Friday, November 28, 2008

एक खबर ऐसी भी....

दुनिया परिवर्तनशील है, पल – पल कुछ न कुछ बदलता रहता है। विगत कुछ दिनों में पत्रकारिता के क्षेत्र में कई परिवर्तन हुये हैं। इस परिवर्तन से संबंधित एक काल्पनिक समाचार है जिसे मिश्राजी ने लिखा है। यह समाचार दिल्ली विधानसभा चुनाव से संबंधित है। वह समाचार इस प्रकार है...
उत्तम नगर विधानसभा क्षेत्र से लौटकर
मिश्राजी
दिल्ली के सीमांत इलाके द्वारका और नजफगढ़ के बीचों बीच स्थित है उत्तमनगर। नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन से महज 50 मिनट दूर। ये क्षेत्र इन दिनों चुनावी रणस्थली में तब्दील हो गयी है। सर्दी का मौसम और चुनाव का गरमाहट। जनता अपने वोट और प्रत्यासी के लिये सजग। सजगता की इस सीमा को आठ दिसम्बर का बेसब्री से इंतजार। चुनाव के इस गरमाहट को भांपने मैं पहुंचा इस इलाके में। रुट नं 764 की बस जो नजफगढ़ से नेहरु प्लेस तक जाती है। इसी से शुरु हुई हमारे चुनावी सफर की शुरुआत।
अपनी आदत से मजबूर होकर मैं चाय की एक दुकान पर पहुंचा। चा, की चुस्की के साथ जब मैं सिगरेट के धुऐं का छल्ला उड़ा रहा था तब दुकानदार बाकी ग्राहकों से निबट रहा था। एक आम आदमी की बेतकल्लुफी देख मैने उससे पूछा कि कौन सी पार्टी लीड कर रही है। एक दूसरा ग्राहक उम्र पैंतीस से चालीस साल, चेहरे पर झुर्रियां, मुझे घूरा और पलटवार किया कि कैसी जीत – किसकी जीत, हमें क्या मतलब। इसके बाद एकदम से बची चाय अपने उदर में उलेड़कर मैं वहां से चलता बना। अब अपना अगला पड़ाव था मोहन गार्डन वार्ड जिस पर भाजपा का कब्जा है। प्रवासियों की मजबूत स्थिति, बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों की बहुतायात। हाल तक अविकसित यह क्षेत्र अब भी बुनियादी सुविधाओं से जूझ रहा है। पर कांग्रेस के वर्तमान विधायक के विकास कार्यों की एक लंबी श्रृंखला है। लोग कांग्रेस से खुश और एक टर्म देने के मूड में लगते हैं। तीन और वार्ड है उत्तम नगर में नवादा, उत्तम नगर और विन्दापुर। कमोबेश सबकी समस्याएं एक जैसी। पर पानी की उपलब्धता की गंभीर कमी। उत्तम नगर वार्ड में एक स्कूल के करीब मोहल्ले में एक तरफ पानी का टैंकर खड़ा है। और साथ में अनगिनत लोगों की कतारें भी। सभी को पानी के लिये मारामारी। मारामारी को देखने के बाद एक भुक्तभोगी से पानी की उपलब्धता के बारे में पूछता हूं। दो – तीन दिन पर पानी का टैंकर आता है और यही पानी खाने – पीने में प्रयोग करता हूं। पानी की उपलब्धता पर ध्यान देना बहुत ही जरुरी है। आप जानते हैं। लोगों की मूलभूत समस्याओं के बारे में सर्वोपरी है पानी, टूटी सड़कें, पार्किंग की अनउपलब्धता और भी बहुत कुछ। पर विकास का काम जारी है। विश्वास नही होता है कि दस साल पहले और आज का यह उत्तम नगर क्षेत्र।
कांग्रेस के इस चुनाव का नारा विकास का क्रम टूटने न दे। लोगों पर मतदाताओं पर अपील कर रहा है क्योंकि आज जो कुछ भी है वो वर्तमान विधायक के कारण और कांग्रेसी सरकार के कारण ऐसा लोग आमतौर पर जाहिर करते हैं। कांग्रेस के दिग्गज मुकेश शर्मा इस बार भी ताल ठोक रहे हैं। और उनके सामने है भाजपा के युवा उम्मीदवार पवन शर्मा। बसपा ने भी ओमप्रकाश जैन को मैदान में उतारा है पर लोगों पर उतना प्रभाव दिखायी नही देता है। तीन – साढ़े तीन घंटे गुजारने के बाद सड़क पर एक बारात जैसी भीड़ आती दिखायी देती है। बैंड – बाजे के साथ निकट आने पर मालूम पड़ता है कि ये है कांग्रेस के उम्मीदवार। पर ये क्या खुली जिप्सी में वो बैठे है। और उनके एक पैर में पट्टी बंधा है। पूछने पर मालूम होता है कि कांग्रेस के उम्मीदवार का पैर टूट गया है। जिसके कारण वह अस्वस्थ्य है। पर जनता का आर्शीवाद लेने के लिये मैदान में है। हालांकि इनके चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी इनके बेटे अंकित और भतीजे राहुल ने संभाल रखी है।
क्षेत्र में कुल मिलाकर 168188 मतदाताओं के लिये पोलिंग स्टेशन की संख्या है 157 । मतदाताओं में प्रवासियों कि अधिकता के कारण उनके अपने मुद्दे भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इस क्षेत्र का समीकरण है ब्राह्मण 11 फीसदी, ओबीसी 25 फीसदी, मुस्लिम 8 फीसदी एक बड़ी तादाद पंजाबी तथा जाटों का भी है 22 फीसदी व 16 फीसदी।
इस क्षेत्र में पूरा घूमने के बाद भाजपा और कांग्रेस के बीच ही आपसी लड़ाई देखने को मिल रही है। निर्दलीयों, बसपा और सपा वोट कटवों की भूमिका में रहेंगे। चार घंटे घूमने के बाद वापस मैं उसी चाय दुकान पर पहुंचता हूं। एक बाबाजी बगल में बैठकर निर्गुण गा रहे थे दिन दुनिया से बेखबर। और मेरे शरीर की तंद्रा और घूमने से मिली हुई थकावट को दूर कर रही थी अपनी लत। 764 डीटीसी आती दिख रही थी दौड़कर पकड़ी और खिड़की वाली सीट पकड़कर याद कर रहा था सारे सिलसिले को एक चलचित्र समान।

