Saturday, April 4, 2009

हंगामा क्यों है बरपा?

तीसरे मोर्च के बारे में हाल में ही दो बयान आये हैं. ये बयान इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि ये भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवाणी और कांग्रेस नेता सोनिया गाँधी के हैं. आडवाणी का मानना है कि तीसरा मोर्चा एक भ्रम है, हास्याप्रद है. सोनिया गाँधी ने इससे आगे बड़कर तीसरे मोर्चे के गठन को लोकतंत्र के लिए घातक बताया है. आडवाणी कह चुके हैं कि देश में शासन भाजपा या कांग्रेस की मदद के बिना नहीं चलाया जा सकता है.

तीसरे मोर्चे को लेकर देश भर की राजनीति में शुरू से ही सुगबुगाहट रही है. हालाँकि राजग और यूपीए शुरू से ही नकारते आ रहे हैं कि तीसरा मोर्चा सत्ता में आ सकता है. दोनों गठबंधन अक्सर तीसरे मोर्चे से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार को लेकर चुटकी लेते रहे हैं. संसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री लोकसभा का नेता होता है जो बहुमत प्राप्त दल का सर्वमान्य नेता होता है. अतः तीसरे मोर्चे के नेता(प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार) का चुनाव के बाद चयन करने का भी कांग्रेस और भाजपा मजाक उडाते रहे हैं. अगर आडवाणी की बात सही है और कांग्रेस और भाजपा को इस पर भरोसा भी है तो तीसरे मोर्चे को लेकर वो इतने चिंतित क्यों दिखाई दे रहे हैं?
भारत जैसे बहुसंस्कृतीय देश में ये असंभव है कि दो राजनीतिक पार्टियाँ पूरे देश की जनता का प्रतिनिधित्व लेकर सामने आ पाएं. दोनों पार्टियाँ अपनी तानाशाही देश भर में चलाना चाहती हैं और इसक लिए माहौल तैयार कर रही हैं. अगर वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की बात पर भरोसा किया जाये तो कांग्रेस और भाजपा सांपनाथ और नागनाथ हैं और इन्हें ये नाम देश की जनता ने ही दिए हैं. दोनों ज़हरीली पार्टियों का शासन हम देख चुके हैं, दोनों कि ज्यादातर नीतियाँ आपस में मेल खाती हैं.
इसी बहाने ये बहस भी जन्म ले रही है कि भारत में बहुदलीय व्यवस्था होने से शासन- प्रशसन में वाकई दिक्कत तो नहीं होती है ? इस विषय पर संवाद में बहस होनी चाहिए कि देश में दो-तीन दलीय व्यवस्था हो या बहुदलीय!

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