Thursday, April 30, 2009

पत्रकारिता का नया रुप




टीवी पत्रकारिता में काम करने के लिए सिर्फ सुंदर दिखना ही काबिलियत बनकर रह गया है। अभी हाल ही में दो तीन ऐसी घटनाएं हुई कि टीवी चैनल की दुनिया से घृणा सी होने लगी है। इन दिनों एक निजी चैनल में इंटर्नशिप कर रहा हूं। चैनल का नाम लेना उचित नहीं है। यहां एक दिन ऐसा वाकया पेश आया कि एक मोहतरमा जो चैनल में पिछले करीब एक दो सालों से काम कर रही हैं, उन्हें प्रणब मुखर्जी की बाइट कटाने के लिए बोला गया। प्रणब मुखर्जी यूपीए सरकार की उपलब्धियों के बारे में बात कर रहे थे। इन मोहतरमा पांच छ बार बाइट को सुना होगा। इसके बाद वीडियो एडिटर के कान में इन्होने होले से पूछा कि ये यूपीए कौन सी पार्टी है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि अगर ऐसे लोग पत्रकारिता करने आएंगे तो लोकतंत्र के इस चौथे पाये का भगवान ही मालिक है। दूसरे वाकया मेरे एक मित्र के साथ हुआ। मेरे क्लास के चार लोगों को एक चैनल में इंटर्नशिप के लिए भेजा गया। चैनल में जाने के बाद चैनल ने जिस आधार पर छात्रों का चुनाव किया, जब आपको पता चलेगा तो आप शायद आधुनिक पत्रकारिता के इस चेहरे पर विश्वास न करें। जिस शख्स को इन लोगों में से कुछ को चुनना था उन्होने सभी लोगों के चेहरे देखें और जो उन्हें अच्छा लगा, उसी आधार पर उन्हें इंटर्नशिप पर रख लिया गया। अगर पत्रकारिता करने के लिए सुंदर होना सब कुछ रह गया है तो फिर मेरे जैसे सांवले और काले लोगों को तो अपना भविष्य देख ही लेना चाहिए।

Wednesday, April 29, 2009




सीने में जख्म, आंखों में तूफान सा क्यूं हैइस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है,कुछ ऐसे ही उलझन के दौर से आजकल मैं गुजर रहा हूं। क्या कर रहा हूं, क्या करना चाहता हूं। कुछ पता नहीं है। नदी के जल की तरह ऐसे ही बहा जा रहा हूं। इस बात से नावाकिफ कि मेरी मंजिल कहां है। दिल्ली विश्वविद्यालय से पत्रकारिता करने के बाद जब आईआईएमसी की दहलीज पर पहुंचा था तो ऐसा लगा था मानो अब जिंदगी की गाड़ी सही ट्रैक पर आ गयी है। लेकिन अब जिस स्थिति में हूं, उसे सोचकर लगता है कि ? अब अपने ऊपर भी एक शक होने लगा है कि शायद मैं ही पत्रकारिता करने के लायक नहीं बचा। वजह यह नहीं है कि आज मेरे पास नौकरी नहीं है। परंतु मुझे आने वाला समय भी कुछ बेहतर नहीं दिख रहा है। नौबत ये आ गयी है कि अब घर पर खाली बैठना पड़ सकता है। क्योंकि इतना धैर्य नहीं रहा है कि एक साल के करीब इंटर्नशिप करने एक बार फिर दोबारा से पांच, छ महीना इंटर्नशिप कर सकूं। लेकिन फिर सोचता हूं कि मेरे पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है। लेकिन फिर भी मैंने एक नौकरी छोड़कर रिस्क लिया था और एक बार फिर मैं ये इंटर्नशिप छोड़कर रिस्क लेने जा रहा हूं। हो सकता है कि मेरा फैसला गलत भी हो सकता है लेकिन जिंदगी खुद एक जोखिम है और अगर जिंदगी में जोखिम ही नहीं लिया तो फिर उसका कोई अर्थ नहीं है।

Tuesday, April 28, 2009

क्योंकि चुनाव एक क्रिकेट मैच नहीं है...

यहाँ पर चुनावों और क्रिकेट मैच के बीच अंतर सिर्फ आम चुनावों और आईपीएल के मैचों के एक साथ होने की वजह से नहीं किया जा रहा है. फिर भी इन दोनों के बीच कुछ समानताएं दिखाई दे(बनाई जा) रही हैं. जैसे क्रिकेट मैच शुरू होने से पहले ही कप्तान के नाम की घोषणा ज़रूरी होती है उसी तरह चुनावों के पहले ही नेता(प्रधान-मंत्री) की घोषणाएं आम हैं. पूरी टीम की ज़िम्मेदारी है कि अपने कप्तान का कहा माने और उसकी अगुआई में मैच खेले. ठीक इसी तरह चुनावों में भी पार्टियाँ अपने नेता की अगुआई में चुनाव लड़ती हैं.

रही बात अंतर की तो चुनावों में आपको क्रिकेट मैच की तरह दूसरा मौका नहीं मिलता. पहला ही मैच फाइनल मैच होता है. हाँ इसके लिए आपको पॉँच साल तक तैयारी का मौका ज़रूर मिलता है. इसके अलावा चुनावों से पहले क्रिकेट मैच के उलट आपको जनता को अपनी नीतियाँ बतानी होती हैं, जिसके आधार पर जनता आपको वोट देती है जबकि क्रिकेट के मैच में आप मैच से पहले अपनी नीतियाँ किसी को नहीं बता सकते. हाँ कप्तान(प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार) तय कर देने से जनता का ध्यान आपकी नीतियों की तरफ और टीम के बाकी कमज़ोर खिलाड़ियों पर नहीं जाता.
व्यक्ति-पूजन से ग्रस्त इस देश की जनता की नस को हमारे नेताओं ने क्या खूब पकडा है! प्रधानमंत्री पद का एक उम्मीदवार तय कर दो और उसके नाम पर वोट मांगने जाओ. नीतियों का क्या है, जनता तो विचारधारा की अनुयायी न होकर व्यक्ति विशेष की है.
व्यवस्था तो यह की गयी थी कि राष्ट्रपति संसद में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री चुनेगा और सरकार गठन का निमंत्रण देगा लेकिन माज़रा बदल चुका है. सभी दलों, गठबन्धनों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पहले ही तय हो जाते हैं. वर्तमान चुनावों की छोडिये अगले चुनावों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार(कांग्रेस-राहुल गाँधी) भी निर्धारित होते हैं. और हालात यह हैं कि कांग्रेस के इस 'उम्मीदवार' को अगर दिल्ली से भी टिकट दिया जाये तो हारने की उम्मीद नज़र नहीं आती है. जनता उसे प्रधानमंत्री बनाने को तैयार है. हालाँकि उसका अनुभव किसी राज्य की बागडोर सँभालने का तो दूर रहा एक मंत्री पद का भी नहीं है.
जनता उसमें उसके पिता की छवि जो देखती है. माना जाता है कि नेतृत्व के गुण तो उसे 'विरासत' में मिले हैं. जनता को अभी इन सब चीजों से ऊपर उठकर वोट देना सीखना है. किसी दल के लिए हो या न हो देश की जनता के लिए 'दिल्ली अभी दूर है.'

