Friday, January 29, 2010

क्रिकेट, आईपीएल जैसी व्यवसायिक लीग के साथ सुरक्षित तो बिल्कुल नहीं हैं।


आईपीएल एक लोकप्रिय महोत्सव है जो चाहे-अनचाहे सुर्खियां बटोर ही लेता है। कारण, शायद में पैसा और आज। 2008 में जब पहले आईपीएल सीजन की शुरुआत हुई तो यह महेंद्र सिंह धोनी की सबसे मंहगी बिक्री के लिए मशहूर हुआ। 2009 में केविन पीटरसन और एंड्रयु फ्लिंटॉफ नें अपने भारी भाव से सभी को चौंकाया। 2010 में वेस्टइंडीज के बिग-हिटर किरॉन पोलॉर्ड को मुम्बई इंडियन्स ने 750000 डॉलर में खरीद लिया मगर इतनी सुर्खियां नहीं बटोरी जितनी कि 11 पाकिस्तानी खिलाडिय़ों ने बिना बिके ही बटोर लीं।

जी हां, पाकिस्तान की टी-20 चैम्पियंस टीम में से एक भी खिलाड़ी की बोली नहीं लगी। तीसरे आईपीएल सीजन के लिए आठों फ्रैचाइजियों ने पाकिस्तान के किसी भी खिलाड़ी को शामिल करने लायक नहीं समझा। कारण और तर्क अपने-अपने हैं। जहां इसपर तमाम पाक खिलाड़ी और पाक क्रिकेट बोर्ड अधिकारी इस पर भड़के हुए हैं और इसे अपनी बेइज्जती मान रहे हैं, वहीं कुछ दूसरे तत्व पाकिस्तान में भारतीय सिनेमा आदि का विरोध करने की तैयारी कर रहे हैं। पाकिस्तान में इसे उनके खिलाफ एख षडय़ंत्र माना जा रहा है और वे सीधे-सीधे इसे भारत सरकार के सिर मढ़ रहे हैं।

इस पर बीसीसीआई के सचिव और आईपीएल में चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक एन श्रीनिवासन का कहना है कि आईपीएल फ्रैंचाइजी द्वारा खिलाडिय़ों की बोली में किसी भी तरह से तो बोर्ड का और ही भारत सरकार का हस्तक्षेप होता है। साथ ही इस बार आईपीएल में ज्यादा ख्रिलाडिय़ों के लिए स्थान नहीं थे। सभी आठ टीमों के लिए कुल 66 नए खिलाडिय़ों की जरूरत थी। एक टीम में केवल दस विदेशी खिलाड़ी रखे जा सकते हैं और इस सीजन में आठ में से 6 फ्रैंचाइजी को सिर्फ एक-एक विदेशी खिलाड़ी की ही जरूरत थी। श्रीनिवासन यह भी कहते हैं कि हर फ्रैंचाइजी को अपनी मर्जी और जरुरत के हिसाब से खिलाड़ी चुनने का अधिकार है। क्या रामनरेश सरवन, बै्रड हैडिन, ग्रैम स्वैन और डॉग बॉलिंजर जैसे खिलाड़ी बड़े खिलाड़ी नहीं हैं? जो इस आईपीएल बोली में नहीं बिके।

आईपीएल कमिशनर, मोदी, प्रीति जिंटा, शिल्पा शेट्टी ने कहा कि हर फ्रैंचाइजी के पास अपनी पसंद के खिलाड़ी को चुनने का अधिकार है। जबकि कोलकाता नाइटराइडर्स के मालिक शाहरुख कहते हैं कि कोलकाता नाइटराइडर्स का मालिक होने के नाते यह मेरे लिए भी शर्मिंदंगी का विषय है। हमें हमारी अच्छाई के लिए जाना जाता है, हमें हर किसी को इस लीग में शामिल होने का मौका देने के लिए भी जाना जाता है और हम इसके हकदार भी हैं। अगर पाक खिलाडिय़ों को लेकर कोई दूसरी पेचीदगियां थीं तो यह पहले ही साफ कर दिया जाना चाहिए था। मुझे लगता है कि उन्हें आईपीएल में चुना जाना चाहिए था।

तमाम आरोपो-प्रत्यारोपों और दलीलों के बावजूद किसी का कुछ नहीं बिगडऩे वाला, न ही सरकारों का, न ही आईपीएल का और न ही किसी फ्रैंचाइजी का। अगर कुछ बिगड़ेगा, तो वह रिश्ता, जो क्रिक्रेट और दोनों देशों के क्रिकेटरों ने उन तनावपूर्ण परिस्थितियों में कायम रखा है। ऐसे क ई मौके आए जब दोनों देशों की क्रिकेट का रद्द किया गया मगर ऐसा समय कभी नहीं आया जब किसी भी देश के क्रिकेटरों को नकारा आज के समय गया हो। जब कभी भी जरुरत पड़ी खिलाड़ी अपने खेल से रिश्तों को सामान्य करने के लिए आगे आए। पाक खिलाडिय़ों के आईपीएल में न शामिल किए जाने से एक बात तो सामने आ ही गई कि क्रिकेट आईपीएल जैसी व्यवसायिक लीग के साथ सुरक्षित तो बिल्कुल नहीं हैं।


अगर हमें पाकिस्तान हुकुमत से कोई शिकायत है तो इसे सियासत के स्तर पर ही निपटा जाना चाहिए। अगर यह फैसला फ्रैंचाइजी मालिकों का है तो सरकार को इसमें तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए। भारत की दुनिया में एक अलग प्रतिष्ठा है और भारत इस कदर विरोध जताने के लिए क्रिकेट का सहारा नहीं ले सकता है। अगर वीजा और बोर्ड क्लीयरेंस इसका तर्क है तो यह बात तो ऑस्ट्रेलियाई खिलाडिय़ों पर भी लागू होनी चाहिए। आईपीएल एक व्यवसायिक संस्था है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि कोई राष्ट्रीय सरोकार नहीं है। आईपीएल की लोकप्रियता भारत के साथ-साथ दुनिया भर के क्रिकेट-प्रेमियों की वजह से है। क्रिकेट प्रेमी अपने पसंदीदा खिलाडिय़ों को इसमें देखना चाहते हैं जिनमें कई पाकिस्तानी खिलाड़ी भी शामिल हैं। जैसे ही शाहिद अफरीदी क्रीज पर उतरते हैं तो बूम-बूम अफरीदी के पोस्टर दर्शकों के हाथों में लहराते दिख जाते हैं। यह सिर्फ इन खिलाडिय़ों का ही अपमान नहीं बल्कि इस खेल क्रिकेट का भी अपमान है। हम क्यों भूल गए कि आईपीएल सीजन 1 में विजेता टीम राजस्थान रॉयल्स में पाक के सोहेल तनवीर की भूमिका क्या रही थी। वे पहले ऐसे खिलाड़ी बने जिन्होंने इस फॉरमेट में पहली बार 5 विकेट लिए। क्रिकेट को कूटनीतिक नजरिए से देखना सही नहीं हैं और ही क्रिकेट को राजनीति में शामिल करना सही है। नहीं तो क्रिकेट सरहदों के फायदें नुक्सान की गणित में ही उलझ कर रह जाएगी।
आज क्रिकेट एक खेल नहीं बल्कि कुछ लोगों के हाथों का खिलौना है जिसका प्रयोग वे अपने फायदों और हितपूर्ति के लिए मनचाहे तरीके से कर रहे हैं। सरकारें इसके जरिए कभी दो मुल्कों के बीच शांति लाने तो कभी बैर बढ़ाने की कोशिश में हैं, कॉरपोरेट घराने इसका प्रयोग अपने उत्पादों और कंपनियों को मशहूर कर धन बटोरने के लिए प्रयोग कर रहे हैं और इसे चलाने वाले यानि फिल्म स्टार्स खुद को इसकी चमक में रोशन रखने के लिए इसे मनचाही दिशा देने पर अमादा हैं। साथ ही वे सब जो इस खेल को खेलते हैं बड़ी रकमों पर बिककर इस प्रक्रिया में महज कठपुतली बनने पर मजबूर हैं। (वरिष्ठ खेल पत्रकार प्रदीप मैगजीन ने इस मुद्दे पर अपने विचार कुछ इस तरह बयाँ किये)


