Thursday, March 5, 2009

बिहार की बदहाली: कुछ नोट्स

सौरभ कुमार
कोई पूछे कि आजादी के बाद बिहार की बदहाली का कोई एक कारण कौन सा रहा है तो इसका सही जवाब यही होगा कि सरकारी भ्रष्टाचार। जातिवाद और अपराध इसके जिगरी दोस्‍त हैं। राजनीति व शासन में भ्रष्टाचार को जारी रखने के लिए जातिवाद व अपराध का सहारा लिया जाता रहा है। यह मर्ज अपनी जड़ें इतनी गहराई तक जमा चुका है कि मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ी समस्या के रूप में सामने खडा है । इससे निपटने में एक कर्तव्यनिष्ठ मुख्यमंत्री के भी पसीने छूट रहे हैं। आजादी के पहले महात्मा गांधी को भी बिहार के कुछ भ्रष्ट कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ कड़ी बातें कहनी पड़ी थीं। याद रहे कि सन् 1937 में अन्य राज्यों की तरह यहां भी कांग्रेसी सरकार बनी थी।
बिहार में भ्रष्टाचार के इतिहास पर जरा गौर करें। आजादी से पहले ही 1946 में बिहार में भी कांग्रेस की अंतरिम सरकार बन गई थी। उस सरकार के राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय ने 3 सितंबर 1946 को यह आदेश दिया कि बेतिया राज की जमीन सिर्फ उस गांव और अगल-बगल के गांवों के गरीब लोगों व किसानों के हाथों ही बंदोबस्त की जानी चाहिए। पर कुछ ही हफ्तों के बाद उसी बिहार सरकार ने राज्य के कई प्रभावशाली कांग्रेसी नेताओं के सगे-संबंधियों तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण हस्तियों के हाथों उन हजारों एकड़ जमीन को बंदोबस्त कर दिया। इस खुले भ्रष्टाचार पर पटना से दिल्ली तक भारी हंगामा हुआ।मामला तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल के पास पहुंचा। पटेल के निर्देश पर राज्य सरकार को उस जमीन की वापसी के लिए बिहार विधान सभा में विधेयक लाना पड़ा।
जमीन की वापसी के लिए राज्य सरकार द्वारा आधे मन से लाए गए उस विधेयक पर हुई चर्चा के दौरान प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सरदार हरिहर सिंह ने जो भाषण दिया। वह आगे राज्य सरकार के लिए एक तरह से अघोषित ‘दिशा निर्देशक. रहा।सरदार साहब की छवि एक ईमानदार नेता की रही है।बाद में वे बिहार के मुख्य मंत्री भी बने थे, पर उस विधेयक पर बहस के दौरान 25 मई 1950 को बिहार विधान सभा में सरदार साहब ने कहा कि ‘सन् 1857 में गदर में जिन लोगों ने सरकार की मदद की उन्हें काफी जमीनएजागीर और पेंशन वगैरह मिले। हमलोगों ने भी आजादी की लड़ाई में खून पसीना एक किया है। इसलिए हम लोगों को भी हक है कि हमलोग भी अपनी जीविका के लिए बंदोबस्ती लें। इसमें कोई गुनाह नहीं है। यानी एक ईमानदार नेता का जब यह रूख था तो जो नेता व अफसर ईमानदार नहीं थे उन लोगों ने बिहार सरकार में रह कर बाद के वर्षों में क्या-क्या किया होगा, इसका अनुमान कठिन नहीं है।
आजादी के कई वर्षों बाद तक कई कांग्रेसी नेताओं पर गांधी युग की सादगी व ईमानदारी का थोड़ा-बहुत असर रहा। पर कांग्रेस के सत्ता में लगातार रहने के बाद धीरे-धीरे ऐसे कांग्रेसी नेताओं की संख्या भी तेजी से बढ़ने लगी जिनकी यह राय बनी कि उन्हें राज्य की गरीब जनता के खुशहाल होने के पहले ही उन्हें खुद को सरकारी पैसों से अमीर बना लेना चाहिए। इस काम के लिए सरकारी-गैर सरकारी भ्रष्टाचारों का सहारा लिया जाने लगा। समय बीतने के साथ भ्रष्टाचार की मात्रा बढ़ती गई। हालांकि फिर भी सारे नेता भ्रष्ट ही नहीं थे। बाद के वर्षों में गैर कांग्रेसी सरकारों के सत्ताधारियों ने तो अपवादों को छोड़कर कांग्रेसियों की अपेक्षा कुछ अधिक ही भ्रष्टाचार किया। इस सरकारी भ्रष्टाचार का सीधा व प्रतिकूल असर राज्य के विकास पर पड़ा। विकास के पैसे जब लोगों की जेबों में चले जाएंगे तो राज्य का आम विकास होगा कैसे? इस संदर्भ में कुछ विकास योजनाओं की चर्चा की जा सकती है।
