Saturday, May 30, 2009

२५मई से बदल रहा है




25 मई से बदल रहा है....25 मई से छोटे पर्दे के कार्यक्रमों में जो बदलाव आया....उसे देखकर लगता है कि महिलाओं को सिर्फ एक कमोडिटी की भांति प्रयोग करता आ रहा टेलिविजन अब कुछ बदल रहा है....और आज की आधुनिक संघर्षरत महिला की छवि को देश के सामने पेश करने की कोशिश कर रहा है....हाल ही में देखने में आया कि एक के बाद एक एंटरटेनमेंट चैनल ने महिलाओं की दमदार भूमिका वाले कुछ टीवी सीरीयलों का प्रसारण शुरु किया....जिनमें एनडीटीवी इमेजिन पर प्रसारित होने वाला ज्योति, सोनी पर प्रसारित होने वाला लेडिज स्पेशल, पालमपुर एक्सप्रेस, कुछ ऐसे सीरीयल हैं....जो आज की भागमभाग भरी दुनिया में एक संघर्षरत महिला की भूमिका को पेश करने की कोशिश कर रहे हैं....जबकि आज से पहले टीवी महिला को एक कमोडिटी के रुप में पेश करता आ रहा था....महिला को टीवी विज्ञापनों और सीरीयलों में एक कमजोर पात्र के रुप में पेश किया जाता था....उसे ऐसी भूमिकाओं में पेश किया जाता था....जैसे इस जमीं पर वो प्रकृति की सबसे कमजोर प्राणी में से एक है....लेकिन जैसे-जैसे समाज में नारी का कद बढ़ता चला गया....और एक के बाद एक कई महिलाओं ने सफलता के शिखर पर अपने झंडे गाड़े....उसे सिर्फ पूरे समाज ही नहीं, बल्कि टेलिविजन ने भी स्वीकार कर लिया है..... ऐसे में अगर ऊपर वर्णित सीरीयलों के पात्र के बारे में बात करें तो एनडीटीवी पर प्रसारित होने वाला सीरीयल ज्योति एक ऐसी लड़की की कहानी है....जो विषम से विषम परिस्थितियों में पूरी हिम्मत के साथ डटकर उसका सामना करती है....औऱ आज के समाज की ऐसी संघर्षरत महिलाओं का प्रतिनिधित्व करती है....जो तमाम दुखों के बावजूद सारी परेशानियों को सहकर दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी का त्याग कर देती हैं....जबकि सोनी पर प्रसारित होने वाले पालमपुर एक्सप्रेस की लड़की का किरदार....आज की उस लड़की को दर्शाता है....जिसमें कुछ करने की ललक है....उसमें अपने सपने को सच करने की हिम्मत है....वो भी औरों की तरह आगे बढना चाहती है....अपना एक अलग मुकाम हासिल करना चाहती हैं....इसी के साथ अगर सोनी के ही कार्यक्रम लेडिज स्पेशल की बात की जाए....तो वो तस्वीर है....आज की संघर्षरत नारी की....जो किसी भी सूरत में मर्दों से पीछे नहीं है....वो भी मर्दों की तरह की नौकरी करती है....और परिवार को चलाने में उसकी भी बराबर की हिस्सेदारी होती है....वो भी अपने फैसले लेने की कुव्वद रखती है....
इन सब सीरीयलों को देखकर लगता है कि समाज और टेलिविजन दोनों ने नारी के महत्व को पहचान लिया है....और वो समझ गया है कि....नारी अबला नहीं सबला है....टेलिविजन की इस पहल को एक सकारात्मक पहल कहा जा सकता है....उम्मीद है कि आगे आने वाले समय में भी टेलिविजन इस दिशा में कुछ और महत्वपूर् कदम उठायेगा....