आज भी प्रासंगिक है योजना आयोग


60 साल का हमारा गणतंत्र और 60 साल का योजना आयोग। दोनों आम लोगों से जुड़े हुए हैं। 60 साल बाद हमारे गणतंत्र के सामने कई नई चुनौतियाँ और उद्देश्य हैं। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलुवालिया का आयोग की प्रासंगिकता पर बहस की शुरुआत करना स्वागत योग्य है। बदलते वक्त के साथ आयोग की नीतियों में भी बदलाव होना चाहिए तभी आज की चुनौतियों का सामना किया जा सकता है।

60 साल पहले भारत गुलामी की दासता से तुरंत स्वतंत्र हुआ था। उस समय इसके सामने लोगों को गरीबी और भूख से बचाने की मुख्य चुनौती थी। उद्योग-धंधे नहीं थे, इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी थी। एक अविकसित देश से विकासशील देश तक का सफर तय करने में योजना आयोग को कई साल लगे। आज भारतीय अर्थव्यवस्था उछाल पर है, लेकिन इसके साथ ही एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि आज भी देश में 76 फीसदी आबादी की प्रतिदिन की आय 20 रुपये से भी कम है। एकतरफ इंडिया है तो दूसरी तरफ भारत। इसीलिए, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि योजना आयोग का अस्तित्व जरूरी है क्योंकि देश में इसके अलावा कोई दूसरी ऐसी सरकारी संस्था नहीं है जो पूरे देश में समान विकास और अंतरराज्यीय हितों के बारे में बात करती हो। योजना आयोग ही इंडिया और भारत के बीच की खाई को पाट सकता है। हाँ, जरूरत है इसे आज की बदलती आर्थिक व्यवस्था, सामाजिक परिदृश्य और केन्द्र-राज्य के संबंधों में आये बदलाव के संदर्भ में प्रासंगिक बनाने की।

Wednesday, January 27, 2010

हमारा भी योगदान है

हर साल कई लोग अपनी उपेक्षा का आरोप लगाते हुए भारत सरकार द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कार को ठुकरा देते हैं। खेल, फिल्म, मीडिया और मुख्यधारा से जुड़े हुए लोग हमेशा लाइमलाइट में रहते हैं। इसीलिए, उनके द्वारा किए जाने वाले काम लोगों की नजरों में तुरंत आते हैं। लेकिन जो लोग इस लाइमलाइट से दूर हैं, उनके योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता। मुजफ्फरपुर के जानकी वल्लभ शास्त्री जी की शिकायत पर गौर किया जाना चाहिए। देर से मिलने वाले पुरस्कार अपनी महत्ता खो देते हैं। सरकार को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि पुरस्कार सही समय पर योग्य व्यक्तियों को मिल जाएं।


इमोशनल अत्याचार : एक और रियलिटी शो

रियलिटी शो की कड़ी में एक और नाम जुड़ गया है और वह है, ‘बिंदास’ चैनल पर दिखाया जाने वाला ‘इमोशनल अत्याचार’। यह शो लोगों के निजता के मौलिक अधिकार का हनन करता है। वैसे तो चैनल वाले यह कह सकते हैं कि वे खुद थोड़े ही न किसी के पर्सनल लाइफ में ताक-झांक करते हैं। लोग खुद अपने पार्टनर की जासूसी के लिए उनके पास आते हैं। जासूसी करना गलत नहीं है। इससे पहले भी प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नि और माता-पिता अपने बच्चों पर नजर रखने के लिए प्राइवेट जासूसों का सहारा लेते रहे हैं। शादी तय करने से पहले भी लड़की वाले लड़के के बारे में जानकारी लेने के लिए जासूसी करवाते रहे हैं। इसीलिए, जासूसी को गलत नहीं ठहराया जा सकता। गलत है, उसे सार्वजनिक रूप से दिखाना।

दूसरी बात जो इस शो को गलत ठहराती है, वह यह है कि इसमें व्यक्ति को फँसाने के लिए परिस्थिति तैयार की जाती है। हर व्यक्ति की कुछ-न-कुछ कमजोरियाँ होती हैं। चैनल का कोई व्यक्ति (लड़का / लड़की), जिसकी जासूसी की जानी होती है, उससे नजदीकी बढ़ाता या बढ़ाती है और इसतरह उसके चरित्र की परीक्षा की जाती है। जाहिर है, चारा डालकर शिकार को जाल में फँसाया जाता है। बात इतने तक ही नहीं रुकती बल्कि प्रेमी या प्रेमिका का एक-दूसरे पर राज खुलने के बाद उनके बीच हुई मार-पीट और हाथापाई को भी दिखाया जाता है।

इस तरह यह शो न केवल निजता के अधिकार का हनन करता है बल्कि अश्लीलता, गाली-गलौज और हिंसा को भी बढ़ावा देता है।

