85 करोड़ टन से घट कर 1.8 करोड़ टन हो गया। इसका मतलब यह है कि पिछले चार दशकों के बीच मोटे अनाजों की तुलना में धान का उत्पादन दो गुना और गेहूँ का उत्पादन तीन गुना बढ़ गया।
गेहूं और धान के क्षेत्र-विस्तार के क्रम में स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय हालात, मि़ट्टी की संरचना, नमी की मात्रा, भू-जल आदि की घोर उपेक्षा की गई। दूसरी ओर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक और असन्तुलित प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता काफी प्रभावित हुई। सिंचाई के लिए सब्सिडीयुक्त डीजल व बिजली ने भू-जल के अंधाधुंध दोहन बढ़ावा दिया जिससे भ-जल स्तर गिर कर पाताल में पहुंच गया।
अत: अब एक ऐसी नई हरित क्रान्ति लाने की आवश्यकता है जिससे मोटे अनाजों की पैदावार में वृद्धि हो सके। इससे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल ह्रास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है। इन फसलों को पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत कम पड़ती है जिससे मिट्टी व भू-जल स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अलावा इन फसलों को उगाने में खेतीकी लागत भी कम आती है। सूखा प्रतिरोधी होने के साथ-साथ ये फसलें कम उपजाऊ भूमि पर भी सफलता से उगाई जा सकती है। पौष्टिकता और सेहत के मामले में भी मोटे अनाज गेहूं व चावल पर भारी पड़ते हैं। इनमें प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, लोहा, विटामिन और अन्य खनिज चावल और गेहूं की तुलना में दो गुने अधिक पाए जाते हैं। इन विशेषताओं के बावजूद मोटे अनाज किसानों, कृषि-वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों की नजर में उपेक्षित है तो इसके पीछे प्रमुख कारण जनसाधारण में इनके प्रति फैली उपेक्षा की भावना है।
लम्बे समय से मोटे अनाजों की खेती को मुख्य धारा में लाने के लिए प्रयासरत 'दकन डेवेलपमेन्ट सोसायटी' का सुझाव है कि मोटे अनाजों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित किया जाय, जैसे राजस्थान में बाजरा और दक्षिण भारत में रागी का वितरण हुआ है। इन अनाजों के लिए लाभकारी समर्थन-मूल्य घोषित हो और इनकी सरकारी खरीद, भंडारण व विपणन के लिए प्रभावी नेटवर्क बनाया जाए। गेहूं और धान की भाँति मोटे अनाजों के अनुसंधान व विकास की सुविधाएं देश भर में स्थापित की जाए। बैंकों, वित्तीय संस्थाओं आदि को मोटे अनाजों की खेती के लिए रियायती दर पर ऋण सुविधा देने के लिए कानून बनें। सरकार सब्सिडी नीति की दिशा मोटे अनाजों की खेती की ओर भी मोड़े तो अच्छा ही होगा। इन उपायों से न केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का आयात व प्रयोग कम होगा, बल्कि मिट्टी, भू-जल के साथ-साथ मनुष्य का स्वास्थ्य भी सुधरेगा।
इस प्रकार बदलते मौसम चक्र, एकफसली खेती से हो रहे नुकसान अदि को देखते हुए मोटे अनाजों की खेती भविष्य में उम्मीद की किरण के समान है। इससे न केवल कृषि का विकास होगा बल्कि खाद्य-सुरक्षा के साथ-साथ उचित पोषण और स्वस्थ्य-सुरक्षा भी हासिल होगी।
Wednesday, November 11, 2009
पहाड़ पर प्रतिरोध
यह फिल्मोत्सव दिल्ली जैसे महानगरों में होने वाले भड़कीले फ़िल्मी समारोहों से कई मायनों में हटकर था. दस-पंद्रह कार्यकर्ताओं की टीम के साथ आयोजन को संभाले ज़हूर आलम. नई फिल्म शुरू होने से पहले दर्शकों को फिल्म की जानकारी देते और फिल्म शुरू होने के बाद बहार स्टॉल पर जा बैठते संजय जोशी. युगमंच के कार्यकर्ताओं का दो फिल्मों के बीच में सहयोग राशि के लिए डिब्बे लेकर घूमना. दीवारों पर लगे दुनिया को बदल डालने की अलख जगाते पोस्टर. हाल के बाहर लगी संघर्षों की दास्तान कहती पेंटिंग्स. सारा समां कुछ और ही कह रहा था. इन सब के बीच नैनीताल की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड भी थी. यहाँ नवम्बर आते-आते सूरज के मद्धम होते ही ठण्ड अपना असर दिखाना शुरू करती है और शाम होने तक पूरे रंग में आ जाती है. इसी दौरान नैनीताल में शरदोत्सव भी चल रहा था.
समारोह एक बजे से शुरू होना था. हमारे पास घंटे भर से ज्यादा का वक़्त था सो पैदल ही माल रोड से मल्लीताल की ओर निकल लिए. माल रोड पर झील के किनारे चलते जाने का अपना ही मज़ा है. इस बीच रिक्शों पर बैठे लोग हमें कमअक्ल नज़र आ रहे थे. समारोह की शुरुआत "ज़मीन छोडेबो नाहीं, जंगल छोडेबो नाहीं.." की प्रस्तुति और युगमंच के कलाकारों के कलाकारों के जनगीतों से हुई. फिल्मोत्सव की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू की सत्तर के दशक में बनी "गर्म हवा" थी. यह विभाजन की त्रासदी के ऊपर बनी फिल्म है. इसमें विभाजन के बाद भी आगरा में रह रहे एक मुस्लिम परिवार की कहानी है. फिल्म अपने सार्थक नाम के साथ उस वक़्त के माहौल को रचने और उसमें फंसे लोगों का चित्र उकेरती है. शाम के सत्र में वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह "स्याही ताल" का विमोचन और उसके बाद विभाजन की ही थीम पर राजीव कुमार की एक शॉर्ट फिल्म "आखिरी असमान" थी. फिल्म पूर्वी बंगाल के चकमा आदिवासियों के दर्द को सामने रखने का काम करती है. अगली फिल्म अजय भरद्वाज की "एक मिनट का मौन" थी. यहाँ जे.एन.यू. के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की ह्त्या और उसके विरोधस्वरूप उपजे छात्रों के आन्दोलन को कुचलने की कहानी थी. पहले दिन की आखिरी फिल्म चार्ली चैपलिन की "मॉर्डन टाइम्स" थी. फिल्म सन् १९३६ में आई थी जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हो चुका था. चार्ली ने उस दौर में भी मूक फिल्म बनाने को चेतावनी की तरह लिया. यह चार्ली की आखिरी मूक फिल्म थी. फिल्म में चार्ली मंदी के दौर में बेरोजगार होते जा रहे मजदूरों की दशा दिखाते हैं.
फिल्मोत्सव का दूसरे दिन का पहला सत्र बच्चों के नाम था. इतवार का दिन होने से कुछ स्कूली बच्चे भी मौजूद थे. शुरुआत में राजेश चक्रवर्ती की एनीमेटेड फिल्म- "हिप हिप हुर्रे" थी. इसमें गीतों के जरिये कुछ बाल कहानियों को पिरोया गया था. इसके बोल जावेद अख्तर ने लिखे थे और आवाजें शान, कविता कृष्णमूर्ति आदि की थीं. दूसरी फिल्म रैगडल की बनाई "ओपन अ डोर" थी. इसमें अलग-अलग देशों के बच्चों की ज़िन्दगी के कुछ पलों को फिल्म के रूप में ढाला गया था. सभी कहानियां एक दरवाजे के खुलने और बंद होने के बीच में घटती है. कहानियां एक ओर बच्चों की दुनिया में ले जाती है तो दूसरी तरफ बच्चों के सपनों, कार्यकलापों, खेलों जरिये उस देश के समाज को दिखाने का काम भी करती हैं. सुबह के सत्र की आखिरी फिल्म माजिद मजीदी की "चिल्ड्रेन ऑव हैवन" थी. फिल्म दो भाई- बहन और उनके एक जोड़ी जूते के आस-पास बुनी है. भाई बहन के जूते गुम कर देता है और उन्हें एक ही जोड़ी जूते से काम चलाना पड़ता है. दूसरे जोड़ी जूते को हासिल करने की कोशिशों की कहानी उनके माँ-बाप, उनके समाज और उसमें मौजूद द्वंद तक को समेटते चली जाती है.
दोपहर के डाक्यूमेंट्री सत्र में नेत्र सिंह रावत की १९७६ में बनाई डाक्यूमेंट्री "माघ मेला" थी यह उत्तराखंडी समाज के रीति-रिवाजों, मेले-त्योहारों के दौरान यहाँ की जीवंतता के दर्शन कराती है. बीजू टोप्पो की "गाड़ी लोहरदगा मेल" थी. फिल्म रांची से लोहरदगा तक जाने वाली रेल लाइन के नैरो से ब्रॉड गेज़ होने और लोहरदगा मेल के बंद हो जाने पर बनाई गयी है. रेल में फिल्माए झारखंडी लोकगीतों के जरिये उस समाज के रिवाजों और मौजूदा दौर में वहाँ चल रही उथल-पुथल को भी दिखाया गया है. इस सत्र की तीसरी डाक्यूमेंट्री एन.एस.थापा की १९६८ में बनाई "एवरेस्ट" थी. अपने दल के साथ एवरेस्ट अभियान में आई दिक्कतों और उन पर जीत की कहानी कहती रोमांचकारी फिल्म है. दोपहर के सत्र की आखिरी फिल्म विनोद रजा की बनायी "महुआ मेमायर्स" थी. फिल्म उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खनन और इसके खिलाफ उठ खड़े हुए आदिवासी समूहों के संघर्षों की दास्तान है. ये आदिवासी झूम खेती करते हैं, जंगलों से अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और पहाड़ों को देवता की तरह पूजते और उनका संरक्षण करते हैं. ये आदिवासी आज वेदांत और कलिंग नगर जैसी खदान कंपनियों से अपनी ज़मीन को बचने में जान गंवाते जा रहे हैं. फिल्म में खदान कंपनियों के मालिक, सरकार, उसके सशस्त्र सैनिक बनाम इन आदिवासियों का लुप्तप्राय संघर्ष दिखाया गया है.