अमित कुमार यादव

Friday, May 29, 2009

शुक्रिया



आज भी याद है वह दिन जब अनिल चमड़िया सर के कैबिन में मुझे सर ने कहा था- तुम्हें ऐसी कई चीजें पता हैं जे ये सब नहीं जानते। तुम अपनेआप को किसी से कम क्यों समझती हो।
वह दिन जब लालबहादुर ओझा सर ने मेरी एक बात पर गुस्सा होकर कहा था - तुमसे तो हम यह उम्मीद नहीं करते। तब मुझे पहली बार लगा कि मुझसे उम्मीद की जा रही है।
और सबसे ज्यादा वह दिन जब डॉ आमंद प्रधान सर ने मेरे पिताजी से यह कहा कि ये मेरा नाम रौशन करेगी।मुझे ये बात बाद में मालूम हुई।
अब जब मैं टॉपर बन गई हूं, तो मुझे ऐसा लग रहा है कि मुझे यह विश्वास और मार्गदर्शन नहीं मिला होता, तो मैं शायद आईआईएमसी के सुनहरे इतिहास का इस तरह हिस्सा नहीं बन पाती। मेरी इस खुशी का श्रेय मेरे अध्यापकों को जाता है, लेकिन मेरी इस खुशी में उतने ही भागीदार मेरे हिंदी पत्रकारिता के सभी दोस्त हैं, जिन्होंने मेरा उत्साह बनाए रखा और मुझे नई चीज़ें सिखाईं।
खासतौर से मेरी वो सहेलियां जिन्होंने मुझसे अपनी-अपनी असाइमेंट का त्याग करने की बात कही थी ताकि मैं टॉप करके उन्हें पार्टी दे सकूं।
सभी का बहुत-बहुत शुक्रिया।
चेतना भाटिया


Wednesday, May 20, 2009

बहकी पत्रकारिता की डगर

पत्रकारिता को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यदि यह स्तम्भ हिला तो लोकतंत्र को नुकसान । लेकिन जहाँ तक मैंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है, हमें बताया गया था कि पत्रकार को किसी भी दिशा में बिना झुके अपना सिर उठाए रखना चाहिए। लेकिन १५ वीं लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद मीडिया में जिस तरह की पत्रकारिता की गई और उनमें जैसी खबरें दीं गईं, उन्हें देखकर और पढ़कर मन से सिर्फ़ तीन शब्द निकले। हाय री पत्रकारिता! इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में तो मैं ज्यादा नहीं कहूँगा, लेकिन प्रिंट मीडिया की ख़बरों को पढ़कर मुझे लगा कि शायद मेरी पत्रकारिता की पढ़ाई व्यर्थ चली गई। इसमें कोई संदेह नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद किसी ना किसी पार्टी की सरकार बननी ही थी। लेकिन चुनाव के परिणाम के बाद पत्रकारिता किसी एक पार्टी की तरफ़ बह जाएगी ऐसा मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।

मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि मैं किसी ख़ास पार्टी से ताल्लुख रखता हूँ। हर मतदाता की तरह मैं भी अपने मत का प्रयोग करता हूँ, लेकिन जब पत्रकारिता की बात होती है तो मैं सभी राजनीतिक पार्टियों को ताक पर रखता हूँ। इस बार लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद प्रिंट मीडिया कांग्रेस की तरफ़ झुकती नजर आ रही है । और ऐसा लग रहा है कि मानों पत्रकारिता अब कांग्रेस की कलम से चलेगी। मैं यहाँ पर स्पष्ट करना चाहूँगा कि मैं कांग्रेस का विरोधी नहीं हूँ। बात यहाँ पर पत्रकारिता की हो रही है। नई दिल्ली से ही प्रकाशित होने वाले एक अखबार ने कांग्रेस के एक नेता के नाम आगे अब 'श्री' लगना शुरू कर दिया है। इस पर जब आज सुबह इस अख़बार को पढ़ते हुए मेरी नज़र पड़ी तो मैं अचंभित हो गया। मैं इस अख़बार को पिछले आठ महीने से पढ़ रहा हूँ और यह अख़बार उसी दौरान दिल्ली से प्रकाशित होना शुरु हुआ था। इससे पहले कभी भी इस अख़बार ने 'श्री' शब्द का प्रयोग नहीं किया था। लेकिन लगता है कि इस प्रसिद्ध अख़बार ने भी पत्रकारिता की सीमा को लाँघ दिया है।

