प्रतिरोध की थीम पर नैनीताल फिल्मोत्सव सात और आठ नवम्बर को शैले हाल, मल्लीताल में हुआ. नेत्र सिंह रावत और एन.एस.थापा को समर्पित इस फिल्मोत्सव का आयोजन जन संस्कृति मंच और युगमंच के सम्मिलित प्रयासों से किया गया था.
यह फिल्मोत्सव दिल्ली जैसे महानगरों में होने वाले भड़कीले फ़िल्मी समारोहों से कई मायनों में हटकर था. दस-पंद्रह कार्यकर्ताओं की टीम के साथ आयोजन को संभाले ज़हूर आलम. नई फिल्म शुरू होने से पहले दर्शकों को फिल्म की जानकारी देते और फिल्म शुरू होने के बाद बहार स्टॉल पर जा बैठते संजय जोशी. युगमंच के कार्यकर्ताओं का दो फिल्मों के बीच में सहयोग राशि के लिए डिब्बे लेकर घूमना. दीवारों पर लगे दुनिया को बदल डालने की अलख जगाते पोस्टर. हाल के बाहर लगी संघर्षों की दास्तान कहती पेंटिंग्स. सारा समां कुछ और ही कह रहा था. इन सब के बीच नैनीताल की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड भी थी. यहाँ नवम्बर आते-आते सूरज के मद्धम होते ही ठण्ड अपना असर दिखाना शुरू करती है और शाम होने तक पूरे रंग में आ जाती है. इसी दौरान नैनीताल में शरदोत्सव भी चल रहा था.
समारोह एक बजे से शुरू होना था. हमारे पास घंटे भर से ज्यादा का वक़्त था सो पैदल ही माल रोड से मल्लीताल की ओर निकल लिए. माल रोड पर झील के किनारे चलते जाने का अपना ही मज़ा है. इस बीच रिक्शों पर बैठे लोग हमें कमअक्ल नज़र आ रहे थे. समारोह की शुरुआत "ज़मीन छोडेबो नाहीं, जंगल छोडेबो नाहीं.." की प्रस्तुति और युगमंच के कलाकारों के कलाकारों के जनगीतों से हुई. फिल्मोत्सव की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू की सत्तर के दशक में बनी "गर्म हवा" थी. यह विभाजन की त्रासदी के ऊपर बनी फिल्म है. इसमें विभाजन के बाद भी आगरा में रह रहे एक मुस्लिम परिवार की कहानी है. फिल्म अपने सार्थक नाम के साथ उस वक़्त के माहौल को रचने और उसमें फंसे लोगों का चित्र उकेरती है. शाम के सत्र में वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह "स्याही ताल" का विमोचन और उसके बाद विभाजन की ही थीम पर राजीव कुमार की एक शॉर्ट फिल्म "आखिरी असमान" थी. फिल्म पूर्वी बंगाल के चकमा आदिवासियों के दर्द को सामने रखने का काम करती है. अगली फिल्म अजय भरद्वाज की "एक मिनट का मौन" थी. यहाँ जे.एन.यू. के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की ह्त्या और उसके विरोधस्वरूप उपजे छात्रों के आन्दोलन को कुचलने की कहानी थी. पहले दिन की आखिरी फिल्म चार्ली चैपलिन की "मॉर्डन टाइम्स" थी. फिल्म सन् १९३६ में आई थी जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हो चुका था. चार्ली ने उस दौर में भी मूक फिल्म बनाने को चेतावनी की तरह लिया. यह चार्ली की आखिरी मूक फिल्म थी. फिल्म में चार्ली मंदी के दौर में बेरोजगार होते जा रहे मजदूरों की दशा दिखाते हैं.
फिल्मोत्सव का दूसरे दिन का पहला सत्र बच्चों के नाम था. इतवार का दिन होने से कुछ स्कूली बच्चे भी मौजूद थे. शुरुआत में राजेश चक्रवर्ती की एनीमेटेड फिल्म- "हिप हिप हुर्रे" थी. इसमें गीतों के जरिये कुछ बाल कहानियों को पिरोया गया था. इसके बोल जावेद अख्तर ने लिखे थे और आवाजें शान, कविता कृष्णमूर्ति आदि की थीं. दूसरी फिल्म रैगडल की बनाई "ओपन अ डोर" थी. इसमें अलग-अलग देशों के बच्चों की ज़िन्दगी के कुछ पलों को फिल्म के रूप में ढाला गया था. सभी कहानियां एक दरवाजे के खुलने और बंद होने के बीच में घटती है. कहानियां एक ओर बच्चों की दुनिया में ले जाती है तो दूसरी तरफ बच्चों के सपनों, कार्यकलापों, खेलों जरिये उस देश के समाज को दिखाने का काम भी करती हैं. सुबह के सत्र की आखिरी फिल्म माजिद मजीदी की "चिल्ड्रेन ऑव हैवन" थी. फिल्म दो भाई- बहन और उनके एक जोड़ी जूते के आस-पास बुनी है. भाई बहन के जूते गुम कर देता है और उन्हें एक ही जोड़ी जूते से काम चलाना पड़ता है. दूसरे जोड़ी जूते को हासिल करने की कोशिशों की कहानी उनके माँ-बाप, उनके समाज और उसमें मौजूद द्वंद तक को समेटते चली जाती है.