शाम के सत्र में अशोक भौमिक का "समकालीन भारतीय चित्रकला में जन प्रवृतियां" विषय पर सचित्र व्याख्यान चित्रकला की समझ देने में मददगार रहा. यह व्याख्यान "आम आदमी के साथ होना ही आधुनिक होना है" की थीम पर था. अवनीन्द्र नाथ टेगोर, बी. प्रभा, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, रज़ा, सूजा हों या एम.एफ. हुसैन ये सभी भारत में बड़े चित्रकारों के रूप में जाने जाते रहे हैं. पूरी दुनिया में इनका नाम है. लेकिन इनके काम की समीक्षा करने पर पता चलता है कि ये सभी चालू फॉर्मूले को तोड़ पाने में नाकाम रहे हैं. इनके चित्रों में धर्म, नारी शरीर जैसे पुरातन विषय बारम्बार आते रहे हैं. ये कहीं भी भारतीय जनता के अधिकांश- मेहनतकश, दबे-कुचले हिस्से की आवाज़ बन पाने में नाकाम रहे है. लेकिन बाज़ार प्रायोजित चित्रकला को कुछ चित्रकारों ने चुनौती देने का काम भी किया है. इनमें चित्तप्रसाद, ज़ैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के नाम शामिल है. मजदूरों, अकाल के चित्रों, बाल मज़दूरों की गाथा को अपने चित्रों में शामिल किये हुए इनके चित्र जन संघर्षों के साथ रहे हैं. समारोह की आखिरी फिल्म वित्तोरियो डी सिका की "बाइसिकल थीफ" थी. फिल्म में दो बार साइकिल चोरी होती है. एक चोरी सफल रहती है और दूसरी असफल. फिल्म के नायक की साईकिल काम के पहले दिन ही चोरी हो जाती है. अब वो और उसका लड़का दिन भर सड़कों पर साईकिल ढूंढते फिरते हैं. पुलिस से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है. साइकिल का गुम होना नायक के जीवन के हर पहलू में घुसता चला जाता है. उसे हर वक़्त साइकिल ही याद आती है. और आखिर में वह एक साइकिल चोरी करने की ठान लेता है. लेकिन इसमें असफल होने के साथ ही वह पकडा भी जाता है. अब नायक को शर्म, दुःख और पछतावा महसूस होता है. समारोह को फिनिशिंग टच ज़हूर आलम और साथियों ने "ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन छोड़ के आ..." की प्रस्तुति से दिया. अगले दिन वापसी थी. नैनीताल से काठगोदाम रेलवे स्टेशन के लिए तड़के छः बजे बस पकड़नी थी लेकिन सुबह पॉँच बजे बिस्तर छोड़ने को मन नहीं कर रहा था. इसी वज़ह से हम सूरज को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे. माल रोड पर पैदल आते हुए अजान और उसके बाद आती कीर्तन की आवाजें अलसाए नैनीताल को जगा रही थीं. आज ही उत्तराखंड को बने नौ साल पूरे हो रहे थे. आन्दोलनकारी गैरसेण को राजधानी बनाने जैसी मांगों के साथ देहरादून को कूच कर रहे थे. पहाड़ में हालात नौ साल पहले से ज्यादा मुश्किल हुए हैं और प्रतिरोध ज्यादा प्रासंगिक.
Saturday, November 7, 2009
...पर ये जूनून कम नहीं होगा
छह नवम्बर कि सुबह मैं सो रहा था। मेरे मोबाइल पर मैसेज आया कि प्रभाष जोशी इस दुनिया में नहीं रहे। मैं हैरान रहा गया। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछली रात भारत और ऑस्ट्रलिया के बीच हुए मैच को देखते हुए दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। मैच में सचिन ने १७५ रन बनाये, लेकिन भारत ये मैच हार गया। मैं उनकी मौत के बारे कहूँगा कि क्रिकेट के दीवाने को क्रिकेट ने ही मार दिया। सुबह जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सबसे पहले ख़बरों की वेबसाइट्स पर उनकी मौत के बारे में पढ़ा। बहुत दुःख हुआ।
इसमे कोई दो राय नहीं कि वो क्रिकेट और सचिन तेंदुलकर के बहुत बड़े प्रसंशक थे। जब भी मैं क्रिकेट के बारे में उनके लिखे हुए किसी भी कॉलम को पढ़ता था, तो ऐसा लगता था कि मानो मैंने वो मैच देखा हो। उनकी लेखनी से मुझे इस प्रकार लगाव हो गया था कि मैं 'जनसत्ता' अख़बार केवल उनसे लिखे हुए कॉलम को पढ़ने के लिए ही खरीदता था। उनसे दोबारा मिलने के लिए मैं बैचेन था। मेरी ये बेकरारी जल्दी ही ख़त्म हुई। दूरदर्शन के एक प्रोग्राम के लिए मुझे जाना था। वहां जाकर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में प्रभाष जोशी भी आ रहे हैं तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। इस कार्यक्रम में कई बड़े पत्रकार शामिल थे। करीब एक घंटे बाद जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो मुझे उनसे मिलने को अवसर मिला। स्टूडियो के बाहर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात के वो पल मेरे लिए यादगार बन गए। उस समय मेरी उनसे काफ़ी बातें हुईं और पत्रकारिता के बारे में भी उन्होंने मुझे काफी बताया। उन्होंने तब एक बात कही थी, 'पत्रकारिता करने के लिए एक जूनून कि ज़रूरत होती है। तुम अभी पत्रकारिता कि दहलीज़ पर हो। यदि इसमें सफल होना चाहते हो तो अपने जूनून को कम मत होने देना।'
आज प्रभाष जोशी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक पत्रकार के लिए उन्होंने जिस जूनून की बात कही थी, वो जूनून अब मेरे अन्दर और तेजी से बढ़ेगा। हिन्दी के इस महान पत्रकार को मैं श्रद्धांजलि देता हूँ।
Tuesday, November 3, 2009
काबा और परदे का उठना...
तीन नवम्बर की शाम रिमोट से खेलते-खेलते अचानक ही एन.डी.टी.वी. पर विनोद दुआ नज़र आ गए तो उनसे पार जाने का मन नहीं हुआ. समाचार को समझने के दौर से ही सुनते आ रहे थे कि एन.डी.टी.वी. इस मामले में औरों से अलग है. शायद कभी कुछ अलग रहा भी हो. अब तो एन.डी.टी.वी. भी हमाम में कूदा पड़ा नज़र आता है. अपने खास शो "विनोद दुआ लाइव" में उन्होंने तीन मुद्दों पर बात की. पहली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में कुर्सियों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान को लेकर थी तो दूसरी, मुंबई में कुछ लोगों के अपने घर के सामने से पिछले एक महीने से कूड़ा न उठाये जाने पर नगर निगम के ऑफिस में ही कूड़ा डालने को लेकर और तीसरी में उन्होंने हमेशा की तरह आखिर में एक मधुर गीत सुनवा कर अपनी बात ख़त्म की.
पहली खबर में उन्होंने नेताओं के लिए "छोटे" शब्द का इस्तेमाल किया. कहा कि नेता अपने स्वार्थों के लिए छोटे हो गए हैं. छोटा होना मतलब कमतर होना. छोटा होना किसी से कम हो जाना कब से बन गया होगा कहना मुश्किल है. लेकिन अब हालत यह है कि कद या उम्र आदि में छोटा होना कमतर होना माना जाता है. छोटे लोगों में अपनी लम्बाई को लेकर हीनग्रंथि होना सामान्य बात है. कोई दवाइयाँ खाकर तो कोई ऊंचे एड़ी के जूते-चप्पल पहनकर अपनी इस कमी को दूर करने की कोशिश करता है. लंबा होना आकर्षक माना जाता है. इस तरह से चलन में आ चुकी इस घटिया उपमा के प्रयोग की उम्मीद उनसे नहीं थी.
दूसरे मुद्दे पर उन्होंने बड़े ही रोचक अंदाज़ में बात शुरू की. उसका लब्बोलुआब ये था कि, नगर-पालिका के अधिकारी जो आई.ए.एस. से आते हैं, और इनमें से कुछ तो गरीब परिवारों से भी आते हैं. ये लोग इन पदों पर आने के बाद वापिस अपने घरों या गावों में नहीं जाते हैं और अपने पुराने दिनों को भूल जाते हैं और उन्हें इन लोगों ने (कूड़ा फेंकने वालों ने) ये बात (गन्दगी) याद दिला दी. विनोद दुआ को ये बात इस सन्दर्भ में कहना इतना ज़रूरी क्यों लगा, ये वो ही बेहतर जान सकते हैं. बात इस सन्दर्भ के बिना भी असरदार तरीके से कही जा सकती थी.
आखिर में उन्होंने कहा कि हम आपको खूबसूरत यादों के साथ छोड़ जाते हैं. और उन्होंने हमें सन् १९६५ में आई अमरजीत की फिल्म "तीन देवियाँ" का गाना- "कहीं बेख्याल होकर..." सुनवाया. इस गाने के बारे में उन्होंने कहा, "ये गाना मोहम्मद रफी ने गाया है, संगीत दिया है- एस.डी.बर्मन ने, बोल हैं मजरूह सुल्तानपुरी के और फिल्म के हीरो हैं देव आनंद." फिल्म का नाम "तीन देवियाँ" था तो जाहिर है फिल्म में तीन अभिनेत्रियाँ भी रही होंगी लेकिन विनोद दुआ ने उनका नाम लेने की जहमत नहीं उठायी. ये तीन अभिनेत्रियाँ थी- नंदा, कल्पना और सिमी ग्रेवाल. हैरत है कि इतने महत्वपूर्ण तथ्य को दुआ जैसा पत्रकार कैसे अनदेखा कर गया. शायद हम अनचाहे और अनजाने में ही अपने होने का सबूत दे जाते हैं. विनोद दुआ के बात कहने में किसी को कमी नज़र आ सकती है तो किसी को नहीं भी आ सकती है. फर्क सिर्फ देखने का है.