मैं आपको ऐसे अनेक अख़बारों का उदाहरण दे सकता हूँ जिसमें आने वाली नई सरकार के गुण गाने शुरू कर दिए हैं। इसमें कोई दोराय नहीं है कि इस बार कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया है, लेकिन यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। यदि कुछ पहली बार हुआ है तो वह है पत्रकारिता में बदलाव। एक ऐसा बदलाव जिसे देखकर लगता है कि अब पत्रकारिता की परिभाषा बदलने का समय आ गया है। अब पत्रकारिता की ऐसी परिभाषा का इज़ाद की जाए जिसमें चापलूसी, घूसखोरी आदि शब्द शामिल हों। हो सकता है कि किसी को मेरी ये बातें बुरी लग रहीं हों, तो मैं उसके लिए माफ़ी चाहता हूँ। लेकिन हम सत्य को छिपा नहीं सकते। और यह ही सत्य है। एक निष्पक्ष पत्रकारिता इस बार चुनाव के दौरान तो देखने को मिली, लेकिन चुनाव के परिणामों के बाद किसी एक पक्ष में पत्रकारिता का झुकना मुझे आहत कर रहा है।


Monday, May 18, 2009

कांग्रेस के jeetne की वजह विकल्पहीनता तो नही.

१५ win लोकसभा के परिणाम आनेके बाद sare chunavi visheleshak अपने-अपने vishleshan में jute हैं की इस hairatangez janadesh के mayane matlab क्या हैं ? भारत की janta ने एक bar फ़िर सब को ग़लत ghoshit कर दिया है.exit pole के परिणामो से बिल्कुल अलग ये results क्या कह रहे हैं , wakei ये एक rahasay है। जो भी लोकतंत्र को samajhane के dave करते हैं उनके लिए ये एक नई पहेली है , yakinan ये nachiz भी esi दौड़ में shamil है. जो कोई dawa to नही pesh कर रही पर en nami-girami hastiyon की लम्बी chaudi thysis से अलग कुछ behad sidhi-sadhi baatein उठाना chahti है.कल से tamam logno के comments padkar ye jana की vaishvik punji के ghunghat में छिपा लोकतंत्र sivay सच के baki सब कुछ kahne और करने के लिए बिल्कुल independent है।


Banagi के तौर पर namcheen logno के विचार mauzood हैं , economic times के editorial में पड़ा की swami जी कैसे इस जीत को Mahamandi के is दौर में Bhartiya Kisano की samridhi से jod कर देख रहे हैं। मशहूर yashvant deshmukh का kahna है की bhajpa का negative prachar ही उसके लिए taaboot की keel sabit हुआ । बीबीसी के संजीव जी का kahna है की janta ने भ्रष्ट logno को छोड़कर honest logno को chune है।


पर mai ये समझ नही pa रही हूँ की ये vahi पार्टी है जिस के ऊपर vansvad की rajneeti और भ्रष्टाचार की neeti अपनाने की muhar लगी हुई है। फ़िर हमk हदे कांग्रेस अन्य सभी विकल्पों के मुकाबले सबसे है और शायद कांग्रेस ।


की जीत की सबसे बड़ी वजह ये विकल्पहीनता ही है mahima और दक्षिण morche की जीत बता रहे हैं वो गलती पर हैं , ये janadesh ishara कर रहा है की देश में हर कोई aarthok sithirta चाहता है और mandi की zabardast मर से trasr इंडिया इससे bahar आना चाहता है । janta etni समझदार है की वो ये समझ रही है की mandi सिर्फ़ हमारे देश की दिक्कत नही है ये pure vishv में है और उसने ये भी देखा है की congress सरकार ने इससे bahar आने की , इसे jhuthlane की पुरी कोशिश की है । Congress अपनी नीतियों में saaf है वो आम आदमी के mukhaute में अपनी नीतियों को chhipane और bahkane में पुरी तरह safal रही है। Congress के pas neta हैं जो en नीतियों के लिए janta के आगे jimmedari ले सकते हैं । kahne के matlab ये है की mauzooda halat में jahan हम hade हैं वहां से Congress anya sabhi vikalpon ke mukable sabse मज़बूत hai। Aur shayad Congres ki jeet ki sabse badi vajah ye vikalpheenta hi hai.




Friday, May 15, 2009

क़साब को हँसीं क्यों आती है?

