Friday, February 27, 2009

रनडाउन का प्रारुप




न्यूज चैनल में कार्यक्रम का रनडाउन का प्रारुप इस प्रकार हो सकता है। यह प्रारुप प्रसार भारती से साभार है।


प्रसार भारती । भारतीय प्रसारण निगम । दूरदर्शन केन्द्र एबीसी
दिन सोमवार प्रसारण तलिका दिनांक 19.11.07

ओ एन सी एबीसी तकनीकी निर्देशक
ड्यूटी आफिसर एबीसी वीएस
मंच प्रबंध एबीसी वीटीआर
ग्राफिक एबीसी आडियो
मंच सहायक एबीसी लाईट
कैमरामैन एबीसी अर्थ ट्रांसमीटर

5.28 पीएम अगला कार्यक्रम एबीसी से कैप्सन लाईव स्टुडियो ओएनसी
तदोपरान्त मोन्टाज डीडीके एबीसी 570 । 44 सेकेंड
विज्ञापन आशा 60 जेनेरिक 60 ब्याय कैंसर 35
5.30 पीएम संसदीय राजभाषा समिति के समक्ष टेप नं डीभीसी प्रोरो 528
सास्कृतिक कार्यक्रम का संपादित
अंग का शेष भाग
नागपुरी लोकगीत एबीसी एवं साथी
मांदर एबीसी
विज्ञापन होन्डा पम्प 20 सेकेण्ड
विज्ञापन आशा 60 जेनेरिक 60 ब्रेस्ट कैंसर 35*2 बॉय कैंसर 35*2
6.15 पीएम फीलर
विज्ञापन आशा 60 जेनेरिक 60 बॉय कैंसर 35 ब्रेस्ट कैंसर 35
6.30 पीएम कार्यक्रम एबीसी विषय कैंसर टेप नं डीपी 126-23
संचालन एबीसी लोकेशन 27-27-53.4
विशेषज्ञ एबीसी अवधि 26.26
भेंटवार्ता एबीसी प्रथम प्रसारण
प्रस्तुतकर्ता एबीसी
6.57 पीएम सॉग एबीसी
6.58 पीएम समाचार थोड़ी देर में
विज्ञापन टीटी 40 साक्षरता 30*2 4 टाईम 40
डैबेटिक रीटीनोपैटी 30
7.00 पीएम प्रादेशिक समाचार
समाचार संपादक एबीसी
समाचार प्रस्तुतकर्ता एबीसी
समाचार वाचिका एबीसी
मिड न्यूज उबैटिक 30 आईडीडी आडिया साक्षरता 30
विज्ञापन एज आफ मैरिज 30 ब्रेस्ट कैंसर 35 साक्षरता 30*2टीटी 30
7.18 पीएम इंदिरा गांधी जयंती पर विशेष कार्यक्रम डीडीके एबीसी प्रो 190-66
अवधि 10.21
विज्ञापन साक्षरता 2-30*2
7.30 पीएम कृषिदर्शन डीडीके प्रो 126/45
सूत्राधार एबीसी
सेगमेंट 1. गेहुं की उन्नत खेती लो. 012741-015646
2. सरसों वर्गीय फसलों की वैज्ञानिक खेती अवधि 29.05
विशेषज्ञ एबीसी
3. रबी बीजो उपचार
4. न्यूनतम समर्थन मूल्य
स्पॉट – किसान कॉल सेंटर – 60*2
प्रस्तुतकर्ता एबीसी
कल के कार्यक्रमों का विवरण
8.00 पीएम समापन – अगला प्रसारण दिल्ली से कैप्शन

सूरजकुंड मेला एक रंग ऐसा भी

बड़ी उम्मीद के साथ मैं सूरजकुण्ड में आया था। मैं अपना हुनर लोगों के सामने पेश करना चाहता था¸ लेकिन मेरी सारी उम्मीदों पर पानी फिर गय़ा। ये कहते हुए सोहन मिश्रा की आंखों में आंसू झलक आते हैं।बिहार के दरभंगा से¸ हरिय़ाणा के सूरजकुण्ड मेले में आया सोहन¸लोगों को अपनी कला का जौहर दिखाना चाहता था। लेकिन उसके सारे सपने दिल्ली पहुंचकर बिखर गये। दरअसल सोहन एक चित्रकार है। सोहन के हाथों में ऐसा जादू है¸ कि वो अपने रंगों से किसी भी तस्वीर में जान फूंक देता है। अपनी चित्रकला के प्रदर्शन के लिए ही सोहन मेले में शिरकत करने आय़ा था। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर उतरकर¸जब सोहन मेले में आने के लिए ऑटो में बैठा¸ तो शाय़द वो इस बात से अंजान था कि आगे उसके साथ क्य़ा होने वाला है।ऑटो वाले ने सोहन को एक सुनसान रास्ते पर जाकर उतार दिय़ा और उसका सामान लेकर भाग गय़ा। सोहन ने उसके साथ जोर-जबरदस्ती की तो उसे इतना मारा कि वो बेहोश हो गय़ा। सोहन को जब होश आया तो वो अस्पताल के बैड पर था। ऑटो वाले ने सामान के साथ-साथ सोहन की घड़ी और पर्स तक छिन लिय़ा था।"मैं बहुत डरा हुआ था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्य़ा करूं, कहां जाऊं।" सड़क किनारे बैठा सोहन य़े सोच ही रहा था कि अचानक उसे एक बस आती दिखी। बस के आगे सूरजकुण्ड मेले का बैनर लगा हुआ था। सोहन ने बस में सवार लोगों से मदद मांगी और सूरजकुण्ड मेले में आ पहुंचा। मेले में सोहन को उसके प्रदेश से आय़े साथी कलाकार मिल गय़े। फिलहाल सोहन उन्हीं के साथ य़हां रुका हुआ है।मेले में हजारों की भीड़ में भी सोहन अकेला है। सोहन पूरा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर उपन्यास पढ़ता रहता है। शाय़द सोहन ने य़ह सपने में भी न सोचा होगा कि सूरजकुण्ड मेले का रंग उसकी जिंदगी को बेरंग कर जाय़ेगा।
Posted by amit yadav at 12:54 AM 0 comments
Monday, November 24, 2008

Thursday, February 26, 2009

निर्वाचन आयोग का गठन

निर्वाचन आयोग एक संवैधानिक संस्था है । जिस पर लोकसभा , विधान सभा , और विधान परिषदों के चुनाव से लेकर के राष्ट्रपति ,उप राष्ट्रपति तक के चुनाव का दायित्व होता है ।
संविधान के अनुच्छेद ३२४ के तहत चुनाव आयोग का २५ /जनवरी/१९५० को गठन किया गया । २१ मार्च १९५० को सुकुमार सेन को मुख्य चुनाव आयुक्त बने , और १९ दिसम्बर १९५८ तक इस पद पर रहे । अक्टूबर १९८९ तक आयोग का सर्वेसर्वा मुख्य चुनाव आयुक्त होता था । लेकिन इसके बाद यह दायित्व मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्तों में बाट दी गई । जनवरी १९९० में यह व्वस्था समाप्त कर दी गई । पर संसद कानून बनाकर १९९३ यह व्वस्था फ़िर बहाल कर दी गई ।
चुनाव आयोग एक स्वायता संस्था है । कार्यपालिका से परे है, यह एक अर्ध -न्यायिक इकाई के तौर पर काम करता है। चुनाव के समय पर केंद्रीय व राज्य सरकार की पूरी मशीनरी ,जिसमें अर्ध सैनिक बल भी शामिल है को इसके दिशा निर्देश पर काम करना पड़ता है । १२ दिसम्बर १९९० में चुनाव आयोग को मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने आयोग को एक सशक्त संस्था के रूप में स्थापित किया । शेषन ने चुनाव सुधार लागू करने में व्यापक पहल की । सबसे पहले वोटर कार्ड्स की बात शेषन ही उठाई थी ।