Tuesday, January 26, 2010

मूल्यविहीन होती शिक्षा प्रणाली

हाल के दिनों में शिक्षा को लेकर हर तरफ काफी हो-हल्ला मचाया जा रहा है, शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों की सलाह पर अमल करने की बात कही जा रही है। ऐसा प्रतित हो रहा है मानो अचानक से कोई संजीवनी हाथ लग गई हो! भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रसारित और प्रचलित किया जा रहा है उसके कई पक्षों में सुधार करने की आवश्यकता है। मसलन हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली और उसकी व्यवस्था में इतनी खामियाँ व्याप्त हैं कि उसे दूर किए बगैर किसी नए सुधार की बात करना ठीक उसी तरह होगा जैसे किसी एक मर्ज का इलाज किए बगैर नए मर्ज की दवा ढ़ूँढ़ने में लग जाना। आज हमारे नीति-निर्धारक शिक्षा व्यवस्था में जिस सुधार की बातें करते नहीं अघाते हैं उसमें व्यवसायिकता इतनी हावी होती जा रही है कि भेदभाव, महिला हिंसा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे समाज के गंभीर मुद्दों पर बात करने का समय ही नहीं है। यह सभी बातें जैसे दोयम दर्जे की बनकर रह गई हैं। नतीजतन बच्चों को घरों में माता-पिता से समय के अभाव के कारण बात करने का मौका नहीं रहता और स्कूलों में पढ़ाई का बोझ किसी को भी इस ओर सोचने की फुर्सत ही नहीं देता। भारी-भरकम सिलेबस का दबाव, परीक्षा, अंकों और डिवीजन की चूहा-दौड़ में चाहे-अनचाहे व्यक्तित्व के विकास की बहुत सी समस्याएं अनसुलझी रह जाती हैं। यह दबाव निराशा, भावनात्मक कमजोरियों, अपराधों के रूप में फूटता है जिसकी वजह से बच्चों में नशाखोरी, आत्महत्या जैसे अपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं। समस्या सिर्फ सिलेबस की ही नहीं है, यह तो समस्या का सिर्फ एक पहलू है। प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों की हालत आज खस्ताहाल बनी हुई है। प्राथमिक शिक्षा का तो यह आलम है कि शिक्षकों की जगह ऐसे अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में बच्चों के भविष्य को संवारने की जिम्मेवारी दी जा रही है जो न तो मानक योग्यता रखते हैं और न शिक्षण कार्य में उनकी रुचि या प्रतिबद्धता है । शिक्षक जिसे कभी गुरु कह कर सर्वोच्च पदवी दी जाती थी अब वह कहीं पर शिक्षा-मित्र तो कहीं कांट्रेक्ट-टीचर के उप नामों से जाना जाता है । एक तरफ तो प्राथमिक शिक्षा का धड़ल्ले से निजीकरन कर बड़े शहरों में स्कूलों को आलीशान होटलों की तर्ज पर ढ़ाला जा रहा है जहाँ पढ़ाई से ज्यादा विलासिता पर खर्च किया जाता है। दूसरी तरफ गांवो, छोटे-शहरों और कस्बों के सरकारी स्कूलों की शिक्षा पर निर्भर बच्चों को जमीन पर बैठने के लिए दरी तक नसीब नहीं होती। बात सिर्फ प्राथमिक शिक्षा की बदहाली की नहीं है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तो विषमता की खाई और गहरी हो चुकी है। हमारे पास तथाकथित ‘गर्व’ करने के लिए आई।आई.टी और एम्स जैसे संस्थान तो हैं मगर इनकी संख्या ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान है। हमारे यहाँ बंगलुरू जैसे शहरों में हर गली-नुक्कड़ पर थोक के भाव में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल चुके हैं जहाँ के पढ़ाई के स्तर की सिर्फ कल्पना हीं की जा सकती है। आर्थिक उदारवाद के इस दौर में आज देशभर में शिक्षा की दुकानें खुल गई हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियां सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को तिरष्कृत कर निजी स्कूलों और शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने वाली हैं । निजी स्कूलों को दिए जा रहे बढावों और महिमा-मंडन से शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है। सरकार गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर निजी शिक्षण-संस्थानों को बढ़ावा तो देती है लेकिन सरकारी संस्थानों को उनकी जीर्ण-शिर्ण अवस्था में हीं रेंगते रहने देती है। हमारी विश्वविख्यात नालंदा और तक्षशिला की परंपरागत शैक्षिक प्रणाली धवस्त होती जा रही है और आगे की पीढियों को सिर्फ पेशेवर कर्मी बनाने की बात की जा रही है ना कि जिम्मेवार नागरिक।

शशि




Monday, January 25, 2010

वे अमन के खिलाफ हैं

साल-दर-साल क्रिकेट प्रेमियों में आईपीएल का खुमार बढ़ता जा रहा है। आईपीएल-3 के लिए क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी 19 जनवरी को मुकर्रर की गई। आठ फ्रैंचाईज़ियां बोली लगाने के लिए तैयार थीं। खिलाड़ियों की खरीदारी में उघोगपति विजय माल्या और नेस वाडिया से लेकर प्रीति ज़िंटा और शिल्पा शेट्टी कुंद्रा जैसे फिल्मी सितारे शुमार थे। बोली शुरु हुई और सबसे मँहगे खिलाड़ी के तौर पर न्यूज़ीलैंड के शेन बांड और वेस्टइंडीज़ के पोलार्ड का नाम आया। खिलाड़ियों की खरीदारी पूरी हुई लेकिन आईपीएल-3 में भाग ले रही किसी भी टीम की सूची में पाकिस्तान के किसी भी खिलाड़ी का नाम नहीं आया। ऐसा नहीं है कि बोली के लिए पाकिस्तान के खिलाड़ियों का नामाकंन नहीं हुआ था। पाकिस्तान के कुल ग्यारह खिलाड़ियों का बोली का हिस्सा थे लेकिन फिर भी किसी फ्रैंचाइज़ी ने उनमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। आईपीएल पूरी तरह से एक व्यवसायिक प्रतियोगिता है और फ्रैंचाइज़ी टीमें खिलाड़ियों के प्रदर्शन को देखकर उनकी बोली लगाती हैं। इस लिहाज़ से देखा जाए तो पाकिस्तानी खिलाड़ियों को टाप लिस्ट में होना चाहिए था। पाकिस्तान बीसम- बीस क्रिकेट का विश्व चैंपियन है और आईपीएल- 1 के मैन आफ द सिरीज़ पाकिस्तान के तेज़ गेंदबाज़ सोहेल तनवीर थे। फ्रैंचाइज़ी टीमों का तर्क है पाक खिलाड़ियों को वीज़ा मिलना निश्चित नहीं था। और किसी खिलाड़ी के उपर दांव लगाने के बाद उसका टीम में शामिल नहीं होना हमारे लिए परेशानी का सबब बन सकता था। अगर यह बात सही है तो फिर बोली के लिए पाक खिलाड़ियों का चयन ही क्यों किया गया? आईपीएल के नियमों के मुताबिक, अगर कोई फ्रैंचाइज़ी टीम किसी खिलाड़ी में दिलचस्पी रखती है तो उसका नाम बोली की सूची में होना ज़रुरी है। पाकिस्तान के 11 खिलाड़ियों का नाम सूची में छः जनवरी को डाला गया जो कि बिना किसी फ्रैंचाइज़ी की दिलचस्पी के मुमकिन नहीं था। अब सवाल यह है कि दिलचस्पी होने के बावजूद किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी के लिए बोली क्यों नहीं लगी? दूसरा तर्क टूर्नामेंट में पाक खिलाड़ियों की उपलब्धता को लेकर दिया जा रहा है। लेकिन यह तर्क सिर्फ पाक खिलाड़ियों को ही ध्यान में रखकर क्यों दिया जा रहा है। ऐसा तो किसी भी खिलाड़ी के साथ हो सकता है कि उसे बीच में ही टूर्नामेंट छोड़कर वापस जाना पड़े। गौरतलब है कि आईपीएल- 2 के सबसे मंहगे खिलाड़ी केविन पीटरसन और एंड्रयू फ्लिंटाफ को टूर्नामेंट के बीच में ही वापस जाना पड़ा था। अफसोस इस बात का है कि फ्रैंचाइज़ी टीमों की सारी बातें मनगढ़ंत और सिर्फ एक ढकोसला है। भारत सरकार ने आइपीएल-3 में शामिल होने के लिए पाकिस्तान के 17 खिलाड़ियों को वीज़ा जारी किये। ये वीज़ा दिसम्बर, 2009 और जनवरी, 2010 में जारी किये गए। ऐसे में वीज़ा न जारी होने की बात भी पूरी तरह से निराधार है।

