Tuesday, March 17, 2009

सीट दा मामला है

आजकल जहाँ देखो वहीं सीट दा मामला चल रहा है। बात चाहें किसी सफर में बस या ट्रेन की हो या चाहें स्कूल या दफ्तर की। हर जगह सीट के लिए मारा मारी मची हुई है। और चुनावी मौसम ने तो इस सीट की मांग को दोगुना कर दिया है। जिस प्रकार डीटीसी या ब्लू लाइन बस में जब कोई व्यक्ति चढ़ता है तो वह सबसे पहले सीट ढूंढने के लिए अपनी नज़रों को इधर-उधर दौड़ाता है उसी प्रकार आज अपनी पार्टी से टिकट पाने के लिए उस पार्टी का कार्यकर्ता टिकट के लिए सभी हदों को पार कर रहा है। भई मामला जो टिकट का है।

ये टिकट का मामला भी बड़ा निराला है। ये टिकट ही है जो पार्टी में अच्छे-अच्छों के रिश्तों में भी दीवार बन जाती है। अगर टिकट न मिली तो बस टूट गई पार्टी से रिश्तेदारी और वह पार्टी उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन जाती है। इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सीट की चुम्बकीय शक्ति कितनी शक्तिशाली है। किसी-किसी के लिए तो सीट जीने-मरने का सवाल बन जाती है और नाक भी। अगर सीट न मिली तो बस कट गई नाक। अब वे बेचारे कहाँ जायें? आखिरी उम्मीद उनकी यही होती है कि वे किसी दूसरी पार्टी में जाकर अपनी लाज बचा लें और अपनी पुरानी पार्टी पर जमकर भड़ास निकालें।

दूसरी पार्टी में भी उनकी उम्मीद होती है की उन्हें वहां से सीट के लिए टिकट मिले। कुछ इसमें सफल हो जाते हैं तो कुछ लोगों पर धोबी का कुत्ता, ना घर का ना घाट का वाली कहावत लग जाती है। बड़ा मोह होता है इन लोगों का सीट से। जिन लोगों को सीट मिल जाती है वे वहां पर फेविकॉल का मजबूत जोड़ लगाकर बैठ जाते हैं। और पूरे पाँच साल बाद जब वह जोड़ ढीला पड़ने लगता है तब उन्हें याद आती है फेविक्विक की। वे बेचारे फ़िर लग जाते हैं सीट से चिपकने के जुगाड़ में। इस सीट के चक्कर में वे दिन-रात एक कर देते हैं। और सीट मिलने के बाद फ़िर सोते हैं पैर फैलाकर। फ़िर तो चाहें इनके कान पर ढोल-नगाड़े बजाओ या बैंड-बाजे इनकी नींद पॉँच साल बाद ही खुलती है। इनको इतना आराम मिलता है इस सीट पर।

कभी-कभी मैं भी सोचता हूँ कि इस सीट की नींद लेकर देखूं। लेकिन सीट के चक्कर में पड़ना मेरा काम नहीं है। मेरा काम है जो लोग इन सीटों पर सो रहें हैं उन्हें किसी भी तरह से जगाना और और उन्हें उनकी जिम्मेदारी बताकर जनता की सेवा करवाना। क्यूंकि मैं एक पत्रकार हूँ और अपनी ज़िम्मेदारी अच्छी तरह से समझता हूँ।


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