ओबामा बनाम ओसामा


आज पुरे विश्व में ओबामा की वाही वाही हो रही हैं ! वे अमेरिका के पहले अश्वेत रास्ट्रपति बनने के साथ ही दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान भी बन गये हैं ! या यूँ कहिये की पुरी दुनिया khus हैं पर पता नही
osama इस बात से खुश हैं या दुखी की भूखे शेर की तरह से उसका पीछा करने वाले आदमी की जगह अब एक अश्वेत अमेरिका के प्रेजिडेंट हैं ! परन्तु ओबामा ने शपथ ग्रहण करने के बाद ही कहा की ओसामा को पकड़ना उनकी पहल होगी ! इस बात से सभी के मन में कई सवाल खड़े कर दिए हैं की क्या ओबामा भी श्री बुश की तरह ही ओसामा के पीछे पड़ेंगे ?क्या ओबामा ओसामा को पकड़ने में सफल हो पाएंगे ?
क्या ओबामा भी ओसामा को खोजने के लिए किसी और अफगानिस्तान को nisaana बनायेंगे ?
क्या ओबामा का कदम होगा और क्या ओसामा का ? ये कई तरह के सवाल हमारे मन में हैं````````````पर इन सवालों के जवाब या तो जनाब ओबामा दे सकते है या फ़िर आने वाला समय बताएगा ! पर ध्यान देने वाली बात है की ओबामा ,बुश की विपक्षी पार्टी के हैं ! पर लगभग विदेश निति पर दोनों की सोच लगभग एक जैसी ही हैं अफगानिस्तान पर उनकी नजर बराबर बनी रहेगी ! और इराक को भी अमेरिका इतनी जल्दी से छोड़ने वाला नही हैं! ऐसे में ओबामा ओसामा पर भी कोई ढील नही छोडेंगे ! और ओसामा को भी अब ऐसे इंसान से टक्कर लेनी हैं जो काले तो हैं ही वे जेंटलमन भी माने जाते हैं! पर वो उस देश के प्रेजिडेंट हैं जो विश्व पर अपना एकाधिकार जमाए रखना चाहता हैं ! ऐसे में ओबामा और ओसामा का खेल देखने वाला है ! क्योंकिओबामा अमेरिका के प्रेजिडेंट है !

ये क्या हो रहा है?

लोक सभा चुनाव सिर पर है। सभी जगह यह चर्चा आम है कि कौन किसके साथ ताल मेल करेगा, कौन प्रधानमंत्री बनेगा, किसको कितनी सीट मिलेगी आदि। पर एक बात तो साफ़ है कि कांग्रेस अजीब पसोपेश में है जहाँ राजग ने आडवाणी जी को अपना नेता बता दिया है, वही कांग्रेस किसको अपना नेता बताये। कांग्रेस का वैसे तो पुराना तर्क है कि नेता का चुनाव परिणाम आने के बाद होता है। और लोकतांत्रिक पद्धति में ऐसा ही होना भी चाहिए। पर जिस तरह से कांग्रेस बड़े बड़े होर्डिंग्स में राहुल गाँधी को प्रोजेक्ट कर रही है उससे यही लगता है कि कहीं न कहीं प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस के युवराज को राजा बनने कि तैयारी चल रही है।
खैर इसका अंदाजा इससे भी लगा सकते हैं कि देश कि बड़ी-बड़ी विज्ञापन कंपनियां कांट्रेक्ट लेकर प्रचार का ठेका ले रहीं हैं। १५० करोड़ रुपये से शुरू होकर ये ठेका ५०० करोड़ तक जा सकता है। इसे देखकर तो कहा जा सकता है कि यह तैयारी निश्चित ही कठपुतली प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के लिए तो नही ही है। युवाओं के नेता के तौर पर प्रोजेक्ट किए जा रहे राहुल के लिए त्याग की देवी सोनिया ने ज़रूर कुछ अपेक्षित सोच रखा है, नहीं तो राजग के किसी चाल का ज़वाब संप्रग न दे ऐसा नही हो सकता है।
इस पूरे प्रकरण में राहुल का प्रोजेक्शन और प्रचार बहुत कुछ कह रहा है। आने वाला चुनाव निश्चय ही बहुत जटिल है। परंतु जो कुछ भी हो रहा है कांग्रेस और राजग के लिए अच्छा संकेत लेकर तो नहीं नजर आ रहा।

Wednesday, February 25, 2009

ससुराल गेंदा फूल


दिल्ली 6 का गीत ससुराल गेंदा फूल आज हर एमपीथ्री मोबाईल में बज रहा है। खासकर युवा लड़कियां इस गीत को सुनने में लड़कों से आगे है। प्रसून जोशी का लिखा यह गीत ए आर रहमान के संगीत के साथ सुपरहिट हो गया है। एफएम रेडियो में बार - बार इस गीत को बजाया जा रहा है। फिल्म दिल्ली 6 के दस गीतों में ससुराल गेंदा फूल के अलावा मसकली भी काफी लोकप्रिय हुई है। इस फिल्म के निर्माता यूटीवी और राकेश ओम प्रकाश मेहरा है।
फिल्म में राकेश ओम प्रकाश मेहरा के निर्देशन में एक बंदर से दिल्ली के लोगों के बीच व्याप्त डर को अभिषेक बच्चन और सोनम कपूर के अभिनय के जरिये दिखाने की कोशिश किया गया है। निर्देशक ने लोगों को उनकी बेवजह डर को दिखाने का कोशिश किया है। फिल्म के माध्यम से यह संदेश जाता है कि मन में डर बैठा लेने से समस्या का समाधान नही हो सकता है।
फिल्म दिल्ली 6 का लोकप्रिय गीत ससुराल गेंदा फूल के जरिये ससुराल को एक गेंदा के फूल से तुलना की गयी है। गेंदा फूल की पंखुड़ियां आपस में कसी हुई होती है। आंधी तुफान, भारी बरसात और प्राकृतिक विपदा भी गेंदा फूल के पंखुड़ियों को अलग नही कर सकता। वहीं एक वधू अपने मायके से ससुराल पहुंच कर गेंदा फूल का एक पंखुड़ी बन जाती है। जिसके चारों ओर अन्य पंखुड़ियों के रुप में पति, ननद, देवर, सास और ससुर होते हैं।
इस गीत के जरिये ससुराल में एक वधू की दिनचर्या को दर्शाने की कोशिश की गयी है। गीत के मुताबिक जब पति अपनी पत्नी को छेड़ता है, तो ननद अपनी भाभी को आड़े हाथों लेती है, उसका मजाक बनाती है, और उसे चिढ़ाने से बाज नही आती। वहीं जब सास वधू को किसी काम के बहाने डांटती है तो देवर अपनी भाभी का पक्ष लेकर समझाता है कि यह तो मांजी की आदत है, इस बात को ज्यादा गंभीरता से लेने की जरुरत नही है। लेकिन सास की डांट के बाद वधू यह सोचने पर मजबूर होती है कि वह अपने पिता का स्नेह और घर छोड़कर अपने पति के घर आयी है। यहां सास और ससुर का प्यार मिले या ना मिले लेकिन पूरी जिंदगी पति के साथ ही गुजारना है। वह अपने पति को दूर जाने नही देना चाहती है। पति के दूर जाने पर उसके मन में एक डर पैदा हो जाती है। जिसका कोई निवारण नही मिलता देख वधू अपने पति को जाने से पहले जी भर के निहारती है।