Monday, October 26, 2009
विश्लेषकों का अनुमान उल्टा पड़ा
में चुनाव विश्लेषकों का अनुमान दोनों ही बार कुछ उल्टा पड़ता दिखाई
दिया। चुनावों को लेकर जो समीकरण बनाए जा रहे थे वे कहीं पर सही और कहीं
पर बिल्कुल उलट प्रतीत हुए।
एक जीतने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। चुनाव विश्लेषक हरियाणा में
कांग्रेस को 55-60 सीटों पर जीता दिखा रहे थे लेकिन उसे 40 सीटों पर ही
संतोष करना पड़ा। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में लग रहा था कि कांग्रेस और
एनसीपी की राह आसान नहीं है लेकिन उसने 50% सीटें झटक ली। अरुणाचल प्रदेश
तो शुरु से ही कांग्रेस की झोली में था उसे आशाअनुरुप ही विजय मिली।
आखिर क्या कारण था कि सरकार की लाख कमियों और नाकामयाबियों के बावजूद
जनता ने उन्हें दोबारा सत्ता में भेज दिया।
दरअसल नतीजों के अनुसार कांग्रेस जीती नहीं बल्कि विपक्ष हार गया।
कांग्रेस ने केवल विपक्ष के बिखराव का ही फायदा उठाया है। कांग्रेस की
जीत एक तरह से जनता के समक्ष विकल्पों का अभाव का ही परिणाम है जनता के
पास और कोई ऐसा विकल्प नहीं था जिसे वह कांग्रेस के आगे रख कर विचार
करती। हरियाणा में भाजपा और लोकदल ने गठबंधन तोड़कर कांग्रेस का रास्ता
खुद ही साफ कर दिया और महाराष्ट्र में शिवसेना के गर्भ से निकली मनसे ने
भाजपा- शिवसेना के रास्ते में रोड़े अटका दिए। यही कारण है कि वहां
विपक्ष को पिछली बार से भी 26 कम सीटों से हाथ धोना पड़ा। हरियाणा में
भाजपा ने इस अनुमान के साथ कि अब चौटाला की साख नहीं रही, उससे किनारा कर
लिया लेकिन चौटाला ने 31 सीटें जीत कर परिस्थियों को उलट दिया।
कहने का तात्पर्य है कि अगर विपक्ष चुनावों को लेकर जरा भी सावधान होती
तो शायद तस्वीर कुछ और ही होती।
महेंद्र
Sunday, October 25, 2009
किन्तु परन्तु वाली जीत
रणविजय ओझा
चर्चा में
बेहतर विकल्प का अभाव
तीन राज्यों के चुनावी नतीजों ने भारतीय राजनीति की एक चिंतनीय मगर सच्ची
तस्वीर को दिखाया है जो वर्तमान राजनीति का हाल बयान करती है। कांग्रेस
की जीत से ज्यादा यह एक विकल्पहीन सत्ता पक्ष की जीत है जहाँ विपक्ष नाम
का चाँद पूर्णिमा के इंतजार में बेबस सा बैठा हुआ है। आज विपक्ष में एक
भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के घोषित युवराज के टक्कर का हो।
महाराष्ट्र में लगातार तीसरी बार कांग्रेस के सत्ता में आने का यदि कोई
कारण था तो वह कांग्रेस के विपक्षी गठबंधन में तालमेल का अभाव और वोटों
का बँटना। कांग्रेस ने पिछले 10 सालों में ऐसा कोई कमाल नहीं किया था कि
लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटती। लेकिन बेहतर विकल्प के अभाव में जनता
ने फिजूल में दिमाग पर जोर डालना मुनासिब नही समझा। बाकी की कसर राज
ठाकरे ने निकाल दी। उनकी मनसे ने 11 सीटों पर जीत तो हासिल की ही करीब 30
सीटों पर भाजपा-शिवसेना गठबँधन को हराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हरियाणा के चुनावी नतीजों ने साफ दिखाया कि यदि वहाँ विपक्ष में एकता
होती तो सत्ता भी उसी के हाथ में होती। रही अरूणाचल-प्रदेश की बात है तो
वहाँ इतिहास में भी विपक्ष की कोई परंपरा नहीं रही है और इस दफे भी वही
हुआ। देश की राजनीति एक ऐसे रास्ते की तरफ जा रही है जहाँ शायद ना तो
विकल्पों की जगह होगी और ना ही परिवर्तन का उत्साह।
शशि
जीत तो आखिर जीत है
लोकसभा चुनावों के बाद पहले इम्तहान में कांग्रेस पास हो गई है। महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में वह तीसरी बार सत्ता में लौटी है। हरियाणा में जहाँ क्लीन स्वीप की बात की जा रही थी,वहाँ कांग्रेस बमुश्किल सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। अरूणाचल प्रदेश में परिणाम उम्मीद के अनुसार आये है।
लेकिन जीत तो आखिर जीत होती है,इस बात से उसकी चमक कतई कम नही होती कि विपक्ष बिखरा हुआ था। जनता जनार्दन ने कांग्रेस के नेत़ृत्व में भरोसा जताया है। महाराष्ट्र में राज फैक्टर ने काम किया पर उतना नही जितना हाईलाइट किया जा रहा है। राज 2004 के चुनावों में शिवसेना-भाजपा के साथ थे, तब क्या हुआ था ? हरियाणा में हुड्डा का ओवरकोन्फिडेन्स कांग्रेस को ले डूबा।
खैर जो जीता वो सिकंदर, ये वक्त कांग्रेस के लिए जश्न मनाने का है। भाजपा को किसी एक सिर पर हार का ठीकरा फोड़ने की बजाय नेतृत्व में आमूलचूल परवर्तन करना चाहिए।
अरविन्द कुमार सेन
कमजोर विपक्ष
तीन राज्यों के चुनावी नतीजों का मतलब कांग्रेस की जीत से ज्यादा विकल्प
के रूप में कमजोर विपक्ष और उनके बिखराव से है। यह बात हरियाणा और
महाराष्ट्र में तो पूरी तरह से लागू होती है। महाराष्ट्र में लगातार
तीसरी बार कांग्रेस के सत्तासीन होने का यदि कोई कारण था तो वह विपक्ष और
एंटी कांग्रेस गठबंधन वोटों में विभाजन। कांग्रेस ने इन पाँच सालों में
ऐसा कुछ नहीं कर दी थी कि लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटती। लेकिन ऐसा
तब होता जब इससे बेहतर विकल्प मौजूद होता। जनता के समक्ष भाजपा और
शिव सेना एक बेहतर विकल्प नहीं थी। रही-सही कसर राज ठाकरे ने निकाल दी।
यह लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था। मनसे ने 11 सीटों पर जीत तो
हासिल की ही करीब 25 से 30 सीटों पर भाजपा-शिव सेना को हराने में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हरियाणा के चुनावी नतीजों से तो साफ
है कि यदि यहाँ विपक्ष में एकता होती तो सत्ता भी उसी के हाथ में होती।
भाजपा के रणनीतिकार अकेले चुनाव लड़कर अब अफसोस ही करते होंगे। जहाँ तक
अरूणाचल प्रदेश की बात है तो वहाँ विपक्ष की कोई परंपरा ही नहीं रही है।
भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच जो पहचान का संकट
कायम होते जा रहा है उससे जनता के लिए राजनीतिक परिवर्तन कोई मायने नहीं
रखता।
रजनीश
चर्चा में
नतीजों के बारे में आप क्या सोचते हैं?
विचार का विषय है : " यह कांग्रेस की जीत नहीं है?"
आप अपनी राय अधिकतम १०० शब्दों में भेजें
ताकि चर्चा आगे बढ़ सके.
आनंद प्रधान
Thursday, October 1, 2009
नरेश [मात्र दिसम्बर २००८ तक का छात्र ] की चिठ्ठी, बिछुडे दोस्तों के नाम
नरेश [ रोल नम्बर २३ ] 09816101490
Sunday, September 20, 2009
Tuesday, September 8, 2009
मित्रों को प्रेषित ...
यथोचित भाव
आशा ही नही वरन पूर्ण विश्वास हैं कि आप सभी स्वस्थ और सानंद पूर्वक जीवन की जिम्मेदारियों का कुशलतापूर्वक निर्वहन कर रहें होंगे।
भारतीय जन संचार संस्थान के नौ महीने के पाठ्यक्रम के दौरान आप सभी का स्नेह गाहे -बगाहे पाता रहा । वहां रहने के दौरान कई लोगों से अति निकटता हुयी वही दूसरी ओर कुछ मित्रों से क्षणिक दुराव भी हुए। पत्रकारिता की पढाईके दौरान "camunication " पर काफ़ी जोर दिया जाता था। दिल्ली से आने के बाद आप सभी से बेहतर संवाद स्थापित करने में विफल रहा। यदि बहने या दलील दूँ तो कई गिना सकता हूँ । संक्षेप में यही कहना चाहता हूँ कि भावनात्मक हिंसा का शिकारहो गया था ।जख्म इतने गहरे थे कि स्वयं की पीड़ा दूर करने के विषय में ही सोचता रहा ।
खैर आप सभी के पास पत्र लिखने का एक मात्र उद्देश्य यह है कि यदि सम्भव हो तो अपने दिलों में मेरे लिए कुछ स्थान आरक्षित करने कि महती कृपा करें। दीक्षांत समारोह में शारीरिक उपस्थिति तो नही रहेगी लेकिन यकीन मानिये भावनात्मक रूप से आप सभी के बीच रहूँगा। मोबाइल भी नही रख रहा हूँ इसलिए पुनः संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न होगी। लेकिन ई मेल और ऑरकुट के माध्यम से जुडा रहूँगा।
अंततः एक विनम्र निवेदन यह है कि यदि हो सके तो दीक्षांत समारोह के बाद दो मिनट मेरे साथ बिताएं गए पलों के बारे में सोच लेंगे तो यह मेरे लिए सबसे बड़ा संबल होगा।
आप सभी के उत्तरोतर प्रगति का आकांक्षी ...
आपका तथाकथित दक्षिणपंथी साथी
मशाल
Thursday, September 3, 2009
इंसानियत की मौत
अमित कुमार यादव
Monday, August 17, 2009
एक ईकाई का कम हो जाना...
क्या सिर्फ इसलिए कि वह हमसे एक साल बाद पैदा हुए या हम उनसे एक सेमेस्टर पहले भारतीय जन संचार संस्थान में आये? क्या सिर्फ यही वजह काफी है उनको अपने से कमतर ईकाई मानने की. इस सीनियर और जूनियर हो जाने का अहसास, सीनियर कहलवाने की चाह हकीकत में कुछ ज्यादा ही भयावह होती है। उम्मीद है एक साल बाद गजेन्द्र नए बच्चों(इन्टर्नस) से पानी नहीं मंगवाएंगे, उनके अपने चारों और खड़े होकर आदेश का तत्परता से पालन करने को अपनी उपलब्धि नहीं मानेंगे.
अपने यहाँ समझा जाता है कि अगर आप उम्र में छोटे हैं तो आप कम प्राप्ति के अधिकारी हैं. यह कम प्राप्ति आपको हर जगह देखने को मिलेगी, चाहे वह आपके अधिकारों में हो या सम्मान में! यानि आपको एक कमतर ईकाई का जीव माना जायेगा! उदाहरण के लिए, मान लीजिये आप बच्चे हैं और बस में सफ़र कर रहे हैं. संयोग से आपको सीट हासिल है, तभी आपके परिचित(उम्र में बड़े) उसी बस में आते हैं लेकिन उन्हें सीट नहीं मिलती है तो ये शिष्टाचार का तकाजा है कि आप उन्हें अपनी सीट दे दें. इस शिष्टाचार की भेंट कम उम्र ही चढेंगे. इसी कड़ी में ज़यादा भयावह तथ्य ये है कि कई अभिभावक अपने बच्चों की पिटाई को इस तर्क से जायज ठहराते हैं कि वह अपने बच्चों को ज्यादा बेहतर जानते हैं इसीलिए उन्हें मालूम है कि कैसे बच्चों को सुधारा जाए. इस मामले में ज्यादा खीझ तब होती है जब खुद को जागरूक, सजग, चेतनाशील, प्रगतिशील मानने वाले तबके से ऐसा व्यवहार देखने को मिलता है. खुद को बॉस, सर कहलवाने की चाह इसी का एक नमूना है.
