Saturday, March 20, 2010

उच्चारण

शिखा सिंह

 

 

 

अपनी भावनाओं ,विचारों और सूचना बताने के लिए हम भाषा का इस्तेमाल करते हैं। और भाषा गठन शब्दों से होता है। शब्द हमारी अभिव्यक्ति की इकाई होते हैं। हम शब्दों से ही वाक्य विन्यास होता है। वाक्य सूचना, विचार और भावनाओं को सम्प्रेषित करते हैं। यहां हम बोलकर और लिखकर सूचना सम्प्रेषण की बात कर रहे हैं। जब हम बोलकर अपने संदेश को प्रेषित करते हैं, तब शब्दों का वजन बढ जाता है। हमारा संदेश किसी को कितना प्रभावित करता है। प्रभावपूर्ण संदेश संप्रेषण हमारे उच्चारण पर निर्भर करता है। उच्चारण की एक गलती पूरी बात को बदल देती है।

 

हम सभी का उच्चारण या प्रननसियेशन हमारी पृष्ठभूमि निर्धारित करता है। हम किस समाज या किस प्रदेश से आ रहे हैं जैसे ऐसा माना जाता है उत्तर भारतीय लोगों की हिन्दी काफी अच्छी होती है। वहीं पश्चिम बंगाल के लोगों का हिन्दी में बंग्ला का पुट लिए होती है। यहां मेरी चर्चा का विषय हिन्दी भाषा नहीं है बल्कि उच्चारण है। यहां मैं उच्चारण को लेकर अपनी बात आप सबके सामने रखना चाहती हूं।

 

अक्सर ये देखने को मिलता है कि एक ही शब्द को लोग अलग- अलग तरह से उच्चारण बोलते हैं। अंग्रेजी भाषा में तो सबसे ज्यादा दिक्कत आती ेहै। विटामिन को वाइटामिन, एटिट्यूड , प्रोनाउनसिएशन ऐसे ढेरे शब्द है जिनको लेकर सही उच्चारण को लेकर क्या है। कोई नहीं जानता । उच्चापण की इसी समस्या के समाधान के लिए 2000 में इन्टरनेशनल फोनेटिक एसोसिएशन की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का उद्देश्य यह है कि ईन्टरनेशनल भाषा का उच्चारण पूरे विश्व में एक जैसा हो। भारत, ब्रिटेन, इंग्लैंड ऑस्ट्रेलिया फ्रान्स हर जगह अंग्रेजी बोली जाती है। हर देश के लोग अपनी सुविधानुसार उच्चारण करते है। इसकी कई खामियाँ सामने आती है। शब्द का वास्तविक उच्चारण खो जाता है और सुविधा वाला उच्चारण हावी हो जाता है। पूरे विश्व में एक समान अंग्रेजी बोले जाने के लिए यह ऑर्गनाईजेशन फोनेटिक डिक्शनरी बना चुकी है। जिसमें शब्दों के अर्थ के साथ-साथ अलग अलग चिन्ह बनाए गए है ये चिन्ह उच्चारण के संकेत हैं।

 

^...अ  cup  /k^p/

Double     /D^bal/

Monk       /m^nk/

^...ae

Cat        /kaet/

Stamp     /staemp/

Dad       /daed/

ये कुछ संकेत हैं जिनके माध्यम से एक समान उच्चारण किए जाने का प्रयास किया जा रहा है। और अब पूरी दुनिया इस उच्चारण पर अमल कर रही है। कुछ शब्द एक समान ध्वनि के साथ बोले जाते हैं जिन्हें डिपथांग्स कहते हैं। इसका विवरण भी दिया गया है। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है और कम्युनिकेशन के छात्रों से शुद्ध उच्चारण की आशा की जाती है।

हिन्दी भाषा में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो सही उच्चारण की पैरवी करे। इसीलिए इसमें स,श,ष,र,ड,को लेकर गलतियां बड़े पैमाने पर मतभेद बना हुआ है। और स्वान्त़: सुखाय उच्चारण अधिकतर लोग करते हैं।



Thursday, March 18, 2010

क्या भारतीय नागरिकों के जीवन की कीमत इतनी सस्ती है?


