Tuesday, March 31, 2009

किस्सा

एक किस्सा सभी को बताना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ की आप लोग इसका मतलब अपने आप निकालें । दिल्ली चंडीगढ़ बस से दिल्ली आते हुए एक शख्स पानीपत से बस में चदाऔर मेरे साथवाली सीट पर बैठ गए । उनसे बातचीत शुरू हुई तो पता चला की वे कस्टम क्लीनिंग का काम करते हैं। उन्हें जब पता चला की मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हूँ, तो मुझे कहने लगे - फिर आप से तो सब डरते होंगे.मैंने कहा की हम तो लोगों के लिए काम करते हैं , हम से सिर्फ़ उन्हें डरने की ज़रूरत है जो कुछ ग़लत करते हैं या जिनके काम में कुछ गड़बड़ या कमी है। फिर वे बोले - आजकल अगर कोई बता भी दे की यहाँ पर ये ग़लत हो रहा है तो एक बार तो वो आके कवरेज कर लेंगेएक फिर आपको लोग कहेंगे की चलो बाहर निकलो घर से.लोग पुलिस से ज्यादा मीडिया से डरते हैं।

जब मैंने उसे शुरू में बताया की मैं पत्रकारिता पढ़ रही हूँ, तो वो बोले - आप तो फिर आज तक, एनडीटीवी इन सब में काम करते होगे। आपको तो बहुत मज़ा आता होगा। आप के शहर में तो सब आपसे डरते होंगे। आप भी न्यूज़ पढ़ते हो ?

आईआईएमसी की यादों को साझा करें

औपचारिक तौर पर आज हमारे बैच का आखिरी दिन है। आज के बाद जहां कुछ लोग किसी संस्थान में नौकरी करने चले जाएंगे वहीं अन्य लोग अलग-अलग मीडिया संस्थानों में इंटर्नशिप करने चले जाएंगे। सही मायने में यह एक नई पारी की शुरुआत है। पर हम जहां भी रहेंगे, आईआईएमसी के क्लास रूम में और संस्थान के कैंपस में बिताए गए दिनों की यादें जेहन में बरकरार रहेंगी। समय-समय पर ये आपको संस्थान में लाती भी रहेंगी। पाठयक्रम के दौरान सबने सही मायने में खुद को जिया है। शब्दों से खेलना उस पत्रकार बिरादरी का पेशा है जिसमें हम सब शामिल हो गए हैं। इसलिए मेरा सुझाव बस इतना है कि इन यादों को शब्दों में बांधकर संवाद पर बयां कर दीजिए। आप सबका सहयोग रहा तो पाठयक्रम के दौरान के कुछ तस्वीरों को इन शब्दों के संग सहेजते हुए एक स्मारिका भी प्रकाशित करने की कोशिश की जा सकती है। जो हमारी यादों का दस्तावेजीकरण होगा।

सवाल नीयत में खोट का

हिमांशु शेखर
प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद एक मर्तबा फिर आत्मनियमन की बात मीडिया में चलने लगी है। खुद मीडिया के लिए और लोकतंत्र के लिए भी किसी तरह का सरकारी नियंत्रण तो नहीं ही ठीक होगा लेकिन आत्मनियमन की बात से पहले कुछ बुनियाद बात जरूरी है। अभी जिस तरह से मीडिया और खास तौर पर खबरिया चैनलों के जरिए जिस तरह से गंध घोला जा रहा है, उसी पर बहस आकर रूक जाती है। जबकि मीडिया में व्याप्त अराजकता के सवाल को एक बड़े फलक पर ले जाया जाना चाहिए। खबरिया चैनलों की बात करते हुए इस बात को भूल जाया जा रहा है कि पत्रकारिता के बुनियादी लक्ष्यों और उसूलों का क्या हश्र हुआ। इसलिए अगर सही मायने में आत्मनियमन या आत्मानुशासन की बात को कहने से आगे ले जाकर लागू करना हो तो बातचीत के दायरे को बढ़ाने की जरूरत महसूस होना स्वाभाविक है।