Friday, April 24, 2009

जूता बनाम लोकतंत्र




इन दिनों नेताओं और जूतों में एक रिश्ता सा बनता जा रहा है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बुश पर जूते क्या चले नेताओं को जूते मारने का चलन सा चल पड़ा। चीनी नेता बेन जियाबाओ, गृहमंत्री पी।चिदंबरम,विपक्ष के नेता लाल कृष्ण आडवाणी, यहां तक कि अब अभिनेता जीतेन्द्र भी इस जूते चप्पल के खेल से बच नहीं सके। हालात इतने खराब हो गए हैं कि जूते-चप्पलों से बचने के लिए अब नेताओं को नई व्यवस्था करनी पड़ रही है। जिसकी झलक दिखी अहमदाबाद के नरोडा में, जहां भाजपा के स्टार प्रचारक और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जनता से मुखातिब होने वाले थे। किसी कोने से जूते न उछले इसलिए मंच के आगे भाग को जाल से घेर दिया गया था। अभी तक नरेन्द्र मोदी की तरफ जूते या चप्पल नहीं उछले हैं। लेकिन कहते हैं ना कि दुर्घटना से सुरक्षा भली है-इसलिए यह पूरी कवायद की गई।

खैर, मुद्दा यहां यह नही है कि नेताजी जूते खाने लायक हैं या नहीं। बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि इन घटनाओं से हमारे लोकतंत्र की जीवंतता पर कितना असर पड़ सकता है। ऐसी घटनाओं में हम उस व्यक्ति पर जूते चला रहे होते हैं जिसे हम खुद चुनकर संसद में पहुंचाते हैं। जिसे हम निर्णय लेने वाले हाथ भी कहते हैं। यानि हम अपने ही चुने हुए प्रतिनिधियों का ही जूतों से स्वागत करते हैं। कहा गया है कि कोई घटना अगर पहली बार हो तो इतिहास बनता है, दो-तीन बार हो तो उसे त्रासदी कहते हैं लेकिन अगर वही घटना बार-बार हो तो वह उपहास का पात्र होता है। कुछ ऐसा ही भारत में भी दिख रहा है। जहां जूता मारना अब सियासी खेल बन चुका है। खबर तो यह भी है कि कानपुर के एक गांव में तो जूते मारने की बकायदा स्कूल खोली गई है। जहां बच्चे और बुजुर्ग नेता के एक पुतले पर जूते-चप्पल मारने का अभ्यास कर रहे हैं। हम यह लगभग भूल चुके हैं कि मुंतजर अल जैदी का विरोध तो एक ऐसे ‘तानाशाह’ के खिलाफ था जिसने इराक को अधोषित उपनिवेश बना रखा है।

इसमें दो राय नहीं कि नेताओं ने देश का बंटाधार किया है। लेकिन इसके लिए मात्र नेता ही दोषी नहीं हैं। कसूर अपने को अच्छे कहने वाले लोगों का भी है,जो राजनीति को गंदा खेल समझते हैं। नेताओं को जूते मारना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है। हमारे पास वोट का भी तो अधिकार है जिसका बेहतर प्रयोग कर हम देश का भला कर सकते हैं। हलांकि ज्यादातर मतदाताओं की यह शिकायत रहती है कि उनके इलाके में कोई ईमानदार उम्मीदवार मैदान में नहीं है। लेकिन हम ईमानदार उम्मीदवार को भी संसद में कहाँ पहुंचाते हैं? नेताओं को जूते मारने से बेहतर है कि हम चुने हुए प्रतिनिधि को ‘वापस बुलाने के अधिकार’ के लिए लड़े। अभी भी जनांदोलन कितना कारगर है इसका बेहतर उदाहरण सूचना का अधिकार आंदोलन से समझा जा सकता है।

कोई भी काम सही रणनीति बनाकर की जाए तभी उसका परिणाम अच्छा होता है। गलत तत्वों वाले नेताओं से मुक्ति पाने के लिए भी हमें उचित तरीका ही अपनाना होगा। महज मीडिया में आने के लिए जूते चलाना उचित नहीं। जूते चलाकर हम मात्र विरोध के इस बढ़िया औजार का उपहास उड़ा रहे हैं। अभी जरुरत है बेहतर रणनीति बनाकर जनांदोलन को आगे बढ़ाया जाए।

Tuesday, April 21, 2009

सात मिनट में बनती 'रणनीति'