कहने का ये मतलब नहीं है कि क़साब हँस नहीं सकता. अब किसी के हँसने या रोने पर तो रोक नहीं लगाई जा सकती. लेकिन क़साब से शिकायत है कि वो ज़रूरत से ज़्यादा और ग़लत मौकों पर हँसा करता है. अभी सोमवार को कोर्ट में सुनवाई के दौरान वह अपने हथियारों की पहचान के वक़्त फिर से हँसने लगा. जज साहब को ये अच्छा नहीं लगा. लगता भी कैसे जिस अदालत में जज की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं खडकता और जो पूरी अदालत को अपनी एक कड़कती आवाज़ से शांत कर देता हो और जिसे आज भी 'मेरे आका' कहकर बुलाया जाता हो, क़साब उस आदमी से पूछे बिना हँस रहा था. सो जज साहब से उसे टोक दिया. उसे गंभीरता अपनाने के लिए कहा गया. लंच-ब्रेक के बाद अदालत में आते उसने जज को मुस्कुराकर गुड-आफ्टरनून कहा तो उनका कहना था, 'तुम ज़रुरत से ज़्यादा हँसते हो.'

आप अदालत में लगातार तो नहीं हँस सकते. चाहे आप कितने भी बड़े अपराधी क्यों न हो. अदालत में हँसने की एक सीमा होती है. आखिर अदालत एक पवित्र स्थान जो ठहरा, जहाँ आपको पवित्र धर्म-ग्रंथों की कसमें खिलाई जाती हैं और उम्मीद रखी जाती है कि अब आप सच बोल रहे हैं.

हम और आप बस ये कल्पना कर सकते हैं कि क़साब को इतनी हंसीं क्यों आती है और वो भी हमारी अदालतों में? क़साब को पकड़े जाने के बाद पता चला होगा कि उसके लिए लोगों के दिल में कितना गुस्सा है! उसकी वजह से भारत के गृह-मंत्री को त्याग-पत्र देना पड़ा. एक राज्य के मुख्य-मंत्री और उप-मुख्य-मंत्री को अपने पद से हाथ धोना पड़ा. और तो और हमारे अत्यंत जागरूक विपक्षी दलों को सरकार को उखाड़ फेंकने को एक और मुद्दा मिल गया. कुल मिलाकर पूरे के पूरे इंडिया की ऐसी की तैसी कर दी एक क़साब ने. उसी क़साब को सज़ा दिलवाने के लिए जब वक़ील मुश्किल से मिला/मिली तो क्रोधित जन-मानस ने वक़ील को धमकाने की कोशिश की. क़साब को लगा होगा कि ये लोग मुझे जल्द से जल्द सज़ा दिलवाने के ख्वाहिशमंद भी हैं और ज़रूरी प्रक्रिया 'पूरी' भी नहीं होने देते.

ज़रूर उसे हँसी आयी होगी, और फिर ये सिलसिला चल पड़ा. जेल में जाकर उसे मालूम हुआ होगा कि भारत में कई ऐसे केस हैं जहाँ ह्त्या(इरादतन और गैर-इरादतन दोनों) के मामले सालों साल चलते जाते हैं-चलते ही जाते हैं.. और मुंबई में होकर उसे सलमान खान के बारे में पता न चले ये कहना थोडा मुश्किल है. सलमान इसीलिए क्योंकि वह पाकिस्तान में भी जाना पहचाना नाम है और हत्या और शिकार करने के आरोपों से जूझते हुए कई तारीखों का सामना करने के बाद उसने ये बयान दिया कि 'या तो उसे लटका दिया जाये या छोड़ दिया जाये.'

क़साब को वरुण गाँधी पर भी हँसी आई होगी, वो इसीलिए कि वरूण को शिकायत थी कि क़साब को जेल में तंदूरी चिकन खिलाया जाता है और उन्हें लौकी की सब्जी, जबकि उन पर आरोप क़साब से ज्यादा गंभीर हैं.(वरुण पर रासुका और क़साब पर हत्या, षडयंत्र जैसे मामले हैं.) क़साब को पता चला होगा कि भारत में आरोप किस आधार पर लगाए जाते हैं और वो मन ही मन कह रहा होगा, 'बेटा तंदूरी चिकन खाने के लिए काम भी बड़ा करना पड़ता है'(बशर्ते उसे तंदूरी चिकन मिलता हो).

