सौरभ कुमार
भ्रष्ट लोगों को सत्ता की मजबूरी कैसे क्लीन चिट देती है, पिछली पोस्ट में आप पढ़ चुके हैं। प्रस्तुत है बिहार में बदहाली की दूसरी किस्त....
यह इस राज्य के साथ बहुत बुरा हुआ। फिर तो बाद के वर्षों में भ्रष्टाचार राजनीति की जीवन पद्धति बन गई। और सदाचार अपवाद बन गया। भ्रष्ट लोगों को राजनीति से निकालना उतना ही कठिन हो गया जितना कंबल से रोएं को निकालना।
क्या कंबल से रोए को निकाला जा सकता है नहीं। इसलिए कि रोएं से ही कंबल बनता है। फिर भी, राजनीति में कुछ ईमानदार लोग बने रहे। आज भी हैं । परंतु वे हाशिए पर ही हैं।
साठ के दशक में तो मिली-जुली सरकारों का जो दौर चला, उसमें विधायकों की खूब खरीद बिक्री हुई। हालांकि तब पैसे का खेल कम, पद का खेल अधिक होता था। सत्तर और अस्सी के दशकों में राजनीति में पैसे का खेल बढ़ गया। फिर, भ्रष्ट नेता अपनी राजनीति की रक्षा के लिए जातिवाद व अपराधी तत्वों का सहारा लेने लगा। राज्य का विकास नेताओं के एजेंडा से बाहर हो गया। विकास व कल्याण कार्यों के नाम पर सरकार ने खूब पैसे खर्च किए, पर उनमें से अधिकांश भ्रष्ट तत्वों की जेबों में चले गए। अस्सी के दशक में खुद राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से जो 100 पैसे गांवों में भेजे जाते हैं उनमें से 15 पैसे ही पहुंच पाते हैं। बिहार में कई मामलों में तो स्थिति यह थी कि वे पंद्रह पैसे भी लूट लिए जाते थे।
नब्बे का दशक आते-आते स्थिति और भी उल्टी हो गई। जिस मद में कोई राशि आवंटित ही नहीं थी, उस मद में भी सरकारी तिजोरी से पैसे निकाल लिए गए। बहुचर्चित चारा घोटाला इसका जीता जागता उदाहरण था। एक वित्तीय वर्ष में राज्य सरकार के पशु पालन विभाग का बजट 75 करोड़ रुपए का था, लेकिन उसी साल इस विभाग में दवाओं और चारा के नाम पर सवा दो सौ करोड़ रुपए निकाल लिए गए। अपनी ढंग का इतना बड़ा और एक ऐसा अनोखा भ्रष्टाचार है कि इसे देख समझ कर अदालत भी इन दिनों हैरान हो रही है। संभवतः इसीलिए सभी मुकदमों में अधिकतर आरोपितों को लोअर कोर्ट से सजा मिलती जा रही है। यानी शातिर दिमाग भ्रष्ट लोगों से बिहार का पाला पड़ा कि वे न सिर्फ पशुपालन विभाग के मुर्गों की खुराक तक खा गए बल्कि अन्य विभागों में अंडे खाने के बदले मुर्गियों का ही जिबह कर दिया। एक बार किसी ने किसी से पूछा था कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्टाचार से बिहार के सरकारी भ्रष्टाचार का फर्क किस तरह का है जवाब मिला कि अन्य प्रदेशों के भ्रष्ट लोग अपने यहां मुर्गी के अंडे खाते हैं,मुर्गी को ही मार कर नहीं खाते। उदाहरणस्वरूप कहीं यदि कोई सड़क बन रही है तो संबंधित नेता, ठेकेदार, इंजीनियर और अफसर इतना अधिक मात्रा में रिश्वत व कमीशन ले लेते हैं कि बचे हुए पैसे से कोई टिकाउ निर्माण हो ही नहीं सकता। माना कि किसी को वित्तीय निगम से कर्ज लेकर कोई उद्योग खड़ा करना है। कर्ज की मंजूरी के दौरान ही संबंधित सरकारी भ्रष्ट तत्व उन उद्यमियों से इतना अधिक रिश्वत ले लेगा कि बचे हुए पैसे से वह उद्यमी ऐसा कोई उद्योग खड़ा ही नहीं कर सकता कि वह मुनाफा देने लायक बन सके। नतीजतन वह उद्यमी भी बचे हुए पैसे को अपनी आय समझ कर खा पी जाता है। हालांकि हर मामले में ऐसा नहीं होता, परंतु अनेक मामले में ऐसा होता है। ऐसी स्थिति में कैसे बढ़ेगा बिहार में उद्योग धंधा?