आईपीएल मैचों के दौरान इस बार शुरू किए गए पारी के बीच में साढ़े सात मिनट के तथाकथित 'strategy break ' को लेकर कोचों और खिलाड़ियों में गहरा रोष है। उनका कहना है कि यह एक तरह का व्यवधान है और इससे मैच के प्रवाह पर असर पड़ता है। मुंबई इंडियंस के कप्तान सचिन तेंडुलकर ने कहा, 'हां, हमने पिछले मैच में अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन स्ट्रैटिजी ब्रेक से टीम की लय टूटती है। मेरे ख्याल से साढे़ सात मिनट का ब्रेक बहुत लंबा होता है।' चेन्नै सुपर किंग्स के चीफ क्रिकेट ऑपरेशंस पूर्व क्रिकेटर और चयनकर्ता वीबी चंद्रशेखर भी ब्रेक से खुश नहीं हैं। उन्होंने कहा, 'दस ओवर के बाद साढे़ सात मिनट के ब्रेक से एकाग्रता भंग होती है और यह मैच का काफी अहम दौर होता है।' हालांकि, आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी का कहना है कि यह ब्रेक टीमों को रणनीति तय करने के लिए दिया गया है लेकिन अधिकतर लोगों का मानना है कि प्रसारकों को विज्ञापनों के लिए अतिरिक्त स्लॉट देने के मकसद से दिया जा रहा है। हालांकि, साउथ अफ्रीका बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अली बाकर को इसमें कोई शक नहीं है कि इस ब्रेक को पूरी तरह कमर्शल फायदे के लिए ही शुरू किया गया है। उन्होंने कहा, 'सचाई यही है कि क्रिकेट पूरी तरह से कमर्शल है। अब क्रिकेट में काफी राशि लगी होती है और इसमें से ज्यादातर भारत से आती है। आयोजक दर्शकों को रोमांचक मैच मुहैया कराने पर ही ध्यान नहीं दे रहे बल्कि वे इस खेल से ज्यादा से ज्यादा रेवेन्यू कमाना चाहते हैं।' बहरहाल, बाकर इसे कुछ गलत नहीं मानते हैं। उन्होंने कहा, 'आप उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते। समस्या यह है कि क्रिकेट के इस छोटे फॉर्मेट में वन डे और टेस्ट की तुलना में विज्ञापन ब्रेक काफी कम होते हैं। लिहाजा, वे कोशिश कर रहे हैं कि इस खाली समय में ज्यादा से ज्यादा विज्ञापनों को किसी तरह से दिखाया जा सके।' किंग्स इलेवन पंजाब के कोच टॉम मूडी को लगता है कि इस ब्रेक से सीधे तौर पर उनकी टीम पर असर पड़ा, क्योंकि बारिश से प्रभावित मैच में रविवार को उन्हें डेयरडेविल्स से शिकस्त का सामना करना पड़ा। मूडी ने कहा, 'हमने लय बनाई हुई थी और हमारे पास इसे गंवाने के लिए साढ़े सात मिनट थे। इससे डैनियल वेटोरी को लय का रुख डेयरडेविल्स की तरफ करने के लिए पर्याप्त समय मिल गया।' रॉयल चैलेंजर्स बंगलुरु के कोच रे जेनिंग्स ने कहा, 'आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि ब्रेक के दौरान दर्शकों की रुचि बनी रहे, क्योंकि इस दौरान वे क्या करेंगे। आयोजकों को इस दौरान ड्रेसिंग रूम में किए गए खिलाड़ियों के इंटरव्यू दिखाने चाहिए ताकि दर्शकों का मनोरंजन हो सके। इस दौरान अधिकारियों को लोगों से जुड़ना चाहिए।' स्टार स्पिनर हरभजन सिंह ने भी इससे नाखुशी जताते हुए कहा, 'मैं नहीं कहूंगा कि मैं इससे बहुत खुश हूं। आप अच्छी गेंदबाजी कर रहे होते हो और अचानक ब्रेक के कारण आपकी लय टूट जाती है।' भारत के पूर्व तेज गेंदबाज जवागल श्रीनाथ ने भी कहा, 'तकनीकी तौर पर खिलाड़ियों को फायदा या नुकसान हो सकता है। टीम अच्छा नहीं खेल रही है तो ब्रेक का फायदा होता है लेकिन अच्छा खेलने के दौरान इस तरह का ब्रेक नुकसानदेह साबित होता है।' दूसरी तरफ, आईसीसी ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप के टूर्नामेंट डायरेक्टर स्टीव एलवर्दी ने इसकी वजह नहीं जानते हैं लेकिन वह इससे नाखुश हैं। उन्होंने कहा, 'मुझे नहीं पता कि इसके पीछे कमर्शल या क्रिकेटिया कारण है। खेल में प्रवाह जारी रहना जरूरी है। ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप में इस तरह के ब्रेक नहीं होंगे।'