क़साब ने जेल में टीवी की भी मांग की थी. उसने ज़रूर ग्रीनवुड प्लाई के उस विज्ञापन के बारे में भी सुना होगा जिसमें वकील, जज, अभियुक्त सभी बूढे हो जाते हैं लेकिन अदालत का फैसला नहीं आता है, केस चलता ही रहता है और वक़ील साहिबा कहते-कहते थक जाती है की मुजरिम जीवनलाल को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये. क़साब इस विज्ञापन को देखना और समझना चाह रहा होगा कि भारत में अदालती कार्यवाही कैसे होती है! उसे लग रहा होगा कि अगर वह भी फैसले के इंतजार में बूढा हो गया तो...

अब क़साब जज साहब की इस बात पर कैसे अमल कर सकता है कि 'वह अदालत में गंभीरता दिखाया करे!'

Tuesday, May 5, 2009

उस लड़की को किसने मारा ?

तीन हफ्ते पहले जब मैं घर पर था तो वह जिंदा थी. दो दिन बाद मैं फिर से घर पर होऊंगा लेकिन अब वह नहीं मिलेगी. कल ख़बर आई कि वह नहीं रही. 'उसने खुद को ख़त्म कर लिया'.वह हद से हद १६ या १७ की रही होगी. पिछली बार घर जाने पर उससे बात हुई थी...मैं अपनी दुकान पर बैठा हुआ था वह आई और उसने पीसीओ से कुछ ५३ रुपये(लगभग आधे घंटे) की बात की. उसका किसी के साथ प्रेम चल रहा था. उस वक़्त उसके पास २५ रुपये ही थे. बाकी के २८ रुपये वह बाद में देने का वादा कर के चली गयी. इसके बाद मैं दिल्ली वापिस आ गया था.

मुझे उम्मीद है कि उसने मरने से पहले बाकी के २८ रूपये नहीं दिए होंगे. देती भी कहाँ से, उसके घर में तीन वक़्त का खाना भी नहीं रहता था. उस दलित लड़की का नाम कविता था. कविता की छोटी बहन(जिसकी उम्र अभी ११ से ज्यादा नहीं है) भी क़रीब ६ महीने पहले बलात्कार की शिकार हुई थी. बलात्कारी उसका रिश्ते में दादा लगता था. ६ महीने बीतते-बीतते ही वह आरोपी जेल से बाहर था और अपनी सरकारी नौकरी(ड्राइवरी) पर बहाल भी. कविता के मरने की ख़बर सुन कर धक्का लगा. वह प्रेग्नेंट थी और उसके प्रेमी ने उसके साथ शादी करने से मना कर दिया था. मैं सोचता रहा कि क्या उसे मरने की ज़रुरत थी(उसे मारने में किसका हाथ है) ?
बहुत सोचने पर लगा कि उसे मारने में मेरा, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, दोस्तों बल्कि उस समाज में रहने वाले सभी लोगों का बराबर का हाथ है. वह जिंदा नहीं रह सकती थी. दरअसल हम लोग उसे जिंदा रहने ही नहीं देते. उसे हम सब अपनी बातों से या निगाहों से रोज़-रोज़ मारते रहते. इस रोज़-रोज़ की मौत मरने से, उसने एक ही बार में मर जाना बेहतर समझा.
एक जानवर भी कहीं पर बैठने से पहले उस जगह को साफ़ कर अपने बैठने लायक बनाता है. हमने अपने रहने के लिए ऐसी जगह बनाई है, जो कुछ ही लोगों के लिए है. पहले तो सीधे-सीधे आधी आबादी इस जगह से बाहर हो जाती है. अगर कविता ने अपने प्रेमी को शादी के लिए मना किया होता तो शायद वह लड़का ज़हर खाने कि हिमाकत नहीं करता. हो सकता है कि वह कविता के चेहरे पर तेज़ाब वगैरह फेंक कर उसे इस बेवफाई की सज़ा देता या कविता की कहीं और शादी तय होने पर लड़के वालों को कविता और अपने पुराने संबंधों के बारे में बता कर 'बदला चुकाता'. लेकिन कविता क्या कर सकती थी? वही जो उसने किया. उसके हाथ में इससे ज़्यादा कुछ करने को भी नहीं था.
एक दलित लड़की जिसे उसके प्रेमी ने छोड़ दिया हो वह उस समाज के लिए उपहास और हिकारत का सामान बन जाती है. और 'ऊंची जाति' के लड़कों के लिए एक लक्ष्य. अगर यही चीजें वहाँ किसी ऊंची जाति वाले घर में या यहाँ दिल्ली में हुई रहती तो शायद लड़की को मरने की ज़रूरत नहीं पड़ती और पड़नी भी नहीं चाहिए. हमने अपने समाज में औरतों के लिए तो इज्ज़त खोने की व्यवस्था की है जबकि आदमियों की कभी इज्ज़त जाते नहीं देखी गयी है.