अमेरिका के प्रख्यात लेखक आर्थर मिलर ने अखबारों की बाबत एक बार कहा था कि सही मायने में समाचार पत्र कहलाने का अधिकार उसे ही है जिसमें देश खुद से बात करता हुआ दिखे। आर्थर मिलर की इस बात को एक पश्चिमी लेखक की सोच कह कर खारिज नहीं किया जा सकता। इस संदर्भ में तो यह तर्क भी नहीं चलेगा कि अमेरिकी मीडिया और हिंदुस्तानी मीडिया की प्रकृति में काफी अंतर है। इसलिए आर्थर मिलर की बात का भारत में कोई महत्व नहीं है। दरअसल, आर्थर मिलर ने जो बात कही है उससे दुनिया के किसी भी देश की पत्रकारिता मुंह नहीं मोड़ सकती। भारत की पत्रकारिता की जो परंपरा रही है, उसमें तो उनकी बाद खांटी हिंदुस्तानी मालूम पड़ती है।
बहरहाल, जब आर्थर मिलर की इस कथन की कसौटी पर देखा जाए और खुद से पूछा जाए कि क्या भारत में कोई भी ऐसा अखबार है जिसमें देश खुद से बात करता हुआ दिखता है तो जवाब नकारात्मक ही होगा। यानी यहां तक बात पहुंचने के बाद निष्कर्ष साफ है कि भारत में मुख्यधारा का कोई भी अखबार इस कसौटी पर खरा नहीं उतरता है। कहना न होगा कि समाज को एक दिशा देने में कम से कम भारत में समाचार पत्रों की बेहद अहम भूमिका रही है। इससे यह बात भी निकलकर सामने आ रही है कि आत्मनियमन और आत्मानुशासन की दरकार का दायरा सिर्फ खबरिया चैनलों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। दुर्भाग्य से अब तक होता यह रहा है कि खबरिया चैनलों ने इतना उत्पात मचाया कि उसके शोर में अखबारों का अपराध दब गया। अखबारों की सामाजिक प्रासंगिकता के बारे में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी की एक टिप्पणी भी सकारात्मक बदलाव की सोच रखने वालों को एक दृष्टि दे सकती है। उन्होंने कहा था कि अगर अखबार समाज से कट जाएंगे तो उन्हें मरने से कोई नहीं बचा सकता है। इस आधार पर अगर देखा जाए तो समाचार पत्रों की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।
इस बात की झलक उस वक्त भी मिलती है जब आम पाठक ही अखबारों में प्रकाशित हर्फों को संदेह की निगाह से देखने लगता है। वह दौर ज्यादा पुराना नहीं है जब लोग अखबार में छपे हर शब्द को सत्य मानते थे। पर अगर आज विश्वसनीयता का संकट पैदा हुआ है तो पूरी पत्रकार बिरादरी को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या यही करने के लिए वे पत्रकारिता में आए थे? जब ऐसे सवालों पर विचार किया जाता है तो पहली बात जो स्पष्ट तौर पर उभर कर सामने आती है वो यह कि जब इस क्षेत्र में कदम रखा था उस वक्त तो लक्ष्य बड़े थे। पर समय के साथ लक्ष्य संकुचित होता गया और अर्थोपार्जन तक सिमट कर रह गया।
ऐसा हो जाने के बाद एक खास तरह की मानसिकता पैदा होती है, जो पत्रकारिता को भी अन्य पेशों की तरह ही मानने लगती है। यहां पर आकर सामाजिक सरोकारों और जिम्मेदारियों की बात बेमानी लगने लगती है। इसके बाद यह मानसिकता हर किसी को अपने अनुरुप ढालना चाहती है। इसका विस्तार इस रुप में देखा जा सकता है कि जब नए लोग पत्रकारिता में कदम रखते हैं तो उनके लक्ष्य बड़े होते हैं लेकिन समय के साथ उनकी धार को भी कुंद कर दिया जाता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पत्रकारिता में एक ऐसी व्यवस्था कायम हो गई है जो विचारों को बाजारवादी मीडिया के पक्ष में मोड़ने में सक्षम है। इसका खामियाजा विश्वसनीयता के संकट के तौर पर भुगतना पड़ रहा है। हां, यह बात अलग है कि पैसा को ही अपना माई-बाप समझने वाले मीडिया मालिकों का मुनाफा लगातार बढ़ता जा रहा है और उनके लिए अखबार या कोई भी मीडिया संस्थान चलाना एक दुकान चलाने की तरह ही है।
इसी के परिणाम के तौर पर यह देखा जा सकता है कि अखबारों, पत्रिकाओं और खबरिया चैनलों के साथ वेब जैसे नए समाचार माध्यमों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही। पर सामग्री के स्तर पर जो दिवालियापन दिख रहा है। संख्या तो बढ़ रही है लेकिन सामग्री से आत्मा गायब दिखती है। यहीं पर ‘आज’ के संस्थापक संपादक बाबूराव विष्णु पराड़कर की वह बात जेहन में कौंधती है जिसमें उन्होंने कहा था कि समाचार पत्र सर्वांग सुंदर तो होंगे लेकिन उसमें आत्मा नहीं होगी। दशकों पहले कही गई यह बात आज बिल्कुल सही मालूम पड़ती है। अखबार रंगीन हो गए हैं। उनकी छपाई में व्यापक बदलाव हो गया है। आर्थिक मंदी की वजह से थोड़े दुबले होने के बावजूद अखबारों की बाहरी सुंदरता में कोई कमी नहीं आई है लेकिन सामग्री के स्तर पर दिनोंदिन गिरावट ही देखी जा सकती है। इसलिए सामग्री के दिवालिएपन भी सवाल उठाए जाने की जरूरत है।
इस तरह की बात करने पर बड़े मीडिया समूहों के संपादकों का पहला तर्क यही होता है कि हम तो वही पाठकों तक पहुंचा रहे हैं, जो वे चाहते हैं। वे कहते हैं कि हम कौन होते हैं तय करने वाले कि क्या प्रकाशित किया जाए या फिर क्या प्रसारित किया जाए। वे यह भी जोड़ते हैं कि अखबार या खबरिया चैनल वे खुद के लिए नहीं चला रहे हैं बल्कि दर्शकों-पाठकों के लिए चला रहे हैं। सतही तौर पर देखने के बाद ये बातें किसी को प्रभावित कर सकती हैं। इस संदर्भ में प्रख्यात अमेरिकी पत्रकार जेम्स कैरी ने कहा था कि हमलोगों ने ऐसी पत्रकारिता विकसित कर ली है जिसमें हम हर चीज को जनता के नाम पर सही ठहराते हैं। पर इस पत्रकारिता में जनता की कोई भूमिका नहीं होती सिवाए दर्शक, स्रोता या पाठक बनने के। जेम्स कैरी की बातों को विस्तार दिया जाए तो यह स्पष्ट है कि मीडिया जो कुछ भी परोसती है, उसमंे जनता की कोई भूमिका नहीं होती है। हर मीडिया संस्थान में मोटी पगार पाने वाले बड़े ओहदों पर बैठे लोग ही यह तय कर लेते हैं कि क्या दिखाना है या प्रकाशित करना है और क्या नहीं दिखाना है या नहीं प्रकाशित करना है। इसके बाद अपने स्वार्थ साधने के वास्ते लिए गए निर्णयों को जनता की इच्छा कहकर सही ठहरा दिया जाता है। इस चाल को समझने की जरूरत है।
खबरिया चैनलों के पास खुद के द्वरा फैलाई गई खबरिया अराजकता को सही ठहराने के लिए टीआरपी का हथियार भी हर समय मौजूद रहता है। वे यह बताते हुए नहीं अघाते कि जिन चीजों को दिखाने पर सबसे ज्यादा आलोचना होती है उसकी टीआरपी यानी टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट सबसे अधिक होती है। पर टीआरपी तय करने की व्यवस्था ही बेहद दोषपूर्ण है। इस बात को लेकर संसदीय समिति की एक एक रपट भी बीते दिनों संसद में आई है। इसमें भी उन कमियों को रेखांकित किया गया है जिन पर पहले से ही सवाल उठते रहे हैं। अब यह बात तय हो गई है कि टीआरपी की व्यवस्था चैनलों की दर्शक संख्या तय करने वाली सही व्यवस्था नहीं है।
यहां यह बताते चलें कि टीआरपी नापने का काम मुंबई की एक एजेंसी टैम यानी टेलीविजन आॅडिएंस मेजरमेंट करती है। इसने देश के महनगरों में सात हजार बक्से लगा रखे हैं। इन्हीं सात हजार बक्सों के मार्फत पूरे देश के टेलीविजन दर्शकों की पसंद-नापसंद को तय कर दिया जाता है। टीआरपी नापने वाला कोई भी बक्सा पूर्वोत्तर के राज्यों या फिर बिहार और झारखंड जैसे राज्यों में नहीं लगा हुआ है। इस टीआरपी व्यवस्था से जुड़ा एक सवाल ये भी है कि महानगरों के किन घरों में ये बक्से लगते हैं उससे कम से कम आम नागरिक और एक हद तक खुद को खास नागरिक कहने वाले भी बेखबर हैं। टैम का दावा है कि बक्से लगाने वाले घर हमेशा बदलते रहते हैं लेकिन जमीनी अनुभव को देखते हुए इस दावे पर भी संदेह पैदा होना स्वाभाविक है।




