विकलांगता को लेकर हमेशा एक धारणा बनी रही है।आज से नहीं बल्कि कई वर्षो से रही है।कईं सालो से विकलांगों के अधिकार प्राप्त कर लेने की लड़ाई चल रही है।वह सालो साल इस लड़ाई को लड़ते आए हैं।विकंलागों को समाज में अधिकार के लिए एक भारी विद्रोह करना पड़ रहा है।समाज में आज भी लोग समझते है कि विकलंाग व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता।विकलंागों को हमेषा ही दया और हमदर्दी के सहारे ही जीना चाहिए। वह दूसरों के लिए किसी काम के नहीं होते। समाज में कितने ही आंदोलन हुए।कभी स्वतंत्राता को लेकर तो कभी स्वतंत्राता से मिली तानाषाही को लेकर।कभी जातिवाद को तो कभी महिलाओं को लेकर लेकिन कोई भी आंदोलन विकलंागों के लिए नहीं हुआ।यदि हुआ भी हो तो उसे वह प्रसिद्वि नहीं मिली जो विकलंागों के आधिकार की बात कहे। समाज में कोई भी विकलंागों की बात नहीं सुनना चाहता।समाज के एक खास वर्ग की धारणा है कि विकलंाग इतना असक्षम होता है कि वह अपना काम न कर सके।लेकिन ऐसी धारणा इस बात को भूल जाती है कि यही असक्षम जीवन के प्रति बहुत सक्षम होते है।मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उतने आत्मविष्वास के साथ काम नहीं का सकता जैसे विकलंाग करता है।वह अपने सच को स्वीकार कर उससे लड़ने की ताकत भी रखता है। विकलंाग जीवन में परिश्रम के महत्व को समझकर स्वीकार करते है।विकलंाग समाज से भी दया और हमदर्दी नहीं बल्कि एक समानता के अधिकार की मंाग कर रहे है।वह चाहते है कि कुछ नहीं बस उन्हें उनसे देष के नागरिक होने के कोई भी अधिकार छीने न जायें। इतने वर्षो से अपने मान सम्मान और अधिकार को बनाये रखने की लड़ाई में वह जीत हासिल कर रहे है।आज उनकी सुविधा के लिए कहीं से तो प्रयास सरकार के माध्यम से किया जा रही है।चाहे वो डी टी सी की नई बसें हो या फिर भूमिगत पथ-विकलंागों के अधिकारों की बात आरम्भ हुई है।यह उनकी बरसों से चली आ रहे गांधीवादी विरोध का परिणाम है।सच भी तो है किजिस देष में आम आदमी को अधिकारों की जरूरत है।
Wednesday, March 18, 2009
विकलांगता को लेकर हमेशा एक धारणा बनी रही है।आज से नहीं बल्कि कई वर्षो से रही है।कईं सालो से विकलांगों के अधिकार प्राप्त कर लेने की लड़ाई चल रही है।वह सालो साल इस लड़ाई को लड़ते आए हैं।विकंलागों को समाज में अधिकार के लिए एक भारी विद्रोह करना पड़ रहा है।समाज में आज भी लोग समझते है कि विकलंाग व्यक्ति जीवन में कुछ नहीं कर सकता।विकलंागों को हमेषा ही दया और हमदर्दी के सहारे ही जीना चाहिए। वह दूसरों के लिए किसी काम के नहीं होते। समाज में कितने ही आंदोलन हुए।कभी स्वतंत्राता को लेकर तो कभी स्वतंत्राता से मिली तानाषाही को लेकर।कभी जातिवाद को तो कभी महिलाओं को लेकर लेकिन कोई भी आंदोलन विकलंागों के लिए नहीं हुआ।यदि हुआ भी हो तो उसे वह प्रसिद्वि नहीं मिली जो विकलंागों के आधिकार की बात कहे। समाज में कोई भी विकलंागों की बात नहीं सुनना चाहता।समाज के एक खास वर्ग की धारणा है कि विकलंाग इतना असक्षम होता है कि वह अपना काम न कर सके।लेकिन ऐसी धारणा इस बात को भूल जाती है कि यही असक्षम जीवन के प्रति बहुत सक्षम होते है।मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति उतने आत्मविष्वास के साथ काम नहीं का सकता जैसे विकलंाग करता है।वह अपने सच को स्वीकार कर उससे लड़ने की ताकत भी रखता है। विकलंाग जीवन में परिश्रम के महत्व को समझकर स्वीकार करते है।विकलंाग समाज से भी दया और हमदर्दी नहीं बल्कि एक समानता के अधिकार की मंाग कर रहे है।वह चाहते है कि कुछ नहीं बस उन्हें उनसे देष के नागरिक होने के कोई भी अधिकार छीने न जायें। इतने वर्षो से अपने मान सम्मान और अधिकार को बनाये रखने की लड़ाई में वह जीत हासिल कर रहे है।आज उनकी सुविधा के लिए कहीं से तो प्रयास सरकार के माध्यम से किया जा रही है।चाहे वो डी टी सी की नई बसें हो या फिर भूमिगत पथ-विकलंागों के अधिकारों की बात आरम्भ हुई है।यह उनकी बरसों से चली आ रहे गांधीवादी विरोध का परिणाम है।सच भी तो है किजिस देष में आम आदमी को अधिकारों की जरूरत है।
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