Thursday, November 27, 2008

हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी का आक्रमण

हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी का आक्रमण एक नई स्थिति है, जिसकी चिंता की जानी चाहिए, पर की नहीं जाती है। हिंदी और भारतीय भाषाओं को समाचारों के मामले में हमेशा ही अंग्रेजी का मुंह देखना पड़ता रहा है। इसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं।
समाचार-साधनों और समाचार-प्रेषण के व्यवसाय पर पश्चिम का वर्चस्व एक बुराई है, जिससे बाकी संसार आज जूझ रहा है। अपने देश में यह लड़ाई दुहरी है - पश्चिमी वर्चस्व के विरुध्द भी, अंग्रेजी के वर्चस्व के विरुध्द भी।
इस लड़ाई में हिंदी पत्रों, उनके संपादकों व मालिकों ने वह तत्परता, वीरता और सूझबूझ नहीं दिखाई है, जो उनसे अपेक्षित थी। आज भी हिंदी पत्र न केवल विदेश के बल्कि स्वदेश और यहां तक कि अपने ही प्रदेश के समाचारों का भी बड़ा भाग अंग्रेजी में पाते हैं और अनुवाद करके छापते हैं। मुख्यत: हिंदी में ही समाचार देने के लिए स्थापित की गई दो समाचार एजेंसियां पैसे की तंगी और कुप्रबंध के कारण ठप हो गईं। पीटीआई और यूएनआई की हिंदी समाचार-सेवाएं आंशिक सेवा ही दे पा रही है। मेरी राय में इसका मुख्य कारण ज्यादातर हिंदी पत्र मालिकों की यह लोभी वृत्ति है कि खबरें उन्हें सस्ती से सस्ती और हो सके तो मुफ्त में मिल जाएं। मानो वे ऐसा मानते हैं कि हिंदी चूंकि राजभाषा है, इसलिए उसमें समाचार देने में अगर समाचार-समितियों को घाटा हो तो उसकी भरपाई सरकार करे। हिंदी पत्रों ने प्राय: इसकी व्यवस्था करने पर बहुत ही कम ध्यान दिया है कि देश के गैर हिंदी भाषी इलाकों से खासकर दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत से वहां की स्थिति और समाचारों पर वहीं के सधे हुए पत्रकारों की खबर-पातियां मंगवाई जाएं। प्राय: यह काम वहां बसे हिंदी भाषियों, हिंदी के अध्यापकों और हिंदी-प्रचारकों को सौंप दिया जाता है, चाहे उनकी पत्रकारीय क्षमताएं न के बराबर हों। या इस सारे पचड़े से बचने के लिए अखबार अंग्रेजी स्तंभकारों की शरण लेते हैं।
पर जिसे अभी मैंने हिंदी पर अंग्रेजी पत्रकारिता का आक्रमण कहा, वह कुछ और ही चीज है। उसके तीन रूप है-
1. अंग्रेजी पत्रिकाओं का हिंदी अनुवाद छपना।
2. हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के नाम अंग्रेजी में रखना।
3. हिंदी पत्रों में अंग्रेजी पत्रकारों के सिंडिकेटेड स्तंभों का नियमित रूप से छापना।
1. 'रीडर्स डाइजेस्ट' का हिंदी संस्करण 'सर्वोत्तम' शायद पहली पत्रिका थी, जिसने अंग्रेजी का अविकल अनुवाद हिंदी में परोसना शुरू किया। कुछ सय बाद टाइम्स-समूह ने अपनी फिल्ी पत्रिका 'माधुरी' को अंग्रेजी 'फिल्मफेयर' कर दिया। मगर 'इंडिया टुडे' के हिंदी संस्करण ने थोड़े ही समय में जैसी व्यापारिक सफलता अर्जित कर ली, वह चौंका देने वाली चीज थी। मेरी राय में इससे दो तथ्य उभरत हैं- एक तो यह कि किसी खास ढंग की समाचार-पत्रिका की भूख हिंदी भाषियों के एक बड़े वर्ग में थी, जिसकी पूर्ति हिंदी के संपादक और प्रकाशक नहीं कर पा रहे थे। दूसरा यह कि हम हिंदी प्रेमी राजभाषा-राष्ट्रभाषा के नाम पर नारेबाजी चाहे कितनी ही कर लें, हिंदी की अस्मिता और उसकी रक्षा से हमें बहुत कम सरोकार हैं। इसका विवेचन और विशेषण होना जरूरी है कि यह पाठक वर्ग कौन-सा है जो अंग्रेजी पत्रिकाओं का उलथा खरीदने-पढ़ने को इतना उत्सुक है और किस मानसिकता और आवश्यकता के कारण वह ऐसा करता है। जिस अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसा हुआ है और होने वाला है, उनसे भी हमें पूछना, पता लगाना चाहिए। शायद मिल-जुलकर हम कोई उपाय और उपचार खोज सकें।
2. पत्र-पत्रिकाओं के नामों में अंग्रेजी का एक-आध शब्द रखने की परंपरा हिंदी में बहुत पुरानी है। स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1873 में 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' नाम की पत्रिका निकाली। (बेशक उसका नाम अगले साल उन्होंने 'हरिश्चचंद्र चंद्रिका' कर दिया)। 'हिंदी पंच' और 'हिंदू पंच' दो अन्य पुरारनी हिंदी पत्रिकाओं के नाम थे। ऑक्सफोर्ड कन्साइज डिक्षनरी के हिसाब से 'मैग्जीन' शब्द फारसी के 'मखजन' शब्द से निकला है और 'पंच' हिंदी-संस्कृत के 'पंच' (यानी पांच) शब्द से। आजादी आने के पूर्व 1946 में 'नवभारत टाइम्स' निकला। उसका साथी 'दिनमान' भी 'दिनमान टाइम्स' हो गया था। 1952 में मुंबई से 'नवनीत हिंदी डाइजेस्ट' शुरू हुआ, जो अब अपने नाम से 'डाइजेस्ट' शब्द हटा चुका है। किंतु नई प्रवृत्ति हिंदी पत्र का पूरा का पूरा नाम अंग्रेजी में रखने की है। पैकेट पर 'सर्फ' नाम चाहे रोमन में लिखा जाए या देवनागरी या तमिल लिपि में, पर पैकेट के भीतर माल एक ही रहता है। इसलिए ब्रांड के नाम का यहां महत्व है। मगर जब पाठय सामग्री की भाषा और विषयवस्तु सब अलग हों तो किसी प्रतिष्ठान के दो या तीन भाषाओं के पत्रों का साझा नाम अंग्रेजी में रखने से क्या लाभ होता होगा, मैं नहीं समझ पाया हूं।
3. अंग्रेजी के आक्रमण का तीसरा रूप तो स्वयं हिंदी संपादकों का न्योता हुआ है। अंग्रेजी के दो स्तंभकारों के सिंडिकेटेड लेखों के अनुवाद हिंदी में काफी समय से छप रहे थे - श्री इंद्रजीत और श्री कुलदीप नैय्यर। किंतु इधर के वर्षों में करीबन दस नाम और इनके साथ जुड़ गए हैं। दलील यह दी जाती है कि ये सब समर्थ समाचार-विवेचक हैं।
इससे कई सवाल उठते हैं। क्या हमारे देश में सारा सार्थक और पढ़ने योग्य समाचार-विशेषण अंग्रेजी पत्रकार ही करते हैं? क्या हिंदी में अपने स्तंभकार पैदा करने की क्षमता नहीं है? अगर हमें अनुवाद ही लेना हो तो हिंदी की बहन भाषाओं में ऐसा कोई समाचार-विशेषण कम से कम अपने-अपने प्रदेश के बारे में नहीं छपता, जिसे हम अपने पाठकों को पचा सकें? एक बात और। सुनने में यह जरा ओछी भी हो सकती है। ये सब अंग्रेजी स्तंभकार बड़े-बड़े अखबारी प्रतिष्ठानों में बड़े-बड़े वेतन पाने वाले संपादक रहकर निवृत्त हुए हैं और अब अपना योगक्षेम चलाने या पत्रकार-पेशे में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्तंभ लिखते हैं। क्या हमने जीवन-भर प्राय: अल्प वेतनों पर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की सेवा करके निवृत्त होने वाले सुयोग्य संपादकों और पत्रकारों के योगक्षेप की कभी चिंता की है?