खैर मुद्दे की बात, पाकिस्तानी खिलाड़ियों की टूर्नामेंट में बोली न लगने से दोनों देशों के बीच तनाव का माहौल बन गया है। नतीजतन, पाकिस्तान के नेशनल एसेंबली की अध्यक्ष फहमीदा मिर्ज़ा ने संसदीय दल का भारत- दौरा रद्द कर दिया। पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक का कहना है कि भारत ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों का अपमान किया है और इससे यह पता चलता है कि भारत दोनों देशों के बीच शांति- प्रक्रिया को लेकर गंभीर नहीं है। मलिक ने यह भी कहा कि जो पाकिस्तान का सम्मान नहीं करेगा, पाकिस्तान भी उसके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा। भारत के विदेश मंत्री एस एम कृष्णा ने पाकिस्तान की प्रतिक्रिया का जवाब देते हुए कहा कि पाकिस्तान खेल को राजनीति से जोड़कर न देखे। आईपीएल में जो कुछ हुआ उसका भारत सरकार से कोई लेना देना नहीं है। ठीक बात है कि खेल को सियासी चश्मे से नहीं देखना चाहिए। लेकिन दोनों ओर से खेल के मुद्दे पर हो रही बयानबाज़ी ने सियासी रुख अख्तियार कर लिया है। पाकिस्तान के केबल आपरेटरों ने आईपीएल का प्रसारण करने वाले टीवी चैनलों का बहिष्कार करने की बात कही है। जमात-ए-इस्लामी के मुखिया मुनव्वर हसन ने भारतीय फिल्मों और उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है। वहीं पाकिस्तानी खिलाड़ियों को आईपीएल में न लेने के पीछे यह आशंका भी व्यक्त की जा रही है कि पाक खिलाड़ियों के खेलने पर भगवा संगठन मैच को बाधित कर सकते हैं। आईपीएल आयोजन के पीछे की सोच पैसा कमाना है और इस सोच ने दोनों देशों के नाज़ुक सम्बंधों को नज़रअंदाज़ किया है जिसकी वजह से खेल ने सियासी रंग ले लिया और दोनो देशों के बीच तनाव का माहौल बन गया। और सिर्फ तनाव ही नहीं बढ़ा बल्कि शांति प्रक्रिया को भी प्रभावित किया। भारत और पाकिस्तान के सम्बधं अचानक ही खराब नहीं हुए हैं। मुबंई हमले के बाद भारत- पाक के बीच तनाव बढ़ा गया था और फिलहाल दोनों देशों के सम्बंध बेहद नाज़ुक मोड़ पर है। आईपीएल प्रबंधन चाहता तो इसे मुद्दा बनने से बचा सकता था। प्रबंधन देश के राजनैतिक हालात को ध्यान में रखकर पाकिस्तान के खिलाड़ियों को पहले ही मना कर सकता था। इस टूर्नामेंट का दूसरा मकसद खेल के ज़रिये लोगों का मनोरंजन करना है लेकिन आईपीएल ने दोनों देशों के खेल प्रेमियों को भी मायूस किया है। बहरहाल आईपीएल- 3 कितना सफल होता है, यह लोगों का कितना मनोरंजन करता है, आईपीएल का भविष्य क्या है ये अलग बात है। लेकिन आईपीएल ने उन ताकतों के हाथ में एक मुद्दा जरुर दे दिया है जो भारत- पाकिस्तान के बीच अमन कायम होते नहीं देख सकते। इसमें कट्टरपंथी ताकतों से लेकर इस्लामाबाद-नई दिल्ली के सियासी हुक्मरान तक शामिल हैं।

Sunday, January 24, 2010

क्यों माने हम बात ?


तुम मां-बाप की बात मान क्यों नहीं लेतीं। वह बड़े हैं हमारा भला चाहते हैं। उन्होने दुनिया देखी है, वह हमारे लिए सही फैसले लेते आए हैं। हमारे लिए उन्होने इतने त्याग किए हैं तो हम क्या उनकी खुशी के लिएअपनी इतनी छोटी-छोटी खुशियां कुर्बान नहीं कर सकते।

ये ऐसे जुमले हैं जो शायद हर घर में तब सुनाई देते हैं जब घर की युवा पीढ़ी अपनी समझ के मुताबिक प्रचलित रिवाजों के विरुद्ध जा कर निर्णय लेती है। निर्णय अगर लड़की ने लिया है तो मुखालफत का दबाव और विरोध का स्वर और भी तीव्र होता है।

जरा सोच कर देखते हैं कि युवा पीढ़ी का अपने मन मुताबिक निर्णय लेना पुरानी पीढ़ी के लिए इतना विस्फोटक क्यों होता है कि हमारे घर की बरसों पुरानी दीवारें चरमरा उठती हैं। सालों से सहेजे गए संबंध अचानक सड़ांध मारने लगते हैं। क्यों होता है ऐसा।

क्या ऐसा इसलिए है कि अपनी परंपराओं और मूल्यों के नाम पर सदियों सदी से हमे गुलाम मानसिकता और रूढ़ सोच पिलायी जाती है। क्या हमारे परिवारों का प्यार भरा माहौल  एक ऐसी शोषणकारी व्यवस्था के अंदर निर्मित है जो जन्म से घुट्टी के रूप में सिर्फ दबना और दबाना सिखाती है। संबंध हर किसी को प्यारे होते हैं, बिना संबंधों के किसी समाज को निर्माण नहीं होता। लेकिन संबंधों की परिभाषा इतने बंधनों में क्यों लिखी होती है। नियम और कानून सीमा रेखाएं खींचते हैं लेकिन व्यवस्था उन नियमों और कानूनों से हमारे मस्तिष्क के दायरे खींचने लगती है। क्यो ऐसा होना हर व्यवस्था की परिणिति है। यही संबंधों का सच है। इस व्यवस्था में मानवीय संबंध मकड़ी के ऐसे महीन तागों की  तरह बुने जाते हैं कि एक मच्छर भी फंस जाए तो पूरा का पूरा जाला ही टूट जाए । 


ऐसे में क्या व्यवस्था से ये प्रश्न नहीं होना चाहिए की यदि यह हमे अनुशासित करने के नाम पर हमे अंदर ही अंदर खा रही है तो हम इसे ढोने को बाध्य क्यों हैं? यही वह प्रश्न है जो युवा पीढी अपने हर नये फैसले के साथ पुरानी पीढ़ी से पूछती है। व्यवस्था की दो पर्तों के समान परिवार में नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष चलता है। पुरानी पीढ़ी के साथ स्थापित व्यवस्था और मूल्य होते हैं। ये पुराने मूल्य या मानसिकता अपनी जगह छोड़ कर कभी भी नये मूल्यों को सहज ही खुद के  ऊपर स्थापित नहीं होने देते। वह इसके लिए संघर्ष करते हैं और अधिकांश बार जीतते भी हैं।


नये मूल्यों का खून पी कर उनका रक्त भक्षण कर के परजीवियों की भांति पुराने मूल्य और परंपराएं, नयी सोच को अपना गुलाम बना लेती हैं। इन नयी और पुरानी सोच की वाहक बनती हैं पीढ़ियां। व्यवस्था की ताजपोशी या नाकामी के गवाह बनते हैं, पीढ़ियों के संघर्ष। समय अपनी गति से चलता रहता है और उस के साथ बदलती रहती है दुनिया की हर चीज। लेकिन हमारी चाहत से अछूती नहीं होती है व्यवस्था यदि हम चाहें तो व्यवस्था के इस बदलाव के सिद्धांत को समझ कर समाज को सड़ने से बचा सकते हैं।

Saturday, January 23, 2010

खेलों के लिए अहम् साल की खराब शुरुआत....