स्माइल पिंकी को भी ऑस्कर

हिमांशु शेखर
इस बार का ऑस्कर अवार्ड कई मायने में भारत के लिए बेहद खास रहा। एक तरफ तो 81 वें अकादमी आवार्डस में स्लमडाॅग मिलेनियर ने आठ ऑस्कर हासिल करके एक इतिहास रच दिया वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश की एक लड़की पर बनी फिल्म ‘स्माइल पिंकी’ ने भी आॅस्कर हासिल करके हिंदुस्तानी सिनेमा को चाहने वालों के लिए दोहरी खुशी अर्जित की।
जब से ऑस्कर के लिए नामांकन की घोषणा हुई, उसी समय से हर ओर स्लमडाॅग मिलेनियर की चर्चा हो रही थी। हर तरफ रहमान और फिल्म से जुड़ी उनकी टोली की सफलता की अपेक्षा की जा रही थी। इस चर्चा में उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले के एक छोटे से गांव रामपुर दहाबा की पिंकी की कहानी पीछे छूटती दिखी। 39 मिनट की डाॅक्यूमेंट्री ‘स्माइल पिंकी’ को हिंदी और भोजपुरी में बनाया गया है। इसका निर्देशन अमेरिका की मेगन मायलन ने किया है।
पिंकी की सर्जरी डाॅक्टर सुबोध कुमार सिंह ने की है। वे स्माइल ट्रेन नाम की अंतरराष्ट्रीय संस्था के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में काम करते हैं। उन्होंने भी पिंकी के पुराने दिनों को याद करते हुए एक अखबार को बताया था कि पिंकी बड़ी प्यारी और मासूम बच्ची है लेकिन होंठ कटा होने के कारण उसे बहुत चिढ़ाया जाता था। पिंकी ने स्कूल जाना शुरु भी किया था लेकिन छोड़ना पड़ा। उसकी हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह जब खेलना चाहता थी तो दूसरे बच्चे उसके साथ खेलने को तैयार नहीं होते थे। स्माइल ट्रेन सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से ऐसे बच्चों को ढूंढकर उनका निःशुल्क इलाज करता है। इसी दौरान पिंकी को भी चिकित्सा शिविर में आने का मौका मिला था। जब से पिंकी का आॅपरेशन हुआ है तब से उसके प्रति लोगों का बर्ताव भी बदला है और अब वह खेल-कूद रही है। पिंकी अब पूरे गांव के लिए प्यारी गुड़िया हो गई है। अब उससे बात करने के लिए उसके गांव मिर्जापुर में फोन आते रहते हैं और वहां गांव के लोग इकट्ठा हो जाते हैं।
उल्लेखनीय है कि ‘क्लेफ्ट लिप’ नाम के इस बीमारी की शुरुआत गर्भावस्था में ही हो जाती है। गर्भावस्था के चैथे से 12वें सप्ताह के अंदर होंठ और तालु का विकास होता है। इस दौरान यदि किसी वजह से विकास नहीं हो पाता है तो होंठ या तालु कटे रह जाते हैं। हालांकि, इसके कारणों को लेकर दुनिया भर में शोध चल रहा है ताकि इस बीमारी को होने से ही रोका जा सके या इसकी आशंका कम हो जाए। इस बीमारी के कारण बच्चों को कई तरह के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक दवाबों का सामना करना पड़ता है। ऐसा अनुमान है कि भारत में दस लाख से ज्यादा बच्चों को तालु या कटे होंठ होने के कारण आॅपरेशन की जरूरत है और हर साल 35 हजार बच्चे ऐसे पैदा होते हैं जिनके होंठ या तालु कटे होते हैं। डाॅक्टरों की मानें तो केवल 45 मिनट से दो घंटे के एक आॅपरेशन से इन बच्चों का जीवन बदल सकता है। इस बात में जान इसलिए भी लगती है कि पिंकी की जिंदगी एक आॅपरेशन ने बदल दी है। अब देखने वाली बात यह है कि ऑस्कर की खुशियां लेकर आई पिंकी से प्रेरणा पाकर इस बीमारी से जूझने वाले दूसरे बच्चों के लिए क्या किया जाता है?

Tuesday, February 24, 2009

जय हो


जय़ हो
जय़ हो, य़ह गीत और इसके संगीतकार ए. आर. रहमान का नाम आज भारत से लेकर लॉस एंजिलिस तक धूम मचा रहा है। डैनी बॉय़ल, निर्देशित फिल्म स्लमडॉग मिलेनिय़र ने 81 वें अकादमी अवॉर्डस में 8 ऑस्कर अपनी झोली में करके एक इतिहास रचा है। एक तरफ कुछ भारतीय़ इससे गर्व की अनुभूति कर रहे हैं, वहीं कुछ लोगों के बीच इस फिल्म को लेकर नाराजगी भी है।
स्लमडॉग मिलेनिय़र में भारत की गरीबी को जिस ढंग से पेश किय़ा गय़ा है, उसकी कुछ लोगों ने कड़ी आलोचना की है। उनका तर्क है कि इससे वैश्विक स्तर पर भारत की छवि धूमिल होगी। लेकिन शाय़द य़े लोग अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट को भूल जाते हैं जिसके अनुसार देश के करीब 80 प्रतिशत लोग 20 रुपए रोजाना से कम पर गुजारा करते हैं, देश में आज भी कितने लोगों को एक वक्त का निबाला तक मयस्सर नहीं है, आज भी सांप्रदाय़िक दंगों में कितने बेगुनाह अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं, ऐसे समय़ में ये लोग क्य़ों कुछ नहीं बोलते। क्या तब भारत की छवि पर दाग नहीं लगता।
दूसरे कुछ लोगों का कहना है कि, अगर किसी भारतीय़ निर्दशक ने यह फिल्म बनाई होती तो शायद इसका ऑस्कर के लिए नोमिनेशन भी नहीं हो पाता। इस तर्क को किसी हद तक न्यायसंगत ठहराया जा सकता है, लेकिन यहां प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्यों आज तक किसी भारतीय निर्देशक का इस विषय की ओर ध्यान नहीं गया। बॉलिवुड के ज्यादातर निर्देशक अपनी फिल्म विदेशों में शूट करना पसंद करते हैं। क्या भारत उन्हें अपनी फिल्मों के मुफीद नहीं लगता।
तीसरा ओर अहम प्रश्न यह खड़ा होता है कि, जय हो की धूम के बीच लोगों ने इस फिल्म के एक मुख्य किरदार को दरकिनार कर दिया। आज हर किसी की जुबान पर रहमान गुलजार देव पटेल फ्रीडा पिंटो से लेकर डैनी बॉयल तक का नाम गूंज रहा है, लेकिन शायद ही लोगों को इस फिल्म की कहानी के मुख्य स्त्रोत के बारे मे पता हो। आईएफएस अधिकारी विकास स्वरुप के उपन्यास क्यू एंड ए पर आधारित इस फिल्म ने भारत से लेकर लॉस एंजिलिस तक अपनी छाप छोड़ दी, लेकिन इस उपन्यास के लेखक विकास स्वरुप, आम लोगों से लेकर मीडिया तक की खबरों से भी अनछुए रहे। कुछ लोगों ने इसे लेकर भी आपत्ति उठाई है।
आलोचनाएं चाहे जितनी भी हों, इस फिल्म में एक अच्छी फिल्म का हर पहलू मौजूद है। निर्देशक ने जिस खूबसूरती से एक रियलिटी शो के जरिए भारतीय समाज के कई पहलूओं को दुनिया के सामने रखा, यह सराहनीय है। लिहाजा हर भारतीय को इस पर गर्व होना चाहिए और एक साथ मिलकर कहना चाहिए- जय हो....

पटरी पर सरकती जिंदगी ?

पिछले दिनों संसद में अंतरिम रेल बजट पेश किया गया। रेल बजट पर केन्द्रित लैब जर्नल के लिए मुझे एक रिपोर्ट लिखना था। इसलिए मैं नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की तरफ निकल पड़ा। रेलवे अघिकारियों से अनुमति लेने जब मैं पटरियों से गुजर रहा था तब मुझे आदित्य दिखाई दिए। आदित्य के बहाने मुझे गैंगमेनों की स्थिती जानने का मौका मिला ....