मैं भाषाई छुआछूत की भावना से प्रेरित होकर यह सब नहीं कर रहा हूं। महत्वपूर्ण समाचार या विचार किसी भी भाषा के माध्यम से आए, उसे तुरंत और सुलझे ढंग से अपने पाठकों तक पहुंचाना पत्रकार का पहलार् कत्तव्य है। फिर वैदेशिक संबंध, प्रतिरक्षा, शस्त्रास्त्र, अर्थतंत्र और वित्त व्यवस्था, विज्ञान और टेक्नालॉजी की विविध शाखाएं, कानून और संविधान आदि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें प्रतिभा और कठोर परिश्रम से ही विशेषज्ञता अर्जित की जा सकती है। इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ जब कोई महत्वपूर्ण बात देशवासियों से कहना चाहें तो वे भले ही किसी भी भाषा का सहारा लें, उनकी बात तुरंत अपने पाठकों तक पहुंचाने की शक्ति और तत्परता हममें होनी चाहिए। वरना हम अपने पाठकों की सच्ची सेवा नहीं कर सकते और न सच्चे पत्रकार कहला सकते हैं।
मगर रोजमर्रा की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का विशेषण और विवेचन करने के लिए तो हमारे पास अपनी भाषा और अपने मुहावरे में लिखने वाले लोग होने ही चाहिए और अगर नहीं हैं तो उन्हें तैयार करना हमारे अखबरों और उनके संपादकों की जिम्मेवारी है। ऊपर बताए गंभीर विषयों के हिंदी भाषी विद्वानों को हिंदी में लिखने के लिए फुसलाना भी हमारार् कत्तव्य समझा जाना चाहिए। हमारा हिंदी प्रेम अगर हिंदी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने के नारे तक ही सीमित रहता है तो निश्चय ही वह खोखला है। हिंदी से प्रेम करने का अर्थ हिंदी के मुहावरे, व्याकरण के नियमों और शुध्द वर्तनों का आग्रह और आदर करना भी है। इस दृष्टि से इस समय अराजकता की सी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे किसी अनुशासनकर्ता की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव होती है। हिंदी के अपने मुहावरे की उपेक्षा और अंग्रेजी से अनुवाद किए हुए गैर मुहावरेदार प्रयोगों की भरमार, व्याकरण के सामान्य से नियमों का उल्लंघन और वर्तनी की भद्दी भूलें आज हिंदी के अच्छे से अच्छे पत्रों और पत्रिकाओं में इतनी आम चीजें हो चली हैं कि कई बार यह पूछने की इच्छा होती है कि क्या ये पत्र-पत्रिकाएं अर्ध्दशिक्षितों द्वारा चौथाई शिक्षितों के लिए छापी जाती है?
हमें याद रखना चाहिए कि जैसलमेर से लेकर पूर्णियां और कांगड़ा से लेकर खंडवा तक के विशाल प्रदेश में हिंदी शिष्ट व्यवहार की भाषा बनी हुई है तो खड़ी बोली के व्याकरण के नियमों की बदौलत ही। भाषा सिखाने के स्तर पर गिरावट, कंपोज करने और छापने की नई विधियों की आवश्यकताओं को न समझने और प्रूफ रीडिंग के बारे में घोर उपेक्षाभाव के कारण हमारी पत्र-पत्रिकाओं में वर्तनी की कितनी गलतियां रहने लगी हैं, वे पाठकों की अगली पीढ़ियों को हिंदी शब्दों के सही स्वरूप को पहचानने में असमर्थ बना देंगी। भाषा के सही रूप और प्रयोग के प्रति जागरुकता किसी भी सभ्यता की बौध्दिक उन्नति का एक लक्षण है। उसकी उपेक्षा करना अपनी सभ्यता के बौध्दिक स्तर को नीचे उतारना है। खोजी पत्रकारिता की आज बड़ी धूम है। वह बहुत ही महिमामंडित हो गई है। वह मदिरा की तरह मादक और मनमोहक भी है। खुली अनीति और अन्याय का विरोध करने की तरह, छिपे तौर पर चल रही दुरभिसंधियों और स्वार्थ भरे दुष्कर्मों का पता लगाना और उनका परदाफाश करना पत्रकारिता का विशेषाधिकार ही नहीं, कर्त्तव्य भी है। किंतु यह प्रक्रिया शल्यक्रिया की तरह है, जिसे समाज की हितकामना से, सुलझे दिमाग और बहुत सधे हाथ से ही किया जाना चाहिए।
जनहित सारी ही पत्रकारिता की तरह खोजी पत्रकारिता का भी पाट है, और न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा उसके कगार हैं। इन कगारों को तोड़कर अपने पाट से बाहर बहने पर खोजीपत्रकारिता विनाश भी मचा सकती है। न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा से विहीन खोजी पत्रकारिता पुलिसिया तहकीकात या निजी खुफिया एजेंसियों की खोजबीन से बहुत भिन्न नहीं रह जाती, क्योंकि तब सत्य का पता लगाना और जनहित में उसे उघाड़ना उसका उद्देश्य नहीं रह जाता है। तब तथ्यों का चयन और निरूपण करने में वह सत्य की अपेक्षा करने लगती है। ऐसी खोजी पत्रकारिता बहुत शीघ्र अखबारी आतंकवाद में परिणत हो सकती है।
सच्ची खोजी पत्रकारिता की दिलचस्पी सिर्फ अधिकार संपन्न व्यक्तियों या संगठनों के छिपे दुष्कर्मों और दुरभिसंधियों का पता लगाने और प्रमाणों के साथ उन्हें पाठकों के सामने पेश करने में नहीं होती। किसी निर्दोष पर आरोप-आक्षेप लगने पर वह उसकी रक्षा में भी अपनी खोजी वृत्ति का पूरा-पूरा उपयोग करती है। हर ड्रेफ्युस की ओर से वह एमिली जोला बनकर खड़ी होती है। खोजी पत्रकारिता का यह तेवर हमारे देश में अभी बहुत कम देखने में आया है। जिसे अमेरिका में 'चेकबुक जर्नलिनज्म' कहा जाता है, वह भी धीरे-धीरे हमारी खोजी पत्रकारिता के साथ जुड़ती जा रही है। घूस देकर, चोरी करवाकर दस्तावेज प्राप्त करना और छापना भी उसमें वर्जित नहीं समझा जाता। साधन-शुध्दता का विचार उसे दकियानूसी लगता है। इसमें दो खतरे हैं। हमारे पत्र मालिकों की थैलियां उन्हीं दस्तावेजां के लिए खुलेंगी जो ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के खिलाफ जाते हों, जो उन्हें नापसंद हैं या उनके स्वार्थों में आड़े आते हैं। इस तरह हम अपने मालिकों के हाथों में खेल रहे होंगे। दूसरे, हम ऐसे भी दस्तावेज छाप बैठ सकते हैं जो गढ़ंत हैं और बुरी नीयत से हमें मुहैया किए गए हैं।
जनहित और न्यायबुध्दि से प्रेरित और तथ्यों को छांटने-परखने में दक्ष पत्रकार ही इन सब खतरों से बचते हुए खोजी पत्रकारिता कर सकता है। धर्म, संघ और बुध्द जिस तरह बौध्द धर्म के त्रिरत्न हैं, उसी तरह जनहित, न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा सच्ची खोजी पत्रकारिता के त्रिरत्न हैं। इस त्रिरत्न की उपेक्षा करने वाली खोजी पत्रकारिता चाहे कितनी ही मादक और उत्तेजक क्यों न हो, परंतु पत्रकार और पाठक के लिए और अंतत: समाज के लिए हितकारी नहीं हो सकती।