Tuesday, August 4, 2009
माँ होने का मतलब
सवाल यह है कि माँ को, उसके ममतत्व को महान बताने, बनाने के पीछे क्या इरादे रहे हैं? किसी लडकी का शादी के बिना ही माँ बन जाना उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है. एक बच्चे को जन्म देने के लिए उसके पास शादी नाम का प्रमाण-पत्र होना जरूरी होता है(ताकि बाप का नाम पता चल सके). इस तरह अगर किसी बच्चे के पैदा होने के बाद उसका बाप उसे अपना नाम नहीं देना चाहता तो उस बच्चे की माँ उसे पैदा करके अपने और बच्चे के लिए क्यों अकेली मुसीबत मोल ले? जानवरों की दुनिया में बाप की पहचान मायने नहीं रखती. अगर वहां भी बाप की पहचान जरूरी हो जाये तो भी शायद पिता जानवर दुम दबाकर उस तरह नहीं भागेगा जिस तरह इन्सान भागा करता है.
आखिर क्यों और कब से इस उपाय की जरूरत पड़ी? महाभारत काल में भी कुंती को शादी से पहले ही कर्ण के पैदा हो जाने पर उसे नदी में बहाना पड़ा था. अगर कुंती कर्ण को अपना लेती तो क्या उसे सम्मानजनक जीवन जीने दिया जाता? कुंती को भी उस समय में कर्ण के पिता का नाम पूछे जाने का डर न होता तो बहुत संभव था कि वो उसे अपना लेती. कुंती को भी उस समय में निर्दयी कहा गया था. उसी तरह के समाज में रहते हुए उसी तरह के तरीकों को आज भी अपनाया जाता है.
Friday, July 24, 2009
संपादकगण बेबस करें गुमाश्तागीरी...
अभी अभी बीते आम चुनाव में खबरों को जब बाजार की सुनहली पालकी में झुला कर उपभोक्ता के सामने रखा गया, तो खूब हाय-तौबा मची। चारों ओर से यह आवाज उठने लगी कि पत्रकारीय मूल्य में गिरावट आ गयी है और ख़बरों को अर्थ के आधार पर तय किया जाने लगा है। आप कुछ भी छापें हमें फर्क नहीं पड़ता… और खबरों से खेलना ही आपकी पत्रकारिता है… जैसे जुमले प्रयोग होने लगे। लेकिन ऐसा नहीं है कि ख़बरों को मसाले की छौंक मारकर परोसने का धंधा हाल ही में शुरू हुआ है। बल्कि इस तथाकथित मज़बूत स्तंभ पर आर्थिक या यूं कहे मिलावट की पुताई आज़ादी के बाद से ही शुरु हो गयी थी।
संपादकगण बेबस करें गुमाश्तागीरी
यद्यपि पेट भर खाएं न बस फांके पनजीरी
बढ़ा-चढ़ा तो अख़बार का कारोबार है
पांति-पांति में पूंजीवादी प्रचार है
क्या तुमने सोचा था कभी काले-गोरे प्रेसपति
भोले पाठक समुदाय की हर लेंगे गति और मति...
बाबा नागार्जुन ने यह कविता 1950-52 में लिखी थी। इन पंक्तियों को समझने में शायद ही किसी को दिक्कत हो? यहां पूजींवाद और संपादक के बीच पनप रहे नये रिश्ते की तरफ इशारा किया गया है। हां यह बात और है कि अब जाकर भोले-भाले पाठक को यह बात समझ में आयी है। इसलिए बहस का मुद्दा यह नहीं होना चाहिए कि ख़बरों में मिलावट कितनी हो रही है? बल्कि सोचना यह होगा कि आख़िर क्यों एक पत्रकार सत्ता की दलाली करने पर मजबूर है?
पिछले महीने ही मेरी एक स्ट्रिंगर से मुलाकात हुई। उसने बताया कि उसे एक ख़बर के लिए महज दस रुपये मिलते हैं। अख़बार में रोज़ाना उसकी दो-तीन ख़बर छपती है। इस तरह देखें तो उसकी मासिक आमदनी करीब हजार-बारह सौ रुपये ही बनती है। ऐसे में आखिर कब तक वह ख़बरों से इंसाफ कर पाएगा? एयरकंडीशन सेमिनारों में हम-आप पत्रकारिता को गांवों से जोड़ने की वक़ालत करते है। चलो गांवों की ओर जैसे नारे बुलंद करते है। लेकिन हममें से कौन गांवों में जाकर आदर्श पत्रकारिता करने को उत्सुक है? जवाब अपवाद में ही होंगे। आज भी गांवों की जो हालत है किसी से छुपी नहीं है। यहां चाय-नाश्ते के आधार पर ख़बर गढ़ी जाती है। ऐसे में जब तक स्ट्रिंगर या छोटे पत्रकार को सुविधा नहीं दी जाएगी, तब तक आदर्श पत्रकारिता की बात बेमानी ही साबित होगी। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि स्टिंगर ही पत्रकारीय मूल्य में आ रही गिरावट के लिए ज़िम्मेदार हैं। दरअसल यहां भी पूंजीवादी व्यवस्था का प्रभाव है, और यह सारा खेल मठाधीश बने पत्रकारों का खेला हुआ है, जो अपना लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं।
अपने सौ वर्षों से अधिक का लंबा सफर तय करने के बाद अब तो मीडिया बाकायदा एक उद्योग बन गया है। और हर उद्योग का मक़सद ही होता है, मुनाफा कमाना। मीडियाकर्मी तो मात्र कलम की नौकरी करते हैं और हुक्म की तामील में हाथ जोड़े खड़े रहते हैं। ऐसे में मीडिया को पत्रकारिता का पर्याय मानना ही मुगालते में रहना होगा। दिनोंदिन मीडिया मैनेजमेंट का दबाव भी इस कदर बढ़ रहा है कि समाचारों की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और तथ्यपरकता की बात बेमानी ही है। ये बात और है कि ख़बर को स्वतंत्र और निष्पक्ष समझने वाले दर्शक-पाठक को धोखा देने के बाद भी हम सिर उठाकर उनकी पत्रकारिता करने का दंभ भरते हैं।
दोस्तो, अब सोचना हम नई पीढ़ी को है। आत्ममंथन करें कि वाकई इस क्षेत्र में हम मिशन प्रधान पत्रकारिता करने आये हैं या उपभोग की संस्कृति का हिस्सा बनने? अगर नयी पौध भी पत्रकारीय मूल्य की तिलांजलि देकर ही पत्रकारिता करती है, तो वह भी उसी भीड़तंत्र का हिस्सा बनेगी, जिसकी नज़र में हाशिये पर खड़े आम आदमी की कोई कीमत नहीं। तब फिर बहस की बात बेमानी होगी?
Sunday, July 12, 2009
द्रविड़ इस बारे में क्या सोचते हैं यह कहना थोड़ा मुश्किल है । मगर यदि द्रविड़ अपने करियर में कुछ और उपलब्धियां जोड़ना चाहें तो उन्हें अपने खेल और प्रदर्शन में कुछ बदलाव करने होंगे।
भविष्य की नौजवान टीम बनाने की खातिर जिस शख्स की बलि दी गई आखिर उसे वापिस क्यों बुलाया जा रहा है? सौरभ गांगुली को बी तो इसी नीति के तहत बहार का रास्ता दिखाया गया। मगर हमने इन बदलावों की आलोचना कभी नही की। टीम को एक नए , फ्रेश और जोशीले रूप-रंग में समय के साथ बदलने के शायद हम भी इच्छुक रहे हैं।
पिछले साल में टीम का बेहतरीन प्रदर्शन दलीप वेंगसरकर के हिम्मत वाले फैसलों का ही नतीजा रहा। युवाओं को आगे लाने की नीति का सभी ने स्वागत किया। टीम ने पिछले साल लगभग हर सीरीज़ जीती। फ़िर अचानक टीम में एक बौखलाहट की स्थिति क्यों? क्या टी - २० वर्ल्ड कप में टीम का खराब प्रदर्शन इसका कारण है या फ़िर २० ओवर के इस खेल में टीम की कमजोरियां जग ज़ाहिर होने लगी हैं? और शायद इसी लिए द्रविड़ का चुनाव मिडिल आर्डर की मजबूती के लिए चयनकर्ताओं की मजबूरी बन गया।
द्रविड़ के चुनाव के पीछे यदि चयनकर्ताओं की यही सोच है तो इसे एक लघुकालीन उपाय माना जाना चाहिए। सिर्फ़ टी-२० वर्ल्ड कप में हार से सभी की सांसें क्यों रुकने लगीं? क्यों सिर्फ़ एक सीरीज़ में हार से एक विजेता टीम से बिश्वास उठने लग गया??
श्रीकांत समेत चयनकर्ताओं का यह फ़ैसला भविष्य की युवा टीम की ओर आगे बढ़ने की खातिर पीछे को लिया एक कदम है।
Tuesday, July 7, 2009
बच्चा बच्चा हिंदुस्तानी मांग रहा है पानी
हाल ही में एक सर्वेक्षण पढ़ा था कि दिल्ली में 25 प्रतिशत लोगों को नहीं मालूम कि यमुना नदी दिल्ली से गुजरती है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि यहां के लोगो का सामान्य ज्ञान कमजोर है। बल्कि मेरा मानना है कि लोग अभी भी पानी को लेकर उतने जागरूक नहीं हुए हैं, जितने होने चाहिए। शायद इसलिए अपनी कुल लंबाई (22 किमी.) की मात्र दो प्रतिशत दिल्ली में बहने वाली यमुना में 80 फीसद प्रदूषण यहीं होता है। ''सेंटर फॉर साइंस एंड एंनवायरमेंट'' की सुनीता नारायण भी कहती है कि 'यमुना दिल्ली में दम तोड़ चुकी है, मात्र उसे दफनाया जाना है।' पानी की ठीक यही कहानी देश के बांकी हिस्सों में भी दिख रही है। बाढग़्रस्त इलाके को छोड़ दें तो कमोबेश भारत का सभी हिस्सा पानी के लिए संघर्ष कर रहा है। मध्यप्रदेश में पुलिस की देखरेख में पानी बांटी जा रही है (वह भी राशन कार्ड के आधार पर), दक्षिण के इलाकों में कई लोग पानी बिना काल के गाल में समा चुके हैं और तो और दिल्ली में ही प्रतिदिन 30 करोड़ गैलन पानी की कमी हो रही है।
आखिर ऐसा क्यों ? कौन है इस विकट स्थिति के लिए जिम्मेदार ? क्या नदी घाटी सभ्यता का अंत पानी नहीं मिलने के कारण होगा ? क्या पानी के लिए तीसरे विश्वयुद्घ की आशंका सही साबित होगी ? इन सवालों के जवाब हमें ही ढूढऩें होंगे।
यहां मैं आपको रघुवीर सहाय की यह प्रसिद्ध कविता 'पानी' के साथ छोड़ रहा हूं-
पानी पानी
बच्चा बच्चा
हिंदुस्तानी
मांग रहा है पानी
जिसको पानी नहीं मिला है
वह धरती आजाद नहीं
उस पर हिंदुस्तानी बसते हैं
पर वह आबाद नहीं
पानी पानी
बच्चा बच्चा
मांग रहा है हिंदुस्तानी
जो पानी के मालिक हैं
भारत पर उनका कब्जा है
जहां न दे पानी वां सूखा
जहां दें वहां सब्जा है
अपना पानी
मांग रहा है
हिंदुस्तानी
बरसों पानी को तरसाया
जीवन से लाचार किया
बरसों जनता की गंगा पर
तुमने अत्याचार किया
हमको अक्षर नहीं दिया है
हमको पानी नहीं दिया
पानी नहीं दिया तो समझो
हमको बानी नहीं दिया
अपना पानी
अपनी बानी हिंदुस्तानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है
धरती के अंदर का पानी
हमको बाहर लाने दो
अपनी धरती अपना पानी
अपनी रोटी खाने दो
पानी पानी पानी पानी
बच्चा बच्चा मांग रहा है
अपनी बानी
पानी पानी पानी पानी
पानी पानी
Friday, July 3, 2009
Communication For Presentation
Thursday, June 25, 2009
एस.पी.पर संगोष्ठी :
एस.पी.पर संगोष्ठी :
भारत में आधुनिक टेलीविजन पत्रकारिता के जनक माने जाने वाले एस.पी.सिंह की 12 वीं पुण्यतिथि के मौके पर प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया में एक संगोष्ठी का आयोजन किया जा रहा है. इस अवसर पर मीडिया पर केंद्रित हिंदी की मासिक पत्रिका "मीडिया मंत्र" के जुलाई अंक का विमोचन भी किया जायेगा, जो कि एस.पी.सिंह पर केंद्रित है. संगोष्ठी में मीडिया जगत के जाने - माने लोग शामिल होंगे जो एस.पी से संबंधित अपने संस्मरणों को साझा करेंगे. इस अवसर पर आप सभी सादर आमंत्रित हैं.