सनसनीखेज रहा 'आईपीएल टू' का आगाज





दक्षिणअफ्रीका की धरती पर शुरू हुए इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) के दूसरे संस्करण का आगाज बड़ा सनसनीखेज रहा, जहाँ गत चैंपियन राजस्थान रॉयल्स और उपविजेता चेन्नई सुपर किंग्स को अपनी शुरुआती मैचों में धूल चाटनी पड़ी, वहीं भारत की तीन दिग्गज खिलाड़ियों ने चमत्कारिक प्रदर्शन किया। राजस्थान रॉयल्स ने आईपीएल में अब तक का सबसे कम स्कोर बनाया और रॉयल चैलेंजर्स ने गत वर्ष के खराब प्रदर्शन को पीछे छोडते हुए टूर्नामेंट में विजयी शुरुआत की। दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर आईपीएल का पहला दिन दो उलटफेरों को छोड़कर हर लिहाज के हिट रहा।
चेन्नई सुपर किंग्स के ऑलराउंडर एंड्रयू फ्लिंटॉफ बेशक आईपीएल के संयुक्त रूप से सबसे महँगे खिलाड़ी हैं, लेकिन उनकी इस प्रतिष्ठा का भारत के युवा सितारों पर कोई असर नहीं है। तभी तो मुंबई इंडियंस के अभिषेक नायर ने फ्लिंटॉफ के एक ओवर में तीन छक्के उडाकर यह दिखा दिया कि ट्‍वेंटी-20 मजबूत दिल वालों का खेल है। सचिन ने भी मैच के बाद नायर की भरपूर तारीफ करते हुए कहा था कि उनकी 14 गेंदों पर 35 रन की पारी ने मैच का सारा नक्शा बदल डाला।
भारतीय क्रिकेट के तीन दिग्गज सितारों ने आईपीएल के शुरुआती दिन अपना कमाल दिखाया। मौजूदा टीम इंडिया के दो धुरंधर बल्लेबाजों सचिन और राहुल द्रविड़ जहाँ बल्ले से चमके वहीं पूर्व लेग स्पिनर अनिल कुंबले ने गेंद से अपना जौहर दिखाया। मुंबई इंडियंस के सचिन ने जहाँ नाबाद 59 रन बनाए वहीं रॉयल चैलेंजर्स के पूर्व के कप्तान द्रविड़ ने राजस्थान रॉयल्स के खिलाफ मैच में 48 गेंदों में बेशकीमती 66 रन बनाए। कुंबले ने ट्‍वेंटी-20 की सबसे घातक गेंदबाजी करते हुए 3 ओवर में मात्र पाँच रन पर पाँच विकेट लेकर रॉयल चैलेंजर्स को राजस्थान रॉयल्स के खिलाफ 75 रन से विशाल जीत दिला दी।
गत चैंपियन राजस्थान रॉयल्स की टीम ने बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स के खिलाफ मैच में मात्र 58 रन बनाए, जो आईपीएल में अब तक का सबसे न्यूनतम स्कोर है। कुंबले ने पाँच रन पाँच विकेट और प्रवीण कुमार ने सात रन पर दो विकेट लेकर राजस्थाल रॉयल्स को 58 रन पर समेटने में प्रमुख भूमिका निभाई। रॉयल्स की टीम हालाँकि यह मैच बडे अंतर से हार गई लेकिन वह इस तथ्य से सांत्वना ले सकती है कि गत वर्ष उसकी शुरुआत हार के साथ हुई थी और उसने फिर आगे चलकर खिताब जीता था। इस बार भी उसकी शुरुआत हार के साथ हुई है और वह गत वर्ष की उपलब्धि को इसी तरह दोहराने की उम्मीद कर सकती है।
राजस्थान रॉयल्स की सह मालकिन शिल्पा शेट्टी के खूबसूरत चेहरे का रंग कल उनकी टीम के बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स के साथ मैच के दौरान पलपल बदलता रहा। राजस्थान रॉयल्स ने जब रॉयल चैलेंजर्स को आठ विकेट पर 133 रन के स्कोर पर रोका तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। लेकिन जब उनकी टीम महज 28 रन पर पाँच विकेट गँवा चुकी थी तो उनके चेहरे का रंग उतर चुका था। जब उनकी टीम 15।1 ओवर में 58 रन पर लुढकी तो उनका चेहरा लटक चुका था। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि जिस टीम में उन्होंने अपना पैसा लगाया वही पहले मैच में बिखर जाएगी।
फ्लिंटॉफ बनाम पीटरसन : आईपीएल के दूसरे संस्करण के संयुक्त रूप से दो सबसे महँगे खिलाड़ियों इंग्लैंड के एंड्रयू फ्लिंटॉफ और केविन पीटरसन के लिए टूर्नामेंट का पहला दिन मिश्रित भाग्य वाला रहा। फ्लिंटॉफ की चेन्नई सुपर किंग्स जहाँ हार गई वहीं पीटरसन की बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स टीम जीत गई। ऑलराउंडर फ्लिंटॉफ ने अपने चार ओवर में 44 रन लुटाए और बल्लेबाजी में वह सिर्फ 24 रन बना सके जबकि पीटरसन ने बल्लेबाजी में 32 रन का योगदान दिया। फ्लिंटॉफ की एक ओवर में अभिषेक नायर ने तीन छक्के ठोके, जिसने मैच का रूख ही बदल डाला।न्यूजीलैंड का डबल जीरो : न्यूजीलैंड के दो उभरते सितारों जेसी राइडर और रॉस टेलर की आईपीएल में शुरुआत बिना खाता खोले हुई। बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स की तरफ से खेल रहे राइडर और टेलर पारी के पहले ही ओवर में दिमीत्री मेस्कारेनहास की लगातार दो गेंदों पर खाता खोले बिना पैवेलियन लौट गए। हालाँकि राइडर ने बाद में गेंदबाजी में अपने हाथ दिखाते हुए चार ओवर में 14 रन पर दो विकेट झटक लिए।

Tuesday, April 14, 2009

मत-दान कर



भारतीय लोकतंत्र में मुख्य रुप से दो ही नदियां बहती हैं। पहला यूपीए नदी और दूसरा एनडीए नदी। इसके कई समर्थक नदी हैं जो समय – समय पर दोनों नदियों को बहने में मदद करती है। बहने के क्रम में एक नदी मुख्यधारा की रुख में बहती है तो दूसरा धारा के विपरीत। हरेक पांच साल के बाद हुई बारिश में तय होता है कि दोनों नदियों में से कौन मुख्यधारा की ओर बहेगा । कहने का अर्थ यह है भारतीय नागरिक को हरेक पांच साल में यह अधिकार मिला हुआ है कि वह एक बूंद पानी अपनी स्वेच्छा से किसी भी नदी में डाल सकती है। इसके लिये भारतीय लोकतंत्र में सात सबसे बड़ी नदी, चालीस छोटी नदी और 980 सबसे छोटी नदियां हैं जो अंततः बहते हुये बड़ी नदियों में मिल जाती है। इससे यह तो साफ दिखता है कि भारतीय नागरिक अपनी पसंद की नदियों में अपना कीमती पानी का बूंद डाल रहे हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि परोक्ष रुप से वह पानी तो बड़े दो नदियों में ही जाना है। इस बार कुल 71 करोड़ 40 लाख बूंद गिरने की संभावना है।
अभी बारिश का मौसम आ गया है। यह बारिश दो महीनों के अंदर पांच बार अलग – अलग जगहों में होगी। पहली बारिश में 17 राज्यों के 124 बादल शामिल होंगे। दूसरी बारिश में 13 राज्य के 141 बादल गरजेंगे। तीसरी बारिश में 11 राज्यों के 107 बादल से वर्षा होगी। चौथी बारिश में 8 राज्यों के 5 बादल ही गरज पायेंगे। पांचवी बारिश में 9 राज्यों के बचे हुये 6 ही बादल से बारिश होगी। इसके बाद मुख्यधारा की दिशा में कौन नदी बहेगी यह 16 मई के बाद तय होगा। जनता भले ही सोचसमझ कर अपने प्रत्याशी को वोट दे लेकिन नतीजा तो वही निकलेगा जो लगभग तय है।