नारायण दत्‍त

विकृति पर केंद्रित होती पत्रकारिता के खतरे

आजादी के बाद के हिन्‍दी पत्रकारिता के स्‍कूलों में दिनमान, रविवार और जनसत्‍ता के नाम ज्‍यादा चमकदार हैं। इनके अलावा नई दुनिया जैसा भी स्‍कूल है जिसका किसी महानगर से रिश्‍ता नहीं रहा है। आजादी के पूर्व ऐसा ही एक स्‍कूल गुरुकुल कांगड़ी के स्‍नातकों का रहा है, जिन्‍होंने दिल्‍ली में हिन्‍दी और उर्दू पत्रकारिता की नींव रखी। हिन्‍दी पत्रकारों,संपादकों की इसी कड़ी में एक नाम नारायण दत्‍त का भी रहा है। यह हमारा सौभाग्‍य है कि हम अभी भी उनको लिखते- पढ़ते देख रहे हैं। पिछले दिनों हिन्‍दी पत्रकारिता पर बड़ा ही विचारोत्‍तेजक लेख उन्‍होंने मीडिया विमर्श में लिखा। यहां उसे साभार पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं प्रस्‍तुत है पहला भाग
आज हमारी पत्रकारिता मनुष्य की कृति पर, उसमें भी उसकी विकृति पर, अधिकाधिक केंद्रित होती चली जा रही है। अखबारों की तो बातें छोड़िए, पत्रिकाएं भी राजनीतिक उठापटक, भ्रष्टाचार और अपराधों की चर्चा से भरी रहने लगी है। पाठक का आत्मिक संसस्कार करने वाली, उसकी संवेदनाओं को सूक्ष्म और उसकी संवेदना को व्यापक तथा गहरा बनाने वाली और उसमें बौध्दिक कुतूहल और ज्ञान की पिपासा जगाने वाली सामग्री के लिए हमारी पत्र-पत्रिकाओं के पास स्थान की जैसी भयंकर की रहने लगी है, वह सचमुच भयजनक है।
दस-ग्यारह साल पहले अमेरिकी पत्रिका 'नेशनल ज्यॉग्राफिक' ने लम्बे शोध के आधार पर लिखा एक लेख छापा था। उसमें बताया गया कि मनुष्य के बाद हम्पबैक ह्वेल दुनिया का एकमात्र प्राणी है जो संगीत रचता है। उस अंक में ह्वेलों के संगीत का फोनोग्राफिक प्रिंट भी दिया गया है। मैंने लेख पढ़ा, प्रिंट को बजाकर सुना, मुझे रोमांच हो आया। इस विषय पर 'बीबीसी लिसनर' के एक पुराने लेख की कतरन मेरे पास थी। मैंने एक संपादक से कहा कि इस पर एक लेख बन सकता है। तपाक से उत्तर मिला ''इस विषय ें हमारे पाठकों को दिलचस्पी नहीं होगी,'' जिसका सीधा अर्थ यह था कि इस विषय पर लेख देने में मेरी दिलचस्पी नहीं है।
पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने एक बार बातचीत में मुझसे कहा था- ''हिंदी में पाठकों की दिलचस्पी के बारे में परम प्रमाण मानकर चलता है,'' अगल मैं इसमें यह जोड़ दूं कि प्राय: संपादक चौकीदार बनकर अनेक अच्छे विषयों को पाठक तक पहुंचने से रोक देता है, तो बात बहुत गलत न होगी। जहां संपादक अधिक जीवंत और जागरूक हो, वहां बहुधा पत्र के संचालन और प्रबंधक उसे टोकते रहते हैं। हाल में मेरे एक संपादक मित्र से प्रबंधक ने पूछा था कि हिंदी पाठक को रुमानिया और बल्गारिया से क्या लेना-देना।
पं. श्रीनारायणजी ने ही बीस-एक साल पहले लिखा था कि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के तीन शाश्वत विषय हैं- नेता, अभिनेता और स्थान बच जाए तो देवता। क्या कुल मिलाकर आज भी स्थिति यही नहीं है? अलबत्ता खेल, अपराध और आर्थिक भ्रष्टाचार भी हमारी पत्रिकाओं में भरपूर स्थान पाने लगे हैं। मगर चूंकि खेल में राजनीति घुस गई है, राजनीति खिलवाड़ बन गई है और राजनीति और अपराध के बीच सीमा खींचना मुश्किल होने लगा है, इसलिए हम मान सकते हैं कि नेता-अभिनेता-देवता का फार्मूला आज भी हमारी पत्रिकाओं पर लागू होता है।
यह माना जाता है और संपादकीय लेखों में हमें बार-बार याद भी दिलाया जाता है कि हम विज्ञान-युग में जी रहे हैं। परंतु क्या हमारी पत्र-पत्रिकाओं में इसकी कोई झलक मिलती है? हिंदी में सुबोध विज्ञान की कितनी पत्रिकाएं हैं? हिंदी के कितने पत्रों या पत्रिकाओं में विज्ञान का नियमित स्तंभ है? हां, कोई पत्र या पत्रिका ऐसी नहीं है जिसमें दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक भविष्य का कॉलम न छपता हो। चुनावों से पहले हम मतगणनाशास्त्रियों (सेफॉलाजिस्टों) के अनुमानों की बजाय ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां ज्यादा शैक से छापते हैं। आज फलित ज्योतिष को हमारी पत्र-पत्रिकाओं ने परम विज्ञान का दर्जा दे दिया है। वे उसे भारतीय संस्कृति और भारतीय मानस के बुनियादी अंग के रूप में पेश करती है। हमारे अधिकांश पत्रकार शायद यह जानते ही नहीं और अगर जानते हैं तो पाठक को बताते नहीं कि फलित ज्योति की खिल्ली उड़ाने वाली चिंतन-परंपरा भी इस देश में सदा ही रही है। संस्कृत साहित्य से जुड़े चुटकुलों के दिलचस्प संग्रह 'भोजप्रबंध' में ये गजब के श्लोक हैं -
