Wednesday, March 18, 2009

हाँ हम उन्हें नहीं जानते हैं !


प्रवीन की पोस्ट, "महिला क्रिकेट वर्ल्ड कप: वो क्या होता है??/" पढ़ी. बात क्रिकेट की हुई है तो 'भी' दूर तलक जायेगी! क्रिकेट आज केवल एक खेल न होकर उससे कहीं ज़्यादा है।
क्रिकेट को जेंटल-मेन गेम कहा जाता रहा है. बीच-बीच में थोड़ा असभ्य होने पर आई. सी. सी. नए कायदे-कानून बनाते रहती है ताकि इसकी सभ्यता बरक़रार रखी जा सके. जबकि हमारे यहाँ सभ्य होने का काम सिर्फ पुरुषों का है. अगर कोई आदमी बकवास करता है तो उसे टोका जाता है, "कैसी औरतों जैसी बात करते हो!" हमें बताया जाता है कि औरतें चिल्लाती भी ज्यादा हैं और ये एक सभ्य प्राणी के काम नहीं।
क्रिकेट आज पावर गेम बन चुका है. और पावर कंट्रोल शुरू से ही हमारे (पुरुषों के) हाथों में रहा है. हमारे समाज में माना जाता है कि प्रकृति ने ही महिलाओं को कम ताकत दी है. इस खांचे में भी महिलाएं फिट नहीं होती।
क्रिकेट को अगर धर्म कहा जाये और क्रिकेटरों (पुरुष) को भगवान, तो भी हमें याद रखना चाहिए कि धर्म का महिलाओं के बारे में क्या रूख रहा है? हमारे धर्मग्रंथों- रामायण में सीता का अंजाम हो या महाभारत में द्रौपदी के बारे में बाकी चरित्रों के उदगार, यही साबित होता है कि धार्मिक दुनिया में भी महिलाऐं दूसरे नम्बर पर आती हैं।
क्रिकेट में मौजूद रोमांच और कट्टर प्रतिद्वंदिता इसे युद्ध का प्रतिरूप भी बनाती है. लेकिन याद रखना होगा कि युद्ध करना भी हमेशा से पुरुषों का शगल रहा है. कम ही महिलाओं को इतिहास में युद्ध करने का मौका मिला है. मिलता भी कैसे, युद्ध हमेशा से ही राजाओं का काम रहा है. और हमारे गौरवशाली इतिहास में रानियों के शासन की परम्परा नहीं रही है।
आज क्रिकेट बाज़ार की कठपुतली बन चुका है बाज़ार और इसके बहाव में तैर रहे लोगों से यह उम्मीद बेमानी है कि वो महिला और पुरुष क्रिकेट को एक ही नज़र से देखे. बाज़ार कहीं भी अपने विभाजनकारी नज़रिए के बिना मौजूद नहीं हो सकता।
आखिर में मान भी लें कि क्रिकेट में अभी भी खेल बचा है तो हमारे घरों में लड़कियां कितना खेलती हैं? खेल मनोरंजन के लिए होते हैं. लड़कियों के पास तो करने के लिए घर का काम ही बहुत होता है. खेल तो थके-हारे, काम से लौटे पुरुषों के लिए होता है. अब सोचिये भला हम कैसे महिला क्रिकेट और क्रिकेटरों बारे में जान सकते हैं?


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