Thursday, March 5, 2009

असीम सहिबाबादी की रचना ...एक रिक्सावाले की व्यथा


परिंदा हूँ ये फितरत है, मेरा उड़ना नही जाता ,
जमीं पर आ तो जाता हूँ मगर ठहरा नही जाता।
बियाबानो के पौधों की तरह है,ज़िन्दगी अपनी ,
हम अपने दम पे बढते हैं हमें पाला नही जाता ।
वही आटे की रोटी है ,वही आटे की चिड़िया है ,
खिलौना हमको रोने पर कभी लाया नही जाता ।
अटक जाते है , जब सूखे निवाले मेरे बच्चों के ,
मैं मुहं फेर लेता हूँ , उधर देखा नही जाता ।
अभी है पाँव कुछ छोटे नही आते है पैडल तक ,
वो रिक्शा खींचता तो है मगर खींचा नही जाता ।

No comments:

Post a Comment