त्रैलोक्यनाथो रामोस्ति वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रक:।
तेन राज्याभिषेके तु मुहूर्त: कथितोभत्॥
तन्मुहूर्तेन रामोपि वनं नीतोवनीं बिना।
सीतापहारोप्यभवत् वैरिंचिवचनं वृथा॥
(विष्णु के अवतार) राम तीनोंशोकों के स्वामी और वशिष्ठ ब्रह्माजी के सगे बेटे, उन वशिष्ठ ने उन राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त भाखा। पर उस मुहूर्त में राम को राज्य गंवाकर वन को जाना पड़ा और बाद में तो सीता भी हर ली गईं। ब्रह्माज के बेटे का वचन बेकार हो गया।
कहते हैं, लॉर्ड कर्जन से एक बार पूछा गया कि ब्रिटेन में बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य बना देने का क्या परिणाम हुआ। उत्तर मिला कि सार्वजनिक मूत्रालयों में दीवारों पर लिखा जाने वाला साहित्य पहले की तुलना में एक फुट नीचे से शुरू होने लगा है। क्या साक्षरता के प्रसार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री बढ़ने के साथ पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री के स्तर में गिरावट आना अपरिहार्य है? यह ख्याल उदास करने वाला है।
सन 1951 में देश में साक्षरता का प्रतिशत 16.23 था। 1920 वाले दशक में यह प्रतिशत 10-11 के आसपास रहा होगा और हिंदी प्रदेश में तो और भी कम, क्योंकि साक्षरता के मामले में हिंदी प्रदेश बाकी भारत से जरा पीछे रहता आया है। फिर भी 1925 में हिंदी में 'भूगोल' नाम की पत्रिका शुय हुई, जिसमें पूरे विश्व की भौगोलिक जानकारी बड़ी सहज और स्वच्छ हिंदी में आम पाठकों को दी जाती थी। यह पत्रिका आजादी आने के बाद कालकवलित हुई। ऐसा लगता है कि आजादी आने के बाद हमने गैरमुनाफादेह पत्रिकाएं और पुस्तकें छापना सरकार का फर्ज मान लिया है। बिक्री और मुनाफा निजी प्रकाशकों के पार्वती-परमेश्वर बन गए हैं और उनके दबाव में या कई बार तो स्वेच्छा से भी संपादक पाठकों की रुचि का महत्तम समापवर्तक निकालता बैठा रहता है।
होना यह चाहिए कि हम पाठकों को लुभाकर एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ाने का यत्न करें। पर हो यह रहा है कि हम पाठक से एक सीढ़ी नीचे खड़े होकर उसे नीचे उतरने को फसलाते हैं। हम उसकी बौध्दिक पाचनशक्ति बढ़ाने की बजाय घटाते हैं। नए विषयों, नए तथ्यों के अस्तित्व से उसे हम अनजान रखते हैं।
चिली के महान कवि पाब्लो नेरूदा का लिखा एक संस्मरण मुझे याद आता है। एक बार उन्हें सांतियागो की सब्जी मंडी के मजदूरों के संघ ने अपने जलसे में कविताएं पढ़ने बुलाया। असावधानी से नेरूदा अपना वह संकलन अपने साथ वहां ले गए, जिसमें उनकी सबसे कठिन समझी जाने वाली और सबसे लंबी कविताएं थीं। लाचारी में उन्होंने उन्हीं में से दो-तीन कविताएं पढ़कर सुनाईं। जब कविता पाठ पूरा हुआ तो किसी ने ताली नहीं बजाई, सन्नाटा छाया रहा। फिर दो क्षण बाद एक मजदूर उठा और उसने भर्राए गले से कहा, ''कवि, आज तक किसी ने हमें यह सब बताया ही नहीं था,'' और उसकी आंखों से आंसू बह निकले। मेरे ख्याल से हर संपादक को उस मजदूर का चित्र अपने मन की आंखों के सामने रखना चाहिए।
हिंदी पाठक में सब कुछ जानने की इच्छा है। उसमें सब कुछ समझने की शक्ति है, बशर्ते कि हम समझना जानते हों। आम आदमी की बुध्दि, शक्ति और विवेक में यह आस्था प्रजातंत्र का मूल आधार है और प्रेस स्वातंत्र्य के समर्थन में मूल दलील भी यही है। जो पत्रकारिता इसे समझती और स्वीकारती नहीं है, वह प्रजातंत्र को अंतत: कुंठित करती है। पत्रकारिता को बुध्दुओं का दिल बहलाने का धंधा मानकर चलना पत्रकारिता की जड़ काटना है और अफसोस की बात है कि यह कसूर आज बड़े पैमाने पर बेझिझक हो रहा है।
श्रेष्ठ पत्र या पत्रिका का लक्षण यह है कि वह पाठक और संपादक का साक्षा बौध्दिक और रसात्मक पराक्रम है। उसका मंत्र होता है- ''सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्य करवावहै,'' जिसे हमारे पुरखे स्वाध्याय और प्रवचन के लिए पढ़ा करते थे, आज की तरह भोजन के पहले नहीं। यह प्रबुध्द पाठक का जन्मसिध्द अधिकार है कि जब कोई पत्र या पत्रिका उसकी बौध्दिक भूख और रसात्मक प्यास को तृप्त न करे तो वह दूसरी पत्र-पत्रिकाएं तलाशे, चाहे वे दूसरी भाषा की ही क्यों न हों। संपादक की श्रेष्ठता की कसौटी यह है कि वह इसकी नौबत न आने दे।