Monday, May 4, 2009

बदलता भारत का परिदृश्य

जैसे-जैसे लोकसभा चुनावों की तिथि नजदीक आती जा रही वैसे-वैसे पार्टीयों का चुनाव
प्रसार जोरों पर है। हर पार्टीया झूठे आश्वासन दे रही है जनता को में वो कर दिखाऊगा जो किसी ने नहीं किया और जितने के बाद बस मैं हुँ और कोइ नहीं....कसमें वादे प्यार वफा के वादे है,, वादों का क्या, कोइ किसी का नहीं सब नाते है, नातों का क्या। जी यही होता है, और यही होता रहेगा,.... आखिर कब तक ये नेता भोली भाली जनता को बेवकूफ बनाते रहेगें और राजनीती करते रहेगे। आज युवाओं का जज्बा भी मरता जा रहा है..... ऐसे में क्या करे युवा।
आज देश की राजनीती का भी यही हाल है, एक से बढकर एक भ्रष्ट राजनेता। आज देश को युवा नेताओं की जरूरत है, जो इस समपूर्ण परिदृश्य को बदल देगें ,मोदी का कहना सही है, काग्रेस बुढिया गुङिया हो गई है, लेकिन उनका कहना कहा तक सही है, ये उनसे बढकर कौन जान सकता है। इसे दोहराने की जरूरत नहीं सब जानते है। जनता को कोइ नई सरकार की जरूरत है, जो कुछ नया बदलाव लाये। काग्रेस की राजशाही से हम तंग आ गये। देश के सामने विकास ही मुदा नही है और भी मुदे है जिस पर हमें गोर करना करना बहुत जरूरी है।
देश के सामने अनेक चुनौतिया है गरीबी, बेरोजगारी , आतंकवाद, इन सबसे निपटने के लिये एक युवा व मजबूत नेता, एक निर्णायक सरकार की जरूरत हैं। जो हमें चुनना होगा,हमारा एक वोट पूरी राजनीती को बदल सकता है। वरना वो दिन दूर नहीं जब भारत की स्थिती ईराक जैसी हो जायेगी जिसके लिये जिम्मेदार हर इन्सान होगा। अत सोच समझ कर वोट करे।
आज पार्टियों की स्थिती बडी अजीबों गरीब है, सब की अपनी-अपनी विचारधारा तो है लेकिन सभी सत्ता के दोर में गिरते पङते भाग रहे है और इस दोर में अपनी ही विचारधारा को रोंद रहे है। सभी बहुमत पाना चाहती है, सभी के पास कुछ गिने चूने मुदे होते है, उन्हीं का वह ढोल पीटती रहती है, और उन्ही को वह चुनावी मुदा बनाती है, और मुदे भी उनके बेबुनियाद होते है। ऐसी है भारतीय राजनीती की वर्तमान नैया जो बीच मझधार में हिचकोले खा रही है। इसका खैवया तो हर कोइ बनना चाहता है, लेकिन न तो उसे नाव की दशा और दिशा का पता है।