विकास की दिशा विनाशकारी हो और राजनीति का चरित्र जनविरोधी तब सत्तासीन लोगों के फैसले में इसकी झलक साफ दिख जाती है। केंद्र में सत्तारूढ़ यूपीए सरकार आजकल अपने अत्यंत महत्वकांक्षी परमाणु दायित्व विधेयक को लेकर काफी चर्चा में है। आम आदमी का हाथ अपने साथ बताकर सत्ता में आई इस सरकार का आम आदमी के सरोकारों से कितना वास्ता है यह एक बार फिर दिखाई देने लगा है। पहले महंगाई, किसानें की दुर्दशा और शिक्षा जैसे जनसाधारण से जुड़े मुददों पर अपने तेवर दिखा चुकी यह सरकार अब लोगों की सुरक्षा से खिलवाड़ करने के पथ पर अग्रसर होती दिखाई पर रही है।
विपक्ष के भारी विरोध को देखते हुए यह सरकार फिलहाल तो इस विधेयक को पेश करने से पीछे हट गई है मगर असल सवाल तो इस विधेयक के इतने तीव्र विरोध की पड़ताल का है। इस विधेयक के इतना मुखर विरोध होने के पीछे इसका जनविरोधी चरित्र ही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि जिस देश की जनता किसी दुर्घटना की शिकार हो उसे ही इसका हर्जाना भी उठाना पड़े! यही है इस विधेयक के कुरूप चेहरे की सच्चाई! विधेयक के पास होने की स्थिती में किसी भी दुर्घटना के बाद देनदारी की सीमा तय कर देने से सीमा के ऊपर के भुगतान में इस्तेमाल होने वाली धनराशी का बोझ भी भारतीय जनता पर पड़ेगा, जबकि आपूर्ति करनेवाली विदेशी कंपनियाँ मुक्त घूमेंगी।
जरा इस तथाकथित विकासोन्नमुखी(विनाशोन्नमुखी) विधेयक का इतिहास भी देख लेते हैँ! इसकी शुरूआत हुई वर्ष 2008 में अमेरिका के साथ हुए नागरिक परमाणु समझौते के साथ। इस समझौते के तहत अमेरिकी कांग्रेस ने परमाणु व्यापार सहयोग और परमाणु अप्रसार समझौते(एनसीएएनईए) जैसी कई शर्तों के बोझ तले भारत को दबाकर रख दिया। इस समझौते की कामयाबी का ढ़ोल पीटने वाले प्रधानमंत्री ने इससे अपने प्रेम के लिए भारतीय संसद की भूमिका बिलकुल गौण बनाकर रख दी। यहाँ तक कि उन्होंने संसद को इस समझौते के विभिन्न प्रावधानों के निरिक्षण के लायक भी नहीं समझा। मुख्य समझौते पर किनारे पर रखे गए संसद को अब इस विधेयक को पास कराने का जरिया बनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि परमाणु समझौते के वक्त हीं अमेरिकी कंपनियों ने इस तरह के विधेयक की माँग की थी जिससे उन्हें देनदारी के मामले में राहतों का पिटारा मिल सके। इस सिलसिले में एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि जिन वादों का हवाला देकर इस समझौते को बेचा गया था, उन्हें एक-एक करके तोड़ा जा रहा है। इसका सबसे प्रत्यक्ष उदाहरण पिछले महीने भारतीय रक्षा मंत्री द्वारा अपने अमेरिकी समकक्ष रॉबर्ट गेट्स से जताई गई वह चिंता है जिसमें उन्होंने अमेरिकी रक्षा संबंधी तकनीकों के निर्यात की लाइसेंस देने में की जा रही आनाकानी पर असंतोष जताया। यह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा 2008 में किए उन दावों की पोल खोलने के लिए काफी है जिसमें उन्होंने तकनीक के क्षेत्र में सभी प्रतिबंधों के खात्मे की घोषणा कर डाली थी। 2007 में इन्ही प्रधानमंत्री ने 123 समझौता पूरा होने के बाद कहा था कि इससे भारत को परमाणु ईंधन के पुर्नसंवर्धन का अधिकार मिल जाएगा, मगर आज 2010 में भी भारत इसके लिए अमेरिका के आगे गिड़गिराता नजर आ रहा है।
इस कड़ी का सबसे हास्यासपद पहलू इस समझौते को देश की अपार ऊर्जा जरूरतों का समाधान बताया जाना है। परमाणु ऊर्जा किसी भी देश की ऊर्जा जरूरतों का समाधान कतई नहीं हो सकता है। खासकर भारत जैसे विकासशील देश के लिए तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि किसी भी परमाणु संयंत्र को लगाने में सालों लग जाते हैं और लागत भी कमरतोड़ होती है। भारत में इस समझौते के तहत बिजली पैदा करने वाले संयंत्र को पूरा होने में कम से कम 2016 तक का समय लगने की बात कही जा रही है। लेकिन संयंत्र निर्माण में लगे तीनों मुख्य देशों अमेरिका, रूस और फ्रांस की कार्यप्रणाली को ध्यान में रखते हुए इसके 2020 से पहले अस्तित्व में आने की उम्मीद करना मूर्खता ही होगी। तीनों देशों में अग्रणी अमेरिका ने पिछले कई सालों में किसी भी संयंत्र का निर्माण नहीं किया है, जबकि रूस भी भारत के कुंडकुलम में बना रहे संयंत्र को लेकर संघर्ष करता ही नजर आ रहा है। फ्रांस की स्थिति भी सकारात्मक नहीं है। उसके दोनों संयंत्रों, जिसमें से एक उसकी जमीन पर ही बन रहा है और दूसरा फिनलैंड में, का काम समयसीमा से काफी पीछे चल रहा है और प्रस्तावित बजट से कहीं ज्यादा खर्च आने की भी संभावना है।