Friday, April 10, 2009

एक और जूता

एक बार फ़िर जूता.....कहानी के किरदार अलग-अलग हैं लेकिन दोनों घटनाओ का अर्थ एक ही है ......भारत में जूता फेकने की घटना में पहले निशाना बने चिदंबरम ओर अब नवीन जिंदल .....भले ही जूते की शारीरिक मार से दोनों बच गए हो लेकिन मानसिक तौर पर इस जूते की मार दोनों के ऊपर पड़ी है......ये बात दोनों नेता समझ भी गए होगे......लेकिन ये वोटों की राजनीति का ही खेल है दोनों ने अपने ऊपर जूता फेकने वालों को माफ़ कर दिया वरना अगर चुनाव सर पर नही होते तो दोनों की खैर नही थी ......भले ही इन नेताओं ने इस घटना को यहीं छोड़ दिया हो लेकिन ये मामला काफी गंभीर है ......जूता फेकना फैशन बनता जा रहा है .......लेकिन ये लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नही है इससे पूरे विश्व में भारतीय राजनीति की साख को बट्टा लगा है .......अमित

लोकतंत्र का सामंतवाद


लालू प्रसाद यादव ने वरुण गांधी के संदर्भ में जो 'रोलर चला देता' वाला बयान दिया है, उससे शीर्ष पदों पर बैठे भारतीय नेताओं की मानसिकता का आप अंदाज़ा लगा सकते हैं.

भारत में पहले राजशाही थी. लोकतंत्र के जामे में सामंतवाद आज भी कायम है और लालू प्रसाद यादव के बयान से उन जैसे नेताओं का ख़ुद को चुने हुए शहंशाह समझने का भ्रम झलकता है.

जो उन्होंने सोच लिया वही सही है, जो उनके मुँह से निकल गया वही क़ानून है. वोट लेने के लिए और तथाकथित वोट बैंकों को लुभाने के लिए वे कुछ भी कह-कर सकते हैं.

वरुण गांधी के मुस्लिम विरोधी भाषण की इस ब्लॉग पर हमने जम कर आलोचना की थी और कहा था कि अपना राजनीतिक भविष्य सँवारने का वरुण इससे ग़लत रास्ता नहीं चुन सकते थे.

पर वरुण के समर्थक फिर भी उनकी अपरिपक्वता, कम तजुर्बे और नौजवान ख़ून की नासमझी की दुहाई देते हुए उनकी हो रही आलोचनाओं में कुछ राहत की बात कह सकते थे, यह अलग बात है कि यह सब बात पुख़्ता दलील कम और पकड़े जाने पर नरमी की दलील का बहाना ज़्यादा लगती है.

पर लालू जी न तो राजनीति और सार्वजनिक जीवन में दूध पीते बच्चे हैं और न ही 'जेपी आंदोलन' के दौरान राजनीति में उभरे लालू जी सियासी अनुभव में किसी भी अन्य नेता के मुक़ाबले उन्नीस पड़ते हैं.

फिर आख़िर क्या सोच लालू जी यह बोले कि अगर वे देश के गृह मंत्री होते तो वरुण की छाती पर रोलर चलवा देते, फिर चाहे नतीजा कुछ भी होता.

क्या लालू जी को वाक़ई इस बात का इल्म नहीं था कि वे क्या बोल रहे हैं और उसका क्या परिणाम हो सकता है. या फिर सत्ता के मद में वे इतना निरंकुश हो गए कि वो जो कहें और सोचें वही सही है.

क्या वोट बैंक की राजनीति में जैसे सब अच्छाई, सभ्यता और सार्वजनिक चर्चा के तौर-तरीक़े भारतीय नेता 'स्वाहा' करने पर आमादा हैं.

वोट बैंक की राजनीति की बात चल ही गई है तो एक बात और....क्या इन नेताओं ने- फिर चाहे वह वरुण हों या लालू जी--हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं को इतना मूर्ख या आसानी से वरगलाया जा सकने वाला समझ लिया है कि यह वर्ग बस इनकी बातों, बयानों और भाषणों के पीछे की असलियत समझे बिना उनके सियासी खेल का मोहरा बने रहेंगे?

अब लालू जी यह कह कर बचने की कोशिश कह रहे हैं कि उनकी बातों का गूढार्थ देखा जाए. वे तो वरुण की राजनीति पर रोलर चलवा देने की बात कह रहे थे.

पर लालू जी, अंग्रेजी की कहावत है जो अंत कुछ इस तर्ज़ पर होती है, '......यू कांट फूल ऑल द पीपल ऑल द टाइम.' यानी, आप सभी लोगों को हर समय मूर्ख नहीं बना सकते.

जितनी जल्दी यह बात भारतीय नेताओं की समझ में आ जाए, उतना ही यह बोध उनके और भारतीय लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा.

स्त्ोत- संजीव श्रीवास्तव का ब्लॉग

Thursday, April 9, 2009

कण्डोम क्या होता है?


वो,
जब मुँह अंधेरे निकलते हैं
बाहर घर से
साथ होती है उम्मीदों भरी झोली
जिसमें कैद करने हैं
सारे सपनें और रोटी भी
कचरे के साथ

वो,
इस उम्र में भी सीख लेते हैं
वो सब और उन चीजों के बारे में
सभी कुछ
जिनके बारे में हमें बतियाते
अक्सर शर्म आती है

वो,
जब बिनते हैं कचरा
तो छांटते है, पहले
प्लास्टिक एकदम पहली पसंद पर
फिर पन्नियाँ / लोहा या और कुछ
इसी दौरान
उनके हाथ लगते हैं
इस्तेमाल के बाद फेंके हुये कण्डोम
कचरे के ढेर में
शायद पहली बार ठिठके होंगे
उनके हाथ उठाते हुये /
या कौतुहलवश छुआ होगा

बस,
यहीं से वो बच्चे सीखते है
कण्डोम, क्या होता है /
क्या काम आता है /
फिर वो सीखते है इस्तेमाल करना
और संस्कार हस्तांतरित होते हैं