साल 2010 भारत, भारतीय खेलों और खिलाडिय़ों के लिए बेहद महत्वपूर्ण होने वाला है। यह साल भारत की दुनिया में प्रतिष्ठा स्थापित करने का साल है। एक तरह से यह साल भारत के लिए 2020 ओलंपिक के लिए ऑडिशन देने का भी है क्योंकि तब तक तो हम खुद को दुनिया की सुपर पावर भी तो बना चुके होगें ना। चीन की भांति अपने घर में हरेक खेल में बेहतरीन प्रदर्शन करके भारत भी दिखा पाएगा कि हम में भी है दम। हम भी हैं तैयार, दुनिया के समक्ष छाती चौड़ी करके खड़े होने के लिए। हम भी खर्च कर सकते हैं अरबों रूपए अपनी हैसियत दिखाने के लिए। देखा नहीं दिल्ली की सूरत किस कदर बदल रहे हैं हम।

भारत के यह ख्वाब मुझे दिन में सपने देखने जैसे लग रहे हैं। एक तरफ खेलों के लिए स्टेडियमों का ढांचा खड़ा रने, विदेशियों के लिए फाइव स्टार सुविधाएं लाने के लिए अरबों रूपए बहाया जा रहा है तो दूसरी तरफ हॉकी खिलाडिय़ों को अपने बकाया भुगतान के लिए हड़ताल करनी पड़ रही हैं। वे मांग कर रहे थे पैसों की जो उन्हें मिलना था ,जो थोड़ा मिल भी गया। अब महिला हॉकी खिलाडिय़ों ने भी अपनी मांगे रखना शुरू कर दिया है। उन्हें भी पुरषों बराबर हक दिए जाएं। इन्होने हड़ताल तो नहीं मगर काली पट्टी बाधकर खेलने का मन बनाया है। यदि बात नहीं सुनी गई तो हड़ताल भी कर सकती हैं।



बीजिंग ओलंपिक 2008 में भारत की लाज बचाने वाले इकलौते स्वर्णपदक विजेता निशानेवाज अभिनव बिंदरा को इस लिए आगामी दो वर्ल्ड कप में भाग लेने से रोक दिया गया है क्योंकि वे राष्ट्रमंडल खेलों के ट्रायल में शामिल नहीं हुए। एक खिलाड़ी अपने पैसे पर विदेशों में जाकर अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग ले कर आगामी मुकाबलों की तैयारी कर रहा है, उसे देश में महज एक घरेलू ट्रायल के लिए बुलाना कहां तक ठीक है? बिंदरा द्वारा ट्रायल में आने का फैसला गलत हो सकता है यदि भारत सरकार और निशानेबाजी संघ के पास अभ्यास के बढिय़ा इंतजामात होते।

भारत के मेडल पाने के सपनों को एक और झटका लगा है। 21 जनवरी 2010 को अखबार में एक और खबर पढ़ी खिलाडिय़ों पर प्रतिबंध के बारे में। पंजाब के वेटलिफ्टर विक्की बट्ट, आंध्र की महिला वेटलिफ्टर शैलजा पुजारी पर डोपिंग मामले में आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया है। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति (आईओसी) और विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) ने चार अन्य भारतीय वेटलिफ्टर्स पर चार-चार साल का प्रतिबंध लगा दिया है। ये सभी खिलाड़ी अपने ही घर में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में बतौर प्रतिभागी शामिल नहीं हो पाएंगे। भारतीय वेटलिफ्टर संघ पर 5 लाख डॉलर का जुर्माना लगाया गया है और जिसके दिए जाने की स्थिति में संघ पर राष्ट्रमंडल खेलों में भाग लेने पर रोक लग सकती है।

आज भारत में तो अभ्यास की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हैं और ही बड़े स्तर के खेल आयोजन होते हैं। हम खिलाडिय़ों से मेडल की उम्मीद तो करते हैं मगर उस स्तर पर तो अभ्यास की जरूरतों को पूरा कर पाते हैं ही सिवाए क्रिकेटरों को किसी दूसरे खिलाड़ी को पैसा दे पाते हैं। ऐसे में या तो खिलाडिय़ों को विश्व स्तर की सुविधाएं दी जाएं या फिर उन्हें कुछ बंधनों से मुक्त किया जाए।




Thursday, January 21, 2010

बिहार : माहौल बदलने लगा है

बिहार की जब भी बात आती है तो एक बीमार और गरीब प्रदेश की छवि उभरती है। 2004 में नीतीश कुमार के सत्ता संभालने के बाद से यहां के लोगों में एक उम्मीद जगी कि शायद अब उन्हें जंगल राज से छुटकारा मिले। नीतीश कुमार ने जिस समय बिहार की सत्ता संभाली, तब बदहाली को छोड़कर वहाँ और कुछ न था। तब बिहार की आर्थिक विकास दर तीन प्रतिशत थी और आज बिहार की विकास दर 11.03 प्रतिशत है। यह गुजरात के विकास दर 11.05 प्रतिशत से थोड़ा ही कम है। जाहिर है, लोगों के जीवन-स्तर में कुछ तो सुधार आया ही है।

विपक्षी दल आरोप लगाते हैं कि सरकार ने कुछ नहीं किया। यह सब केन्द्र सरकार का पैसा है। क्या इससे पहले केन्द्र सरकार का पैसा नहीं था ? था, लेकिन उसका उपयोग नहीं हो पाता था। वह पैसा वापस केन्द्र सरकार को लौट जाता था। नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद कम-से-कम इतना तो हुआ है कि उस पैसे का सदुपयोग हो पाता है। बिहार का माहौल बदलने लगा है। वह दिन दूर नहीं जब बिहार भी देश के विकसित राज्यों में एक होगा।


Saturday, January 16, 2010

खेल औजार है प्रगति और सम्पनता का.....



''फुटबाल उन देशों और महाद्वीपों के लिए प्रगति और सम्पन्नता का औजार है जो पिछडें है, विकासशील हैं।'' यह बात फीफा के अध्यक्ष सेप्प बल्लेट्टर ने उस समय कही थी जब फीफा वर्ल्ड कप 2010 की मेजबानी दक्षिण अफ्रीका को दिए जाने की घोषणा की गई थी। सही में फुटबॉल विश्व में इतना बड़ा खेल है कि किसी भी देश को उन्नति और समृद्धि की राह पर ले जा सकता है। यूरोप में फुटबॉल एक ताकत है तो एशिया में क्रिकेट । साथ ही दूसरी खेलें भी देशों की ताकत और शौर्य को दर्शाती हैं। मगर क्या दुनिया में व्याप्त आंतकवाद किसी भी देश को इस राह पर जाता देख सकता है?