भारत में परमाणु संयंत्रों से बिजली पैदा करने की बात तो काफी जोर-शोर से की जा रही है मगर इस महत्वपूर्ण सवाल से बचा जा रहा है कि विदेशों से आयातित इन संयंत्रों से पैदा होने वाली बिजली पहले से महंगाई तले दबी जनता को और कितना दबाएगी। भारी मात्रा में सरकारी सब्सिडी मिलने के बावजूद 1990 में बने संयंत्र तीन रूपये प्रति यूनिट के आसपास बिजली उत्पादन कर रहे हैं जो परंपरागत बिजली दरों में भारी कटौती के दावों को खोखला साबित करता है। विदेशी संयंत्रों से मिलने वाली बिजली इस दर में भारी इजाफा करने वाली है क्योंकि इन कंपनियों को दी जानेवाली सब्सिडी का बोझ भी भारत की जनता को ही उठाना है। इन कंपनियों पर पूरी तरह मेहरबान इस अधिनियम में भारत में संयंत्र लगानेवाली कंपनियों की जिम्मेदारी को बहुत ही सीमित और हल्का बनाया गया है। दुर्घटना होने की सूरत में संबंधित कंपनी को अधिकतम 500 करोड़ रूपये का हर्जाना देकर मुक्त कर दिया जाएगा जो 1984 में हुए भोपाल गैस हादसे के पीड़ितों को मिले हर्जाने के एक चौथाई से भी कम होगा! मुआवजे की ज्यादातर जिम्मेवारी सरकार की होगी जो 2300 करोड़ रूपये से ज्यादा नहीं होगी। इन कंपनियों को कानूनी लिहाज से भी हद से ज्यादा छूट देने का प्रावधान इस विघेयक के जनविरोधी तेवर का सूचक है। विधेयक में इस बात का पूरा ध्यान रखा गया है कि हादसे के बाद इन कंपनियों को भारतीय अदालतों में नही घसीटा जा सके। मुकद्दमों का सामना करने की जिम्मेवारी भी भारत सरकार की ही होगी। उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया में शायद ही किसी और देश ने कभी पेश की होगी, जहाँ अपना घर लुटाकर दूसरों की विलासिता में इजाफा करने की जल्दबाजी साफ नजर आती है! इन कंपनियों से अपना स्नेह दर्शाने के चक्कर में भारत सरकार ने अपने नागरिकों के हितों को दांव पर लगाने तक में कोई कोताही नहीं बरती है। तभी तो इन्हें बाजार की खुली प्रतिस्पर्धा से बचाने का भी पुरजोड़ प्रयास किया जा रहा है। अमेरिका, रूस और फ्रांस की कंपनियों के लिए भारत में खासतौर पर जमीन की व्यवस्था तक की गई है।
शक की सूई तब और घूम जाती है जब हम भारत के सबसे चहेते दुकानदार अमेरिका में इस सिलसिले में बने नियमों पर एक नजर डालते हैं। अमेरिका में प्राइस एंडरसन अधिनियम, 1956 लागू है जिसके अनुसार मुआवजे की राशि 48,000 करोड़ रूपये से भी ज्यादा होती है। वहाँ मुआवजे में सरकार की कोई देनदारी नही होती है और कानूनी नियम-कायदे भी बहुत सख्त हैं। जर्मनी में तो मुआवजे को किसी भी सीमा तक ले जाने का प्रावधान है। अब सवाल यह उठता है कि क्या भारत के नागरिकों का जीवन इन देशों के मुकाबले कोई मूल्य नहीं रखता ? क्या सरकार ने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखी है कि वह नहीं देख पा रही है कि इन कंपनियों के भारत में व्यापार करने के उतावलेपन के पीछे का सच क्या है ? इस सिलसिले में एक और गौर करने वाली बात यह है कि 1986 में रूस के चेरनोबिल परमाणु हादसे के बाद से किसी भी देश ने इस तरह के पहल करने का उतावलापन नहीं दिखाया है। जिन देशों में सबसे ज्यादा परमाणु संयंत्र स्थापित हैं, वो भी ऐसे किसी अंतर्राष्ट्रीय उत्तरदायित्व संबंधी अधिनियम का समर्थन करते नहीं दिखाई पड़ रहे हैं। फिर भारत की इस उतावली की क्या वजह हो सकती है ? अमेरिका, चीन, जापान, रूस जैसे देशों में इसे लेकर कोई पहल नहीं होती दिखाई पड़ रही है। यह समझा जाना बेहद जरूरी है कि इस ढ़ीले-ढ़ाले विधेयक ने अगर कानून का शक्ल अख्तियार कर लिया तो इन कंपनियों का सारा ध्यान अपना मुनाफा बढ़ाने पर होगा, जहाँ तकनीकी गुणवत्ता से समझौते भी किए जा सकते हैं। यह समय विधेयक के प्रति उतावलापन दिखाने की जगह इस बात पर जोड़ देने का है कि नागरिकों की सुरक्षा से समझौता किसी कीमत पर नहीं किया जा सकता है। वैसे भी परमाणु हादसे से होने वाली तबाही अकल्पनीय है और हमें भोपाल हादसे से मिले सबकों को ध्यान में रखना चाहिए, जो एक परमाणु हादसे के मुकाबले कुछ भी नहीं था!