आजादी के तत्काल बाद शुरू की गई कोसी और गंडक सिंचाई योजनाएं किसानों को भ्रष्टाचार के कारण वांछित लाभ नहीं दे सकीं। कोसी योजना के निर्माण कार्य में एक मशहूर कांग्रेसी परिवार लूट मचाता रहा तो गंडक योजना में दूसरा कांग्रेसी नेता। परिणामस्वरूप उत्तर बिहार की उपजाउ मिट्टी में सिंचाई की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी और कृषि उपज के मामले में बिहार अन्य कई राज्यों की अपेक्षा पीछे रहा। किसानों की आय नहीं बढ़ी तो उनकी क्रय शक्ति भी नहीं बढ़ी। क्रय शक्ति नहीं बढ़ने के कारण छोटे. बड़े उद्योगों का भी विकास राज्य में नहीं हो सका। इस तरह राज्य पिछड़ता ही चला गया।
एक प्रकरण दिलचस्प है। आजादी के तत्काल बाद प्रांतीय विधान सभा के लिए चुनाव हो रहा था। सारण जिले में एक कांग्रेस विरोधी उम्मीदवार ने कुछ लोगों के शरीर पर छोआ लगा कर उन्हें चुनाव प्रचार में उतार दिया। इस तरह वह तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के छोआ घोटाले को उजागर कर रहा था। इस पर डॉ राजेंद्र प्रसाद ने बड़े दुख के साथ 17 जनवरी 1949 को सरदार पटेल को चिट्ठी लिखी थी। याद रहे कि चीनी मिलों के गन्ने की गाद यानी छोआ से शराब बनाई जाती थी। राज्य सरकार ने छोआ की आपूत्र्ति नियंत्रित करने के लिए 1946 में बिहार मोलेसेज सेंटर आर्डिनेंस जारी किया। तब डॉ कृष्ण सिंहा के नेतृत्व में बिहार में अंतरिम सरकार बनी थी। नियम बना कि चीनी मिलें दस प्रतिशत छोआ खुद बेचेंगी और 90 प्रतिशत छोआ की बिक्री के लिए राज्य सरकार का आबकारी महकमा परमिट जारी करेगा। आबकारी महकमे नें राज्य के बड़े-बड़े कांग्रेसी नेताओं के रिश्तेदारों व उनके समर्थकों के नाम छोआ के परमिट जारी कर दिए और उन लोगों ने उसे कालाबाजार में बेच दिया। ये भ्रष्टाचार के कुछ प्रारंभिक लक्षण थे जो पालने में ही पूत के पांव की तरह नजर आने लगे थे। समय बीतने के साथ वे बढ़ते गए। जो सरकारी पैसे विकास व कल्याण में लगने चाहिए थे उनमें से बड़ी राशि भ्रष्ट नेताओं, अफसरों, दलालों व व्यापारियों की जेबों में जाने लगी। सन् 1967 में जब राज्य में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो उसने छह प्रमुख कांग्रेसी नेताओं के खिलाफ (जो आजादी के बाद से लेकर 1966 तक सत्ता में रहे) न्यायिक जांच आयोग बैठाया। उन पर भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए आयोग बना था। आयोग ने कमोवेश सभी को दोषी ठहराया, पर बाद के वर्षों में प्रतिपक्षी नेताओं ने इन्हीं दोषी नेताओं से राजनीतिक समझौता करके 1970 में सरकार बना लीं । इसके बाद तो भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलने का मुख्य प्रतिपक्ष का नैतिक हक भी समाप्त हो गया। ......जारी
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1 comment:

  1. saurabh bihar me bhrashtachar ka itna lamba itihas hone ke barax jan pratirodh ka kya etihas raha hai?bihar ki chena kabhi nishkriy nahi padi.rashtriy rajniti se le kar har kshetra mein bihar havi hi raha hai.par phir bhi janta badhal hai?
    koshi ki bad behad hila deni vali aapda thi.jis ka asar abhi bhi dikh raha hai. kya es bare mein ham es manch ke zarie bat kar sakte hain?

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