Monday, August 17, 2009

एक ईकाई का कम हो जाना...

गजेन्द्र का वाजिब सवाल! हमने क्या किया है, जो हम सीनियर कहलायें! नए छात्र-छात्राएं किस मायने में जूनियर कहे जायेंगे?
क्या सिर्फ इसलिए कि वह हमसे एक साल बाद पैदा हुए या हम उनसे एक सेमेस्टर पहले भारतीय जन संचार संस्थान में आये? क्या सिर्फ यही वजह काफी है उनको अपने से कमतर ईकाई मानने की. इस सीनियर और जूनियर हो जाने का अहसास, सीनियर कहलवाने की चाह हकीकत में कुछ ज्यादा ही भयावह होती है। उम्मीद है एक साल बाद गजेन्द्र नए बच्चों(इन्टर्नस) से पानी नहीं मंगवाएंगे, उनके अपने चारों और खड़े होकर आदेश का तत्परता से पालन करने को अपनी उपलब्धि नहीं मानेंगे.

अपने यहाँ समझा जाता है कि अगर आप उम्र में छोटे हैं तो आप कम प्राप्ति के अधिकारी हैं. यह कम प्राप्ति आपको हर जगह देखने को मिलेगी, चाहे वह आपके अधिकारों में हो या सम्मान में! यानि आपको एक कमतर ईकाई का जीव माना जायेगा! उदाहरण के लिए, मान लीजिये आप बच्चे हैं और बस में सफ़र कर रहे हैं. संयोग से आपको सीट हासिल है, तभी आपके परिचित(उम्र में बड़े) उसी बस में आते हैं लेकिन उन्हें सीट नहीं मिलती है तो ये शिष्टाचार का तकाजा है कि आप उन्हें अपनी सीट दे दें. इस शिष्टाचार की भेंट कम उम्र ही चढेंगे. इसी कड़ी में ज़यादा भयावह तथ्य ये है कि कई अभिभावक अपने बच्चों की पिटाई को इस तर्क से जायज ठहराते हैं कि वह अपने बच्चों को ज्यादा बेहतर जानते हैं इसीलिए उन्हें मालूम है कि कैसे बच्चों को सुधारा जाए. इस मामले में ज्यादा खीझ तब होती है जब खुद को जागरूक, सजग, चेतनाशील, प्रगतिशील मानने वाले तबके से ऐसा व्यवहार देखने को मिलता है. खुद को बॉस, सर कहलवाने की चाह इसी का एक नमूना है.

Tuesday, August 4, 2009

माँ होने का मतलब

भड़ास में कल एक पोस्ट "क्या वो भी माँ थी" पढ़ी. उसमें किसी अज्ञात महिला के अपने नवजात शिशु को फिर से जंगल में फेंके जाने पर चिंता जताई गयी है. उस महिला के माँ कहलाने पर प्रश्न उठाया गया है. जानवरों की दुनिया का उदाहरण देकर उसकी तुच्छता साबित करने की कोशिश की गयी है.

सवाल यह है कि माँ को, उसके ममतत्व को महान बताने, बनाने के पीछे क्या इरादे रहे हैं? किसी लडकी का शादी के बिना ही माँ बन जाना उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है. एक बच्चे को जन्म देने के लिए उसके पास शादी नाम का प्रमाण-पत्र होना जरूरी होता है(ताकि बाप का नाम पता चल सके). इस तरह अगर किसी बच्चे के पैदा होने के बाद उसका बाप उसे अपना नाम नहीं देना चाहता तो उस बच्चे की माँ उसे पैदा करके अपने और बच्चे के लिए क्यों अकेली मुसीबत मोल ले? जानवरों की दुनिया में बाप की पहचान मायने नहीं रखती. अगर वहां भी बाप की पहचान जरूरी हो जाये तो भी शायद पिता जानवर दुम दबाकर उस तरह नहीं भागेगा जिस तरह इन्सान भागा करता है.
आखिर क्यों और कब से इस उपाय की जरूरत पड़ी? महाभारत काल में भी कुंती को शादी से पहले ही कर्ण के पैदा हो जाने पर उसे नदी में बहाना पड़ा था. अगर कुंती कर्ण को अपना लेती तो क्या उसे सम्मानजनक जीवन जीने दिया जाता? कुंती को भी उस समय में कर्ण के पिता का नाम पूछे जाने का डर न होता तो बहुत संभव था कि वो उसे अपना लेती. कुंती को भी उस समय में निर्दयी कहा गया था. उसी तरह के समाज में रहते हुए उसी तरह के तरीकों को आज भी अपनाया जाता है.