Thursday, March 18, 2010

क्या भारतीय नागरिकों के जीवन की कीमत इतनी सस्ती है?


विकास की दिशा विनाशकारी हो और राजनीति का चरित्र जनविरोधी तब सत्तासीन लोगों के फैसले में इसकी झलक साफ दिख जाती है। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार आजकल अपने अत्यंत महत्वकांक्षी परमाणु दायित्व विधेयक को लेकर काफी चर्चा में है। आम आदमी का हाथ अपने साथ बताकर सत्ता में आई इस सरकार का आम आदमी के सरोकारों से कितना वास्ता है यह एक बार फिर दिखाई देने लगा है। पहले महंगाई, किसानें की दुर्दशा और शिक्षा जैसे जनसाधारण से जुड़े मुददों पर अपने तेवर दिखा चुकी यह सरकार अब लोगों की सुरक्षा से खिलवाड़ करने के पथ पर अग्रसर होती दिखाई पर रही है।
विपक्ष के भारी विरोध को देखते हुए यह सरकार फिलहाल तो इस विधेयक को पेश करने से पीछे हट गई है मगर असल सवाल तो इस विधेयक के इतने तीव्र विरोध की पड़ताल का है। इस विधेयक के इतना मुखर विरोध होने के पीछे इसका जनविरोधी चरित्र ही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस देश की जनता किसी दुर्घटना की शिकार हो उसे ही इसका हर्जाना भी उठाना पड़े! यही है इस विधेयक के कुरूप चेहरे की सच्चाई! विधेयक के पास होने की स्थिती में किसी भी दुर्घटना के बाद देनदारी की सीमा तय कर देने से सीमा के ऊपर के भुगतान में इस्तेमाल होने वाली धनराशी का बोझ भी भारतीय जनता पर पड़ेगा, जबकि आपूर्ति करनेवाली विदेशी कंपनियाँ मुक्त घूमेंगी।
जरा इस तथाकथित विकासोन्नमुखी(विनाशोन्नमुखी) विधेयक का इतिहास भी देख लेते हैँ! इसकी शुरूआत हुई वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ हुए नागरिक परमाणु समझौते के साथ। इस समझौते के तहत अमेरिकी कांग्रेस ने परमाणु व्यापार सहयोग और परमाणु अप्रसार समझौते(एनसीएएनईए) जैसी कई शर्तों के बोझ तले भारत को दबाकर रख दिया। इस समझौते की कामयाबी का ढ़ोल पीटने वाले प्रधानमंत्री ने इससे अपने प्रेम के लिए भारतीय संसद की भूमिका बिलकुल गौण बनाकर रख दी। यहाँ तक कि उन्होंने संसद को इस समझौते के विभिन्न प्रावधानों के निरिक्षण के लायक भी नहीं समझा। मुख्य समझौते पर किनारे पर रखे गए संसद को अब इस विधेयक को पास कराने का जरिया बनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि परमाणु समझौते के वक्त हीं अमेरिकी कंपनियों ने इस तरह के विधेयक की माँग की थी जिससे उन्हें देनदारी के मामले में राहतों का पिटारा मिल सके। इस सिलसिले में एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन वादों का हवाला देकर इस समझौते को बेचा गया था, उन्हें एक-एक करके तोड़ा जा रहा है। इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण पिछले महीने भारतीय रक्षा मंत्री द्वारा अपने अमेरिकी समकक्ष रॉबर्ट गेट्स से जताई गई वह चिंता है जिसमें उन्होंने अमेरिकी रक्षा संबंधी तकनीकों के निर्यात की लाइसेंस देने में की जा रही आनाकानी पर असंतोष जताया। यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2008 में किए उन दावों की पोल खोलने के लिए काफी है जिसमें उन्होंने तकनीक के क्षेत्र में सभी प्रतिबंधों के खात्मे की घोषणा कर डाली थी। 2007 में इन्ही प्रधानमंत्री ने 123 समझौता पूरा होने के बाद कहा था कि इससे भारत को परमाणु ईंधन के पुर्नसंवर्धन का अधिकार मिल जाएगा, मगर आज 2010 में भी भारत इसके लिए अमेरिका के आगे गिड़गिराता नजर आ रहा है।
इस कड़ी का सबसे हास्यासपद पहलू इस समझौते को देश की अपार ऊर्जा जरूरतों का समाधान बताया जाना है। परमाणु ऊर्जा किसी भी देश की ऊर्जा जरूरतों का समाधान कतई नहीं हो सकता है। खासकर भारत जैसे विकासशील देश के लिए तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि किसी भी परमाणु संयंत्र को लगाने में सालों लग जाते हैं और लागत भी कमरतोड़ होती है। भारत में इस समझौते के तहत बिजली पैदा करने वाले संयंत्र को पूरा होने में कम से कम 2016 तक का समय लगने की बात कही जा रही है। लेकिन संयंत्र निर्माण में लगे तीनों मुख्य देशों अमेरिका, रूस और फ्रांस की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखते हुए इसके 2020 से पहले अस्तित्व में आने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी। तीनों देशों में अग्रणी अमेरिका ने पिछले कई सालों में किसी भी संयंत्र का निर्माण नहीं किया है, जबकि रूस भी भारत के कुंडकुलम में बना रहे संयंत्र को लेकर संघर्ष करता ही नजर आ रहा है। फ्रांस की स्थिति भी सकारात्मक नहीं है। उसके दोनों संयंत्रों, जिसमें से एक उसकी जमीन पर ही बन रहा है और दूसरा फिनलैंड में, का काम समयसीमा से काफी पीछे चल रहा है और प्रस्तावित बजट से कहीं ज्यादा खर्च आने की भी संभावना है।