बाद के वर्षों में तो बिहार के अपहरण व रंगदारी उद्योग ने विकास पर विराम ही लगा दिया। हां, कुछ खास तरह के लोगों का खूब निजी विकास हुआ। भ्रष्टाचार के पैसों से सार्वजनिक निर्माण तो नहीं हुआ पर खास तरह के लोगों के पूरे बिहार में बड़े-बड़े महल जरूर बने। भ्रष्टाचार की समर्थक शक्तियां सत्तर के दशक से ही इतनी मजबूत हो गई थी कि सन् 1973 के नवंबर महीने में कोसी सिंचाई योजना में लूट के खिलाफ जब सहरसा के वीरपुर में एक सर्वदलीय सभा हो रही थी तो भ्रष्ट नेताओं व ठेकेदारों के गुंडों ने वहां भाषण करने गए दो पूर्व मुख्य मंत्रियों तक को पीट डाला। बाद के वर्षों में तो भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़कों पर निकलना भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए कठिन हो गया। ऐसी परिस्थिति में लोगों को अदालत की शरण लेनी पड़ी।
पटना हाईकोर्ट ने सी.बी.आई.जांच का आदेश नहीं दिया होता तो 950 करोड़ रुपए के चारा घोटाले का मामला भी अन्य घोटालों की तरह दब जाता। चारा घोटाले में दो आइएएस अफसरों को कोर्ट सजा सुना चुका है। अन्य कई अफसरों के खिलाफ सुनवाई चल ही रही है। चारा घोटाले में दो पूर्व मुख्य मंत्री अभियुक्त हैं और वे इस केस में कई बार विचाराधीन कैदी के रूप में जेल जा चुके हैं। यह शर्मनाक बात है कि एक खास अवधि में राज्य में जितने पशुपालन मंत्री रहे वे सब बारी-बारी से जेल गए और बिहार के चर्चित चारा घोटाले में अभियुक्त बने। यानी जिस राज्य में इतनी बड़ी बड़ी हस्तियों पर जब भ्रष्टाचार के ऐसे गंभीर आरोप लगते हों उस राज्य का विकास व जन कल्याण भला कैसे संभव है!
राज्य का विकास तो तभी होगा जब विकास व कल्याण के लिए आबंटित सरकारी धन में से अधिकांश राशि सही काम में खर्च हो। भ्रष्टाचार ने बिहार सरकार में कितनी गहरी जड़ें जमा ली हैं, इसका सही अनुमान मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को इन दिनों मिल रहा है। वे चाहते हैं कि सरकारी धन ईमानदारी से विकास व कल्याण के कार्यों में लगे। पर उनकी ही सरकार के अनेक मंत्री व बड़े अफसर अपने भ्रष्टाचार के कारण मुख्य मंत्री के उद्देश्यों को पूरा नहीं होने दे रहे हैं। अधिकतर मंत्रियों के खिलाफ तरह-तरह की शिकायतों के बाद मुख्य मंत्री ने अपने सभी मंत्रियों के विभाग कुछ माह पहले बदल दिए। इसका भी मनचाहा असर नहीं पड़ रहा है। भ्रष्टाचार के आरोप में कई आइएएस और आइपीएस अफसरों को भी नीतीश कुमार की सरकार की निगरानी शाखा ने गिरफ्तार किया है। इन दिनों बिहार में भारी खर्चे से विकास व निर्माण कार्यों की धूम मची हुई है,पर कार्यों की गुणवत्ता पर आए दिन सवाल उठ रहे हैं। सरकारी धन के भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ने को जब तक निर्ममतापूर्वक रोका नहीं जाएगा तब तक बीमारू प्रदेश बिहार को एक विकसित राज्य बनाना कठिन ही रहेगा। (समाप्त)
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