स्थान : प्रेस क्लब ऑफ़ इंडिया, रायसीना रोड, नई दिल्ली तिथि : 27 जून, 2009दिन : शनिवार समय : 3 बजे संपर्क : 9999177575
Tuesday, June 23, 2009
सफर... कुछ खट्टे मीठे अनुभव
आज बहुत दिनों के बाद बाइक को आराम देकर ऑटो रिक्शा का सफर किया... दुपहिया को छोड़कर तिपहिया का सफर काफी थकान भरा था... लेकिन इस सफर में वर्तमान में चल रहे हालातों से बारीकी से रुबरु होने का मौका मिला... आज की सुबह शायद अपनी जिंदगी में दसवी या ग्यारहवी बार सुबह पांच बजे उठा... जल्दी जल्दी में दिनचर्या की शुरुआत कर ऑफिस पहुंचने के चक्कर में ऑटो के लिए सड़क पर जा खड़ा हुआ... ऑटो आया... खचाखच भरा हुआ था... पेड़ के एक सिरे से लटकते फल की तरह मैं भी ड्राइवर की सीट पर लटक गया... फिर कुछ ऐसी बातें सुनने को मिलीं... जिनसे मैं अंजान तो नहीं था... लेकिन उन्हें लेकर इतना गंभीर भी नहीं था... जैसे विश्वयापी मंदी... हालांकि मंदी से मैं भी अछूता नहीं हूं... मैं भी इन दिनों मंदी के भंवर में फंसा हुआ हूं... लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं... जिन्हें इस मंदी ने कहीं का भी नही छोड़ा है... अब तक मैं यह सिर्फ अखबारों और टीवी पर पढ़ और देख रहा था... लेकिन कल ऑटो में दो लोगों की बातचीत सुनकर मुझे अहसास हुआ कि... मंदी का दौर कितना भयानक है... पिछली सीट पर बैठे एक शख्स की बातों पर जब मैंने गौर किया तो... पता चला कि मंदी से पहले वो छ लोगों की रोजी-रोटी का सहारा था... उसका अपना ठेकेदारी का काम था... और उसने छ लोगों को नौकरी पर रखा हुआ था... लेकिन आज हालात ये है कि छ लोगों को नौकरी देना तो दूर... वो खुद के लिए कोई काम नही जुटा पा रहा है... दूसरा शख्स एक प्राइवेट फैक्ट्री में काम करता था... उसकी हालत तो काफी खराब थी... घर में छ लोगों के ऊपर वो एक कमाने वाला था... और उसे भी पिछले तीन-चार महीनों से सैलरी नही मिली थी...खैर मेरे उतरने का समय नजदीक आ पहुंचा था...मैंने ऑटो से उतर गया... और आगे के सफर के लिए मैं डीटीसी की बस में सवार हुआ... लेकिन मेरा दिमाग अब भी उन लोगों के बारे में सोच रहा था... कि मैं तो अकेला हूं... घर में हम पांच लोग हैं... लेकिन भगवान की कृपा से जिंदगी मजे से गुजर रही है... मंदी की खबरें पढ़कर डर तो लगता है... लेकिन सिर्फ नौकरी न मिलने के सिवाय मेरे पर इसका ज्यादा असर नहीं पड़ा... हालांकि मंदी में भी मेरे पास मौके आए... लेकिन बदकिस्मती से मैं उन्हें भुना नहीं सका... बहरहाल मैं बस में बैठा उन लोगों के बारे में ही सोच रहा था... तभी एक हमउम्र शख्स ने मेरे हाथ में एक पर्चा थमाते हुए... मुझसे उस पर लिखे हुए पते के बारे में बताने को कहा... उस पर्चे पर लिखा था... कि हम लोग युवाओं को फिल्मों में मौका दिलाते हैं... और अब तक हमारे यहां से निकलकर कई लोग फिल्मों की इस रंगीन दुनिया का हिस्सा बन चुके हैं... सूर्या प्रॉडक्शन हाउस... पता लक्ष्मी नगर.... मैंने ये सब पढा... और मन ही मन मुझे एक खीझ भरी हंसी आई... मेरा जो अनुभव रहा है... उसके आधार पर मैंने उसे इसके पचड़े में न पड़ने की सलाह दी... तो उसने बताया कि... मैं नौकरी की तलाश में... और फिल्मों में अपनी करियर बनाने के लिए मध्य प्रदेश से दिल्ली में आया हूं... मेरे पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे... जो मंदी की भेंट चढ़ गयी... मैं घर में सबसे बड़ा हूं... अब सब मेरे कंधों पर आ टिका है... उसकी बातें सुनकर मुझे बहुत दुख हुआ...और मैंने सोचा कि नौकरी की तलाश में कितने ही युवा इस तरह ठगी का शिकार बन जाते हैं... क्योंकि इस तरह के संस्थान सिवाय युवाओं को बेवकूफ बनाने के और कुछ नहीं करते... अब तक मैं मंदी के भंवर में ही फंसा हुआ था... मेरी मंजिल करीब आ चुकी थी... और कुछ देर बाद मैं एक कांच की बिल्डिंग में दाखिल हुआ... जो कि मेरा ऑफिस है... मंदी फुर्र हो चुकी थी... अब सब कुछ रोजाना की तरह था... अचानक बुद्धु बक्से पर नजर गयी... और जो मैंने देखा... उसे देखकर मैं हैरान रह गया... आज पूरे सफर के दौरान मंदी से ही पाला पड़ा था... औऱ जो खबर मैंने देखी... वो मंदी के इस दौर में एक हैरान करने वाली घटना थी... सिटी ग्रुप के एशिया-प्रशांत के सीईओ को नब्बे करोड़ रुपए का सैलरी पैकेज मिला है... इस मंदी के दौर में इतनी बड़ी कमाई वाकई हैरान कर देने वाली थी... दूसरे मुंबई में एक सात सितारा होटल खोला गया... ये सब उस मंदी का दौर है... जिसमें कर्मचारियों की सैलरी कट रही है... छंटनी हो रही है... कंपनियां बंद हो रही है... और इधर तो सब कुछ उल्टा ही नजर आता है... दोपहर के दो बज चुके थे... और मेरे घर जाने का वक्त हो चुका था... मेरे जेहन में कुछ सवाल हिलोरें ले रहे थे... और मैं अब तक उनके जवाब ढूंढने की कोशिश में लगा हुआ है... थोडे सोचने-विचारने के बाद मुझे ये लगा कि... चाहे सूखा पड़े... या बारिश हो... या फिर मंदी का भयावह दौर हो...कुल मिलाकर इन सब की मार आम आदमी पर ही पड़ती है... और लोग तो सिर्फ इसकी तपिश महसूस करते हैं...
Saturday, May 30, 2009
२५मई से बदल रहा है
25 मई से बदल रहा है....25 मई से छोटे पर्दे के कार्यक्रमों में जो बदलाव आया....उसे देखकर लगता है कि महिलाओं को सिर्फ एक कमोडिटी की भांति प्रयोग करता आ रहा टेलिविजन अब कुछ बदल रहा है....और आज की आधुनिक संघर्षरत महिला की छवि को देश के सामने पेश करने की कोशिश कर रहा है....हाल ही में देखने में आया कि एक के बाद एक एंटरटेनमेंट चैनल ने महिलाओं की दमदार भूमिका वाले कुछ टीवी सीरीयलों का प्रसारण शुरु किया....जिनमें एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित होने वाला ज्योति, सोनी पर प्रसारित होने वाला लेडिज स्पेशल, पालमपुर एक्सप्रेस, कुछ ऐसे सीरीयल हैं....जो आज की भागमभाग भरी दुनिया में एक संघर्षरत महिला की भूमिका को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं....जबकि आज से पहले टीवी महिला को एक कमोडिटी के रुप में पेश करता आ रहा था....महिला को टीवी विज्ञापनों और सीरीयलों में एक कमजोर पात्र के रुप में पेश किया जाता था....उसे ऐसी भूमिकाओं में पेश किया जाता था....जैसे इस जमीं पर वो प्रकृति की सबसे कमजोर प्राणी में से एक है....लेकिन जैसे-जैसे समाज में नारी का कद बढ़ता चला गया....और एक के बाद एक कई महिलाओं ने सफलता के शिखर पर अपने झंडे गाड़े....उसे सिर्फ पूरे समाज ही नहीं, बल्कि टेलिविजन ने भी स्वीकार कर लिया है..... ऐसे में अगर ऊपर वर्णित सीरीयलों के पात्र के बारे में बात करें तो एनडीटीवी पर प्रसारित होने वाला सीरीयल ज्योति एक ऐसी लड़की की कहानी है....जो विषम से विषम परिस्थितियों में पूरी हिम्मत के साथ डटकर उसका सामना करती है....औऱ आज के समाज की ऐसी संघर्षरत महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है....जो तमाम दुखों के बावजूद सारी परेशानियों को सहकर दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी का त्याग कर देती हैं....जबकि सोनी पर प्रसारित होने वाले पालमपुर एक्सप्रेस की लड़की का किरदार....आज की उस लड़की को दर्शाता है....जिसमें कुछ करने की ललक है....उसमें अपने सपने को सच करने की हिम्मत है....वो भी औरों की तरह आगे बढना चाहती है....अपना एक अलग मुकाम हासिल करना चाहती हैं....इसी के साथ अगर सोनी के ही कार्यक्रम लेडिज स्पेशल की बात की जाए....तो वो तस्वीर है....आज की संघर्षरत नारी की....जो किसी भी सूरत में मर्दों से पीछे नहीं है....वो भी मर्दों की तरह की नौकरी करती है....और परिवार को चलाने में उसकी भी बराबर की हिस्सेदारी होती है....वो भी अपने फैसले लेने की कुव्वद रखती है....
