मीडिया का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है और मीडिया मालिकों की आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हुई है। पर मीडिया में काम करने वालों पत्रकारों की आमदनी में कोई भी बढ़ोत्तरी का कोई भी पैमाना नही है। श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 पत्रकारों के लिए बनाया गया जिसमें बदलते समय के साथ कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया। कोई भी मीडिया संस्थान चाहे प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन कोई भी हो, युवाओं को सपनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। सभी मीडिया संस्थानों में इंटरर्नशिप के नाम पर महीनों काम कराया जा रहा है। सबसे पहले रेडियो सिटी के विषय में आप जानिए हर महीने तीन लोगों को तीन महीनें की इंटरर्नशिप पर रखता है। मजदूरो से भी बुरी तरह काम कराया जाता है क्योंकि उन्हें इन तीन महीनो में एक भी रूप्या नहीं दिया जाता है जबकि मजदूर कम से कम अपरी दिहाड़ी तो पा जाते हैं। चैनल के लोगों को कहना है कि हम थोड़ी न बुलाते हैं लोग खुद चलकर आते हैं। मतलब साफ है कि तीन महीने जमकर कर काम कराओ और फिर तीन महीने बाद नए इंटरर्न ले लो। एक इंगलिश न्यूज चैनल न्यूज एक्स लोगो को पहले इंटरर्न के नाम पर लेता है दो महीने काम लेता है और फिर बाहर का रास्ता दिखा देता है। मीडिया की पढ़ाई करने वाले को साफ बता देना चाहिए कि यह एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम है। पढ़ाने वाले को साफ तस्वीर रखनी चाहिए। इसी बात को लेकर मेरी कई बार हमारे पूर्व शिक्षकों से काफी बात हो चुकी है। बात स्नातक के स्तर पर पत्रकारिता को लेकर थी हमनें साफ कह दिया कि स्नातक में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद कम से कम ये तो समझ जाता है कि वो खुद पत्रकारिता कर पाएगा या नहीं। बल्कि जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और पोस्ट गेएजुएट स्तर पर ही पत्रकारिता करने के बाद अपना सिर पीटते नजर आते हैं। एक सुनिश्चित करियर लोगों के लिए दूसरी राह भी खोलता है पर यहाँ एक करियर ही सुनिश्चित नजर नहीं आता है। कुछ समय पहले लोगों को मीडिया से आर्थिक मंदी के नाम पर जमकर निकाला गया। यही नहीं समूह के विस्तार के नाम पर सिर्फ़ 150 लोगों को सीएनबीसी आवाज से निकाल दिया गया। एक काम ये भी तो किया जा सकता था कि उनकी सैलरी को घटा दिया जाता। कम से कम सड़क पर आने से पहले अपने और अपने परिवार के लिए कुछ तो इंतजाम कर लेते। आपका परिवार आप पर निर्भर रहता है और आप मीडिया मालिकों पर जो पता नहीं कब लात मार कर आप को निकाल दें। आप अंग्रेजी और हिंदी के मीडिया में भी ये अंतर देख सकते हैं। लाभ सबसे ज्यादा हिंदी के मालिक कमा रहे हैं और वेतन के मामले में अंग्रेजी अखबारों से मीलों दूर दिखते हैं। काम करने की आजादी भी अंग्रेजी वाले दे रहे हैं। गलती हमसे ही कही हुई है कि हम क्यों नहीं समझ पाए कि क्या कुछ हमारे साथ हो रहा है । कट, कापी और पेस्ट की दुनिया अब सिमटी हुई तो नजर आती है पर हर सख्स परेशान सा क्यों है इसको समझना आसान होकर भी मुश्किल होता जा रहा है। देश के बाकी तीन खम्भों की हर प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है आखिर चोथे खम्बे के अर्थात क्यों पत्रकारिता में पत्रकारों की जॉब के लिए कोई नियम कानून क्यों नही बनाये गए हैं।
ऐसा इसलिए भी है क्योंकि पत्रकारों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले संगठन भ्रष्टाचार और राजनीति का शिकार हैं। अब समय है कि हम विलाप बंद कर इन संगठनों को दोबारा मजबूत करने की या सिरे से रचने की कोशिश करें। वरना ये पूंजीवादी मीडिया हम सभी का यूं ही शोषण करता रहेगा।
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