गैंगमैन आदित्य कुमार पिछले बीस वर्षों से रेलवे की सेवा कर रहे हैं। ये उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के रहने वाले हैं। इनकी नौकरी जब लगी थी तो परिवार खुशी से फूले नहीं समा रहा था। गरीब आदित्य की जिंदगी का यह सबसे हसीन पल था। घर छोड़कर ये कमाने दिल्ली आ गए। विश्वास था कि रेलवे इन्हे घर जैसा माहौल तो नहीं, कम-से-कम घर तो देगा ही। लेकिन इतने साल बीतने के बाद भी इन्हे एक अदद ‘घर’ की तलाश है। कहने को तो रेलवे ने इन्हे घर दिया है लेकिन उसे घर की तुलना में झुग्गी कहना ज्यादा सही होगा।यह कहानी केवल आदित्य की ही नहीं है। यह उन सब परिवारों की दास्तां है जो नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास बनाये गए ‘इस्ट इंट्री रोड झुग्गी’ के निवासी हैं। यह झुग्गी करीब चालीस वर्ष पुरानी है और यहां करीब 100 परिवारों का बसेरा है। रेलवे अपने चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के प्रति कितना संवेदनशील है इसकी बानगी यहां दिखती है?



इन कर्मचारियों के घरों की कई ‘विशेषताएं’ हैं। कई तो काफी जर्जर हो चुके हैं तो कई गिरने की हालत में हैं। इन घरों में बिना झुके घुसा नहीं जा सकता। दीवारें भी ऐसी मानो छूते ही गिर जाऐंगी। शौचालय की भी यहां कोई ठोस व्यवस्था नहीं। बारिश के मौसम में छत पर पाॅलिथीन की चादर डालना इनकी मजबूरी हैं।ऐसी बात नहीं कि इनके बदहाल जीवन को लेकर आवाज न उठाई गई हो। इनके संगठन आॅल इंडिया एससी/एसटी रेलवे इम्प्लॅायज एशोशियेसन ने आंदोलन किया तो इन्हें आंगनबाड़ी केन्द्र का तोहफा मिला। इसके बावजूद अभी भी यहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। वैसे ‘सलाम बालक’ जैसे कुछ संगठन भी इन जगहों पर सक्रिय हैं, जो इनके बच्चों पढातें हैं।
आदित्य से मिलकर पता लगा कि पटरियों पर रेल की सुरक्षित दौड़ सुनिश्चित करने वाले कर्मचारी कितनी असुरक्षा में अपना जीवन बसर कर रहे हैं। घर के अभाव में झुग्गी में रह रहे इन कर्मचारियों की जीवन पटरी पर कब दौड़ेगी यह तो वक्त बताएगा? फिलहाल रेलवे की नीति से ये सरकने को मजबूर हैं?

Monday, February 23, 2009

येस वी आर द इंडियन...

उम्मीद के मुताबिक 'स्लमडॉग करोड़पति', माफ़ कीजिये 'स्लमडॉग मिलेनियर' को ऑस्कर अवार्ड भी मिल गया। गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिलने के बाद हमारी उम्मीदें बढ़नी भी जायज़ थी। वैसे हम भारतीय काफ़ी हद तक उम्मीदों पर ही ज़िन्दा रहते हैं। हमारे यहाँ ऎसी कहावत भी आम है- "उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।" इसी तरह एनडीटीवी इंडिया पर शाम आठ बजे विनोद दुआ भी कहते मिल जायेंगे- "हमारा कल आज से बेहतर हो इसी उम्मीद के साथ आपसे विदा लेते हैं..."
उम्मीद करना हमें विरासत में मिला है। हमारे पूर्वजों ने भी देश की आज़ादी की उम्मीदें पाली थी। देश को आज़ादी मिली लेकिन उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं। आज़ादी के बाद देश की हालत सुधरने की उम्मीद थी। हालत भी सुधरी लेकिन फ़िर उम्मीदें धरी की धरी रह गई। हुआ यह कि हालत मुट्ठी भर लोगों की ही सुधरी, बाकियों के जीवन में खास अंतर नहीं आया।
इन्हीं अंतरविहीन लोगों की कहानी है- 'स्लमडॉग मिलेनियर'। हमारी उम्मीद इस फ़िल्म से ज़रा हटकर थी। सोचा यह था कि फ़िल्म झुग्गी-निवासियों पर एक अच्छी फ़िल्म होगी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन अच्छाई के भी कई मायने होते हैं, ये फ़िल्म देखने के बाद समझ आया। इससे अच्छी बात क्या होगी कि फ़िल्म एक निहायत ही ग़रीब और बुरी आदतों वाले एक किशोर को 'बेहतर तरीके' से करोड़पति बनाती है जबकि यही काम उसका भाई ग़लत तरीके से करता है। ज्यादातर भारतीय भी इसी 'बेहतर तरीके' से करोड़पति बनने की उम्मीद रखते हैं
फिल्म एक निर्देशकीय रचना होती है और इस फ़िल्म के निर्देशक डैनी बोयले, ब्रिटिश फिल्मकार हैं। निर्माता- क्रिस्चन कोलसन भी विदेशी हैं। तो अब हमारा फ़िल्म में क्या बचता है? बचता है न- फ़िल्म की कहानी, पात्र (कुछ एन.आर.आई.), गीतकार, संगीतकार और आमची मुंबई तो है ही। हाँ वो महानायक भी अपना है जिसे देखने के लिए झुग्गी का एक बच्चा पखाने में कूद जाता है। वो बच्चा और पखाना भी अपना ही है।
हम भारतीयों के 'स्लमडॉग मिलेनियर' के ऑस्कर जीतने की खुशी का राज़ इतना ही है। गुलज़ार और रहमान की काबिलियत से हम पहले से ही परिचित हैं और अब तो उन्हें विदेशी प्रमाण-पत्र भी मिल चुका है। हाँ पोकुट्टी ज़रुर नई उम्मीद हैं।
फ़िर भी सभी भारतीय खुश हैं ऐसा नहीं है। किसी को इस बात का दुःख है कि यह फ़िल्म किसी भारतीय ने नहीं बनाई तो किसी में गुस्सा कि 'लगान' और 'तारे ज़मीं पर' को ऑस्कर अवार्ड नहीं मिला। खैर जो भी हो हमें विदेशी प्रमाण-पत्र मिलने की खुशी तो है ही लेकिन इस बार तो हम मुफ्त में ही खुश हैं। दूसरे की खुशी में अपनी खुशी तलाशना भी हम भारतीयों के बूते की ही बात है। तीन ऑस्कर अवार्ड खालिस भारत को मिलने के बाद हमें उम्मीद है कि यही क्रम आगे भी जारी रहेगा। "हमें कुछ और विदेशी प्रमाण-पत्र मिलें इसी उम्मीद के साथ आपसे विदा लेते हैं..."


Thursday, February 19, 2009

जिम्मेदार कौन

कल मैंने बस स्टैंड पर एक बच्चे को देखा जो की केवल पाँच सल् का होगा और अपना पेट भरने के लिए बस के अंडर खेल दिखता है उसे देखकर मुझे ऐसा लगा की क्या अपनी सरकार को कोसकर मेरे काम की इतिश्री हो जाती है क्या
क्या कही न कही इस बात के लिए मे भी दोषी नही हु जो एक बड़ी कंपनी में कम करता हु और पाँच अंक में अपनी तनख्वा लेता हु और उसके बाद देश दुनिया नेताओ को कोसता रहता हूं।
यदि हम सब मिलकर अपनी आय का कुछ हिस्सा ऐसे लोगो के लिए दे दे तो या फिर इन छोटे बच्चो में से किसी एक की जिम्मेदारी ले ले तो हम ऐसे असहाए बच्चो के लिए के कुछ कर सकते है केवल नेताओ को कोसने से कुछ नही होगा।
हम सब अच्छी तरह से जानते है की यदि कंपनी या सरकार मेरे तनख्वा में से थोड़ा भी कम कर दे तो हम लोग ही सबसे पहले हाय तौबा मचा देते है अब सरकार के पास भी कोई पैसो का पिटारा तो है नही के खोल कर ऐसे लोगो को भी मोटी तनख्वा दे दे और लगातार पैसे बात ते रहे क्योंकि हमारे पास हर चीज़ के साधन सिमित है और सबको एक अनुपात में ही सब चीज़ दी जा सकती है जब इतना बड़ा हिस्सा हम जैसे पाँच अंक वाले लोग ही खाते रहेगे तो उन्हें भी क्यों दोष दे जब जिम्मेदार सब लोग है हमे कोई अदीकार नही है किसी और को कोसने का