यह,
सब सीखने के बाद
वह सीखते है कि
विकास के इस तेज दौर में भी
अभी नही ईजाद हुआ है तरीका
कण्डोम को इस्तेमाल बाद
डिस्पोज करने का

कण्डोम,
अब भी
रातों के अंधेरे में फेंके जाते है
कुछ इस तरह
जैसे कोई बच्चा उछाल देता है
पत्थर हवा में बिना किसी बात के
और यह भी नही सोचता कि
किसी आँगन में गिरेगा
अनचाही मुराद सा / बिन मांगी बरसात सा
जिसे बुहारती औरत अपनी बेबसी पर
कोसती मिल जायेगी किस्मत को
या कोई बस यूँ ही बहा देता है
फ्लश में और वह चोक किये होता है
ड्रेनेज घर से अगले मोड़ पर
या, यदि फेंका गया सड़क के उस पार
तो कचराघर को बदल देगा
जिन्दगी की पाठशाला में
और,
सीखने में मदद करेगा उन ब्च्चों की
जिनके घर नही होते
समय के पहले ही
कण्डोम क्या होता है


स्त्रोत-http://mukeshtiwari.mywebdunia.com/2009/03/25/1237977360000.html

Tuesday, April 7, 2009

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे जूते में है...

मुन्तज़र अल-ज़ैदी को नेताओं पर जूता फेंकने के मामले में ट्रेंड-सेटर कहा जा सकता है. बुश पर जूता पड़ते समय शायद किसी के दिमाग में ये ख्याल नहीं आया होगा कि भारत में भी किसी नेता के ऊपर जूता पड़ सकता है. लेकिन पत्रकार तो आखिर पत्रकार होता है. उसके दिमाग में (भले ही अवचेतन दिमाग में)जरुर इस ब्रह्मास्त्र को आजमाने की बात आई होगी. जरनैल सिंह ने ये साबित भी कर दिया.

ठीक पिछली बार की तरह ज़्यादातर पत्रकारों ने जरनैल सिंह के इस काम को ग़लत ठहराया है. खुद जरनैल का भी मानना है कि उसने ग़लत तरीका अपनाया. ठीक भी है, किसी पत्रकार से ऐसे आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती. जैसे अक्सर खिलाडी के बारे में कहा जाता है कि उसे मर्यादित व्यवहार करना चाहिए. अगर यही हाल रहा तो नेताओं की प्रेस-कांफ्रेंस होनी बंद हो जाएँगी या फिर पत्रकारों को उसमें नंगे पैर जाना होगा. जूता पड़ना किसी भी आदमी की गरिमा के खिलाफ है. कैसे और कब से है कोई नहीं जानता, बस है, इतना जानते हैं.
वैसे जरनैल सिंह की जगह किसी आदमी ने यह काम किया होता तो मामला शायद ठीक रहता(वैसे यह एक आदमी की ही प्रतिक्रिया थी). आदमी इसीलिए कि खुद जरनैल सिंह ने अपने को दो ही श्रेणियों में गिना है-१. पत्रकार (जूता फेंकते वक़्त), २. सिख (गुरूद्वारे जाते वक़्त). जूता घटनाक्रम के पीछे चुनावों का भी बहुत बड़ा हाथ है. अगर चुनाव न होते तो न कांग्रेस जल्दबाजी में जगदीश टाईटलर को क्लीन-चिट दिलवाती और न जूते खाने की नौबत आती. हाँ चुनावों की वजह से ही जरनैल सिंह को छोड़ दिया गया. वरना देश के गृहमंत्री पर जूता फेंकने वाले को 'आम माफ़ी'!
अगर विचार किया जाये तो जूता फेंकने के दो कारण बनते दिखते हैं- १. तात्कालिक कारण, २. दीर्घकालिक कारण. पी. चिदंबरम जिस बेशर्मी से कांग्रेस का बचाव कर रहे थे, निंदनीय है. देश की राजनीति की थोडी भी जानकारी रखने वाला शख्स जनता है कि सी.बी.आई. किसके इशारों पर काम करती है! और चिदंबरम के जवाब पत्रकारों के लिए थे. चिदंबरम ने जरनैल को सिखों के कत्ले-आम और जगदीश टाईटलर को सी.बी.आई.की क्लीन-चिट और इस सबमें कांग्रेस की भूमिका के बारे में प्रश्न पूछने से रोका था. इस बात ने भी जरनैल को गुस्सा दिलाया. लेकिन वह पहले से ही जूता खोल कर बैठे थे, शायद घर से ही पक्के इरादे से चले थे.
दूसरा कारण थोडा लम्बा है. कांग्रेस आये दिन खुद को सेक्यूलर पार्टी कहती रहती है. अल्पसंख्यकों के वोट बटोरने की कोई भी कोशिश नहीं छोड़ती. गिना-गिना कर बताती है कि उसने ही एक सिख को प्रधानमंत्री 'बनाया'.अगर कांग्रेस सन् १९८४ में हुए सिखों के कत्ले-आम को लेकर इतनी ही गंभीर है तो बताये कि ३००० से ज्यादा सिखों को मारने-मरवाने वालों के खिलाफ उसने क्या किया? छः कमिटियाँ गठित की, मंत्री-पद से कुछ त्यागपत्र दिलवाए, कुछ प्यादों को सजा दिलवाई? और आखिरकार असली मोहरों को लगभग क्लीन-चिट दिलवा कर चुनाव भी लड़वा रही है. एक 'धर्मनिरपेक्ष' देश में कोई अल्पसंख्यक इतना मजबूर हो जाये कि उसे अंजाम की परवाह किये बिना ऐसा कदम उठाना पड़े! यह बहुसंख्यक वर्ग के समझ से बाहर की बात है. और खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली कांग्रेस के लिए एक सबक. अगर कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष होने का ढोंग थोड़े दिन और चलाना चाहती है तो जगदीश टाईटलर को टिकट नहीं देगी.

