Thursday, March 18, 2010

मैम साहब की माया

माया मेम साहब के गले से लिपटे हजार रूपए के अशंख नोट पर छपे बापू की तस्वीर, बापू के राम राज्य का कितना घटिया प्रतिबिंब था। दलितों को हरिजन से अलंकृत करने वाले बापू ने कभी भी ऐसा नही सोचा होगा कि समाज के हासिए से उठकर इनका (दलितो) एक प्रतिनिधि अपने धन के बल पर अपनी उन्नति का प्रर्दशन करेगा। जबकि वास्तव में बापू के जीवन काल से लेकर आज तक दलितों की स्थिति में मामूली बदलाव ही हुआ है। मायावती जैसे कुछ अपवादों को छोडकर गाँवों में रहने वाले दलितों की मासिक आय कुछ हजार – 2 हजार के बीच ही है। यहाँ तक नरेगा में भले ही रिकार्ड में इनके नाम आते है कमाता कोई और है। दलितों के नाम पर आई अब तक राज्य और केन्द्र सरकार की योजनाओं ने न जाने कितने अधिकारी और नेता टाइप लोगों का विकास झटके में कर डाला लेकिन गाँव का दलित अब भी रैलियों में बैठकर इस उम्मीद के साथ ताली बजाते हुए राजनीतिक ड्रामा देखता है कि शायद इस बार छलावा न हों। लेकिन हर बार आम आदमी के हिस्सें मे छलावे के अलावा कुछ नही आता ।माया मेम साहब लगातार उन कामों को कर रही हैं जिनमें दलितो का कोई उत्थान होता नही नजर आता । अब रूपयों की माला पहन कर वो कौन सा दलित उत्थान कर रही हैं। ये कौन उनसे पूछें।

1 comment:

  1. दलित उत्थान ही है की वो नोटों की माला पहन रही है

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