पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव सिर पर है और देश की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ में लगी है। यहां हर पार्टी एक दूसरे पर डोरे डाल रही है लेकिन इस काशिश में लोग भूल गए हैं कि चुनावी मुद्दा क्या होगा? इसी को याद दिलाने के लिए विभिन्न महिला संगठनों ने महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए कृषि भूमि में मालिकाना हक दिए जाने के लिए राजनैतिक पार्टियों से कहा है। लेकिन क्या सच में इन मुद्दों को याद दिलाने से महिलाओं के हित के लिए कोई कदम उठाया जाएगा? जहां संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में जीडीपी का तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर और छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च का वादा किया था, जो पूरा नहीं हुआ। 8 मार्च को मनाए जाने वाले महिला दिवस पर समाचारपत्रों में काफी कुछ लिखा गया और राजनेताओं द्वारा बड़ी-बड़ी बातें कही गई। संसद में मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण को लागू नहीं किया जा रहा फिर भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की बात कही जाती है। याद नहीं की कौन-सी ऐसी पार्टी है जिसने महिला उम्मीदवारों को आरक्षण के हिसाब से टिकट दिया हो। कृषि को शुरू से ही देश की अर्थव्यवस्था का आधार माना जाता है लेकिन इसके सुधार पर अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इस पर कृषिभूमि में महिलाओं के अधिकार को लेकर बात उठाई जा रही है। परिवार का भरणपोषण से लेकर खेतो में काम करने तक महिलाएं ही कृषि से अधिक जुड़ी है लेकिन इस पर या तो परिवार के पुरुष मुखिया का अधिकार होता है या फिर वह साहूकारो के कब्ज़े में होती है। अब ऐसे में महिलाओं के लिए यह मांग कितनी मानी जाती है इसका एक उदाहरण भी क्रांति का आग़ाज़ होगा।
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