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव - झारखण्ड पर नजर



लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 15 राज्यों और दो केन्द्र शासित प्रदेशों की 124 लोकसभा सीटों के लिए 16 अप्रैल को मतदान होगा। अरूणाचल प्रदेश की दो, छत्तीसगढ़ की 11, केरल की 20, मेघालय की दो, मिजोरम की एक, नागालैंड की एक, आंध्रप्रदेश की 22, असम की तीन, झारखंड की छह, मणिपुर की एक, उड़ीसा की 10, महाराष्ट्र की 13, बिहार की 13, जम्मू कश्मीर की एक और उत्तर प्रदेश की 16 सीटों पर वोट डाले जाएंगे। दो केन्द्र शासित प्रदेशों अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और लक्षद्वीप की एक-एक सीट पर भी इसी चरण में मतदान होगा। सभी चरणों की मतगणना 16 मई को एक साथ की जाएगी।
लोकसभा चुनाव के पहले चरण में झारखण्ड के छह सीटों के लिये कुल 85 उम्मीदवार मैदान में खड़े हैं जिसमें चार सीट से केवल 6 महिला उम्मीदवार चुनाव लड़ रही हैं।
चतरा सीट से 3 निर्दलीय सहित कुल 11 उम्मीदवार अपना भाग्य अजमायेंगे जिसमें एक भी महिला उम्मीदवार खड़ी नहीं हुई है। इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी धीरज प्रसाद साहु, जनता दल यूनाईटेड प्रत्याशी अरुण कुमार यादव, राष्ट्रीय जनता दल प्रत्याशी नागमणि, बहुदन समाज पार्टी प्रत्याशी सुगन महतो, कम्युनिष्ट पार्टी आफ इंडिया प्रत्याशी केशवर यादव, अखिल भारतीय मानव सेवा दल प्रत्याशी पारस नाथ माझी, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी के पी शर्मा के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी सुरेन्द्र यादव, इंदर सिंह नामधारी, धीरेन्द्र अग्रवाल तथा रत्नेश कुमार गुप्ता चुनाव लड़ रहे हैं।
हजारीबाग लोकसभा सीट से इस बार 5 निर्दलीय सहित कुल 13 उम्मीदवार खड़े हैं जिसमें केवल एक महिला उम्मीदवार है। इस सीट से बहुजन समाज पार्टी प्रत्याशी किशोर कुमार पाण्डेय, कम्युनिष्ट पार्टी आफ इंडिया प्रत्याशी भुवनेश्वर प्रसाद मेहता, भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी यशवंत सिन्हा, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा प्रत्याशी शिवलाल महतो, कांग्रेस प्रत्याशी सौरभ नारायण सिंह, आल झारखण्ड स्टुडेंट यूनियन प्रत्याशी चंद्रप्रकाश चौधरी, समाजवादी पार्टी प्रत्याशी दिगम्बर कुमार मेहता, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी ब्रज किशोर जयसवाल के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी देवनाथ महतो, महेन्द्र किशोर मेहता, मोहम्मद मोईनुद्दीन अहमद, ललन प्रसाद और स्नेहलता देवी चुनाव लड़ रही हैं।
खूंटी लोकसभा सीट से इस बार 3 निर्दलीय सहित कुल 9 उम्मीदवार अपना भाग्य आजमायेंगे। इस सीट से भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी कड़िया मुण्डा, कांग्रेस प्रत्याशी नील तिर्की, बहुजन समाज पार्टी प्रत्याशी मार्शल बारला, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी थेडोर कीरो, झारखण्ड पार्टी नरेन प्रत्याशी नितिमा बोदरा बारी, झारखण्ड पार्टी प्रत्याशी निशिकांत होरो के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी आनंद कुजुर, उमबुलन टोपनो और करलुस भेंगरा चुनाव लड़ रहे हैं।
कोडरमा लोकसभा सीट से इस बार 5 निर्दलीय सहित कुल 16 उम्मीदवार खड़े हैं जिसमें एक भी महिला उम्मीदवार नहीं है। इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी तिलकधारी पंडित सिंह, राष्ट्रीय जनता दल प्रत्याशी प्रणव कुमार वर्मा, भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी लक्षमण स्वर्णकर, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा प्रत्याशी विष्णु प्रसाद भैया, बहुजन समाज पार्टी प्रत्याशी सभापति कुशवाहा, झारखण्ड पार्टी प्रत्याशी उमेश चंद्र त्रिवेदी, राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी प्रत्याशी परमेश्वर यादव, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी बाबुलाल मरांडी, झारखण्ड विकास दल प्रत्याशी राजकिशोर प्रसाद मोदी, कम्युनिष्ट पार्टी आफ इंडिया मार्कसिष्ट लेनिनिष्ट प्रत्याशी राजकुमार यादव, बहुजन शक्ति प्रत्याशी हदतल दास के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी अशोक कुमार शर्मा, कमल दास, चंद्रधारी महतो, मंजूर आलम अंसारी और लक्ष्मण दास चुनाव लड़ रहे हैं।
लोहरदगा लोकसभा सीट से 8 निर्दलीय सहित कुल 15 उम्मीदवार मैदान में बाजी मारने के लिये तैयार खड़े हैं जिसमें दो महिला उम्मीदवार शामिल हैं। इस सीट से बहुजन समाज पार्टी प्रत्याशी जोखन भगत, कांग्रेस प्रत्याशी रामेश्वर उरांव, भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी सुदर्शन भगत, आल झारखण्ड स्टुडेंट यूनियन प्रत्याशी देवशरण भगत, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी बहुरा एक्का, लोक जन विकास मोर्चा प्रत्याशी भुवनेश्वर लोहरा, झारखण्ड जनाधिकार मंच प्रत्याशी रामा खलको तथा निर्दलीय प्रत्याशी अर्जुन भगत, इटवा उरांव, गोपाल उरांव, चमरा लिंडा, जय प्रकाश भगत, नवल किशोर सिंह, पदमा बारीक और सुखदेव लोहरा चुनाव लड़ रहे हैं।
पलामू लोकसभा सीट से 7 निर्दलीय सहित कुल 21 उम्मीदवार चुनाव जीतने की आस लगाये हुये हैं जिसमें केवल दो महिला उम्मीदवार खड़ी हैं। इस सीट से झारखण्ड मुक्ति मोर्चा प्रत्याशी कामेश्वर बैठा, राष्ट्रीय जनता दल प्रत्याशी घुरन राम, जनता दल यूनाइटेड प्रत्याशी राधा कृष्ण किशोर, बहुजन समाज पार्टी प्रत्याशी हीरा राम तुफानी, झारखण्ड पार्टी प्रत्याशी गणेश राम, आजसू पार्टी प्रत्याशी जवाहर पासवान, झारखणअड पार्टी नरेन प्रत्याशी ननदेव राम, मानव मुक्ति मोर्चा प्रत्याशी पार्वती देवी, झारखण्ड विकास मोर्चा प्रजातांत्रिक प्रत्याशी प्रभात कुमार, अखिल भारतीय मानव सेवा दल प्रत्याशी राजू गुइडे माझी, राष्ट्रवादी आर्थिक स्वतंत्र दल प्रत्याशी राम नरेश राम, राष्ट्रीय लोक दल प्रत्याशी बीरबल राम, भारतीय समता समाज पार्टी प्रत्याशी सत्येंद्र कुमार पासवान, कम्युनिष्ट पार्टी आफ इंडिया मार्कसिष्ट लेनिनिष्ट प्रत्याशी सुषमा मेहता के अलावा निर्दलीय प्रत्याशी जितेंद्र राम, नरेश कुमार पासवान, ब्रजमोहन राम, भोलाराम, मुनेश्वर राम, राम प्रसाद राम और सुनेश्वर बैठा चुनाव लड़ रहे हैं।
जारी है....