मैम साहब की माया

माया मेम साहब के गले से लिपटे हजार रूपए के अशंख नोट पर छपे बापू की तस्वीर, बापू के राम राज्य का कितना घटिया प्रतिबिंब था। दलितों को हरिजन से अलंकृत करने वाले बापू ने कभी भी ऐसा नही सोचा होगा कि समाज के हासिए से उठकर इनका (दलितो) एक प्रतिनिधि अपने धन के बल पर अपनी उन्नति का प्रर्दशन करेगा। जबकि वास्तव में बापू के जीवन काल से लेकर आज तक दलितों की स्थिति में मामूली बदलाव ही हुआ है। मायावती जैसे कुछ अपवादों को छोडकर गाँवों में रहने वाले दलितों की मासिक आय कुछ हजार – 2 हजार के बीच ही है। यहाँ तक नरेगा में भले ही रिकार्ड में इनके नाम आते है कमाता कोई और है। दलितों के नाम पर आई अब तक राज्य और केन्द्र सरकार की योजनाओं ने न जाने कितने अधिकारी और नेता टाइप लोगों का विकास झटके में कर डाला लेकिन गाँव का दलित अब भी रैलियों में बैठकर इस उम्मीद के साथ ताली बजाते हुए राजनीतिक ड्रामा देखता है कि शायद इस बार छलावा न हों। लेकिन हर बार आम आदमी के हिस्सें मे छलावे के अलावा कुछ नही आता ।माया मेम साहब लगातार उन कामों को कर रही हैं जिनमें दलितो का कोई उत्थान होता नही नजर आता । अब रूपयों की माला पहन कर वो कौन सा दलित उत्थान कर रही हैं। ये कौन उनसे पूछें।
मेरा गांव बच सके तो मेरी झोपड़ी जला दो............