अंतरिम बजटः 2009 - सियासी डफली, चुनावी राग

हिमांशु शेखर
जब बजट पेश करने प्रणब मुखर्जी संसद जा रहे होंगे तो उनके दिमाग में आने वाले अप्रैल में मतदाताओं की लंबी कतारें जरूर रही होंगी। उन्हें यह भी याद रहा होगा कि उन लंबी कतारों में लगे लोगों का निर्णय तय करने में उनके बजट की विशेषता कोई भूमिका निभाये या नहीं लेकिन उनकी कोई भी गलती मौजूदा सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का काम जरूर कर सकती है। हालांकि, 1984 में उन्होंने आखिरी बार बजट पेश किया था और वह पूर्ण बजट था। पर इस दफा दादा अंतरिम बजट पेश करने जा रहे थे और उन्हें ऐसे समय में वित्त मंत्री बनाया गया था जब उनसे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सियासी चतुराई की अपेक्षा कर रहे थे। कहा जा सकता है कि प्रणब दादा ने उनके अपेक्षाओं पर खरा उतरने की भरपूर कोशिश की। अपने बजट भाषण के दौरान उन्होंने बार-बार सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह की तारीफ करते हुए वित्त मंत्रालय से गृह मंत्रालय जा चुके पी चिदंबरम की पीठ थपथपाने का भी कोई मौका नहीं छोड़ा। चुनावों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आम आदमी, किसान, किसानी और गांवों की भलाई का राग भी जमकर अलापा।

आंकड़ों के जरिए प्रणब मुखर्जी ने जो गुलाबी तस्वीर खींची उसे सिक्के का एक पहलू ही कहा जा सकता है। विदेश मंत्री के तौर पर अहम जिम्मेदारी निभाने वाले प्रणब मुखर्जी ने मौजूदा यूपीए सरकार का आखिरी बजट पेश करते हुए अपने सियासी कौशल का बखूबी परिचय दिया। कार्यवाहक वित्त मंत्री के रूप में अगले चार माह के लिए अपना अंतरिम बजट पेश करते हुए मुखर्जी ने पिछले चार साल की यूपीए सरकार की उपलब्धियों को गिनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। उन्होंने बार-बार यह दुहराया कि यूपीए सरकार ने जनता से किए अपने सभी वादे पूरे किए और अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बनाए रखा। उन्होंने कहा कि देश में ऐसा पहली बार हुआ कि लगातार तीन साल तक विकास दर 9 फीसदी के आसपास रही। दादा के इस दावे में कितना दम है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में गैरबराबरी बढ़ती रही। अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ती रही। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती रही और घर से बेघर होने वालों की संख्या भी उसी तेजी से बढ़ती रही। विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ा जाता रहा।