दोपहर के डाक्यूमेंट्री सत्र में नेत्र सिंह रावत की १९७६ में बनाई डाक्यूमेंट्री "माघ मेला" थी यह उत्तराखंडी समाज के रीति-रिवाजों, मेले-त्योहारों के दौरान यहाँ की जीवंतता के दर्शन कराती है. बीजू टोप्पो की "गाड़ी लोहरदगा मेल" थी. फिल्म रांची से लोहरदगा तक जाने वाली रेल लाइन के नैरो से ब्रॉड गेज़ होने और लोहरदगा मेल के बंद हो जाने पर बनाई गयी है. रेल में फिल्माए झारखंडी लोकगीतों के जरिये उस समाज के रिवाजों और मौजूदा दौर में वहाँ चल रही उथल-पुथल को भी दिखाया गया है. इस सत्र की तीसरी डाक्यूमेंट्री एन.एस.थापा की १९६८ में बनाई "एवरेस्ट" थी. अपने दल के साथ एवरेस्ट अभियान में आई दिक्कतों और उन पर जीत की कहानी कहती रोमांचकारी फिल्म है. दोपहर के सत्र की आखिरी फिल्म विनोद रजा की बनायी "महुआ मेमायर्स" थी. फिल्म उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खनन और इसके खिलाफ उठ खड़े हुए आदिवासी समूहों के संघर्षों की दास्तान है. ये आदिवासी झूम खेती करते हैं, जंगलों से अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और पहाड़ों को देवता की तरह पूजते और उनका संरक्षण करते हैं. ये आदिवासी आज वेदांत और कलिंग नगर जैसी खदान कंपनियों से अपनी ज़मीन को बचने में जान गंवाते जा रहे हैं. फिल्म में खदान कंपनियों के मालिक, सरकार, उसके सशस्त्र सैनिक बनाम इन आदिवासियों का लुप्तप्राय संघर्ष दिखाया गया है.
शाम के सत्र में अशोक भौमिक का "समकालीन भारतीय चित्रकला में जन प्रवृतियां" विषय पर सचित्र व्याख्यान चित्रकला की समझ देने में मददगार रहा. यह व्याख्यान "आम आदमी के साथ होना ही आधुनिक होना है" की थीम पर था. अवनीन्द्र नाथ टेगोर, बी. प्रभा, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, रज़ा, सूजा हों या एम.एफ. हुसैन ये सभी भारत में बड़े चित्रकारों के रूप में जाने जाते रहे हैं. पूरी दुनिया में इनका नाम है. लेकिन इनके काम की समीक्षा करने पर पता चलता है कि ये सभी चालू फॉर्मूले को तोड़ पाने में नाकाम रहे हैं. इनके चित्रों में धर्म, नारी शरीर जैसे पुरातन विषय बारम्बार आते रहे हैं. ये कहीं भी भारतीय जनता के अधिकांश- मेहनतकश, दबे-कुचले हिस्से की आवाज़ बन पाने में नाकाम रहे है. लेकिन बाज़ार प्रायोजित चित्रकला को कुछ चित्रकारों ने चुनौती देने का काम भी किया है. इनमें चित्तप्रसाद, ज़ैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के नाम शामिल है. मजदूरों, अकाल के चित्रों, बाल मज़दूरों की गाथा को अपने चित्रों में शामिल किये हुए इनके चित्र जन संघर्षों के साथ रहे हैं. समारोह की आखिरी फिल्म वित्तोरियो डी सिका की "बाइसिकल थीफ" थी. फिल्म में दो बार साइकिल चोरी होती है. एक चोरी सफल रहती है और दूसरी असफल. फिल्म के नायक की साईकिल काम के पहले दिन ही चोरी हो जाती है. अब वो और उसका लड़का दिन भर सड़कों पर साईकिल ढूंढते फिरते हैं. पुलिस से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है. साइकिल का गुम होना नायक के जीवन के हर पहलू में घुसता चला जाता है. उसे हर वक़्त साइकिल ही याद आती है. और आखिर में वह एक साइकिल चोरी करने की ठान लेता है. लेकिन इसमें असफल होने के साथ ही वह पकडा भी जाता है. अब नायक को शर्म, दुःख और पछतावा महसूस होता है. समारोह को फिनिशिंग टच ज़हूर आलम और साथियों ने "ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन छोड़ के आ..." की प्रस्तुति से दिया. अगले दिन वापसी थी. नैनीताल से काठगोदाम रेलवे स्टेशन के लिए तड़के छः बजे बस पकड़नी थी लेकिन सुबह पॉँच बजे बिस्तर छोड़ने को मन नहीं कर रहा था. इसी वज़ह से हम सूरज को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे. माल रोड पर पैदल आते हुए अजान और उसके बाद आती कीर्तन की आवाजें अलसाए नैनीताल को जगा रही थीं. आज ही उत्तराखंड को बने नौ साल पूरे हो रहे थे. आन्दोलनकारी गैरसेण को राजधानी बनाने जैसी मांगों के साथ देहरादून को कूच कर रहे थे. पहाड़ में हालात नौ साल पहले से ज्यादा मुश्किल हुए हैं और प्रतिरोध ज्यादा प्रासंगिक.
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