भारतीय गणतंत्र की साठवीं सालगिरह की सुबह नई दिल्ली का ऐतिहासिक राजपथ घने कोहरे की चादर से ढका था। 5-10 मीटर के दायरे के बाहर कुछ नहीं दिख रहा था। लोग वायुसेना के जांबाजों के आसमानी करतब नहीं देख पाये। इसके बावजूद गणतंत्र दिवस परेड भव्य थी । लोंगो ने देश की सैन्य शक्ति और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को महसूस किया।


कार्यक्रम की शुरुआत प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति और कोरिया गणराज्य के राष्ट्रपति ली म्युंग के अतिथि मंच पर आगमन से हुई। इसके बाद राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रध्वज फहराया गया। बैंड द्बारा राष्ट्रगान की प्रस्तुति हुई और इक्कीस तोपों की सलामी दी गई।


सात बजे तक ऐसा लग रहा था कि मौसम साफ रहेगा और धूप खिलेगी। लेकिन सात बजे के बाद कोहरा छाने लगा। धुंध के कारण सड़क के उस पार बैठे लोगों को भी देखना मुश्किल हो गया। यहाँ तक कि अतिथि मंच भी नहीं दिखाई दे रहा था।

इसी मौसम में तय कार्यक्रम के मुताबिक दस बजे परेड आरम्भ हुई। परमवीर चक्र और अशोक चक्र विजेताओं के बाद घुड़सवार दस्ता राजपथ से होकर गुजरा। इसके बाद अर्जुन टैंक आया। एक-एक करके मल्टीपल रॉकेट लांच सिस्टम, इंजीनियर टोही वाहन- ‘सर्वत्र’ और संचार वाहन- ‘संयुक्ता’ का प्रदर्शन किया गया। राजपथ के दोनों तरफ लोग ही लोग दीख रहे थे। कड़ी ठंड और कुहासे के बावजूद लोगों की आँखों में उत्साह था,चमक थी। इसके बाद मार्च करती सेना की टुकड़ियाँ सामने से गुजरीं। कठोर अभ्यास से तराशी गई गति,एकता और लय अद्भुत थी।


डीआरडीओ (रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन) की ओर से हल्के लड़ाकू विमान तेजस, अग्नि-3 मिसाइल,शौर्य मिसइल और रोहिणी रेडार का प्रदर्शन किय गया।यह पहला मौका था जब तेजस राजपथ पर दुनिया के सामने आया। 3500 किमी रेंज की

अग्नि-3 मिसाइल को देखकर लोगों ने तालियों की गड़गड़ाहट से राष्ट्र भावना व्यक्त की।

सांस्कृतिक झांकी मनमोहक थी। राज्यों ने संस्कृति के विशिष्ट पहलू पेश किये। राजस्थान की ओर से जयपुर की खगोलीय वेधशाला की झांकी प्रस्तुत की गयी । मणिपुर की झांकी में “हियांग तनबा” दिखाया गया। हियांग तनबा एक परंपरागत नौकादौड़ है। इसका आयोजन राज्य की समृद्धि बढ़ाने के लिए किया जाता है। बिहार की झांकी में भागलपुर के रेशम उद्योग का प्रदर्शन किया गया। कर्नाटक की झांकी में आठवीं सदी में चालुक्य राजाओं द्वारा बनवाये गए पट्टादकल मंदिरों को दिखाया गया। मेघालय ने बांस ड्रिप सिंचाई को चित्रित किया। यह सिंचाई की 200 वर्ष पुरानी पद्धति है। जिसे खासी और जयंतिया पहाड़ियों के आदिवासी किसान सुपारी,पान या कालीमिर्च के फसलों के सिंचाई के लिये प्रयोग में लाते हैं। त्रिपुरा ने अपनी झांकी में महान संगीतकार सचिन देव बर्मन को दिखाया । जम्मू कश्मीर की झाँकी में राज्य के विभिन्न शिल्पों को दिखाया गया। छत्तीसगढ़ की झाँकी में कोटमसर की प्राचीन गुफाओँ के सौन्दर्य का चित्रण किया गया। केरल की झाँकी में वहाँ के एक धार्मिक त्यौहार ‘पदयानी’का चित्रण किया गया। पदयानी मध्य केरल में देवी काली के मंदिरों मे मनाया जाता है। इसमें सभी ग्रामीण जाति,पंथ के भेदभाव के बिना सक्रिय रूप में भाग लेते हैं। उत्तराखण्ड की झांकी में कुंभ मेले को दिखाया गया । समुद्र मंथन और हर की पौड़ी का दृश्य मनमोहक था ।


विभिन्न मंत्रालयों नें भी आकर्षक झांकियां प्रस्तुत कीं । संस्कृति मंत्रालय ने अपनी झांकी में भारत के वाद्य यंत्रो को दिखाया । इस झांकी में आभूषणो से अलंकृत वीणा,घुमावदार वाद्य यंत्र घुमसा , शंख, सुशीरावाद्य ,नाथवाद्य और बोर्तल का प्रदर्शन किया गया ।

रेल मंत्रालय की झांकी में भाप के इंजन को दिखाया गया । जनजातीय कार्य मंत्रालय की झांकी में वन्य अधिकार अधिनियम 2006 के जरिए देश की जनजातीय आबादी के अधिकारों को जनजातीय महिला की जीवंत मूर्ति के माध्यम से चित्रित किया गया । युवा कार्यक्रम तथा खेल मंत्रालय ने 19 वें राष्ठ्रमण्डल के आयोजन पर अपनी झांकी प्रस्तुत की । इसमें राष्ठ्रमंडल खेल 2010 के शुभंकर ‘शेरा’और स्टेडियमों

की झलक दिखायी गई । झांकियों के बाद राष्ट्रीय वीरता पुरुस्कार विजेता बच्चे राजपथ पर आये । लोगों ने हाथ हिलाकर उनका अभिवादन किया ।