Tuesday, November 25, 2008

बतकही का अभिप्राय

बतकही .... का अभिप्राय संवाद से है , बतकही एक ऐसी कोशिश है जो एक सार्थक संवाद स्थापित कर सके जिससे समाज को एक दिशा मिले .बतकही में आपका स्वागत है .आएये बतकही में हम आप सभी बैठ कर बतकही लगाते हैं .

लक्ष्मीनगर विधानसभा क्षेत्र का चुनावी मुद्दा सीवर और पार्किंग

नई दिल्ली । लक्ष्मीनगर विधानसभा क्षेत्र में इस बार चुनावी मुद्दा महंगाई के साथ सीवर और पार्किंग है। इस क्षेत्र में दस उम्मीदवार चुनावी मैदान में खड़े हैं। जिनके भाग्य का फैसला एक लाख 61 हजार 107 मतदाता करेंगे। नये परिसीमन के बाद लक्ष्मीनगर विधानक्षेत्र में किशनगंज, लक्ष्मीनगर, पाण्डवनगर और शकरपुर निगम वार्ड शामिल हुये हैं । जिसमें में 43 फीसदी पंजाबी व ब्राह्मण, 10 फीसदी दलित, 10 फीसदी उत्तराखण्डी और 9 फीसदी मतदाता वैश्य है।
इस बार उम्मीदवारों ने चुनावी मुद्दा सीवर और पार्किंग को बनाया है। वहीं स्थानीय लोगों का कहना है कि कई इलाकों में सीवर लाईन नहीं है और जहां सीवर लाईन है वहां हमेशा जाम की समस्या बनी रहती है। इसके साथ ही सड़कों की स्थिति दयनीय है। इस क्षेत्र के कई इलाकों में सड़क के नाम पर सिर्फ गड्ढे ही रह गये हैं। सड़कों के जर्जर स्थिति के कारण यहां हमेशा जाम लगना आम बात हो गयी है। स्थानीय लोग इस संबंध में कहते हैं कि जाम की वजह से एक किमी सफर तय करने में घंटों लग जाते हैं। वहीं दूसरी ओर पार्किंग की समस्या भी आम हो गयी है। यहां के स्थानीय लोग कहतें हैं कि बाजार करने से पहले अपनी गाड़ी कहां खड़ा करें ये सोचना पड़ता है। मुख्य मुद्दों में यहां की अनाधिकृत कालोनियां है। कई क्षेत्रों में स्थानीय लोगों को एमसीडी द्वारा मकान के ढाये जाने का खौफ व्याप्त है।
लक्ष्मीनगर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने डा अशोक कुमार वालिया को भाजपा ने मुरारी सिंह पवार को बीएसपी ने अविनाश शर्मा को सपा ने ओमवीर सिंह यादव को यूपीयूडीएफ ने कांता को आरएलडी ने राजू प्रसाद गुप्ता को जेडी ने विनय कुमार शर्मा को मैदान में उतारा है। साथ ही तीन निर्दलीय प्रत्यासी ओमप्रकाश सिंह, गुलजार अहमद और यशोदा रानी भी अपना भाग्य आजमा रहे हैं।

Monday, November 24, 2008

भगवान और आदमी

मंदिरों में खूबसूरत लड़कियों की लम्बी कतारें देखकर,
एक ख्याल रह-रह कर जेहन से टकराता है।
कि कैसे मिल जाता होगा भगवान को,
बिना मांगे, बिना कुछ किए-
इन खूबसूरत बालाओं का सानिध्य....
जबकि मिलता नहीं है आज आदमी को कुछ मांगने और करने के बावजूद।
शायद भगवान होने का यही मतलब है,
बिना मांगे,बिना कुछ किए सब हासिल करते रहना।
उसे थकान भी नहीं लगती सदियों से एक ही हालत में सातमुहें शेषनाग के ऊपर बैठे हुए।
उसके नकारेपन का एक और सबूत है उसकी अर्द्धांगिनी की नियुक्ति-
जो शायद उसके बदन पर बैठी मक्खियाँ उड़ाने और उसके पैर दबाने के लिए ही है।