Saturday, April 4, 2009

हंगामा क्यों है बरपा?

तीसरे मोर्च के बारे में हाल में ही दो बयान आये हैं. ये बयान इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि ये भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी और कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी के हैं. आडवाणी का मानना है कि तीसरा मोर्चा एक भ्रम है, हास्याप्रद है. सोनिया गाँधी ने इससे आगे बड़कर तीसरे मोर्चे के गठन को लोकतंत्र के लिए घातक बताया है. आडवाणी कह चुके हैं कि देश में शासन भाजपा या कांग्रेस की मदद के बिना नहीं चलाया जा सकता है.

तीसरे मोर्चे को लेकर देश भर की राजनीति में शुरू से ही सुगबुगाहट रही है. हालाँकि राजग और यूपीए शुरू से ही नकारते आ रहे हैं कि तीसरा मोर्चा सत्ता में आ सकता है. दोनों गठबंधन अक्सर तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को लेकर चुटकी लेते रहे हैं. संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री लोकसभा का नेता होता है जो बहुमत प्राप्त दल का सर्वमान्य नेता होता है. अतः तीसरे मोर्चे के नेता(प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार) का चुनाव के बाद चयन करने का भी कांग्रेस और भाजपा मजाक उडाते रहे हैं. अगर आडवाणी की बात सही है और कांग्रेस और भाजपा को इस पर भरोसा भी है तो तीसरे मोर्चे को लेकर वो इतने चिंतित क्यों दिखाई दे रहे हैं?
भारत जैसे बहुसंस्कृतीय देश में ये असंभव है कि दो राजनीतिक पार्टियाँ पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व लेकर सामने आ पाएं. दोनों पार्टियाँ अपनी तानाशाही देश भर में चलाना चाहती हैं और इसक लिए माहौल तैयार कर रही हैं. अगर वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की बात पर भरोसा किया जाये तो कांग्रेस और भाजपा सांपनाथ और नागनाथ हैं और इन्हें ये नाम देश की जनता ने ही दिए हैं. दोनों ज़हरीली पार्टियों का शासन हम देख चुके हैं, दोनों कि ज्यादातर नीतियाँ आपस में मेल खाती हैं.
इसी बहाने ये बहस भी जन्म ले रही है कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था होने से शासन- प्रशसन में वाकई दिक्कत तो नहीं होती है ? इस विषय पर संवाद में बहस होनी चाहिए कि देश में दो-तीन दलीय व्यवस्था हो या बहुदलीय!

Wednesday, April 1, 2009

हे, भारत भाग्य विधाता

पंद्रहवीं लोकसभा के लिए चुनाव की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं. कुछ नाम हमेशा की तरह गैरजरूरी ढंग से चर्चा में हैं तो कुछ नये नाम भी सामने हैं. इस बार नए नामों में संजय दत्त, चिरंजीवी, वरुण गाँधी, मोहम्मद अजहरुद्दीन और मदन लाल का नाम है. संजय दत्त सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन अब उनकी पत्नी मान्यता के लड़ने की उम्मीद है! पुराने नामों में जयाप्रदा, गोविंदा, विनोद खन्ना, हेमामालिनी, राज बब्बर, शत्रुघ्न सिन्हा, नवजोत सिंह सिद्धू जैसे कई नाम हैं. इस तरह और भी कई नाम हैं, मसलन- शहाबुद्दीन, अमरमणि त्रिपाठी, राजा भैया, अरुण गवली. ये सब नाम फिल्मों, खेलों और अपराध की दुनिया से राजनीति में आए हुए हैं.

इन सब नामों को चुनावों में शिरकत करते देखकर साफ हो जाता है कि हमारी राजनीति किस ओर जा रही है? इनमें से कुछ अपनी दुकानदारी फीकी पड़ने के बाद राजनीति में आए तो कुछ अपने काले कारनामों को छुपाने(बेहतरी से चलाने) के लिए सत्ता में आने की जुगत लगाते रहते हैं. कुछ अपने माँ-बाप की वजह से आते हैं. राजनीति का इन लोगों का अड्डा बनने की वजह से भी जनता की चुनावों में दिलचस्पी कम होती जा रही है. सवाल ये भी है कि क्या ज़मीन से आने वाले लोगों के लिए अब यहाँ जगह नहीं बची है? राजनीति में आने के लिए पैसा होना, नाम (बदनाम) होना या किसी राजनीतिज्ञ के घर में पैदा होना ही पहली शर्त है. विचारधारा का क्या है वह तो बनती बिगड़ती रहती है. इन सब नामों से क्या उम्मीद की जा सकती है?