सीमा सुरक्षा बल के जवानो नें मोटर साईकिलों पर करतब दिखाये । इन्हे देखकर रोंगटे खड़े हो गये। समारोह स्थल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ।

अब तक मौसम साफ हो गया था । धूप खिल गयी थी । विमानों द्वारा सलामी हुई और मौसम विज्ञान विभाग की ओर गुब्बारे छोड़े गये ।

पूरे कार्यक्रम के दौरान कमेंन्ट्री अच्छी रही। अंत में कमेंटेटर ने कहा –लिव इंडिया, फील इंडिया , लव इंडिया और कहा कि, “मेरा गाँव बच सके तो मेरी झोपड़ी जला दो”। यही गणतंत्र की भावना है । कुर्बालनियों के बिना कोई देश महान नहीं बनता।

गणतंत्र दिवस इसी भावना की महान याद है ।

Saturday, March 13, 2010

बच्चे पैदा करने की मशीन


औरतों को बच्चे पैदा करने चाहिएं, सियासत नहीं करनी चाहिए....कल्बे जब्बाद के इस बयान की मैं काफी इज्जत करता हूं....इस देश में सभी को अपनी राय रखने की पूरी तरह से आजादी है....तो कल्बे जब्बाद जैसा सोचते हैं उन्होंने उसी सोच के मुताबिक अपनी राय जाहिर कर दी....लेकिन अगर वो थोड़ा सा इतिहास पलटकर देखते तो शायद उनकी राय कुछ जुदा हो सकती थी....इस देश की कई महिलाओं ने देश के स्वाधीनता संग्राम में बढ-चढ़कर हिस्सा लिया और देश को आजादी दिलाने में उनकी भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है....अगर वो सारी महिलाएं सिर्फ बच्चे पैदा करने पर ही ध्यान देती तो देश की तस्वीर कुछ और हो सकती....इतिहास बिल्कुल अलग होता....कल्पना कीजिए सभी महिलाएं बच्चे पैदा करने पर ही पूरा ध्यान देती....तो इतिहास में उनका नाम कुछ यूं लिया जाता....उस महिला ने साल 1947 में करीब पचास बच्चों को जन्म दिया....देश की भावी पीढी के लिए एक मिसाल कायम होती और लोग उन्हें आदर्श मानकर उनके नक्शे कदम पर चला करते....किसी के पचास बच्चे, किसी के सौ बच्चे ....पता नहीं ये आंकड़ा कहां जाकर थमता....देश में महिलाओं का जो इतिहास है वो पूरी तरह से पलट जाता....देश में जहां महिलाओं के लिए संसद में 33 फीसदी आरक्षण की बात की जा रही है....ऐसे में कल्बे जब्बाद का ये बयान पूरी तरह से पुरुषों की महिलाओं के लिए संकीर्ण मानसिकता को दर्शाता है....लेकिन मैं कल्बे जब्बाद के इस बयान की काफी इज्जत करता हूं क्योंकि इस देश में सभी को अपनी राय रखने की आजादी है....

मीडिया में पत्रकारों की दशा

मीडिया का दायरा लगातार बढ़ता जा रहा है और मीडिया मालिकों की आमदनी में भी बढ़ोत्तरी हुई है। पर मीडिया में काम करने वालों पत्रकारों की आमदनी में कोई भी बढ़ोत्तरी का कोई भी पैमाना नही है। श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1955 पत्रकारों के लिए बनाया गया जिसमें बदलते समय के साथ कोई भी परिवर्तन नहीं किया गया। कोई भी मीडिया संस्थान चाहे प्रिंट, रेडियो और टेलीविजन कोई भी हो, युवाओं को सपनों को तोड़ते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। सभी मीडिया संस्थानों में इंटरर्नशिप के नाम पर महीनों काम कराया जा रहा है। सबसे पहले रेडियो सिटी के विषय में आप जानिए हर महीने तीन लोगों को तीन महीनें की इंटरर्नशिप पर रखता है। मजदूरो से भी बुरी तरह काम कराया जाता है क्योंकि उन्हें इन तीन महीनो में एक भी रूप्या नहीं दिया जाता है जबकि मजदूर कम से कम अपरी दिहाड़ी तो पा जाते हैं। चैनल के लोगों को कहना है कि हम थोड़ी न बुलाते हैं लोग खुद चलकर आते हैं। मतलब साफ है कि तीन महीने जमकर कर काम कराओ और फिर तीन महीने बाद नए इंटरर्न ले लो। एक इंगलिश न्यूज चैनल न्यूज एक्स लोगो को पहले इंटरर्न के नाम पर लेता है दो महीने काम लेता है और फिर बाहर का रास्ता दिखा देता है। मीडिया की पढ़ाई करने वाले को साफ बता देना चाहिए कि यह एक व्यावसायिक पाठ्यक्रम है। पढ़ाने वाले को साफ तस्वीर रखनी चाहिए। इसी बात को लेकर मेरी कई बार हमारे पूर्व शिक्षकों से काफी बात हो चुकी है। बात स्नातक के स्तर पर पत्रकारिता को लेकर थी हमनें साफ कह दिया कि स्नातक में पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद कम से कम ये तो समझ जाता है कि वो खुद पत्रकारिता कर पाएगा या नहीं। बल्कि जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है और पोस्ट गेएजुएट स्तर पर ही पत्रकारिता करने के बाद अपना सिर पीटते नजर आते हैं। एक सुनिश्चित करियर लोगों के लिए दूसरी राह भी खोलता है पर यहाँ एक करियर ही सुनिश्चित नजर नहीं आता है। कुछ समय पहले लोगों को मीडिया से आर्थिक मंदी के नाम पर जमकर निकाला गया। यही नहीं समूह के विस्तार के नाम पर सिर्फ़ 150 लोगों को सीएनबीसी आवाज से निकाल दिया गया। एक काम ये भी तो किया जा सकता था कि उनकी सैलरी को घटा दिया जाता। कम से कम सड़क पर आने से पहले अपने और अपने परिवार के लिए कुछ तो इंतजाम कर लेते। आपका परिवार आप पर निर्भर रहता है और आप मीडिया मालिकों पर जो पता नहीं कब लात मार कर आप को निकाल दें। आप अंग्रेजी और हिंदी के मीडिया में भी ये अंतर देख सकते हैं। लाभ सबसे ज्यादा हिंदी के मालिक कमा रहे हैं और वेतन के मामले में अंग्रेजी अखबारों से मीलों दूर दिखते हैं। काम करने की आजादी भी अंग्रेजी वाले दे रहे हैं। गलती हमसे ही कही हुई है कि हम क्यों नहीं समझ पाए कि क्या कुछ हमारे साथ हो रहा है । कट, कापी और पेस्ट की दुनिया अब सिमटी हुई तो नजर आती है पर हर सख्स परेशान सा क्यों है इसको समझना आसान होकर भी मुश्किल होता जा रहा है। देश के बाकी तीन खम्भों की हर प्रक्रिया सुनिश्चित की गयी है आखिर चोथे खम्बे के अर्थात क्यों पत्रकारिता में पत्रकारों की जॉब के लिए कोई नियम कानून क्यों नही बनाये गए हैं।