भारत में परमाणु संयंत्रों से बिजली पैदा करने की बात तो काफी जोर-शोर से की जा रही है मगर इस महत्वपूर्ण सवाल से बचा जा रहा है कि विदेशों से आयातित इन संयंत्रों से पैदा होने वाली बिजली पहले से महंगाई तले दबी जनता को और कितना दबाएगी। भारी मात्रा में सरकारी सब्सिडी मिलने के बावजूद 1990 में बने संयंत्र तीन रूपये प्रति यूनिट के आसपास बिजली उत्पादन कर रहे हैं जो परंपरागत बिजली दरों में भारी कटौती के दावों को खोखला साबित करता है। विदेशी संयंत्रों से मिलने वाली बिजली इस दर में भारी इजाफा करने वाली है क्योंकि इन कंपनियों को दी जानेवाली सब्सिडी का बोझ भी भारत की जनता को ही उठाना है। इन कंपनियों पर पूरी तरह मेहरबान इस अधिनियम में भारत में संयंत्र लगानेवाली कंपनियों की जिम्मेदारी को बहुत ही सीमित और हल्का बनाया गया है। दुर्घटना होने की सूरत में संबंधित कंपनी को अधिकतम 500 करोड़ रूपये का हर्जाना देकर मुक्त कर दिया जाएगा जो 1984 में हुए भोपाल गैस हादसे के पीड़ितों को मिले हर्जाने के एक चौथाई से भी कम होगा! मुआवजे की ज्यादातर जिम्मेवारी सरकार की होगी जो 2300 करोड़ रूपये से ज्यादा नहीं होगी। इन कंपनियों को कानूनी लिहाज से भी हद से ज्यादा छूट देने का प्रावधान इस विघेयक के जनविरोधी तेवर का सूचक है। विधेयक में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि हादसे के बाद इन कंपनियों को भारतीय अदालतों में नही घसीटा जा सके। मुकद्दमों का सामना करने की जिम्मेवारी भी भारत सरकार की ही होगी। उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी और देश ने कभी पेश की होगी, जहाँ अपना घर लुटाकर दूसरों की विलासिता में इजाफा करने की जल्दबाजी साफ नजर आती है! इन कंपनियों से अपना स्नेह दर्शाने के चक्कर में भारत सरकार ने अपने नागरिकों के हितों को दांव पर लगाने तक में कोई कोताही नहीं बरती है। तभी तो इन्हें बाजार की खुली प्रतिस्पर्धा से बचाने का भी पुरजोड़ प्रयास किया जा रहा है। अमेरिका, रूस और फ्रांस की कंपनियों के लिए भारत में खासतौर पर जमीन की व्यवस्था तक की गई है।
शक की सूई तब और घूम जाती है जब हम भारत के सबसे चहेते दुकानदार अमेरिका में इस सिलसिले में बने नियमों पर एक नजर डालते हैं। अमेरिका में प्राइस एंडरसन अधिनियम, 1956 लागू है जिसके अनुसार मुआवजे की राशि 48,000 करोड़ रूपये से भी ज्यादा होती है। वहाँ मुआवजे में सरकार की कोई देनदारी नही होती है और कानूनी नियम-कायदे भी बहुत सख्त हैं। जर्मनी में तो मुआवजे को किसी भी सीमा तक ले जाने का प्रावधान है। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत के नागरिकों का जीवन इन देशों के मुकाबले कोई मूल्य नहीं रखता ? क्या सरकार ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है कि वह नहीं देख पा रही है कि इन कंपनियों के भारत में व्यापार करने के उतावलेपन के पीछे का सच क्या है ? इस सिलसिले में एक और गौर करने वाली बात यह है कि 1986 में रूस के चेरनोबिल परमाणु हादसे के बाद से किसी भी देश ने इस तरह के पहल करने का उतावलापन नहीं दिखाया है। जिन देशों में सबसे ज्यादा परमाणु संयंत्र स्थापित हैं, वो भी ऐसे किसी अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व संबंधी अधिनियम का समर्थन करते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। फिर भारत की इस उतावली की क्या वजह हो सकती है ? अमेरिका, चीन, जापान, रूस जैसे देशों में इसे लेकर कोई पहल नहीं होती दिखाई पड़ रही है। यह समझा जाना बेहद जरूरी है कि इस ढ़ीले-ढ़ाले विधेयक ने अगर कानून का शक्ल अख्तियार कर लिया तो इन कंपनियों का सारा ध्यान अपना मुनाफा बढ़ाने पर होगा, जहाँ तकनीकी गुणवत्ता से समझौते भी किए जा सकते हैं। यह समय विधेयक के प्रति उतावलापन दिखाने की जगह इस बात पर जोड़ देने का है कि नागरिकों की सुरक्षा से समझौता किसी कीमत पर नहीं किया जा सकता है। वैसे भी परमाणु हादसे से होने वाली तबाही अकल्पनीय है और हमें भोपाल हादसे से मिले सबकों को ध्यान में रखना चाहिए, जो एक परमाणु हादसे के मुकाबले कुछ भी नहीं था!

1 comment:

  1. जान यहां बहुत सस्ती है
    नेताओं की मस्ती है,
    कुछ मत बोलो यहां,
    ये तो मुर्दों की बस्ती है.
    वर्ड वेरीफिकेशन हटायें कृपया - कमेन्ट में जाकर

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