अपने बजटिया भाषण में प्रणब दादा ने कहा कि यूपीए सरकार ने ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर दिया और इस मद में 39 फीसदी निवेश बढ़ा। पर उनके ये दावे भी सिर्फ कागजी ही नजर आते हैं। जहां तक सवाल है ग्रामीण शिक्षा का तो आज भी देश में ऐसे गांवों की भरमार हैं जहां शिक्षा का उजियारा नहीं पहुंचा है। अभी भी देश के प्राथमिक विद्यालयों के पचीस फीसद शिक्षक डयूटी से गायब रहते हैं। यहां प्रणब दादा के दावे को खोखला यह बात भी साबित करती है कि अभी भी देश के उन्नीस प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। रही बात ग्रामीण स्वास्थ्य की तो इसकी बदहाली की कहानी तो वैसे लोग भलीभांति जानते होंगे जो गांवों मे रहते हैं या जिनका संबंध गांवों से रहा है। अव्वल तो यह कि ज्यादातर गांवों में आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं। जहां हैं भी वहां डाॅक्टर को देखना दिन में तारे देखना सरीखा होता है।प्रभारी वित्त मंत्री ने कहा कि श्क्षिा में सुधार के लिए सरकार वचनबद्ध है। उन्होंने कहा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में हमने उच्च शिक्षा के लिए आवंटन 900 फीसदी बढ़ाया गया। चालू वर्ष में छह नए आईआईटी शुरू होंगे। इसमें से हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में दो नए आईआईटी खुलेंगे। शिक्षा कर्ज को मौजूदा सरकार ने चैगुना किया और इसे 3.19 लाख से बढ़ाकर 14.09 लाख करोड़ तक किया गया। 500 आईटीआई को बेहतरीन बनाने की प्रक्रिया शुुरु हुई। दादा के ये आंकडे़ खुशफहमी पालने के लिए कुछ लोगों को बाध्य कर सकते हैं। पर हकीकत इससे अलग है। जितनी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थानों की जरूरत इस देश में है उस मात्रा में नए संस्थान नहीं शुरु हो रहे हैं। उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या गुणवत्ता को बरकरार रखने की है। सरकार अपना रिपोर्ट कार्ड सतही तौर पर ठीक बनाने के लिए संस्थानों की संख्या बढ़ा तो रही है लेकिन संस्थानों की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आती जा रही है। प्रणब दादा ने चुनावी साल में सत्ताधारी गठबंधन को सियासी लाभ दिलाने के मकसद से यहां तक कह डाला कि पांच साल पहले लोगों ने बदलाव के लिए वोट दिया था और सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम से आम लोगों को फायदा हुआ। दादा जिस बदलाव की बात कर रहे हैं वह बराक ओबामा का प्रभाव लगता है। ओबामा चेंज का नारा उछाल जितने में कामयाब रहे तो इसी बहाने चुनावी नौका पार लगाने का मंसूबा शायद प्रणब मुखर्जी एंड कंपनी ने भी पाल रखा हो। इसलिए दादा ने अपने बजटिया भाषण में बार-बार दुहराया कि हमने अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जीडीपी के साथ-साथ हर क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई। सत्ता चलाने वाले जिस जीडीपी की बात करते हैं उसके पीछे के खेल को भी समझना जरूरी है।दरअसल, जीडीपी को साधारण शब्दों में पैसे का एक हाथ से दूसरे हाथ में जाने को कहा जा सकता है। जहां भी पैसे का लेन-देन होगा और आधिकारिक तौर पर होगा वह जीडीपी में जुडे़गा। इसके खेल को इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर कोई पेड़ लगा रहा है तो पैसे का कोई लेन-देन नहीं हो रहा है। पर वहीं अगर कोई पेड़ काट रहा है तो वहां लकड़ी बेचने की वजह से पैसे का लेन-देन हो रहा है। इस आधार पर पेड़ लगाने पर जीडीपी नहीं बढे़गा लेकिन पेड़ काटने पर जीडीपी में बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी। अब पाठक खुद तय करें कि वे पेड़ लगाने को विकास मानेंगे या पेड़ काटने को। प्रणब मुखर्जी ने कहा कि प्रति व्यक्ति आय में इजाफा हुआ। पर सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रपट कहती है कि देश के 84 करोड़ लोग रोजाना बीस रुपए से कम पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। दरअसल, प्रति व्यक्ति आय तय करने में इजाफा के पीछे कुछ ही लोगों का आय बढ़ते जाना जिम्मेवार है। अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ेगी तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तेजी से प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी होगी। प्रणब मुखर्जी ने यह भी कहा कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ। पर दादा यह कहते हुए अपने मोटे चश्मे से पूरे देश को देखने की गलती कर रहे थे। वे इस बात को या तो भूल गए थे या फिर जानबूझ कर भूलने का नाटक कर रहे थे कि तथाकथित विकास के नाम पर उनकी सरकार ने जिन लोगों को उजाड़ा है, वे कैसा जीवन गुजार रहे हैं। उन्हें शायद यह भी याद नहीं रहा हो कि सेज और बांधों के नाम पर उनकी सरकार ने जिन लोगों को उजड़वाने में अहम भूमिका निभाई उनके जीवन का क्या स्तर रहा। दादा शायद यह भी भूल गए थे कि जिस दिल्ली में वह बजट भाषण पढ़ रहे थे वहीं झुग्गियों को उजड़वा दिया गया और इन झुग्गियों में रहने वालों के लिए पुनर्वास की समुचित व्यवस्था भी नहीं करवाई गई। यह सब प्रणब मुखर्जी इसलिए भूल गए होंगे कि वे जिन आर्थिक नीतियों की पैरोकारी कर रहे हैं वह 'इंडिया' बनाना चाहता है और उसकी आंखों में 'भारत' हर वक्त खटकता रहता है।प्रभारी वित मंत्री ने कहा कि राजस्व घाटा कम हुआ। हुआ होगा कम राजस्व घाटा लेकिन अहम सवाल यह है कि इससे फायदा किसको मिला। इसका फायदा उसी मलाईदार तबके को मिले जिसे ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाती हैं। प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए वफादारी निभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कई बार कहा कि सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के प्रयासों से हमने आकाश छुआ। सुपर प्रधानमंत्री सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रति भक्ति दिखाने के पर्याप्त कारण भी दादा के पास रहे होंगे। कृषि क्षेत्र को लेकर प्रणब दादा के दावे सबसे ज्यादा खोखले नजर आ रहे हैं। उन्होंने किसानों को भारत का असली नायक बताते हुए यह कहा कि हमने गेंहू और चावल का रिकार्ड उत्पादन किया। इस वजह से कृषि की औसत वार्षिक दर 3.7 फीसदी रही। किसानों को नायक बताते हुए उनके प्रति सरकार की हमदर्दी को बयां करते हुए प्रणब मुखर्जी ने यह भी जोड़ा कि 2003-04 से 2008-09 के बीच सरकार ने किसानी के लिए आवंटित किए जाने वाली रकम को तीन सौ फीसद बढ़ाया है यानी तिगुना कर दिया गया है। पिछली बजट में किसानों के लिए सरकार द्वारा घोषित कर्ज माफी योजना के जरिए सत्ता में बैठे लोगों ने जमकर वाहवाही लूटी थी। इस योजना की बाबत प्रणब दादा ने अंतरिम बजट भाषण में बताया कि पैंसठ हजार तीन सौ करोड़ रुपए की कर्ज माफी हुई। जिसका लाभ तीन करोड़ साठ लाख किसानों को मिला। पर वहीं सरकार यह भी मानती है कि देश के चार करोड़ चैंतीस लाख किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। अगर प्रणब दादा के दावे को ही सही मान लें तो अभी तकरीबन एक करोड़ किसान उनकी सरकार के कर्जमाफी योजना के लाभ से महरूम हैं। इसके अलावा प्रणब मुखर्जी को यह भी याद रखना चाहिए था कि आज भी भारत के आम किसान को बैंकों के बजाए साहूकार से कर्ज लेने पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है और इस कर्ज के बोझ तले दबकर आज भी हजारों किसान हर साल काल कवलित होने को अभिशप्त हैं। प्रणब मुखर्जी ने यह भी जोड़ा कि अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी उनकी सरकार ने इजाफा किया है।किसानों के कल्याण का दावा चाहे मौजूदा सरकार जितनी करती रहे लेकिन वे सच से काफी दूर हैं। सरकारी दावे की पोल एक सरकारी एजंसी की रपट ही खोलती है। किसानों की आत्महत्या की बाबत राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की रपट के मुताबिक 2007 में पूरे देश में 16,632 किसानों ने आत्महत्या की। इसमें 2,369 महिलाएं शामिल थीं। किसानों की आत्महत्या देश में हुए कुल आत्महत्याओं का साढे़ चैदह फीसद है। हालांकि, यह संख्या 2006 की तुलना में थोडी़ कम जरूर हुई है। 2006 में यह संख्या 17,060 थी। आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि 1997 से लेकर अब तक भारत के 1,82,936 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं। याद रहे कि यहां जिस संख्या का जिक्र किया जा रहा है वे दर्ज मामले हैं। बताते चलें कि ऐसे असंख्य मामले उजागर हो चुके हैं जिनमें पुलिस किसानों के आत्महत्या के मामले ही नहीं दर्ज करती। देश की पुलिस का चरित्र व्यवस्था समर्थक होने के नाते वह हर वैसे मामले की लीपापोती की भरपूर प्रयास करती है जिससे सरकार के लिए समस्या पैदा हो। किसानों की आत्महत्या को पुलिस कुछ अन्य कारणों से हुई मौत बताकर अपने रिकार्ड में दर्ज नहीं करती। मामला दर्ज होने के बाद किसानों के परिजन मुआवजा के हकदार बन जाते हैं। हां, सोचने वाली बात यह भी है कि मुआवजा कितने लोगों को मिल पाता है। अपने परिजन को खोने के बावजूद किसान परिवार को मुआवजे के लिए इस देश में दर-दर की ठोकर खाना आम बात है। ऐसे में किसानों के कल्याण के हवाई घोषणाएं करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।प्रभारी वित्त मंत्री ने अपने बजटिया भाषण में कहा कि दुनिया भर में मंदी छाई हुई है इसके बावजूद हमने 7.1 की विकास दर बनाए रखी जो की दुनिया की दूसरी सबसे अच्छी विकास दर है। अब तक जो दो पैकेज हमने दिए हैं उससे रोजगार का संकट खत्म हुआ है और कंपनियां डूबने से बची हैं। हमने हर स्तर पर वित्तीय मदद देकर कंपनियों की मदद की। ढांचागत क्षेत्र में पैसा लगाकर, छूट देकर मंदी को पछाड़ा है। उनके इस दावे में भी बहुत ज्यादा दम नहीं नजर आता है कि मंदी कों उनकी सरकार ने पछाड़ दिया है और भारत में रोजगार का संकट नहीं पैदा हुआ है। कई कंपनियों से छंटनी की खबर लगातार आ रही है और नई नौकरियों का तो टोटा पड़ ही गया है। दादा के दावे को खोखला साबित करने के लिए सूरत के हीरा उद्योग का उदाहरण पर्याप्त है। सरकारी आंकडे़ ही बताते हैं कि दिवाली के बाद से अब तक सिर्फ सूरत के हीरा उद्योग से दो लाख लोगांे की रोजगार चली गई। कई लोगों ने तो आत्महत्या भी कर ली। ऐसी खबरें अभी और क्षेत्रों से नहीं आ रही हैं इसलिए प्रणब मुखर्जी देश को इस भ्रम में डालना चाहते हैं कि मंदी की मार से हमने सबको बचा लिया और अब चुनावी साल में एक बार फिर बागडोर कांग्रेस के हाथ में सौंप दिया जाए। प्रणब मुखर्जी ने कहा कि रिजर्व बैंक की मदद से पैसे की दिक्कत दूर करने की कोशिशें जारी हैं। निर्यात को काबू करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए और इसकी दर घटने नहीं दी। उन्होंने यह भी जोड़ा कि बीते साल में रिकाॅर्ड विदेशी निवेश हुआ जो 33 अरब डाॅलर तक था। विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए नियमों में बदलाव और दिशा निर्देश सरल बनाये जे रहे हैं। पर यहां भी अहम सवाल यही है कि जिस विदेशी निवेश के बढ़ने का और बढ़ाने का राग दादा अलाप रहे हैं उससे लाभ किसे मिल रहा है?प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट में यह घोषणा की कि सर्व शिक्षा अभियान के लिए 13100 करोड़ और मिड डे मील के लिए 8300 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। पेयजल के लिए 7400 करोड़ रुपये दिए गए। रोजगार गारंटी योजना हर जिले के लिए होगी। हालांकि, यह घोषणा पहले ही हो चुकी थी लेकिन चुनावी साल में अपनी सरकार की पीठ थपथपाने का कोई भी मौका दादा गंवाना नहीं चाह रहे थे। उन्होंने कहा कि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए 12070 करोड़ रुपये दिए गए। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए 30110 रुपये और बाल विकास योजना पर 6705 करोड़ का प्रावधान किया गया। भारत निर्माण के लिए 40900 करोड़ रुपये दिए गए। पर ऐसे प्रावधान का तब तक कोई खास मतलब नहीं रह जाता है जब तक इन योजनाओं का कार्यान्वयन में ईमानदारी नहीं बरती जाए। यह बात जगजाहिर है कि सरकार की इन सारी योजनाओं में भयानक भ्रष्टाचार व्याप्त है और इन योजनाओं का फायदा उन्हें नहीं मिल रहा है जिनके लिए ये योजनाएं बनाई गईं हैं। बल्कि इन योजनाओं के जरिए उनका ही बैंक बैलेंस बढ़ रहा है जिनके ऊपर इन योजनाओं का लागू करवारने की जिम्मेवारी है। पर भारत की जनता इन सरकाड़ी आंकड़ों के जाल में नहीं फंसने वाली है। जनता तो जमीनी हालात पर वोट देती है और कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि पिछली सरकार ने भी 2004 में फीलगुड का नारा उछाला था लेकिन जमीन पर एनडीए का खुशनुमा एहसास नहीं था और जनता ने अपने मत का प्रयोग करके एनडीए को बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस को इससे सबक लेना चाहिए था।

