तीन हफ्ते पहले जब मैं घर पर था तो वह जिंदा थी. दो दिन बाद मैं फिर से घर पर होऊंगा लेकिन अब वह नहीं मिलेगी. कल ख़बर आई कि वह नहीं रही. 'उसने खुद को ख़त्म कर लिया'.वह हद से हद १६ या १७ की रही होगी. पिछली बार घर जाने पर उससे बात हुई थी...मैं अपनी दुकान पर बैठा हुआ था वह आई और उसने पीसीओ से कुछ ५३ रुपये(लगभग आधे घंटे) की बात की. उसका किसी के साथ प्रेम चल रहा था. उस वक़्त उसके पास २५ रुपये ही थे. बाकी के २८ रुपये वह बाद में देने का वादा कर के चली गयी. इसके बाद मैं दिल्ली वापिस आ गया था.
मुझे उम्मीद है कि उसने मरने से पहले बाकी के २८ रूपये नहीं दिए होंगे. देती भी कहाँ से, उसके घर में तीन वक़्त का खाना भी नहीं रहता था. उस दलित लड़की का नाम कविता था. कविता की छोटी बहन(जिसकी उम्र अभी ११ से ज्यादा नहीं है) भी क़रीब ६ महीने पहले बलात्कार की शिकार हुई थी. बलात्कारी उसका रिश्ते में दादा लगता था. ६ महीने बीतते-बीतते ही वह आरोपी जेल से बाहर था और अपनी सरकारी नौकरी(ड्राइवरी) पर बहाल भी. कविता के मरने की ख़बर सुन कर धक्का लगा. वह प्रेग्नेंट थी और उसके प्रेमी ने उसके साथ शादी करने से मना कर दिया था. मैं सोचता रहा कि क्या उसे मरने की ज़रुरत थी(उसे मारने में किसका हाथ है) ?
बहुत सोचने पर लगा कि उसे मारने में मेरा, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्तों बल्कि उस समाज में रहने वाले सभी लोगों का बराबर का हाथ है. वह जिंदा नहीं रह सकती थी. दरअसल हम लोग उसे जिंदा रहने ही नहीं देते. उसे हम सब अपनी बातों से या निगाहों से रोज़-रोज़ मारते रहते. इस रोज़-रोज़ की मौत मरने से, उसने एक ही बार में मर जाना बेहतर समझा.
एक जानवर भी कहीं पर बैठने से पहले उस जगह को साफ़ कर अपने बैठने लायक बनाता है. हमने अपने रहने के लिए ऐसी जगह बनाई है, जो कुछ ही लोगों के लिए है. पहले तो सीधे-सीधे आधी आबादी इस जगह से बाहर हो जाती है. अगर कविता ने अपने प्रेमी को शादी के लिए मना किया होता तो शायद वह लड़का ज़हर खाने कि हिमाकत नहीं करता. हो सकता है कि वह कविता के चेहरे पर तेज़ाब वगैरह फेंक कर उसे इस बेवफाई की सज़ा देता या कविता की कहीं और शादी तय होने पर लड़के वालों को कविता और अपने पुराने संबंधों के बारे में बता कर 'बदला चुकाता'. लेकिन कविता क्या कर सकती थी? वही जो उसने किया. उसके हाथ में इससे ज़्यादा कुछ करने को भी नहीं था.
एक दलित लड़की जिसे उसके प्रेमी ने छोड़ दिया हो वह उस समाज के लिए उपहास और हिकारत का सामान बन जाती है. और 'ऊंची जाति' के लड़कों के लिए एक लक्ष्य. अगर यही चीजें वहाँ किसी ऊंची जाति वाले घर में या यहाँ दिल्ली में हुई रहती तो शायद लड़की को मरने की ज़रूरत नहीं पड़ती और पड़नी भी नहीं चाहिए. हमने अपने समाज में औरतों के लिए तो इज्ज़त खोने की व्यवस्था की है जबकि आदमियों की कभी इज्ज़त जाते नहीं देखी गयी है.
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