Monday, November 17, 2008

राष्ट्रपति पुरस्कार पर बवाल

२६ जनवरी २००९ को विश्वविद्यालय के छात्र - छात्राओ कों शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए राष्ट्रपति पुरुस्कार प्रदान करने की घोषणा किया गया है। इसके लिए विश्वविधालय ने प्रतिभावान छात्रों की सूचि तैयार की है।राष्ट्रपति पुरुस्कार के लिए रांची विश्वविद्यालय द्वारा चयनित एक छात्रा के चयन पर सवाल उठ गया है। यह मामला करीम सिटी कॉलेज जमशेदपुर का है। मॉस कम्युनिकेशन विडियो प्रोडक्शन विभाग के सत्र २००५ - ०८ की छात्रा निधि गुप्ता को रांची विश्वविद्यालय द्वारा पुरुस्कार के लिए नामित किया है। इस छात्रा ने स्नातक में लगभग ८२ फीसदी अंक प्राप्त किया है। रांची विश्वविधालय के कुलपति ने चयनित छात्रा का चयन का आधार वाणिज्य संकाय में उच्च स्थान प्राप्त करना बताया है।वहीँ दूसरी तरफ़ उसी विभाग की छात्रा पूजा शर्मा जिसका प्रतिष्ठा का विषय मॉस कम्युनिकेशन विडियो प्रोडक्शन और वैकल्पिक विषय विज्ञानं है। जिसमें लगभग ८४ फीसदी अंक प्राप्त कर छात्रा ने रांची विश्वविधालय में दूसरा स्थान और मॉस कॉम विभाग में पहला स्थान प्राप्त किया है। इस छात्रा को पुरुस्कार के लिए नामित नहीं किया गया है। जबकि कई मामलों में पूजा शर्मा निधि गुप्ता से आगे है।धयान देने योग्य बात यह है कि दोनों छात्रा का प्रतिष्ठा का विषय मॉस कम्युनिकेशन विडियो प्रोडक्शन है। स्नातक प्रमाण पत्र के मुताबिक दोनों छात्रों को प्रतिष्ठा के विषय पर ही अंक प्राप्त हुए है। अर्थात पूजा शर्मा को प्रतिष्ठा विषय मास कम्युनिकेशन विडियो प्रोडक्शन पर लगभग ८४ फीसदी और निधि गुप्ता को लगभग ८२ फीसदी अंक मिले है। रांची विश्वविद्यालय द्वारा छात्रों को दिये गये स्नातक प्रमाण पत्र में वैकल्पिक विषय वाणिज्य या विज्ञान का अंक समाहित नहीं है।इससे स्पस्ट होता है की दोनों छात्रा एक ही संकाय के छात्रा है और वो है मास कम्युनिकेशन विडियो प्रोडक्शन। अंक के आधार पर पूजा शर्मा निधि गुप्ता से आगे है अर्थात पुरुस्कार की सही हकदार पूजा शर्मा है।
प्राप्त सूचना के आधार पर 17 नवंबर को दैनिक हिन्दुस्तान के जमशेदपुर संस्करण में एक खबर छपी है। इस खबर में रांची विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो ए ए खान ने करीम सिटी कालेज, जमशेदपुर की छात्रा निधि गुप्ता का राष्ट्रपति पुरस्कार के लिये नामित होने का आधार वाणिज्य संकाय में प्रथम स्थान लाना बताया है। इस समाचार पत्र के पत्रकार ने राष्ट्रपति के लिये नामित छात्राओं का अंक फीसदी में छापा है। समाचार पत्र में निधि गुप्ता का प्राप्तांक 84.40 फीसदी छापी गयी है। लेकिन उसका प्राप्तांक 82.90 फीसदी है। अंक के आंकड़ों के साथ खिलवाड़ करते हुये पत्रकार ने पूजा शर्मा को अंक के सहारे राष्ट्रपति पुरस्कार के लिये शामिल होना बताया लेकिन वे सामाचार छापते हुये तथ्यों और आंकड़ों की जांच भी उचित नही समझा।