पप्पू मत बनिए, वोट दीजिए



पप्पू मत बनिये ! वोट दीजिए। वोटरों को उनके वोट की अहमियत बताने के लिए इस बार विज्ञापन पर अच्छी खासी रकम खर्च की गई। लेकिन चुनावों के तीन चरणों में जो वोटिंग प्रतिशत रहा उसे देखकर लगता है कि पप्पू फेल तो नहीं हुआ लेकिन कंपार्टमेंट जरुर ले आया। यहां पर पप्पू से तात्पर्य केवल युवा मतदाताओं से ही नहीं है बल्कि हर आयु वर्ग के वोटरों से है। लोकसभा चुनाव के पहले चरण में जहां साठ प्रतिशत वोटिंग हुई, वहीं दूसरे चरण में इसमें गिरावट आई और वोटिंग प्रतिशत केवल ५५ फीसद ही रहा जबकि तीसरे चरण तक आते-आते मतदान प्रतिशत के आंकड़ो में अतिरिक्त गिरावट आई और इस बार केवल ५० फीसदी ही वोटिंग हुई। कारण कुछ भी हो सकते हैं। कोई चिलचिलाती गर्मी को एक बड़ी वजह बता रहा है तो कोई अच्छे उम्मीदवारों के चुनाव मैदान में होने से वोटरों के मोहभंग होने को इसका एक बड़ा कारण मान रहा है। बहरहाल कारण चाहे कुछ भी हो लेकिन अगर एक लोकतांत्रिक देश की जनता की ही लोकतंत्र के इस महापर्व में भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी तो चुनावों का आयोजन महज खानापूर्ति बनकर रह जायेगा।

मुरली की चाय




पुरानी जींस और गिटार, मुहल्ले की वो सड़क और मेरे यार, रेडियो पर ये गाना सुना तो फिर से मन लौट गया उन्हीं गलियों में जहां जिंदगी का एक हसीन लम्हा बिताया। आईआईएमसी के नौ महीने मेरे लिए हनीमून की तरह थे। हरियाली और पक्षियों के कलरव के बीच पत्थरों पर बैठकर मुरली की चाय की चुस्की लेना और दोस्तों के साथ गपशप लड़ाना एक कभी न भूलने वाला पल है। दस बजे की क्लास के लिए सुबह साढे नौ बजे उठकर जल्दी जल्दी भागना, इतना ही नहीं इससे पहले एक प्याली चाय पीना सब बहुत याद आता है।मुरली.....जितनी मीठी मुरली की तान, उतनी मीठी मुरली की चाय। दस से पांच बजे तक की क्लास के बीच पांच-छः प्याली चाय गटकना आम बात थी। मुरली की दुकान हमारे लिए एक मंच थी- विचारों के लेन-देन का, बहस-मुहाबसे का। मुरली की दुकान पर जहां पूरे दिन का प्लान तय होता था, वहीं अगर वक्त मिलता तो लालू और सोनिया की बातें भी होती थी। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि कभी-कभार मूड खराब होता था तो , राजनीति पर भी बहस होती थी। मुरली की दुकान समाज को समझने का एक ठिकाना थी। मुझे याद आता है कि एक मजदूर मुरली की दुकान पर चाय पीने के लिए आता था। अगर मैं उसका एक रुपक पेश करुं तो जर्जर काया, कंधे पर पड़ा एक गमछा और एक धोती के अलावा शायद और उसके पास कुछ नहीं था। यह सब देखकर ह्रदय में एक पीड़ा होती थी कि, एसी के बंद कमरे में बैठकर बार-२ यह कहना कि देश के करीब ८० प्रतिशत लोग २० रुपए प्रतिदिन पर गुजारा करते हैं, सब व्यर्थ है बेकार है। खैर मैं भी कहां समाजवादियों की तरह बातें करने लगा, जो मंचों पर तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन असल में उन्हें यह सब देखकर कोई फर्क नहीं पड़ता। कुल मिलाकर मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि आईआईएमसी के अहाते में मुरली की चाय की दुकान का एक अलग महत्व था। मुरली की चाय पीते-पीते ५-६ महीने मजे से बीते, लेकिन एक दिन अचानक पता चला कि मुरली को वहां से हटा दिया गया है। हमारे बीच से मुरली की दुकान का जाना सिर्फ यह नहीं था कि हमें अब उसकी चाय से वंचित होना पड़ेगा, बल्कि वहां होने वाली बहसें, विचारों का लेन-देन सब खत्म हो जायेगा। ५-६ महीने में हमारा मुरली के प्रति एक लगाव सा हो गया था, जिसे हम ऐसे तोड़ना नहीं चाहते थे। लिहाजा हमने सोचा कि इसके खिलाफ प्रशासन के पास जाएंगे। हमने ये बात अपने गुरुओं के सामने रखी, लेकिन वो भी किसी के आदेश तले दबे थे। हम लोग कुछ नहीं कर पाए। मुरली को वहां से हटा दिया गया। मुरली को हटाने के पीछे कारण दिया गया, छात्रों का मुरली की दुकान पर सिगरेट के छल्ले उड़ाना, जो दुकान हटने के बाद भी जारी रहा। क्योंकि आप किसी से उसकी रोटी छिन सकते हैं, लेकिन उसकी भूख खत्म नहीं कर सकते और एक सिगरेट पीने वाले को अगर सिगरेट पीनी होगी तो वो कहीं से भी लाकर पिएगा। मुरली को हटाने का असल कारण सिगरेट पीना नहीँ था, बल्कि मामला था मुरली की चाय की वजह से कैंटीन वाले की चाय में उबाल न आना। ज्यादातर छात्र मुरली की दुकान पर चाय पीते थे। कोई कैंटीन की वो बकवास चाय पीना पसंद नहीं करता था। बस सिगरेट का बहाना बनाकर मुरली पर नकेल कस दी गई। कुछ दिनों बाद एक सुबह मुरली को संस्थान के बगीचे में फावड़ा चलाते देखा, तो एक पीड़ा की अनुभूति हुई, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था। एक गरीब को कैसे न कैसे तो अपना पेट पालना ही था। मुरली वहां से चला गया लेकिन आज भी जब संस्थान जाता हूं तो मुरली की याद फिर से ताजा हो जाती है।