फीफा वर्ल्ड कप 2010 को शुरू होने में मात्र 144 दिन, 19 घंटे और 40 मिनट बचे हैं(इन पंक्तियों को लिखते वक्त तक) अफ्रीकी धरती फीफा वर्ल्ड कप की मेजबानी करेगी। दक्षिण अफ्रीका का जोहनसवर्ग इस आयोजन की जोर-शोर से तैयारियां भी कर रहा है। मगर बीते रविवार को अफ्रीकी धरती पर टोगो फुटबॉल टीम पर हुए हमले से इस आयोजन में खेल और खिलाडिय़ों की सुरक्षा पर सवाल उठने लगे हैं। साथ ही अफ्रीकी धरती पर पिछले आठ महीनों से आयोजित किए जा रहे अन्य खेल आयोजनों पर भी ग्रहण लगता दिख रहा है। ( फुटबॉल के जरिए विकास लाने के फीफा के प्रयास में पिछले आठ महीनों से नाइजीरिया और इजीप्ट में वल्र्ड अंडर-17 और वल्र्ड अंडर-19 टूर्नामेंट करवाए जा रहें हैं।)
बीते रविवार को अफ्रीकन कप ऑफ नेशंस में भाग लेने अंगोला पहुंची टोगो की अंतर्राष्ट्रीय फुटबॉल टीम पर एक आतंकी हमला हुआ। बस में सवार टीम जैसे ही कंबिडा सीमा में घुसी, आतंकियों ने गोलियों की बरसात कर दी। नतीजा मौके पर ही मारे गए और खिलाड़ी गंभीर रूप से घायल हुए। तेल संसाधनों के धनी मगर गरीब और विवादित देश कंबीडा में लंबे समय से अलगाव की लड़ाई चल रही है। इसको दुनिया की सुर्खियों में लाने के मकसद से यहां के द फ्रंट फॉर द लिबरेशन ऑफ द एंकलेव ऑफ कंबीडा (एफएलईसी) ने मासूस खिलाडिय़ों को निशाना बनाया।
दुनिया भर में खेल और खिलाडी अपने मुल्कों का सर ऊँचा करते रहे हैमगर आतंकी इन्ही की गर्दन पर बन्दूक रख अपनी हसरतें पूरी करने को आसान रास्ता मानते है आतंकी खेल को रोकना चाहते है, खिलाडी को मारना चाहते है और खेल के ज़रिये पनप रही सकारात्मकता को ख़त्म करना चाहते हैआतंकी चाहते हैं खेल के ज़रिये घटती दूरियों में दीवार बननामगर ना कभी खेल रुका है और ना ही कभी खिलाडी थमाहै इसी भावना से खेला जायेगा फीफा वर्ल्ड कप २०१०, इसी भावना से खेले जायेंगे दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स, इसी भावना से होगा भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश में २०११ क्रिकेट वर्ल्ड कप भी।



खेलों में क्रिकेट को इसकी चाक-चौबंद सुरक्षा के चलते अन्यो की तुलना में सुरक्षित माना जाता रहा है। मगर 3 मार्च 2009 की सुबह इसमें भी आंतकी ग्रहण लगा। पूरी दुनिया उस समय सुन्न पड़ गई जब टीवी पर लाहोर के गद्दाफी स्टेडियम से घायल श्रीलंकाई खिलाडिय़ों की भागते हुए तस्वीरें देखीं। सात श्रीलंकाई खिलाडिय़ों के घायल होने के साथ ही आठ सुरक्षाकर्मियों की भी जानें गईं। फर्क सिर्फ इतना पड़ा कि पाकिस्तान के करोड़ों क्रिकेट प्रेमी कोई भी अंतर्राष्ट्रीय मुकाबला देख पाने से महरूम हो गए। पाक में वर्ल्ड कप के दौरान किए जाने वाले मैचों को भी रद्द कर दिया गया। साथ ही देश की क्रिकेटिया छवि भी धूमिल हुई यही कारण है कि पाक खिलाड़ी दूसरे की सरजमीं पर जाकर खेलने को मजबूर हैं।


[4 सितंबर 1972 को पश्चिमी जर्मनी में आयोजित म्युनिक ओलम्पिक में तो पूरी की पूरी इस्रायली टीम को ही मौत के घाट उतार दिया गया था। खिलाडिय़ों और कोच समेत 11 को ब्लैक सेप्टेंबर नाम के एक आतंकी गिरोह ने बंदी बनाकर मार डाला। खिलाडिय़ों पर इस बर्बरता के बाद इतिहास में पहली बार ओलम्पिक को रद्द करना पड़ा ]






Wednesday, January 13, 2010

खिलाड़ियों को उनका हक दीजिए

हॉकी इंडिया के अध्यक्ष ए. के. मट्टू खिलाड़ियों के साथ अन्याय कर रहे हैं। खिलाड़ियों को 48 घंटे का अल्टीमेटम दिया गया है। खिलाड़ी अपना हक माँग रहे हैं। खिलाड़ी जब संतुष्ट होंगे, तभी अच्छा प्रदर्शन कर पाएंगे। ये भी कहा जा रहा है कि उनकी टाइमिंग गलत है। लेकिन सच तो यह है कि उन्होंने बिल्कुल सही समय चुना है। वो जानते हैं कि अभी उनकी बात नहीं सुनी गई तो फिर कभी नहीं सुनी जाएगी। खेलमंत्री का कहना है कि विश्व कप के बाद उनकी मदद की जाएगी। अगर आप वास्तव में मदद करना चाहते हैं तो पहले क्यों नहीं। हॉकी टीम के सदस्यों के मन में भी यही आशंका होगी कि विश्व कप के बाद उनकी बात फिर टाल दी जाएगी।

हॉकी इंडिया के अध्यक्ष का यह कहना कि अगर वे वापस नहीं लौटे तो दूसरी टीम चुनी जाएगी। यह बताता है कि उन्हें खेल से कोई मतलब नहीं है। जिस टीम ने विश्व कप के लिए अभ्यास किया, वह नहीं जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। हॉकी टीम की दुर्दशा के लिए ये लोग ज्यादा जिम्मेदार हैं। अगर यही हड़ताल क्रिकेट खिलाड़ियों ने की होती तो कोई ये नहीं कहता कि विश्व कप के बाद भुगतान किया जाएगा। हमारे देश में क्रिकेट या क्रिकेट खिलाड़ियों को जितनी सुविधा मिलती है, उसका थोड़ा भी अगर हॉकी को मिल जाए तो हॉकी की दशा सुधर जाएगी।


क्या हम सही थे ?



