Monday, February 15, 2010

मुंडेर की चिरैया

यह कविता मेरे पिता को समर्पित है।

सर्दी में आते थे चुपचाप रजाई ओढा कर चले जाते थे

भाप उड़ाती गर्म चाय के साथ मैं देखती थी आपके चेहरे को
स्निग्ध शांत लेकिन ना जाने क्यों पथराई सी आँखे
और आँखों का पीलापन आसपास को भी गुदुमी पीला बना देता था
अक्सर मैंने जानने की कोशिश की आपके अन्दर के तूफान को
पर आपके बाहर की सौम्यता ने मुझे पहुँचने ही नहीं दिया वहां तक
जहाँ से मैं ढूंढ लाती उस अनदेखे एहसास को जिसने
बेवक्त ही बना दिया आपको बेहद खामोश और चुपचाप
फिर मुझे लगने लगे आप एक ऐसे माँझी की तरह
जो हर बेतरतीब लहर को कुछ और हिम्मत के साथ
कुछ अधिक शांत बनकर पार कर जाता है
में जितना आपकी आँखों की गहराईयों में उतरने की कोशिस करती हूँ
मेरी नजरें उतनी ज्यादा हिचकती हैं आपकी ओर टकटकी लगाने में
और मेरी यह आकांक्षा कुछ और मजबूत होने लगती है
कभी तो मैं आपकी आँखों में देख कर यह कह सकूँ
कि मैं आपके मुंडेर की चिरैया नहीं हूँ
मैं एक मुट्ठी ही सही चुरा कर ले आऊंगी आपके हिस्से का आकाश
और आपकी दरो - दीवारों के उपर उसे बिछा कर
आपको महफूज़ कर दूंगी
मैं आपको कभी तो आश्वस्त कर सकूँ
मैं नहीं जाऊंगी आपकी मुंडेर छोड़ कर तब तक
किसी और के आंगन का चुग्गा खाने जब तक
आपकी आँखों से फैली दरो - दीवार के पीलेपन को
थोड़ा सा ही सही कम ना कर दूँ
और उनमें भर दूँ जिंदगी से भरे चटख रंगों के कुछ छींटे ।

1 comment:

  1. very nice.......and heart touching.....
    keep it up

    sukh sagar singh bhati
    http://discussiondarbar.blogspot.com/

    ReplyDelete