Wednesday, March 10, 2010

निशाँ

बदलते मौसम बदलते मंज़र
जो तुमने देखे,जो हमने देखे
बदलते तेवर ज़माने लाये
जो हमने तुमने थे साथ देखे

न हम कभी भी हुए तुम्हारे
न तुम भी थे हुए हमारे
बंधी थे तुमसे जिसके सहारे
थी मेरी सरहद मेरे किनारे

यहीं कहीं पे वो एक तुम थे,
यहीं कहीं पे वो एक हम थे
बता रहीं है बची ये सरहद
सुना रहे है बचे किनारे

न अब हो तुम ना तुम्हारी बातें
न अब हूँ में ना पुरानी यादें
बची हैं सरहद बचे किनारे
दिखा रहे है निशाँ हमारे


शिखा सिंह

Monday, March 8, 2010

हाथी की ताकत का एहसास कराएंगी माया

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव भले ही 26 माह बाद होने हैं। पर चुनावों की जमीन और सत्ता पर काबिज़ होने की धमक अभी से कानों में सुनाई पड़ने लगी है। फरवरी से उत्तर प्रदेश में प्रर्दशनों की बौछार विपक्षी पार्टियों की तरफ से राज्य में शासित बहुजन समाज पार्टी के लिए एक नई मुसीबत बनती जा रही है। कानपुर में हुए बलात्कार को लेकर कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी के नेतृत्व में किए गए प्रदर्शन से इसकी शुरूआत हुई । वहीं 25 फरवरी को भाजपा ने प्रदेश बंद का ऐलान कर एक नई चुनौती पेश की। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह भी पानी की मोटी बौछारों के बीच 1 मार्च को राजधानी लखनऊ में महगांई को लेकर कुर्सी पटकते नजर आए। कांग्रेस और भाजपा का प्रदर्शन समाजवादी पार्टीं को कुछ बैचेन कर रहा था तो उसने भी 8 मार्च से गाँवों मे साइकिल रैली करने की घोषणा कर कर दी है। देश के सबसे बड़े राज्य पर राज करने वाली और हाथी को लखनऊ से नोएडा तक पत्थरों में सजाने वाली मुख्यमंत्री मायावती कैसे न अपनी हनक दिखातीं। रही सही कसर उन्होनें पूरी कर दी और 15 मार्च को बसपा पार्टी के स्थापना की रजत जयंती समारोह के मनाने के बहाने लखनऊ में एक विशाल रैली का आयाेिजत करने जा रही है जिससे विरोधी दलो को अपनी ताकत का एहसास कराया जा सके और विरोधी दल किसी तरह की गफलत में न दिखें। 1984 में बनी बसपा को अपनी रजत जयंती पिछले वर्ष 2009 में ही मनानी थी लेकिन लोकसभा चुनाव होने के कारण ये समोराह टाल दिया गया था। इस वर्ष 2010 में पार्टी के संस्थापक स्वर्गीय काशीराम के जन्म दिवस के अवसर पर विशाल रैली के साथ ही रजत जयंती समारोह मनाने की घोषणा की है। माया की नजर राहुल गांधाी पर भी है और राहुल की नजर अब रायबरेली, अमेठी से आगे जाकर कैफी आजमी के शहर आजमगढ़ और सूखे की मार झेल रहे बुदेलखंड पर इनायत हो गई है। अभी हाल में ही सोनिया गांधाी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली में एक पुल के शिलान्यास से मचे विवाद की गूंज भी संसद में गूंजना दोनो पर्टियों के बीच सत्ता में काबिज रहने के लिए प्रयोग किए जाने वाले हथियारों की कहानी कह रही है। वर्तमान में उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के 226 विधायक हाथी पर सवार है, समाजवादी पार्टी के साइकिल के पहिए की हवा कम है पर 87 विधायक साइकिल चला रहे हैं। कमल के 48 फूल लिए भाजपा विधायक विधानसभा में हैं।कांग्रेस हाथ के पंजे के रूप में 20 विधायक और गन्ना किसानों का रस चूसने वाले राष्ट्रीय लोकदल के 10 विधायक हैं। नौ विधायकों जिसमें से कुछ बाहुबली का दर्जा पाए है को किसी पार्टी का साथ न मिला तो वो निर्दलीय ही हो गए। मायावती ने दरकिनार किया तो अपनी अलग राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी बनाकर अपना स्वाभिमान बचाए रखे हुए आर0 के0 चौधरी हैं। डुमरियागंज की सीट अभी भी अपने विधायक के इंतज़ार में है।
सचिन यादव छात्र हिंदी पत्रकारिता भारतीय जनसंचार संस्थान, नयी दिल्ली।

Friday, March 5, 2010

सचिन तेंदुलकर और उसका खेल महान नहीं है...