हम एक अखबार के दफ्तर में काम करते हैं। अखबार का दफ्तर आईटीओ पर है। हमें किसी से मिलने मंडी हाऊस जाना हुआ। माली हालत नाजुक थी एक दिन में सिर्फ 30 रूपए ही बस का किराया वहन कर सकते थे। वह किराया मुनिरका से आईटीओ तक का था। हमने आईटीओ से मंडी हाऊस पैदल जाना उचित समझा। हम मंडी हाऊस से काम निबटाकर पैदल ही तिलक ब्रिज की ओर चल पड़े वहां से हमें 621 नंबर की बस पकड़नी थी। तिलक ब्रिज बस स्टॉप पर हमारी नजर एक आई कार्ड पर पड़ी। तब तक बस के इंतजार में खड़े एक व्यक्ति ने उस आई कार्ड को उठा लिया। उसने कार्ड देखकर वापस उसी जगह रख दिया। मेरे मन में भी अनजाने वस्तु को देखने का कीड़ा कुलबुलाने लगा। आखिर पहले से ही पत्रकारिता का सुलेमानी कीड़ा काट चुका था। मेरे मित्र ने उस कार्ड को उठाकर गौर से देखने लगा। वह आई कार्ड जगदीश नाम के व्यक्ति का था जो सुप्रीम कोर्ट में एक प्रवेशक के पद पर नियुक्त था। उस व्यक्ति का घर आरके पुरम सेक्टर 7 में था। हमें 621 नंबर की बस से मुनिरका जाना था जो सेक्टर 7 होकर ही मुनिरका जाती थी। मेरे मित्र ने संवेदना दिखाई और उस व्यक्ति के खोये आई कार्ड को उसके पास पहुंचाने का बीड़ा उठाया। उस समय रात के साढ़े नौ बज रहे थे और हल्की बारिश हो रही थी। मौसम सुहाना और ठंड से कान जम गए थे। बस आई उसमें यात्री कम थे, बहरहाल हमलोग उसमें सवार हो गए। करीब एक घंटे बाद हमलोग सीधे मुनिरका पहुंचे। बस वाले की मेहरबानी थी कि सेक्टर 4 से आगे ना जाकर बस को सीधे मुनिरका पहुंचा दिया। बस सेक्टर 5, सेक्टर 6, सेक्टर 7 और सेक्टर 8 होते हुए मुनिरका पहुंचाती थी। लेकिन कम सवारी और मौसम की मेहरबानी की वजह से बस को ज्यादा घुमाना ड्राईवर को नागवार गुजरा। अब हमें अपनी भूमिका अदा करनी थी और रात साढ़े दस बजे एक अनजाने व्यक्ति के घर को तलाशना था। हमारे इस नेक काम में भगवान बारिश के रूप में हमारा साथ दे रहे थे। हम भीगते हुए मुनिरका बस स्टॉप से सेक्टर 7 की ओर चल पड़े। लगभग 5 किलोमीटर पैदल आरके पुरम के गलियों की खाक छानने पर उसका घर मिल गया। हमने दरवाजा खटखटाया तो अंदर से एक बच्चे की आवाज आई कौन है ? हमने कहा मिस्टर जगदीश हैं, उनसे मिलना है। फिर आवाज आई क्या काम है ? तो हमने कहा हम आपको और आप हमें नहीं जानते लेकिन आपको आपका एक सामान लौटाना है। कुछ पल बाद मिस्टर जगदीश आए और पूछा क्या बात है। इसपर मेरे मित्र ने कहा कि तिलक ब्रिज पर आपका ये आई कार्ड हमें मिला तो इसे आपके पास पहुंचाने चले आए। मिस्टर जगदीश ने कार्ड लिया, इंसानियत के नाते दो शब्द कहा थैंक यू और दरवाजा तुरंत बंद कर लिया। हम एक पल गंवाए तुरंत लौट गए।

मन में एक संतुष्टि थी कि आज एक नेक काम किया। हमने इस काम के बदले कोई आपेक्षा नहीं रखी थी। आखिर हमें मिला क्या दो शब्द थैंक यू वह भी रूडली। जैसे वो हम पर एक साथ कई एहसान कर दिया हो। वाजिब बात है कि कोई भी रात साढ़े दस बजे हमें अपने घर के अंदर बैठाकर चाय नहीं पिलाएगा। इसकी एक वजह हो सकती है जमाना खराब है। कोई इस बहाने उसे लूट ना ले। वो अपने जगह सही था और हम अपने जगह सही थे। आज समाज में इंसानियत नहीं बची या उसे बचा कर नहीं रखी गई।

यहां एक बहस का मुद्दा आपके लिए छोड़ रहा हूं। हमलोगों को उसका आई कार्ड उसके पास पहुंचाना था, या बस स्टॉप पर ही कार्ड को छोड़ कर अपनी जिम्मेदारियों से इतिश्री कर लेना था। जैसा कि स्टॉप पर खड़े उस पहले व्यक्ति ने कार्ड को वहां छोड़ कर किया। अगर हम कार्ड को वहां छोड़ देते और सोचते कि जिसका कार्ड है उसे फिक्र नहीं तो हमें क्यों और नियमित दिनचर्या के मुताबिक हमलोग सीधे अपने रूम चले आते। दुनिया कि फिक्र छोड़ एक गहरी नींद सो जाते।
फोटो - गूगल

Tuesday, January 12, 2010

मंहगाई और मेरा सपना

मंहगाई और मेरा सपना आज मैं एक सपनें को देखकर डर के उठ गया। सपनें में देखा प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो । इतना देखा तो आगे देखने की हिम्मत ही नही हुई। खतरनाक जो था। कि कैसा सपना था। और मैं क्या-क्या देखा रहा था।
सच में अगर कोई आदमी सपनें में भी यह सोचता है तो उसें यह चीजे असम्भव लगती है। बढ़ती महगाई में ऐसा सोचना किसी सपनें से कम भी नही है। बढ़ती महगाई ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। आज अगर किसी के सामने सबसे बड़ी समस्या हैं तो वह है मंहगाई, और इस मंहगाई मे अपनें दो वक्त की रोटी का जुगाड करना ।पहले लोग प्याज को काटने में आसूँ बहाते थे लेकिन आज अगर प्याज खरीदनी हो तो आसूँ बह जाते है। पहले चीनी खाने कि मिठास को बढ़ाती थी आज वों हमारे बजट की कड़वाहट को बढ़ा रही है।
बात साफ है कि आज मंहगाई ही सबसे बड़ी समस्या है और आम आदमी को प्रभावित कर रही है। जिम्मेदार और जिसकी जवाब देही बनती है वे एक दूसरे पर आरोप लगाकर अपना बचाव करते हैं लेकिन जब बात जन हितैषी घोषित करने की होती है, तो गरीबो के घर रोटी खा आते हैं । लेकिन वे ही इस रोटी को लगातार महगां करते जा रहे है। जब जवाब मागों तो कहते हैं कि ‘’मैं गरीबों की गरीबी को करीब से देखने के लिए जाता हूँ”। अरे मान्यवर जो गरीबी को बढ़ा रही है वो जब दूर से ही नजर आ रही है तो पास जाकर देखने की क्या जरूरत, पहले इसके लिए कुछ करों।
खैर ये तो गरीबों की बात हुई । जो मध्यम वर्ग है जो गरीब से थोड़ा अमीर है उसें भी मंहगाई गरीब बनाने पर तुली है। बिजली, पानी, बच्चों की शिक्षा, आदि रोज की चीजे लगातार महगीं होती जा रही है । जिसने इन अमीरो की स्थिति को बिगाड़ दिया है।
सन 2009 में अर्थव्यवस्था में आए उतार चढ़ाव और कीमतों में एकाएक हुई तेजी के ग्राफ को देखते हुए 2010 मे भी बढ़ती कीमतों से राहत मिलनें की उम्मीद करना बेइमानी है। सरकार इस वर्ष भी राहत देने का कोई वादा करती नजर नहीं आ रही है। कारण तो सरकार के पास है ही, अरे जी हाँ आप सही समझें वही अनियमित मानसून, प्राकृतिक आपदा, बाढ, सूखा। सरकार कहती है कि ये ना होता तो कीमते ना बढ़ती लेकिन जो सच में कारण है वह हैं जमाखोरी। उस पर ध्यान न देना सरकार का हठ है। जमाखोरो ने अपनें भंड़ार पहले भर लियें और ऊचें दामों में बेचते है। सरकार इनसेँ निपटती ही नही न कोई केन्द्रीय भंडारण की कोई नीति और न कोई प्रयास। जनता के पास विकल्प के रूप में ये ही जमाखोर है, जो औने- पौने दामों में चीजों को बेच रहे है।
उद्योगपति रिटेल के नाम पर अनाज और सामान सस्ता बेच रहे है। इससे बाजार पर दवाब बढ़ जाता है जिससें मंहगाई बढ़ती है। अब दावा है कि रिटेल बाजार में सस्ता है। लेकिन आप खुद सोचिए कि आप वहाँ कितनी बार गयें है और सब्जी लेकर आये है। थोड़े समय के लिए ऐसा लग सकता है कि ये बड़े बाजार आपके लिए सस्ता है लेकिन जैसे-जैसे इनका अधिपत्य मजबूत होगा, चीजों का दाम बढ़ना तय है। सरकार का कुप्रंबधन निश्चित रूप से इसमें सहयोगी होगा।
हमारे देश की विडम्बना देखिए जहाँ धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र, आदि को लेकर जो किसी छोटे भू-भाग और कम जन संख्या को प्रभावित करती है उसके लिए जन आंदोलन और राजनीति होती है। लेकिन मंहगाई न किसी को आन्दोलित कर पा रही है और न ही राजनीति का हिस्सा बन पा रही है। हाल के लोक सभा और झारखण्ड राज्य के चुनाव से स्पष्ट है।
रोटी और मंहगाई के लिए कोई भी आंदोलन नहीं हो रहा है। य़ह तब तक नहीं रूकेगा जब तक जनता खुद सरकार को मजबूर ना करे तभी मुझ जैसा आदमी एक सपना देख सकेगां जिसमें प्याज 5रू किलो, चीनी 11रू किलो, नमक 3रू किलो हो।

