Monday, October 26, 2009

विश्लेषकों का अनुमान उल्टा पड़ा

हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव और पिछले दिनों हुए लोकसभा चुनावों
में चुनाव विश्लेषकों का अनुमान दोनों ही बार कुछ उल्टा पड़ता दिखाई
दिया। चुनावों को लेकर जो समीकरण बनाए जा रहे थे वे कहीं पर सही और कहीं
पर बिल्कुल उलट प्रतीत हुए। 
   हरियाणा में जहां कांग्रेस को क्लीन स्वीप बताया जा रहा था वहां उसे एक
एक जीतने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी। चुनाव विश्लेषक हरियाणा में
कांग्रेस को 55-60 सीटों पर जीता दिखा रहे थे लेकिन उसे 40 सीटों पर ही
संतोष करना पड़ा। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में लग रहा था कि कांग्रेस और
एनसीपी की राह आसान नहीं है लेकिन उसने 50% सीटें झटक ली। अरुणाचल प्रदेश
तो शुरु से ही कांग्रेस की झोली में था उसे आशाअनुरुप ही विजय मिली।
 आखिर क्या कारण था कि सरकार की लाख कमियों और नाकामयाबियों के बावजूद
जनता ने उन्हें दोबारा सत्ता में भेज दिया।
 दरअसल नतीजों के अनुसार कांग्रेस जीती नहीं बल्कि विपक्ष हार गया।
कांग्रेस ने केवल विपक्ष के बिखराव का ही फायदा उठाया है। कांग्रेस की
जीत एक तरह से जनता के समक्ष विकल्पों का अभाव का ही परिणाम है जनता के
पास और कोई ऐसा विकल्प नहीं था जिसे वह कांग्रेस के आगे रख कर विचार
करती। हरियाणा में भाजपा और लोकदल ने गठबंधन तोड़कर कांग्रेस का रास्ता
खुद ही साफ कर दिया और महाराष्ट्र में शिवसेना के गर्भ से निकली मनसे ने
भाजपा- शिवसेना के रास्ते में रोड़े अटका दिए। यही कारण है कि वहां
विपक्ष को पिछली बार से भी 26 कम सीटों से हाथ धोना पड़ा। हरियाणा में
भाजपा ने इस अनुमान के साथ कि अब चौटाला की साख नहीं रही, उससे किनारा कर
लिया लेकिन चौटाला ने 31 सीटें जीत कर परिस्थियों को उलट दिया।
 कहने का तात्पर्य है कि अगर विपक्ष चुनावों को लेकर जरा भी सावधान होती
तो शायद तस्वीर कुछ और ही होती।

महेंद्र

Sunday, October 25, 2009

किन्तु परन्तु वाली जीत

तीन राज्यों के विधान सभा चुनावों में, अरूणाचल में परिणाम पूर्णतया आशाके अनुकूल रहे तो महाराष्ट्र में भी प्रथम दृष्टया कांग्रेस ने बेहतरकिया। हरियाणा में भी सत्ता शीर्ष से फिसलने के बावजूद सत्ता पर कांग्रेसकी पकड़ बरकरार है अर्थात मतदाताओं ने पूरी तरह खारिज नहीं किया है। कुलमिलाकर कांग्रेस जीती तो जरुर है लेकिन "जीत" शानदार नहीं किन्तु परन्तुवाली है।महाराष्ट्र में कांग्रेस की बढ़त मनसे द्वारा कांग्रेस को दिया गयाप्रतिफल है । मनसे की बीती कारगुजारियों पर कांग्रेस के मूक समर्थन केबदले में । जिसने खुद 13 सीटें तो जीती हीं भाजपा-शिवसेना गठबन्धन कोतकरीबन 30-35 सीटों पर निर्णायक नुकसान पहुँचा डाला । बची-खुची कसर भाजपा-शिवसेना के लचर गठबन्धन संगठन और सुस्त पड़े निराश कार्यकर्ताओं ने पूराकर दिया ।अरूणाचल के चुनाव की झलक मुख्यमन्त्री दोरजी खांडू और उनके दो सहयोगियोंके निर्विरोध निर्वाचन से ही मिल गयी थी । अरूणांचल वासियों का चुनावोंमें पूरे उत्साह के साथ भाग लेना, पूर्ण बहुमत वाली स्थायी सरकार देना,मौजूदा परिस्थिति में अरूणांचल प्रदेश और कांग्रेस के लिए भी, बहुत हीसुखद है।हरियाणा का परिणाम वास्तव में कांग्रेस के लिए निराशाजनक रहा। कांग्रेसके लिेए यह चिन्तन का विषय होना चाहिये कि आखिर क्या वजह थी कि अभी कुछमहीने पहले 10 लोकसभा सीटों में से नौ सीटें जीतने वाली कांग्रेस पाँच-छमहीने के भीतर ही हरियाणा में क्यों लुढ़की जबकि पूरा विपक्ष बिखरा हुआथा। एक तरह से पूरा मैदान खाली था। ,कहीं ऐसा तो नहीं कि समय से पहले चुनाव कराने की रणनीति उल्टी पड़ गयी?मुझे लगता है कि हुड्डा की वन मैन आर्मी बनने की चाहत ने राज्य स्तरीयनेताओं के सहयोग से कांग्रेस को वंचित कर दिया।
रणविजय ओझा
चर्चा में