इन सब सीरीयलों को देखकर लगता है कि समाज और टेलिविजन दोनों ने नारी के महत्व को पहचान लिया है....और वो समझ गया है कि....नारी अबला नहीं सबला है....टेलिविजन की इस पहल को एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है....उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में भी टेलिविजन इस दिशा में कुछ और महत्वपूर् कदम उठायेगा....
अमित कुमार यादव
Friday, May 29, 2009
शुक्रिया
आज भी याद है वह दिन जब अनिल चमड़िया सर के कैबिन में मुझे सर ने कहा था- तुम्हें ऐसी कई चीजें पता हैं जे ये सब नहीं जानते। तुम अपनेआप को किसी से कम क्यों समझती हो।
वह दिन जब लालबहादुर ओझा सर ने मेरी एक बात पर गुस्सा होकर कहा था - तुमसे तो हम यह उम्मीद नहीं करते। तब मुझे पहली बार लगा कि मुझसे उम्मीद की जा रही है।
और सबसे ज्यादा वह दिन जब डॉ आमंद प्रधान सर ने मेरे पिताजी से यह कहा कि ये मेरा नाम रौशन करेगी।मुझे ये बात बाद में मालूम हुई।
अब जब मैं टॉपर बन गई हूं, तो मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे यह विश्वास और मार्गदर्शन नहीं मिला होता, तो मैं शायद आईआईएमसी के सुनहरे इतिहास का इस तरह हिस्सा नहीं बन पाती। मेरी इस खुशी का श्रेय मेरे अध्यापकों को जाता है, लेकिन मेरी इस खुशी में उतने ही भागीदार मेरे हिंदी पत्रकारिता के सभी दोस्त हैं, जिन्होंने मेरा उत्साह बनाए रखा और मुझे नई चीज़ें सिखाईं।
खासतौर से मेरी वो सहेलियां जिन्होंने मुझसे अपनी-अपनी असाइमेंट का त्याग करने की बात कही थी ताकि मैं टॉप करके उन्हें पार्टी दे सकूं।
सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया।
चेतना भाटिया
Saturday, May 23, 2009
Wednesday, May 20, 2009
बहकी पत्रकारिता की डगर
मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ। इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।
मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलने का समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।
Monday, May 18, 2009
कांग्रेस के jeetne की वजह विकल्पहीनता तो नही.
Banagi के तौर पर namcheen logno के विचार mauzood हैं , economic times के editorial में पड़ा की swami जी कैसे इस जीत को Mahamandi के is दौर में Bhartiya Kisano की samridhi से jod कर देख रहे हैं। मशहूर yashvant deshmukh का kahna है की bhajpa का negative prachar ही उसके लिए taaboot की keel sabit हुआ । बीबीसी के संजीव जी का kahna है की janta ने भ्रष्ट logno को छोड़कर honest logno को chune है।
पर mai ये समझ नही pa रही हूँ की ये vahi पार्टी है जिस के ऊपर vansvad की rajneeti और भ्रष्टाचार की neeti अपनाने की muhar लगी हुई है। फ़िर हमk हदे कांग्रेस अन्य सभी विकल्पों के मुकाबले सबसे है और शायद कांग्रेस ।
की जीत की सबसे बड़ी वजह ये विकल्पहीनता ही है mahima और दक्षिण morche की जीत बता रहे हैं वो गलती पर हैं , ये janadesh ishara कर रहा है की देश में हर कोई aarthok sithirta चाहता है और mandi की zabardast मर से trasr इंडिया इससे bahar आना चाहता है । janta etni समझदार है की वो ये समझ रही है की mandi सिर्फ़ हमारे देश की दिक्कत नही है ये pure vishv में है और उसने ये भी देखा है की congress सरकार ने इससे bahar आने की , इसे jhuthlane की पुरी कोशिश की है । Congress अपनी नीतियों में saaf है वो आम आदमी के mukhaute में अपनी नीतियों को chhipane और bahkane में पुरी तरह safal रही है। Congress के pas neta हैं जो en नीतियों के लिए janta के आगे jimmedari ले सकते हैं । kahne के matlab ये है की mauzooda halat में jahan हम hade हैं वहां से Congress anya sabhi vikalpon ke mukable sabse मज़बूत hai। Aur shayad Congres ki jeet ki sabse badi vajah ye vikalpheenta hi hai.
Friday, May 15, 2009
क़साब को हँसीं क्यों आती है?
आप अदालत में लगातार तो नहीं हँस सकते. चाहे आप कितने भी बड़े अपराधी क्यों न हो. अदालत में हँसने की एक सीमा होती है. आखिर अदालत एक पवित्र स्थान जो ठहरा, जहाँ आपको पवित्र धर्म-ग्रंथों की कसमें खिलाई जाती हैं और उम्मीद रखी जाती है कि अब आप सच बोल रहे हैं.
हम और आप बस ये कल्पना कर सकते हैं कि क़साब को इतनी हंसीं क्यों आती है और वो भी हमारी अदालतों में? क़साब को पकड़े जाने के बाद पता चला होगा कि उसके लिए लोगों के दिल में कितना गुस्सा है! उसकी वजह से भारत के गृह-मंत्री को त्याग-पत्र देना पड़ा. एक राज्य के मुख्य-मंत्री और उप-मुख्य-मंत्री को अपने पद से हाथ धोना पड़ा. और तो और हमारे अत्यंत जागरूक विपक्षी दलों को सरकार को उखाड़ फेंकने को एक और मुद्दा मिल गया. कुल मिलाकर पूरे के पूरे इंडिया की ऐसी की तैसी कर दी एक क़साब ने. उसी क़साब को सज़ा दिलवाने के लिए जब वक़ील मुश्किल से मिला/मिली तो क्रोधित जन-मानस ने वक़ील को धमकाने की कोशिश की. क़साब को लगा होगा कि ये लोग मुझे जल्द से जल्द सज़ा दिलवाने के ख्वाहिशमंद भी हैं और ज़रूरी प्रक्रिया 'पूरी' भी नहीं होने देते.
ज़रूर उसे हँसी आयी होगी, और फिर ये सिलसिला चल पड़ा. जेल में जाकर उसे मालूम हुआ होगा कि भारत में कई ऐसे केस हैं जहाँ ह्त्या(इरादतन और गैर-इरादतन दोनों) के मामले सालों साल चलते जाते हैं-चलते ही जाते हैं.. और मुंबई में होकर उसे सलमान खान के बारे में पता न चले ये कहना थोडा मुश्किल है. सलमान इसीलिए क्योंकि वह पाकिस्तान में भी जाना पहचाना नाम है और हत्या और शिकार करने के आरोपों से जूझते हुए कई तारीखों का सामना करने के बाद उसने ये बयान दिया कि 'या तो उसे लटका दिया जाये या छोड़ दिया जाये.'
क़साब को वरुण गाँधी पर भी हँसी आई होगी, वो इसीलिए कि वरूण को शिकायत थी कि क़साब को जेल में तंदूरी चिकन खिलाया जाता है और उन्हें लौकी की सब्जी, जबकि उन पर आरोप क़साब से ज्यादा गंभीर हैं.(वरुण पर रासुका और क़साब पर हत्या, षडयंत्र जैसे मामले हैं.) क़साब को पता चला होगा कि भारत में आरोप किस आधार पर लगाए जाते हैं और वो मन ही मन कह रहा होगा, 'बेटा तंदूरी चिकन खाने के लिए काम भी बड़ा करना पड़ता है'(बशर्ते उसे तंदूरी चिकन मिलता हो).
क़साब ने जेल में टीवी की भी मांग की थी. उसने ज़रूर ग्रीनवुड प्लाई के उस विज्ञापन के बारे में भी सुना होगा जिसमें वकील, जज, अभियुक्त सभी बूढे हो जाते हैं लेकिन अदालत का फैसला नहीं आता है, केस चलता ही रहता है और वक़ील साहिबा कहते-कहते थक जाती है की मुजरिम जीवनलाल को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये. क़साब इस विज्ञापन को देखना और समझना चाह रहा होगा कि भारत में अदालती कार्यवाही कैसे होती है! उसे लग रहा होगा कि अगर वह भी फैसले के इंतजार में बूढा हो गया तो...
अब क़साब जज साहब की इस बात पर कैसे अमल कर सकता है कि 'वह अदालत में गंभीरता दिखाया करे!'
Tuesday, May 5, 2009
उस लड़की को किसने मारा ?
मुझे उम्मीद है कि उसने मरने से पहले बाकी के २८ रूपये नहीं दिए होंगे. देती भी कहाँ से, उसके घर में तीन वक़्त का खाना भी नहीं रहता था. उस दलित लड़की का नाम कविता था. कविता की छोटी बहन(जिसकी उम्र अभी ११ से ज्यादा नहीं है) भी क़रीब ६ महीने पहले बलात्कार की शिकार हुई थी. बलात्कारी उसका रिश्ते में दादा लगता था. ६ महीने बीतते-बीतते ही वह आरोपी जेल से बाहर था और अपनी सरकारी नौकरी(ड्राइवरी) पर बहाल भी. कविता के मरने की ख़बर सुन कर धक्का लगा. वह प्रेग्नेंट थी और उसके प्रेमी ने उसके साथ शादी करने से मना कर दिया था. मैं सोचता रहा कि क्या उसे मरने की ज़रुरत थी(उसे मारने में किसका हाथ है) ?
बहुत सोचने पर लगा कि उसे मारने में मेरा, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्तों बल्कि उस समाज में रहने वाले सभी लोगों का बराबर का हाथ है. वह जिंदा नहीं रह सकती थी. दरअसल हम लोग उसे जिंदा रहने ही नहीं देते. उसे हम सब अपनी बातों से या निगाहों से रोज़-रोज़ मारते रहते. इस रोज़-रोज़ की मौत मरने से, उसने एक ही बार में मर जाना बेहतर समझा.