शिशिर कुमार यादव

Monday, January 11, 2010


मै आजकल बहुत ही दुखी हु ना जाने क्यूँ मेरा दिल थोडा परेशानरहता है मै हॉस्टल में रहती हू जब भी घर जाती हू वहां से आने का मन नहीं करता मम्मी की बहुत याद आती है .केकिन हॉस्टल में आना भी जरुरी था रोज रोज साउथ एक्स से आना थोडा परेशानी देता था .अब मुझे आने जाने की कोई परेशानी नहीं है.मेरा इनदिनों किसे से बात करने का मन नहीं करता .दिल करता है बस अकेले बैठी रहू.तन्हाई अब कुछ ज्यादा ही पसंद आती है .आजकल पढाई का भी बहुत टेंशन रहता है

Thursday, January 7, 2010

मूल्यविहीन होती शिक्षा प्रणाली


हाल के दिनों में शिक्षा को लेकर हर तरफ काफी हो-हल्ला मचाया जा रहा है, शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों की सलाह पर अमल करने की बात कही जा रही है। ऐसा प्रतित हो रहा है मानो अचानक से कोई संजीवनी हाथ लग गई हो! भारत में जिस शिक्षा प्रणाली को प्रसारित और प्रचलित किया जा रहा है उसके कई पक्षों में सुधार करने की आवश्यकता है। मसलन हमारी पूरी शिक्षा प्रणाली और उसकी व्यवस्था में इतनी खामियाँ व्याप्त है कि उसे दूर किए बगैर किसी नए सुधार की बात करना ठीक उसी तरह होगा जैसे किसी एक मर्ज का इलाज किए बगैर नए मर्ज की दवा ढ़ूँढ़ने में लग जाना। आज हमारे नीति-निर्धारक शिक्षा व्यवस्था में जिस सुधार की बातें करते नहीं अघाते हैं उसमें व्यवसायिकता इतनी हावी होती जा रही है कि भेदभाव, महिला हिंसा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे समाज के गंभीर मुद्दों पर बात करने का समय ही नहीं है। यह सभी बातें जैसे दोयम दर्जे की बनकर रह गई हैं। नतीजतन बच्चों को घरों में माता-पिता से समय के अभाव के कारण बात करने का मौका नहीं रहता और स्कूलों में पढ़ाई का बोझ किसी को भी इस ओर सोचने की फुर्सत ही नहीं देता। भारी-भरकम सिलेबस का दबाव, परीक्षा, अंकों और डिवीजन की चूहा-दौड़ में चाहे-अनचाहे व्यक्तित्व के विकास की बहुत सी समस्याएं अनसुलझी रह जाती हैं। यह दबाव निराशा, भावनात्मक कमजोरियों, अपराधों के रूप में फूटता है जिसकी वजह से बच्चों में नशाखोरी, आत्महत्या जैसे अपराधिक प्रवृत्तियां बढ़ती जा रही हैं।
समस्या सिर्फ सिलेबस की ही नहीं है, यह तो समस्या का सिर्फ एक पहलू है। प्राथमिक और उच्च शिक्षा दोनों की हालत आज खस्ताहाल बनी हुई है। प्राथमिक शिक्षा का तो यह आलम है कि शिक्षकों की जगह ऐसे अप्रशिक्षित लोगों के हाथों में बच्चों के भविष्य को संवारने की जिम्मेवारी दी जा रही है जो न तो मानक योग्यता रखते हैं और न शिक्षण कार्य में उनकी रुचि या प्रतिबद्धता है । शिक्षक जिसे कभी गुरु कह कर सर्वोच्च पदवी दी जाती थी अब वह कहीं पर शिक्षा-मित्र तो कहीं कांट्रेक्ट-टीचर के उप नामों से जाना जाता है । एक तरफ तो प्राथमिक शिक्षा का धड़ल्ले से निजीकरन कर बड़े शहरों में स्कूलों को आलीशान होटलों की तर्ज पर ढ़ाला जा रहा है जहाँ पढ़ाई से ज्यादा विलासिता पर खर्च किया जाता है। दूसरी तरफ गांवो, छोटे-शहरों और कस्बों के सरकारी स्कूलों की शिक्षा पर निर्भर बच्चों को जमीन पर बैठने के लिए दरी तक नसीब नहीं होती। बात सिर्फ प्राथमिक शिक्षा की बदहाली की नहीं है, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में तो विषमता की खाई और गहरी हो चुकी है। हमारे पास तथाकथित ‘गर्व’ करने के लिए आई.आई.टी और एम्स जैसे संस्थान तो हैं मगर इनकी संख्या ‘ऊँट के मुँह में जीरा’ के समान है। हमारे यहाँ बंगलुरू जैसे शहरों में हर गली-नुक्कड़ पर थोक के भाव में इंजीनियरिंग कॉलेज खुल चुके हैं जहाँ के पढ़ाई के स्तर की सिर्फ कल्पना हीं की जा सकती है। आर्थिक उदारवाद के इस दौर में आज देशभर में शिक्षा की दुकानें खुल गई हैं। केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियां सरकारी स्कूलों और कॉलेजों को तिरष्कृत कर निजी स्कूलों और शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने वाली हैं । निजी स्कूलों को दिए जा रहे बढावों और महिमा-मंडन से शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही है। सरकार गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर निजी शिक्षण-संस्थानों को बढ़ावा तो देती है लेकिन सरकारी संस्थानों को उनकी जीर्ण-शिर्ण अवस्था में हीं रेंगते रहने देती है। हमारी विश्वविख्यात नालंदा और तक्षशिला की परंपरागत शैक्षिक प्रणाली धवस्त होती जा रही है और आगे की पीढियों को सिर्फ पेशेवर कर्मी बनाने की बात की जा रही है ना कि जिम्मेवार नागरिक।