Wednesday, February 18, 2009

रितु की जान सुरजकुंड मेला



सूरजकुंड हस्तशिल्प मेला परिसर में थीम स्टेट मध्यप्रदेश का 'अपना घर' सजकर तैयार हो चुका था, इसे सजाने में सात वर्षीय रितु का बड़ा योगदान रहा है। रितु भूरी बाई की पोती है जो अपनी दादी के साथ भित्ती चित्र बनाती है।
दरअसल, अपना घर के जरिए थीम स्टेट अपने क्षेत्र की पारंपरिक संस्कृति को दर्शाने की कोशिश करता रहा है। अपना घर में भील जाति की भूरी बाई के अलावा परिवार के पांच लोग है। अपना घर के माध्यम से भील संस्कृति को दर्शाने की कोशिश की जाती रही है। भील समुदाय भूरी बाई आदिवासी भित्तिचित्र उकेरने में माहिर है। यह परंपरा कायम रखने के लिये भूरी बाई अपनी पोती रितु को भित्ती चित्र बनाना सिखा रही है।
रितु कक्षा दो में पढ़ती है। उसे अपने दादी की तरह भित्ती चित्र बनाना अच्छा लगता है। रितु की तीन सहेलियां हैं। वह स्कुल से घर लौटने के बाद अपने सहेलियों संग खेलना पसंद करती है। रितु हंसकर बताती है कि उसकी सहेलियां बहुत अच्छी है। उसकी सहेलियां दिन भर उसके साथ रहती है। रितु बहुत लगाव से भित्ती चित्र बनाती है। और उसे पता है कि वह किसकी चित्र बना रही है। रितु खासकर भगवान गणेश की चित्र बनाती है। सुरजकुंड मेले में बनी अपना घर को बनाने में रितु ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। वह अपने पिता विजय और दादी भूरी बाई को अपना भरपूर सहयोग दिया। मध्यप्रदेश के झबुआ जिले में रहने वाली भूरीबाई को राष्ट्रीय सम्मान मिल चुका है। उसका परिवार जीविकोपार्जन के लिये पेंटिंग का काम करता है। इसके अलावा उसका पुत्र विजय खेतों में भी काम करता है।
आदिम जनजाति भील समुदाय को राष्ट्रीय पहचान दिलाने वाली भूरीबाई में नाम मात्र भी घमंड नही है। सुरजकुंड मेंले में बना अपना घर में चित्र बनाती भूरीबाई लोगों के सवालों का जवाब एक पोस्टर दिखाकर देती है। उस पोस्टर में भूरीबाई की जीवनी और राष्ट्रीय सम्मान की बातें लिखी हुई है। व्यवहार कुशल भूरीबाई लोगों से बहुत कम ही बातचीत करती है। वह अपना ज्यादा समय भित्ती चित्र बनाने में लगाती है।

Tuesday, February 17, 2009

श्रद्धानंद मार्ग मतलब ....





नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के करीब है श्रद्धानंद मार्ग जिसे जीबी रोड के नाम से भी जानते है। सड़क के एक तरफ कतार बद्ध दुकानें और दुसरी तरफ रेलवे की चारदिवारी। इस मार्ग की खाशियत यह है कि गुजरने वाले लोग दुकानों की उपरी मंजिल में झांकते नजर आते है।
इसका कारण मुझे तब पता चला जब मैं बजट रिपोर्टिंग के लिये खारी बाउली मंडी के लिये अपने दोस्त क साथ गया था। उस रास्ते से गुजरते हुये एक युवक मेरे करीब आया और कहने लगा चाहिये क्या। मैं सोच में पड़ गया कि मुझे क्या चाहिये इसे कैसे पता। इसी सोच के साथ मैं आगे बढ़ रहा तो उसने फिर कहा 120 लगेंगे। पंजाबी, गुजराती, गढ़वाली और नेपाली सब है जो पसंद आये सभी बढ़िया है। मैं एक पल के डर गया और सोचने लगा कि कहां आ गया हूं। मन ही मन मैं अपने दोस्त को गरिया रहा था। वह मेरे साथ चल रह था और उसे इस जगह के बारे में सब पता था। उसने मुझे यह बात पहले नही बतायी। मेरा दोस्त मुस्कुराते हुये मेरे आगे चला जा रहा था और वो दलाल टाईप का लड़का मेरा हाथ पकड़ कर कहने लगा बोलो न चाहिये क्या। मुझे बहुत जोर से गुस्सा आया। मैंने हाथ झिड़क कर कहा नही चाहिये मुझे, कह दिया न एक बार, क्यों पीछे पड़े हो।
मेरे जिंदगी की यह पहली घटना थी। मैंने सुना था कि वेश्यालय होते हैं लेकिन पता नही था कि इसका कारोबार इस तरह से चलता है वह भी महानगरी में जिसके बगल में पुलिस स्टेशन है।

Friday, February 13, 2009

ताकि संवाद चलता रहे .....

यह बहुत खुशी की बात है की संवाद पर आप सभी की रचनायें आने लगी हैं। जैसा कि आप जानते हैं संवाद की प्रक्रिया में फीडबैक/प्रतिक्रिया का भी मूल लेख जितना ही महत्व है। आप सबसे अनुरोध है कि जो कुछ लिखा जा रहा है उस पर अपनी राय भी दें , सहमति-असहमति जो भी हो उसे जाहिर करें। जहां कुछ कमी रह गई हो उस ओर ध्यान दिलाएं । ताकि संवाद चलता रहे ........