एक जानवर भी कहीं पर बैठने से पहले उस जगह को साफ़ कर अपने बैठने लायक बनाता है. हमने अपने रहने के लिए ऐसी जगह बनाई है, जो कुछ ही लोगों के लिए है. पहले तो सीधे-सीधे आधी आबादी इस जगह से बाहर हो जाती है. अगर कविता ने अपने प्रेमी को शादी के लिए मना किया होता तो शायद वह लड़का ज़हर खाने कि हिमाकत नहीं करता. हो सकता है कि वह कविता के चेहरे पर तेज़ाब वगैरह फेंक कर उसे इस बेवफाई की सज़ा देता या कविता की कहीं और शादी तय होने पर लड़के वालों को कविता और अपने पुराने संबंधों के बारे में बता कर 'बदला चुकाता'. लेकिन कविता क्या कर सकती थी? वही जो उसने किया. उसके हाथ में इससे ज़्यादा कुछ करने को भी नहीं था.
एक दलित लड़की जिसे उसके प्रेमी ने छोड़ दिया हो वह उस समाज के लिए उपहास और हिकारत का सामान बन जाती है. और 'ऊंची जाति' के लड़कों के लिए एक लक्ष्य. अगर यही चीजें वहाँ किसी ऊंची जाति वाले घर में या यहाँ दिल्ली में हुई रहती तो शायद लड़की को मरने की ज़रूरत नहीं पड़ती और पड़नी भी नहीं चाहिए. हमने अपने समाज में औरतों के लिए तो इज्ज़त खोने की व्यवस्था की है जबकि आदमियों की कभी इज्ज़त जाते नहीं देखी गयी है.
Monday, May 4, 2009
बदलता भारत का परिदृश्य
प्रसार जोरों पर है। हर पार्टीया झूठे आश्वासन दे रही है जनता को में वो कर दिखाऊगा जो किसी ने नहीं किया और जितने के बाद बस मैं हुँ और कोइ नहीं....कसमें वादे प्यार वफा के वादे है,, वादों का क्या, कोइ किसी का नहीं सब नाते है, नातों का क्या। जी यही होता है, और यही होता रहेगा,.... आखिर कब तक ये नेता भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाते रहेगें और राजनीती करते रहेगे। आज युवाओं का जज्बा भी मरता जा रहा है..... ऐसे में क्या करे युवा।
आज देश की राजनीती का भी यही हाल है, एक से बढकर एक भ्रष्ट राजनेता। आज देश को युवा नेताओं की जरूरत है, जो इस समपूर्ण परिदृश्य को बदल देगें ,मोदी का कहना सही है, काग्रेस बुढिया गुङिया हो गई है, लेकिन उनका कहना कहा तक सही है, ये उनसे बढकर कौन जान सकता है। इसे दोहराने की जरूरत नहीं सब जानते है। जनता को कोइ नई सरकार की जरूरत है, जो कुछ नया बदलाव लाये। काग्रेस की राजशाही से हम तंग आ गये। देश के सामने विकास ही मुदा नही है और भी मुदे है जिस पर हमें गोर करना करना बहुत जरूरी है।
देश के सामने अनेक चुनौतिया है गरीबी, बेरोजगारी , आतंकवाद, इन सबसे निपटने के लिये एक युवा व मजबूत नेता, एक निर्णायक सरकार की जरूरत हैं। जो हमें चुनना होगा,हमारा एक वोट पूरी राजनीती को बदल सकता है। वरना वो दिन दूर नहीं जब भारत की स्थिती ईराक जैसी हो जायेगी जिसके लिये जिम्मेदार हर इन्सान होगा। अत सोच समझ कर वोट करे।
आज पार्टियों की स्थिती बडी अजीबों गरीब है, सब की अपनी-अपनी विचारधारा तो है लेकिन सभी सत्ता के दोर में गिरते पङते भाग रहे है और इस दोर में अपनी ही विचारधारा को रोंद रहे है। सभी बहुमत पाना चाहती है, सभी के पास कुछ गिने चूने मुदे होते है, उन्हीं का वह ढोल पीटती रहती है, और उन्ही को वह चुनावी मुदा बनाती है, और मुदे भी उनके बेबुनियाद होते है। ऐसी है भारतीय राजनीती की वर्तमान नैया जो बीच मझधार में हिचकोले खा रही है। इसका खैवया तो हर कोइ बनना चाहता है, लेकिन न तो उसे नाव की दशा और दिशा का पता है।
पप्पू मत बनिए, वोट दीजिए
पप्पू मत बनिये ! वोट दीजिए। वोटरों को उनके वोट की अहमियत बताने के लिए इस बार विज्ञापन पर अच्छी खासी रकम खर्च की गई। लेकिन चुनावों के तीन चरणों में जो वोटिंग प्रतिशत रहा उसे देखकर लगता है कि पप्पू फेल तो नहीं हुआ लेकिन कंपार्टमेंट जरुर ले आया। यहां पर पप्पू से तात्पर्य केवल युवा मतदाताओं से ही नहीं है बल्कि हर आयु वर्ग के वोटरों से है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में जहां साठ प्रतिशत वोटिंग हुई, वहीं दूसरे चरण में इसमें गिरावट आई और वोटिंग प्रतिशत केवल ५५ फीसद ही रहा जबकि तीसरे चरण तक आते-आते मतदान प्रतिशत के आंकड़ो में अतिरिक्त गिरावट आई और इस बार केवल ५० फीसदी ही वोटिंग हुई। कारण कुछ भी हो सकते हैं। कोई चिलचिलाती गर्मी को एक बड़ी वजह बता रहा है तो कोई अच्छे उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में होने से वोटरों के मोहभंग होने को इसका एक बड़ा कारण मान रहा है। बहरहाल कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन अगर एक लोकतांत्रिक देश की जनता की ही लोकतंत्र के इस महापर्व में भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी तो चुनावों का आयोजन महज खानापूर्ति बनकर रह जायेगा।
मुरली की चाय
पुरानी जींस और गिटार, मुहल्ले की वो सड़क और मेरे यार, रेडियो पर ये गाना सुना तो फिर से मन लौट गया उन्हीं गलियों में जहां जिंदगी का एक हसीन लम्हा बिताया। आईआईएमसी के नौ महीने मेरे लिए हनीमून की तरह थे। हरियाली और पक्षियों के कलरव के बीच पत्थरों पर बैठकर मुरली की चाय की चुस्की लेना और दोस्तों के साथ गपशप लड़ाना एक कभी न भूलने वाला पल है। दस बजे की क्लास के लिए सुबह साढे नौ बजे उठकर जल्दी जल्दी भागना, इतना ही नहीं इससे पहले एक प्याली चाय पीना सब बहुत याद आता है।मुरली.....जितनी मीठी मुरली की तान, उतनी मीठी मुरली की चाय। दस से पांच बजे तक की क्लास के बीच पांच-छः प्याली चाय गटकना आम बात थी। मुरली की दुकान हमारे लिए एक मंच थी- विचारों के लेन-देन का, बहस-मुहाबसे का। मुरली की दुकान पर जहां पूरे दिन का प्लान तय होता था, वहीं अगर वक्त मिलता तो लालू और सोनिया की बातें भी होती थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी-कभार मूड खराब होता था तो , राजनीति पर भी बहस होती थी। मुरली की दुकान समाज को समझने का एक ठिकाना थी। मुझे याद आता है कि एक मजदूर मुरली की दुकान पर चाय पीने के लिए आता था। अगर मैं उसका एक रुपक पेश करुं तो जर्जर काया, कंधे पर पड़ा एक गमछा और एक धोती के अलावा शायद और उसके पास कुछ नहीं था। यह सब देखकर ह्रदय में एक पीड़ा होती थी कि, एसी के बंद कमरे में बैठकर बार-२ यह कहना कि देश के करीब ८० प्रतिशत लोग २० रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं, सब व्यर्थ है बेकार है। खैर मैं भी कहां समाजवादियों की तरह बातें करने लगा, जो मंचों पर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन असल में उन्हें यह सब देखकर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आईआईएमसी के अहाते में मुरली की चाय की दुकान का एक अलग महत्व था। मुरली की चाय पीते-पीते ५-६ महीने मजे से बीते, लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि मुरली को वहां से हटा दिया गया है। हमारे बीच से मुरली की दुकान का जाना सिर्फ यह नहीं था कि हमें अब उसकी चाय से वंचित होना पड़ेगा, बल्कि वहां होने वाली बहसें, विचारों का लेन-देन सब खत्म हो जायेगा। ५-६ महीने में हमारा मुरली के प्रति एक लगाव सा हो गया था, जिसे हम ऐसे तोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा हमने सोचा कि इसके खिलाफ प्रशासन के पास जाएंगे। हमने ये बात अपने गुरुओं के सामने रखी, लेकिन वो भी किसी के आदेश तले दबे थे। हम लोग कुछ नहीं कर पाए। मुरली को वहां से हटा दिया गया। मुरली को हटाने के पीछे कारण दिया गया, छात्रों का मुरली की दुकान पर सिगरेट के छल्ले उड़ाना, जो दुकान हटने के बाद भी जारी रहा। क्योंकि आप किसी से उसकी रोटी छिन सकते हैं, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं कर सकते और एक सिगरेट पीने वाले को अगर सिगरेट पीनी होगी तो वो कहीं से भी लाकर पिएगा। मुरली को हटाने का असल कारण सिगरेट पीना नहीँ था, बल्कि मामला था मुरली की चाय की वजह से कैंटीन वाले की चाय में उबाल न आना। ज्यादातर छात्र मुरली की दुकान पर चाय पीते थे। कोई कैंटीन की वो बकवास चाय पीना पसंद नहीं करता था। बस सिगरेट का बहाना बनाकर मुरली पर नकेल कस दी गई। कुछ दिनों बाद एक सुबह मुरली को संस्थान के बगीचे में फावड़ा चलाते देखा, तो एक पीड़ा की अनुभूति हुई, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। एक गरीब को कैसे न कैसे तो अपना पेट पालना ही था। मुरली वहां से चला गया लेकिन आज भी जब संस्थान जाता हूं तो मुरली की याद फिर से ताजा हो जाती है।
Sunday, May 3, 2009
कैसा और किसका चुनाव?
देश के सभी १८ साल से ऊपर के लोगों का नाम वोटर लिस्ट में नहीं होता। इस पर लगभग आधे लोगों का मत देकर किसी को नेता चुनना और उसका १०- २० फीसदी वोट लेकर संसद में जाना ये हमारे लोकतंत्र की हकीकत है। पिछले साल के आख़िर में हुए मुंबई हमले के ख़िलाफ़ सपनों की नगरी के लोगों का गुस्सा देखकर लगा शायद इस बार मुंबई वासी नींद से जग जायें। लेकिन इस बार पिछले साल(४५ फीसदी) से भी कम- ४४ फीसदी मतदान कर मुंबई ने बता दिया है कि उसकी नींद अभी खुली नही है। इस नींद को तोड़ने की कोशिश फ़िल्म जगत के सितारों ने भी की। जिन्हें देखकर पूरा देश कपड़े पहनता हो, बाल कटाता हो या उन्हीं की तरह जीने की कोशिश करता हो, जनता ने उनकी बात भी नहीं मानी। वैसे इन सितारों में से आधे ख़ुद वोट देते नज़र नहीं आए।
चुनावों में मत नहीं देने का मतलब या तो चुनावों का विरोध हो सकता है या फ़िर गहन उदासीनता। चुनावों का विरोध किसी न किसी वजह से किया जाता है। लेकिन इस तरह की उदासीनता ज़्यादा ख़तरनाक है, जब आप बिना बात किए कैकई की तरह कोपभवन में मुंह फुला कर बैठ जायें! देश के नेतृत्व को इस बात को समझना होगा कि क्यों जनता लगातार चुनावों से मुंह मोड़कर खड़ी है?