बेहतर विकल्प का अभाव




तीन राज्यों के चुनावी नतीजों ने भारतीय राजनीति की एक चिंतनीय मगर सच्ची
तस्वीर को दिखाया है जो वर्तमान राजनीति का हाल बयान करती है। कांग्रेस
की जीत से ज्यादा यह एक विकल्पहीन सत्ता पक्ष की जीत है जहाँ विपक्ष नाम
का चाँद पूर्णिमा के इंतजार में बेबस सा बैठा हुआ है। आज विपक्ष में एक
भी ऐसा नेता नहीं है जो कांग्रेस के घोषित युवराज के टक्कर का हो।
महाराष्ट्र में लगातार तीसरी बार कांग्रेस के सत्ता में आने का यदि कोई
कारण था तो वह कांग्रेस के विपक्षी गठबंधन में तालमेल का अभाव और वोटों
का बँटना। कांग्रेस ने पिछले 10 सालों में ऐसा कोई कमाल नहीं किया था कि
लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटती। लेकिन बेहतर विकल्प के अभाव में जनता
ने फिजूल में दिमाग पर जोर डालना मुनासिब नही समझा। बाकी की कसर राज
ठाकरे ने निकाल दी। उनकी मनसे ने 11 सीटों पर जीत तो हासिल की ही करीब 30
सीटों पर भाजपा-शिवसेना गठबँधन को हराने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हरियाणा के चुनावी नतीजों ने साफ दिखाया कि यदि वहाँ विपक्ष में एकता
होती तो सत्ता भी उसी के हाथ में होती। रही अरूणाचल-प्रदेश की बात है तो
वहाँ इतिहास में भी विपक्ष की कोई परंपरा नहीं रही है और इस दफे भी वही
हुआ। देश की राजनीति एक ऐसे रास्ते की तरफ जा रही है जहाँ शायद ना तो
विकल्पों की जगह होगी और ना ही परिवर्तन का उत्साह।
शशि

जीत तो आखिर जीत है




 

लोकसभा चुनावों के बाद पहले इम्तहान में कांग्रेस पास हो गई है। महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में वह तीसरी बार सत्ता में लौटी है। हरियाणा में जहाँ क्लीन स्वीप की बात की जा रही थी,वहाँ कांग्रेस बमुश्किल सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। अरूणाचल प्रदेश में परिणाम उम्मीद के अनुसार आये है।

 लेकिन जीत तो आखिर जीत होती है,इस बात से उसकी चमक कतई कम नही होती कि विपक्ष बिखरा हुआ था। जनता जनार्दन ने कांग्रेस के नेत़ृत्व में भरोसा जताया है। महाराष्ट्र में राज फैक्टर ने काम किया पर उतना नही जितना हाईलाइट किया जा रहा है। राज 2004 के चुनावों में शिवसेना-भाजपा के साथ थे, तब क्या हुआ था ? हरियाणा में हुड्डा का ओवरकोन्फिडेन्स कांग्रेस को ले डूबा।

खैर जो जीता वो सिकंदर, ये वक्त कांग्रेस के लिए जश्न मनाने का है। भाजपा को किसी एक सिर पर हार का ठीकरा फोड़ने की बजाय नेतृत्व में आमूलचूल परवर्तन करना चाहिए।


अरविन्द कुमार सेन

कमजोर विपक्ष


तीन राज्यों के चुनावी नतीजों का मतलब कांग्रेस की जीत से ज्यादा विकल्प
के रूप में कमजोर विपक्ष और उनके बिखराव से है। यह बात हरियाणा और
महाराष्ट्र में तो पूरी तरह से लागू होती है। महाराष्ट्र में लगातार
तीसरी बार कांग्रेस के सत्तासीन होने का यदि कोई कारण था तो वह विपक्ष और
एंटी कांग्रेस गठबंधन वोटों में विभाजन। कांग्रेस ने इन पाँच सालों में
ऐसा कुछ नहीं कर दी थी कि लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटती। लेकिन ऐसा
तब होता जब इससे बेहतर विकल्प मौजूद होता। जनता के समक्ष     भाजपा और
शिव सेना एक बेहतर विकल्प नहीं थी। रही-सही कसर राज ठाकरे ने निकाल दी।
यह लोकसभा चुनाव में भी देखने को मिला था। मनसे ने 11 सीटों पर जीत तो
हासिल की ही करीब 25 से 30 सीटों पर भाजपा-शिव सेना को हराने में भी
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
                                  हरियाणा के चुनावी नतीजों से तो साफ
है कि यदि यहाँ विपक्ष में एकता होती तो सत्ता भी उसी के हाथ में होती।
भाजपा के रणनीतिकार अकेले चुनाव लड़कर अब अफसोस ही करते होंगे। जहाँ तक
अरूणाचल प्रदेश की बात है तो वहाँ विपक्ष की कोई परंपरा ही नहीं रही है।
  भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच जो पहचान का संकट
कायम होते जा रहा है उससे जनता के लिए राजनीतिक परिवर्तन कोई मायने नहीं
रखता।
 