Wednesday, November 12, 2008

एक एनकाउण्टर का मीडिया एनकाउण्टर


हिमांशु शेखर

जामिया एनकाउण्टर पर कोई सवा महीने तक मीडिया ने अपने तरीके से एनकाउण्टर जारी रखा। इस मसले पर मीडिया दो खेमे में बंटा हुआ साफ तौर पर दिख रहा है। एक खेमा वह है जो मानता है कि यह एनकाउंटर फर्जी है। इस खेमे के कुछ लोग तो इसे एनकाउंटर कहने से भी हिचक रहे हैं। उनका मानना है कि इसे हत्याकांड कहना ज्यादा उचित होगा। वहीं दूसरा खेमा ऐसा है जो इस एनकाउंटर को सही मानता है।
उसका कहना है कि मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के तहत पुलिस की कार्रवाई को गलत ठहराना सही नहीं है। यहां एक बात बिल्कुल साफ है कि दोनों खेमों में से किसी के पास भी पुख्ता और विश्वसनीय जानकारी नहीं है। इसके बावजूद दोनों तरफ के लोग अपने-अपने निष्कर्ष को बेबाकी के साथ स्थापित करने पर तुले हुए हैं। इस रवैये को देखते हुए यह लगता है कि जिसका हित जिसमें सधता है उसने वैसी लाइन ले ली है। सच के साथ खड़ा होते हुए दूध का दूध और पानी का पानी करने का साहस कोई खेमा नहीं दिखा पा रहा है। जामिया एनकाउंटर के मीडिया कवरेज पर एक रिपोर्ट आई है- दिल्ली ब्लास्टः ए लुक ऐट एनकाउण्टर कवरेज. कुल २७ पृष्ठों की रिपोर्ट है जिसे तैयार किया है दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट ने। इस रिपोर्ट में महीने भर के दौरान मीडिया द्वारा इस पूरे घटनाक्रम की जिस तरह से रिपोर्टिंग की गयी है उसकी विशद और तटस्थ समीक्षा की गयी है. इस रपट के जरिए यह बात उभर कर सामने आई है कि एक ही घटना के कवरेज में मीडिया में कितना विरोधभास हो सकता है। इस रिपोर्ट में अध्ययन के खातिर अंग्रेजी अखबारों में से टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, दि हिंदू और दि इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एनकाउंटर संबंधी खबरों का चयन किया गया है। इसके अलावा हिंदी के दैनिक जागरण, अमर उजाला, हिंदुस्तान, जनसत्ता, पंजाब केसरी और राष्ट्रीय सहारा और उर्दू के राष्ट्रीय सहारा में इस घटना से संबंधित खबरों को अध्ययन का आधर बनाया गया है।
इस रपट से जो बात उभर कर सामने आ रही है उससे साफ है कि पत्रकारिता के नैतिक मूल्य केवल इलैक्ट्रानिक मीडिया से ही नहीं बल्कि प्रिंट मीडिया से भी बहुत तेजी से गायब हो रहे हैं। बटला हाउस के एल-18 में गोली चलने की शुरूआत को लेकर भी अलग-अलग अखबारों में अलग-अलग समय बताया गया। 19 सितंबर को हुई इस घटना की खबर अगले दिन के सभी अखबारों के पहले पन्ने पर प्रकाशित की गई। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि हिंदुस्तान टाइम्स और दैनिक जागरण में प्रकाशित खबर के मुताबिक गोलीबारी की शुरूआत ग्यारह बजे हुई। जबकि इंडियन एक्सप्रेस ने वहीं के एक निवासी के हवाले से बताया कि गोलीबारी की शुरूआत पौने दस बजे हुई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने कोई भी समय नहीं प्रकाशित किया। वहीं मेल टुडे ने बताया कि वहां गोलियों की बरसात ग्यारह बजे से शुरू हुई। हिंदुस्तान के मुताबिक गोलीबारी साढ़े दस बजे शुरू हुई। वहीं अमर उजाला ने यह छापा कि गोली चलने की शुरूआत पौने ग्यारह बजे हुई और ग्यारह बजे गोलीबारी समाप्त हो गई।
गोलीबारी कितने देर तक हुई, इसको लेकर भी हर अखबार अलग-अलग तथ्य सामने रखते हुए दिखा। हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक गोली पंद्रह मिनट तक चली। वहीं इसी संस्थान के हिंदी अखबार हिंदुस्तान के मुताबिक डेढ़ घंटे तक गोलीबारी हुई। अब पहला सवाल तो यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में एक ही संस्थान के दो अखबारों में इतना विरोधभास आखिर क्यों है? क्या इसे सतही रिपोर्टिंग कहना वाजिब नहीं होगा? खैर, टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक यह मुठभेड़ पचीस मिनट तक चली। मेल टुडे की माने तो गोलीबारी आधे घंटे तक चली। पंजाब केसरी ने यह अविध् एक घंटा बताया जबकि अमर उजाला ने सवा घंटा। वहीं उर्दू के राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक गोलीबारी तकरीबन दो घंटे तक चली। इस मुठभेड़ में कितनी राउंड गोलियां चलीं, इस बात को लेकर भी अखबारों में विरोधभास नजर आया। टाइम्स ऑपफ इंडिया के मुताबिक पचीस राउंड गोलियां पुलिस के तरफ से चलाई गईं जबकि आठ राउंड गोलियां आतंकियों ने चलाईं। इंडियन एक्सप्रेस, दि हिंदू, हिंदुस्तान, पंजाब केसरी और उर्दू राष्ट्रीय सहारा ने बताया कि पुलिस की तरपफ से 22 राउंड गोलियां चलाई गईं। इसमें से किसी ने भी यह नहीं बताया कि दूसरे तरपफ से पफायरिंग कितने राउंड हुई। राष्ट्रीय सहारा हिंदी और अमर उजाला ने भी बताया कि पुलिस ने 22 राउंड गोलियां चलाईं जबकि आतंकियों की तरपफ से आठ राउंड गोलियां चली। इसके अलावा इस रपट में इस घटना से जुड़ी और भी कई तथ्यात्मक विरोधभासों को दर्शाया गया है। आतंकियों से बरामद हथियार को लेकर भी हर अखबार अलग-अलग दावे कर रहा था। इस ऑपरेशन को अंजाम दे रही टीम में पुलिसकर्मियों की संख्या को लेकर भी विरोधभास है। इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा पांच अधिकारियों के साथ इस घटना को अंजाम दे रहे थे। वहीं मेल टुडे के मुताबिक पंद्रह पुलिसकर्मियों की टीम ने इस घटना को अंजाम दिया। जबकि वीर अर्जुन बताता है कि इस ऑपरेशन में पचास पुलिसकर्मी शामिल थे। नवभारत टाइम्स के मुताबिक पुलिसकर्मियों की संख्या चौबीस थी। इस बात को लेकर भी अखबारी रपटों में साफ फर्क दिखाई देता है कि मोहन चंद शर्मा को कितनी गोली लगी थी। टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदुस्तान टाइम्स, मेल टुडे, दि हिंदू, वीर अर्जुन और हिंदी राष्ट्रीय सहारा के मुताबिक इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी। नवभारत टाइम्स यह संख्या चार और जनसत्ता पांच बता रहा था।
दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट की रिपोर्ट कहती है कि इंस्पेक्टर मोहनचंद शर्मा की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आज तक सार्वजनिक नहीं की गयी. अगर गोली आंतकवादियों की बंदूक से निकली थी तो आज तक उसे फोरेंसिक जांच के लिए क्यों नहीं भेजा गया? विशेषज्ञों की जांच-पड़ताल के बावजूद भी आज तक यह बात साफ नहीं हो पायी है कि इंस्पेक्टर शर्मा को गोली पीछे से मारी गयी या आगे से? एक बड़ा सवाल अभी भी बना हुआ है कि इंस्पेक्टर शर्मा को कितनी गोली लगी थी. दो, तीन या फिर और ज्यादा? स्पेशल सेल की प्रेस विज्ञप्ति में बताया गया कि इंस्पेक्टर शर्मा को तीन गोली लगी थी जबकि जिन डाक्टरों ने आपरेशन किया उनका कहना था कि शर्मा को दो गोली लगी थी. अब ऐसे में अहम सवाल यह है कि आखिर एक ही घटना की रिपोर्टिंग में तथ्यों को लेकर इतना विरोधभास क्यों है? तथ्यों का विरोधभास सिपर्फ इसी घटना तक सीमित नहीं है। बल्कि आम तौर पर इसे हर छोटी-बड़ी घटना के कवरेज में देखा जा सकता है। सवाल उठना लाजिमी है कि क्या अखबार में प्रकाशित होने से पहले खबरों के तथ्यों की पड़ताल करने की परंपरा खत्म होती जा रही है। यह बात तो स्वीकारना करना ही होगा कि आखिर कोई ना कोई कड़ी कमजोर हुई है।

नमस्कार

हमारी आवाज़ सुनो