Thursday, April 30, 2009
पत्रकारिता का नया रुप
टीवी पत्रकारिता में काम करने के लिए सिर्फ सुंदर दिखना ही काबिलियत बनकर रह गया है। अभी हाल ही में दो तीन ऐसी घटनाएं हुई कि टीवी चैनल की दुनिया से घृणा सी होने लगी है। इन दिनों एक निजी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा हूं। चैनल का नाम लेना उचित नहीं है। यहां एक दिन ऐसा वाकया पेश आया कि एक मोहतरमा जो चैनल में पिछले करीब एक दो सालों से काम कर रही हैं, उन्हें प्रणब मुखर्जी की बाइट कटाने के लिए बोला गया। प्रणब मुखर्जी यूपीए सरकार की उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे थे। इन मोहतरमा पांच छ बार बाइट को सुना होगा। इसके बाद वीडियो एडिटर के कान में इन्होने होले से पूछा कि ये यूपीए कौन सी पार्टी है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसे लोग पत्रकारिता करने आएंगे तो लोकतंत्र के इस चौथे पाये का भगवान ही मालिक है। दूसरे वाकया मेरे एक मित्र के साथ हुआ। मेरे क्लास के चार लोगों को एक चैनल में इंटर्नशिप के लिए भेजा गया। चैनल में जाने के बाद चैनल ने जिस आधार पर छात्रों का चुनाव किया, जब आपको पता चलेगा तो आप शायद आधुनिक पत्रकारिता के इस चेहरे पर विश्वास न करें। जिस शख्स को इन लोगों में से कुछ को चुनना था उन्होने सभी लोगों के चेहरे देखें और जो उन्हें अच्छा लगा, उसी आधार पर उन्हें इंटर्नशिप पर रख लिया गया। अगर पत्रकारिता करने के लिए सुंदर होना सब कुछ रह गया है तो फिर मेरे जैसे सांवले और काले लोगों को तो अपना भविष्य देख ही लेना चाहिए।
Wednesday, April 29, 2009
सीने में जख्म, आंखों में तूफान सा क्यूं हैइस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है,कुछ ऐसे ही उलझन के दौर से आजकल मैं गुजर रहा हूं। क्या कर रहा हूं, क्या करना चाहता हूं। कुछ पता नहीं है। नदी के जल की तरह ऐसे ही बहा जा रहा हूं। इस बात से नावाकिफ कि मेरी मंजिल कहां है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद जब आईआईएमसी की दहलीज पर पहुंचा था तो ऐसा लगा था मानो अब जिंदगी की गाड़ी सही ट्रैक पर आ गयी है। लेकिन अब जिस स्थिति में हूं, उसे सोचकर लगता है कि ? अब अपने ऊपर भी एक शक होने लगा है कि शायद मैं ही पत्रकारिता करने के लायक नहीं बचा। वजह यह नहीं है कि आज मेरे पास नौकरी नहीं है। परंतु मुझे आने वाला समय भी कुछ बेहतर नहीं दिख रहा है। नौबत ये आ गयी है कि अब घर पर खाली बैठना पड़ सकता है। क्योंकि इतना धैर्य नहीं रहा है कि एक साल के करीब इंटर्नशिप करने एक बार फिर दोबारा से पांच, छ महीना इंटर्नशिप कर सकूं। लेकिन फिर सोचता हूं कि मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। लेकिन फिर भी मैंने एक नौकरी छोड़कर रिस्क लिया था और एक बार फिर मैं ये इंटर्नशिप छोड़कर रिस्क लेने जा रहा हूं। हो सकता है कि मेरा फैसला गलत भी हो सकता है लेकिन जिंदगी खुद एक जोखिम है और अगर जिंदगी में जोखिम ही नहीं लिया तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं है।
Tuesday, April 28, 2009
क्योंकि चुनाव एक क्रिकेट मैच नहीं है...
रही बात अंतर की तो चुनावों में आपको क्रिकेट मैच की तरह दूसरा मौका नहीं मिलता. पहला ही मैच फाइनल मैच होता है. हाँ इसके लिए आपको पॉँच साल तक तैयारी का मौका ज़रूर मिलता है. इसके अलावा चुनावों से पहले क्रिकेट मैच के उलट आपको जनता को अपनी नीतियाँ बतानी होती हैं, जिसके आधार पर जनता आपको वोट देती है जबकि क्रिकेट के मैच में आप मैच से पहले अपनी नीतियाँ किसी को नहीं बता सकते. हाँ कप्तान(प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार) तय कर देने से जनता का ध्यान आपकी नीतियों की तरफ और टीम के बाकी कमज़ोर खिलाड़ियों पर नहीं जाता.
व्यक्ति-पूजन से ग्रस्त इस देश की जनता की नस को हमारे नेताओं ने क्या खूब पकडा है! प्रधानमंत्री पद का एक उम्मीदवार तय कर दो और उसके नाम पर वोट मांगने जाओ. नीतियों का क्या है, जनता तो विचारधारा की अनुयायी न होकर व्यक्ति विशेष की है.
व्यवस्था तो यह की गयी थी कि राष्ट्रपति संसद में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री चुनेगा और सरकार गठन का निमंत्रण देगा लेकिन माज़रा बदल चुका है. सभी दलों, गठबन्धनों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पहले ही तय हो जाते हैं. वर्तमान चुनावों की छोडिये अगले चुनावों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार(कांग्रेस-राहुल गाँधी) भी निर्धारित होते हैं. और हालात यह हैं कि कांग्रेस के इस 'उम्मीदवार' को अगर दिल्ली से भी टिकट दिया जाये तो हारने की उम्मीद नज़र नहीं आती है. जनता उसे प्रधानमंत्री बनाने को तैयार है. हालाँकि उसका अनुभव किसी राज्य की बागडोर सँभालने का तो दूर रहा एक मंत्री पद का भी नहीं है.
जनता उसमें उसके पिता की छवि जो देखती है. माना जाता है कि नेतृत्व के गुण तो उसे 'विरासत' में मिले हैं. जनता को अभी इन सब चीजों से ऊपर उठकर वोट देना सीखना है. किसी दल के लिए हो या न हो देश की जनता के लिए 'दिल्ली अभी दूर है.'
Friday, April 24, 2009
जूता बनाम लोकतंत्र
इन दिनों नेताओं और जूतों में एक रिश्ता सा बनता जा रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश पर जूते क्या चले नेताओं को जूते मारने का चलन सा चल पड़ा। चीनी नेता बेन जियाबाओ, गृहमंत्री पी।चिदंबरम,विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, यहां तक कि अब अभिनेता जीतेन्द्र भी इस जूते चप्पल के खेल से बच नहीं सके। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जूते-चप्पलों से बचने के लिए अब नेताओं को नई व्यवस्था करनी पड़ रही है। जिसकी झलक दिखी अहमदाबाद के नरोडा में, जहां भाजपा के स्टार प्रचारक और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से मुखातिब होने वाले थे। किसी कोने से जूते न उछले इसलिए मंच के आगे भाग को जाल से घेर दिया गया था। अभी तक नरेन्द्र मोदी की तरफ जूते या चप्पल नहीं उछले हैं। लेकिन कहते हैं ना कि दुर्घटना से सुरक्षा भली है-इसलिए यह पूरी कवायद की गई।
खैर, मुद्दा यहां यह नही है कि नेताजी जूते खाने लायक हैं या नहीं। बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि इन घटनाओं से हमारे लोकतंत्र की जीवंतता पर कितना असर पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं में हम उस व्यक्ति पर जूते चला रहे होते हैं जिसे हम खुद चुनकर संसद में पहुंचाते हैं। जिसे हम निर्णय लेने वाले हाथ भी कहते हैं। यानि हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों का ही जूतों से स्वागत करते हैं। कहा गया है कि कोई घटना अगर पहली बार हो तो इतिहास बनता है, दो-तीन बार हो तो उसे त्रासदी कहते हैं लेकिन अगर वही घटना बार-बार हो तो वह उपहास का पात्र होता है। कुछ ऐसा ही भारत में भी दिख रहा है। जहां जूता मारना अब सियासी खेल बन चुका है। खबर तो यह भी है कि कानपुर के एक गांव में तो जूते मारने की बकायदा स्कूल खोली गई है। जहां बच्चे और बुजुर्ग नेता के एक पुतले पर जूते-चप्पल मारने का अभ्यास कर रहे हैं। हम यह लगभग भूल चुके हैं कि मुंतजर अल जैदी का विरोध तो एक ऐसे ‘तानाशाह’ के खिलाफ था जिसने इराक को अधोषित उपनिवेश बना रखा है।
इसमें दो राय नहीं कि नेताओं ने देश का बंटाधार किया है। लेकिन इसके लिए मात्र नेता ही दोषी नहीं हैं। कसूर अपने को अच्छे कहने वाले लोगों का भी है,जो राजनीति को गंदा खेल समझते हैं। नेताओं को जूते मारना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। हमारे पास वोट का भी तो अधिकार है जिसका बेहतर प्रयोग कर हम देश का भला कर सकते हैं। हलांकि ज्यादातर मतदाताओं की यह शिकायत रहती है कि उनके इलाके में कोई ईमानदार उम्मीदवार मैदान में नहीं है। लेकिन हम ईमानदार उम्मीदवार को भी संसद में कहाँ पहुंचाते हैं? नेताओं को जूते मारने से बेहतर है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि को ‘वापस बुलाने के अधिकार’ के लिए लड़े। अभी भी जनांदोलन कितना कारगर है इसका बेहतर उदाहरण सूचना का अधिकार आंदोलन से समझा जा सकता है।
कोई भी काम सही रणनीति बनाकर की जाए तभी उसका परिणाम अच्छा होता है। गलत तत्वों वाले नेताओं से मुक्ति पाने के लिए भी हमें उचित तरीका ही अपनाना होगा। महज मीडिया में आने के लिए जूते चलाना उचित नहीं। जूते चलाकर हम मात्र विरोध के इस बढ़िया औजार का उपहास उड़ा रहे हैं। अभी जरुरत है बेहतर रणनीति बनाकर जनांदोलन को आगे बढ़ाया जाए।