Tuesday, February 10, 2009

आईआईएमसी में पूर्व छात्र मिले

हिमांशु शेखर
नई दिल्ली, 7 फरवरी, भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आईआईएमसी के हिंदी पत्रकारिता विभाग ने एल्युमुनाई मीट का आयोजन किया। इस अवसर पर 1987 बैच से लेकर मौजूदा बैच के विद्यार्थी मौजूद थे। आयोजन की मुख्य अतिथि और संस्थान की निदेशक स्तुति कक्कड़ ने कहा कि हिंदी ही देश की भविष्य है और इस लिहाज से 1987 में आईआईएमसी में हिंदी पत्रकारिता की पढ़ाई की शुरुआत करना काफी महत्वपूर्ण कदम था।
हिंदी पत्रकारिता पाठयक्रम के पहले निदेशक रामजी लाल जांगिड़ ने कहा कि भारत की जरूरतों को समझते हुए देश की पत्रकारिता में हर वर्ग की उपस्थिति के मकसद को ध्यान में रखते हुए यहां पत्रकारिता का पाठयक्रम हिंदी में किया गया था। उन्होंने कहा कि हमें इस बात का गर्व है कि मीडिया के कई दिग्गज आईआईएमसी के हिंदी पत्रकारिता विभाग से निकले है । इस पाठयक्रम के निदेशक रहे सुभाष धुलिया ने कहा कि आईआईएमसी मीडिया में केंद्र बिंदु की तरह है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मीडिया पर बातचीत के लिए जीवंत संवाद की कमी है और इस संवादहीनता को दूर करना बेहद जरूरी है। संस्थान के पूर्व छात्र इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । आईआईएमसी के हिंदी पत्रकारिता विभाग के पूर्व पाठयक्रम निदेशक प्रदीप माथुर ने कहा कि संस्थान की स्थापना जिस मकसद से हुई थी, उसमें आईआईएमसी कामयाब दिखता है।
हिंदी पत्रकारिता पाठयक्रम के मौजूदा निदेशक आनंद प्रधान ने कहा कि एल्युमुनाई मीट का आयोजन पहली बार किया गया है और यह एक छोटी सी शुरूआत है। उन्होंने भरोसा दिलाया कि संस्थान इस तरह का आयोजन हर साल करेगा । उन्होंने कहा कि आईआईएमसी परिवार के सभी सदस्यों में जीवंत संवाद के लिए एक वेबसाइट तैयार करने की भी योजना है। पहले सत्र में धन्यवाद ज्ञापन करते हुए हिंदी पत्रकारिता विभाग के लालबहादुर ओझा ने इस एल्युमुनाई मीट को एक संगम की संज्ञा di । इस मौके पर मौजूदा बैच के छात्रों से परिचय कराती एक वीडियो का भी प्रदर्शन किया गया।
दूसरे सत्र में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। इस मौके पर संस्थान के हिंदी पत्रकारिता विभाग से पढ़ाई करके निकले और अभी प्रमुख मीडिया संस्थानों में काम कर रहे varishtha लोगों ने अपने विचार व्यक्त किए और संस्थान से जुड़ी अपनी यादों को साझा किया.

Thursday, February 5, 2009

पत्रकारिता में संक्रमण का दौर - संतोष भारतीय

लोकतंत्र के तीन स्तंभों के समकक्ष मानी जाने वाली पत्रकारिता आज संक्रमण के दौर से गुज़र रही है। लेकिन इस दौर को ही सही मान लेना हमारे लिए न्यायसंगत नहीं। परिवर्तन के नियम के अनुसार इस विकट स्थिति मे भी परिवर्तन आएगा, जो अपेक्षाकृत सकारात्मक होगा। जरूरत है कि हम निराश हुए बिना अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वहन करें। ये बातें दुबारा प्रकाशित होने जा रहे साप्ताहिक ‘ चौथी दुनिया’ के प्रधान संपादक और पूर्व संसद सदस्य संतोष भारतीय ने ‘संपादक से मिलिए’ कार्यक्रम के दौरान भारतीय जनसंचार संस्थान में कहीं।उन्होंने छात्रों से कहा कि एक अच्छा पत्रकार बनने के लिए देश की राजनीति, राजनेताओं और सामाजिक आंदोलनों के बारे में गहराई से जानना चाहिए। श्री भारतीय ने कहा कि देश की बदहाली की शुरुआत अस्सी के दशक में ही हो गई थी, पर दुर्भाग्यवश हमारे नेता अभी तक उसी तरह का रणनीति का अनुसरण कर रहे हैं। इस स्थिति में हम पत्रकारों की ये नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है कि हम ऐसी स्थिति को बदलने के लिए प्रयत्न करें। किसी भी तरह के दबाव में ना आकर की गई पत्रकारिता ही हमें इस जड़ता से निज़ात दिला सकती है। एक सवाल के जवाब में संतोष भारतीय ने कहा कि किसी भी तरह के दबाव का कारण पत्रकार ख़ुद होता है, ना कि संपादक और मीडिया संस्थान। इस तरह के दबाव से बचने के लिए हमें दृढ़प्रतिज्ञ और आशावान रहना चाहिए। श्री भारतीय ने कलम की ताकत को तोप से ज़्यादा आक्रामक बताते हुए कहा कि कलम को प्रभावी ढंग से प्रयोग करने का तरीका हमें विकसित करना चाहिए। अगर हम ऐसा कर सके तो परिस्थितियां आसानी से बदली जा सकती हैं। पत्रकारिता के छात्रों को विशेष संदेश देते हुए उन्होंने भविष्य में कभी निराश न होने और हार ना मानने की बात कही। उन्होंने कहा कि आने वाला दौर आप सब पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डालने जा रहा है, निर्णय आपको ही लेना है कि आप समाज में जहर घोलने का काम करेंगे या अमृत घोलने का। रिपोर्ट रणवीर सिंह

Monday, February 2, 2009

अखबार 20 फीसद अगड़ों तक सीमित - राही

भारतीय जनसंचार संस्थान के हिन्दी पत्रकारिता विभाग में महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर आज का समय,पत्रकारिता और गांधी विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की गयी । इस मौके पर गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचन्द्र राही और गांधीवादी पत्रकार देवदत्त ने अपनी बात रखी। श्री राही ने कहा कि गांधीजी की पत्रकारिता समाज की कमजोरियों और कमियों को दूर कर स्वराज की स्थापना करने के लिए थी । उन्होंने पत्रकारिता के माध्यम से समाज की कुरीतियों और भेदभाव को मिटाने का बीड़ा उठाया था ।आज की परिस्थितियों पर चर्चा करते हुए श्री राही ने कहा कि बापू ने समाज के अंतिम आदमी के बेहतरी को विकास की कसौटी माना था । आज हम विकास को अलग नजरिए से देखने लगे हैं । सो, हालात मुश्किल होते जा रहे हैं । रामचन्द्र राही ने आज की पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्‍यक्‍त करते हुए कहा कि अखबारों में तो बस समाज के 20 फीसदी अगड़े तबके की बात होती है। ज़्यादातर पत्रकार और मीडिया हाउस समाज के उपेक्षित तबके की बात करने से परहेज करते हैं। प्रसिद्ध गांधीवादी पत्रकार देवदत्त ने कहा कि आज के पत्रकार सत्ता से जुडकर पत्रकारिता के आदर्शों और मूल्यों को भूल जाते हैं। हांलाकि उन्होंने यह भी कहा कि पत्रकारिता में आदर्श जैसी कोई चीज़ नहीं होती है। जिसे हम आदर्श कहते हैं वो हमारा काम है। पत्रकारिता में त्याग के लिए तैयार रहने की बात करते हुए देवदत्त ने कहा कि बिना समाज को जाने पत्रकारिता नहीं की जा सकती। समाज से कटकर कोई समाज की बात नहीं कर सकता। उन्होंने कहा कि समाज को समझने के लिए हमें पक्की सड़क को पार कर पगडंडियों पर चलने की जरूरत है। वहीं असली हिन्दुस्तान बसता है। संगोष्‍ठी का संचालन संस्थान के हिन्दी पत्रकारिता पाठ्यक्रम निदेशक डा0 आनंद प्रधान ने किया। इस अवसर पर छात्रों के प्रायोगिक अखबार दिल्ली एक्सप्रेस और दिल्ली मेल का विमोचन अतिथिद्वय ने किया । चेतना भाटिया ने ध्‍न्‍यवाद ज्ञापन किया ।