Sunday, May 3, 2009

कैसा और किसका चुनाव?

दुनिया के 'सबसे बड़े लोकतंत्र' में चुनाव हो रहे हैं। चुनावों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा महापर्व कहा जाता है। कोई भी घटना महापर्व उसमें भाग लेने वालों की संख्या, माहौल आदि से बनती है। अगर यह 'घटना' भी हमारा एक महापर्व है तो जनता के बीच से उत्साह क्यों गायब है? माहौल तो ख़ैर पैसे खर्च करने वालों ने बनाने की पूरी कोशिश की है। हाँ कुछ लोग ज़रूर इस पर्व में भाग लेने को बेताब हैं। कुछ सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि अभी तक के आंकडों से पता चलता है कि तीनों चरणों के चुनावों में ६० फीसदी से ज़्यादा मतदान नहीं हुआ है।
देश के सभी १८ साल से ऊपर के लोगों का नाम वोटर लिस्ट में नहीं होता। इस पर लगभग आधे लोगों का मत देकर किसी को नेता चुनना और उसका १०- २० फीसदी वोट लेकर संसद में जाना ये हमारे लोकतंत्र की हकीकत है। पिछले साल के आख़िर में हुए मुंबई हमले के ख़िलाफ़ सपनों की नगरी के लोगों का गुस्सा देखकर लगा शायद इस बार मुंबई वासी नींद से जग जायें। लेकिन इस बार पिछले साल(४५ फीसदी) से भी कम- ४४ फीसदी मतदान कर मुंबई ने बता दिया है कि उसकी नींद अभी खुली नही है। इस नींद को तोड़ने की कोशिश फ़िल्म जगत के सितारों ने भी की। जिन्हें देखकर पूरा देश कपड़े पहनता हो, बाल कटाता हो या उन्हीं की तरह जीने की कोशिश करता हो, जनता ने उनकी बात भी नहीं मानी। वैसे इन सितारों में से आधे ख़ुद वोट देते नज़र नहीं आए।
चुनावों में मत नहीं देने का मतलब या तो चुनावों का विरोध हो सकता है या फ़िर गहन उदासीनता। चुनावों का विरोध किसी न किसी वजह से किया जाता है। लेकिन इस तरह की उदासीनता ज़्यादा ख़तरनाक है, जब आप बिना बात किए कैकई की तरह कोपभवन में मुंह फुला कर बैठ जायें! देश के नेतृत्व को इस बात को समझना होगा कि क्यों जनता लगातार चुनावों से मुंह मोड़कर खड़ी है?