रजनीश

चर्चा में

 
 मैं आपकी राय जानना चाहता हूँ कि तीन राज्यों के विधान सभा चुनाव के
नतीजों के बारे में आप क्या सोचते हैं?
विचार का विषय है : " यह कांग्रेस की जीत नहीं है?"
आप अपनी राय अधिकतम १०० शब्दों में भेजें
ताकि चर्चा आगे बढ़ सके.
आनंद प्रधान



Thursday, October 1, 2009

नरेश [मात्र दिसम्बर २००८ तक का छात्र ] की चिठ्ठी, बिछुडे दोस्तों के नाम

कई दिनों बाद आज इन्टरनेट पर अपना जीमेल चेक किया.भेल के बारे में छपा सन्देश पढ़ा . आप सबकी टिप्पणिया भी पढी . आज आप दोस्तों से कुछ अनुभव बांटना चाहता हूँ . मेने दिसम्बर में आई आई ऍम सी को अलविदा कह दिया था . आज भी मेरे मन में ये बड़ी कसक है कि मै अपने डिप्लोमा को पूरा नही कर पाया. ये कसक आजीवन मेरे मन में रहेगी . पर दोस्तों इससे मेरे इरादों पर कोई फर्क नही पडा. मेरी पत्रकारिता जारी है और कुछ अलग तरह से जारी हें ,जिसके लिए मुझे किसी कैम्पस प्लेसमेंट कि आवश्कता नही है . मै हिमाचल के अपने गृहजिला सिरमौर में भारतीय जीवन बीमा निगम[एल आई सी ] में विकास अधिकारी के पद पर कार्यरत हू . पत्रकारिता मेरा मिशन और पेशन हे इसलिए छोटे लेवल पर ही सही लेकिन पत्रकारिता जारी हे.यहाँ ग्रामीणों से सीधे सम्वाद कायम करता हू और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करता हू, अनपढ़ और पिछडे लोगो के कामो में उनकी सहायता करता हू और उच्च पदों पर तेनात अपने दोस्तों से उनकी समस्याओ को दूर करने के बारे में बात करता हू. लोकल समाचार पत्रों में काम करने वाले मेरे पत्रकार साथी इस काम में मेरे हमेशा काम आते हे. यहाँ के स्कुलो में पदने वाले bacho को में आप जेसे विद्वान् साथियो के किस्से सुनाता हू और उनसे आप जेसा बनने कि अपील करता हू. अपने बेरोजगार साथियों को अखबार और इन्टरनेट के माध्यम से निकलने वाली भर्तियों कि जानकारी देता हू . कई साथियो को एल आई सी मै अभिकर्ता बनाकर उनको रोजगार दिलाया हें .आगे भी मेरी कई योजनाए हे . गजेन्द्र और आन्पुरना मेरे मिशन के बारे में कुछ कुछ जानते हे. अगर मेहनत और भाग्य ने साथ दिया तो कुछ वर्षो में हिमाचल में अपना अखबार निकालुगा. मै जनता हू कि काम बहुत मुश्किल हे लेकिन जब आई आई ऍम और आई आई टी के छात्रों के कारनामे पड़ता हू तो सोचता हू कि हम भी तो आई आई ऍम सी से हें फिर हम किस से कम हें. अगर वे प्रबंधन और तकनिकी के topper हे तो पत्रकारिता के topper तो हम भी हे. दोस्तों अगर उद्देश्य सही हो तो छोटा काम भी बहुत बड़ा बन सकता हे. मेरे पत्रकारिता के मूल्यों के लिए वह दिन बहुत सुकून भरा था जब मेरे समझाने पर मेरे एक केमिस्ट दोस्त ने नशे कि दवाईओं का कारोबार बंद कर दिया था. दोस्तों एसी रूम में बैठकर पेन घीसना पत्रकारिता नही , असली मकसद हे कि हम अपने समाज को किया देकर जाते हे. और इसलिए आज में अपने समाज में रहकर उनके लिए काम कर रहा हू. अनिल चमरिया सर ने पिछडो के लिए पत्रकारिता के शायद यही मायने समझाये थे.
धन्यवाद
नरेश [ रोल नम्बर २३ ] 09816101490