सचिन तेंदुलकर की नाबाद 200 रनों की पारी और भारत का किक्रेट के टेस्ट प्रारूप में नंबर एक और वन-डे में नंबर दो बनना भारतीय मीडिया में किक्रेट को फिर से सुर्खियां बना देता है। इसी बहाने सचिन के अंध भक्त उन्हें एक बार फिर क्रिकेट का सर्वकालिक महान खिलाड़ी बनाने के धंधे में जुट गये हैं। इसके अलावा एक और मुहिम छेड़ दी गई है, सचिन को भारत रत्न दिलवाने की। और छुपे शब्दों में ही सही सचिन ने भी इस सम्मान के प्रति अपनी चाह जता दी है। यानी लाबीईंग शुरू हो चुकी है। और संसद में यह मुद्दा उठने पर सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने आपसी मतभेदों से इतर इस पर अपनी सहमति भी जताई है।

यहां पर सचिन के महान हो जाने की पड़ताल की जा रही है। एक खिलाड़ी के रूप में, हो सका तो एक भारतीय के रूप में और एक इंसान के रूप में भी। पर उससे पहले खेल के चरित्र खासकर किक्रेट के चरित्र को समझने की भी एक कोशिश। कहा जाता है कि खेल हमारे दैनिक जीवन का अति आवश्यक अंग होते हैं। यह हमारे अच्छे स्वास्थय और चरित्र(मजबूती, धैर्य, साहस, सहनशीलता आदि) निर्माण में भी सहायक होते हैं। लेकिन आज हम में से कितने लोग रोज कुछ भी खेल पाते हैं। खेल तो अब देखा और बेचा ही जाता है। बाजार प्रायोजित खेल किसी भी देश का भला नहीं कर सकते। जैसा कि सेप ब्लाटर(फीफा अध्यक्ष) का उदाहरण देते हुए प्रवीण कहते हैं कि, "फुटबाल पिछड़े और विकासशील देशों के लिए प्रगति और संपन्नता का औजार है।" सेप ब्लाटर से पूछा जाना चाहिए कि फुटबाल विश्व कप के पांच बार के विजेता और दो बार के उपविजेता, एक पिछड़े और विकासशील देश, ब्राजील का इस खेल ने कितना भला किया है। इसी तरह प्रवीण से भी पूछा जाना चाहिए कि क्रिकेट ने एशिया या भारत का, जहां इसका चरम देखने को मिलता है, कितना भला किया है।
आज भारत का हर क्रिकेट मैच खास होता है। इसे देखने के लिए लोग अपने काम के दिनों में छुट्टियां तक लेते हैं। अगर ऑफिस में ही रहना हुआ बॉस से लेकर चपरासी तक सभी लोग भेदभाव भुला कर टीवी सेट से चिपके रहते हैं। चाहे ऑफिस सरकारी हो या निजी संस्थान सभी जगह एक सा आलम रहता है। पूरी सड़कें, गलियां सुनसान हो जाती हैं। जीतने पर मिठाइयां बांटी जाती हैं। पटाखे छोड़े जाते हैं। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्रिकेट ने इस देश का कितना नुकसान किया है। हर मैच के दिन सामान्य दिनों की तुलना में कितना काम कम होता है। इस तरह से तो देश का कोई भला नहीं हो रहा और आगे भी ऐसे ही आसार हैं।
आशीष नंदी अपनी किताब 'The Tao Of Cricket' (1989) में भारत बल्कि पूरे भारतीय महाद्वीप में टेस्ट क्रिकेट के इंग्लैंड से भी ज्याद प्रचलित हो जाने के कारणों की खोज करते हैं। और इसी क्षेत्र में टेस्ट मैचों के ज्यादातर अनिर्णित समाप्त होने का कारण इन देशों के लोगों का जोखिम उठाने के बजाए भाग्य जैसी चीजों पर विश्वास और परम् संतोषी होना बताते हैं। इसी दौर में पश्चिमी देशों में ज्यादा टेस्ट मैचों के परिणाम निकला करते थे। आज स्थिति उलट है। यहां अवश्यंभावी परिणाम निकलने वाले, T-20 मैच सबसे ज्यादा पसंद किये और खेले जाते हैं। लेकिन इसका कारण यह नहीं है कि अब भारतीय या भारतीय उपमहाद्वीप के लोग कर्म को भाग्य पर प्रमुखता देने लगे हैं। बल्कि क्रिकेट को तो आज धर्म कह कर प्रचारित किया जाता है। इसमें जीतने पर खिलाड़ियों को देवता और हारने पर गद्दार, कामचोर और भी बहुत कुछ कहा जाता है। आज भारतीय उपमहाद्वीप में क्रिकेट कट्टरता और अनावश्यक उन्माद के फैलते जाने का एक साधन भी बन गया है। खिलाड़ी भी महज पैसे के लिए(खेलभावना से दूर) खेलते हैं, जल्दी और ज्यादा कमाई वाले प्रारुप को चुनते हैं। बीसीसीआई और अकूत कमाई के लिए खेलते खिलाड़ी देश के खिलाड़ी, देश की शान बताए जाते हैं।
बात अगर सचिन की नाबाद 200 रन की पारी की की जाए तो वह पूर्व में दो बार ऐसा करते करते रह गये थे। एक बार न्यूजीलैंड के खिलाफ 186 रनों पर नाबाद रहे थे तो दूसरी बार ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 175 रन बनाकर आउट हुए और प्रभाष जोशी को भी चलता कर गये। इस बार की पारी वाकई शानदार थी, लगभग बेदाग भी। लेकिन जिस बॉलिंग के खिलाफ और पिच पर यह कारनामा किया गया उसका भी इन 200 रनों में कुछ हाथ था। सचिन ने 200 रन, 147 गेंदे खर्च कर, 25 चौकों के साथ 136 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट से बनाए। वन-डे क्रिकेट में स्ट्राइक रेट का बड़ा महत्व होता है। भारतीय मीडिया ने एकिदवसीय क्रिकेट के इस पहले दोहरे शतकवीर को सिर-आंखों पर बैठाया। लेकिन सचिन से पहले भी यह कारनामा हो चुका था। अब सवाल यह उठता है कि यह सब जानते हुए भी सचिन की जय-जयकार क्यों हो रही थी। महज इसीलिए नहीं कि वह भारतीय हैं बल्कि इसीलिए भी क्योंकि वह एक पुरुष होने का विशेषाधिकार भी रखते हैं। सचिन से पहले यह कारनामा ऑस्ट्रेलिया की महिला खिलाड़ी बी.जे. क्लार्क अंजाम दे चुकी थीं। उनसे भी बेहतरीन अंदाज में। महज 155 गेदों में 147 से ज्यादा के स्ट्राइक रेट से 22 चौकों के साथ नाबाद 229 रन बना कर। यह काम क्लार्क ने भारत में ही, 1997 में किया था, मगर हमें इसकी खबर नहीं है।
हो सकता हे कि हम में से कई लोग यह बात न जानते हों पर सचिन को यह मालूम न होगा ऐसा कहना बेवकूफी होगी। सचिन अगर एक महान खिलाड़ी और समझदार आदमी होते तो वह सामने आकर मीडिया के इस दोगलेपन और झूठ की पोल खोलते, लेकिन वह तो अपनी शानदार पारी, भविष्य की योजनाओं, अपने सपनों और भारत रत्न पाने की ख्वाहिश जताते ही दिखे। इस खेल में शामिल होती शारीरिक ताकत और क्रूरता हमेशा से महिलाओं को दोयम दर्जे का खिलाड़ी मानती है। वैसे भी सचिन कितने बड़े भारतीय हैं, यह उन्होंने 2002 में विदेश से उपहार स्वरूप मिली फरारी कार को भारी टैक्स से छूट दिलवा कर(बकायदा कानून में संशोधन करवा कर, 2003 में) दिखा ही दिया था। इस कारनामे का कारण वही महानता थी जो आज उन्हें भारत रत्न दिलाने के पीछे काम कर रही है।
खिलाड़ी के रूप में सचिन की तुलना ब्रेडमेन और लारा के साथ ही की जाती है(सुनील गावस्कर, रिचर्डस, स्टीव वॉ, रिकी पोंटिंग आदि अब पीछे रह गये हैं)। ब्रेडमेन और लारा दोनों क्रिकेट के सर्वाधिक मान्य प्ररूप टेस्ट के महान खिलाड़ी हैं जबकि तेंदुलकर के रिकार्ड टेस्ट में कम बेहतर हैं। ब्रेडमेन तब क्रिकेट खेलते थे जब हैलमेट और दूसरे बॉडी कवर्स ईजाद नहीं हुए थे। इसके अलावा एक दिन में सिर्फ 72 ओवरों का खेल होता था। फिर भी भी ब्रेडमेन दो बार 300 पार पहुंचे थे और एक बार तो एक ही दिन में। प्रथम श्रेणी में उनका उच्चतम स्कोर 452 नाबाद रहा था। ब्रायन लारा ने टेस्ट में 375 रन बना कर एक बारगी सभी को पीछे छोड़ दिया था। मैथ्यू हेडेन के 380 रन बनाने पर वे 400 नाबाद रन बनाकर फिर से सबसे आगे हो गये थे(अभी भी)। प्रथम श्रेणी का उच्चतम स्कोर भी उनके ही नाम है- 501 नाबाद। इनके मुकाबले सचिन का सर्वश्रेष्ठ स्कोर टेस्ट और प्रथम श्रेणी क्रिकेट में 248 नाबाद है। आंकड़े किसी को बेहतर साबित नहीं करते लेकिन टेस्ट मैचों के आवश्यक गुण विकेट पर देर तक टिकने को तो बताते ही हैं। प्रभाष जोशी के शब्दों में कहें तो ब्रेडमेन और लारा दोनों में ही सचिन से ज्यादा धारण कर सकने की क्षमता है।

Tuesday, March 2, 2010

सबसे बड़ी उपलब्धि होगी...



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किसी ने ठीक ही कहा है कि सच बोलने वाले को किसी का डर नहीं होता है। इसे जानने
के लिए हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। प्रभाष जोशी का पूरा जीवन ऐसे ही
उपलब्धियों से भरा है। सिर्फ पत्रकारिता ही नहीं निजी जीवन में भी हमेशा अपने
शर्तों पर काम किया। हिन्दी पत्रकारिता को शिखर पर पहुंचाने वाले जोशी जी सदा
सक्रिय और संघर्षशील रहे। प्रभाष जोशी को प्रत्यक्ष रूप से सुनने का मौका मुझे
तीन बार मिला। उन मुलाकातों में उनको करीब से जानने का मौका मिला। उनके
व्यक्तित्व से मैं बहुत प्रभावित हुआ। उनके आदर्श और उनके जीवन को रत्तीभर भी
अपने जीवन में उतार पाया तो यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।