कोई तो समाधान होगा इस नासूर का.?

कश्मीर भारत में उठ रहे आज़ादी की मांग, या पाकिस्तान परस्त रास्तर्द्रोही इस्लामिक जेहाद ? कश्मीर जिसे धरती का स्वर्ग और भारत का मुकुट कहा जाता था आज भारत के लिए एक नासूर बन चूका है। कारण सिर्फ मुस्लिम जेहाद के तहत कश्मीर को इस्लामिक राज्य बना कर पाकिस्तान के साथ मिलाने की योजना ही है, और आज रास्त्रद्रोही अलगाववादियों ने अपनी आवाज इतनी बुलंद कर ली है की कश्मीर अब भारत के लिए कुछ दिनों का मेहमान ही साबित होने वाला है और यह सब सिर्फ कश्मीर में धारा ३७० लागु कर केंद्र की भूमिका को कमजोर करने और इसके साथ साथ केंद्र सरकार का मुस्लिम प्रेम वोट बैंक की राजनीति और सरकार की नपुंसकता को साबित करने के लिए काफी है यह बात कश्मीर के इतिहास से साबित हो जाता है जब सरदार बल्लव भाई के नेतृतव में भारतीय सेना ने कश्मीर को अपने कब्जे में ले लिया था परन्तु नेहरु ने जनमत संग्रह का फालतू प्रस्ताव लाकर विजयी भारतीय सेना के कदम को रोक दिया जिसका नतीजा पाकिस्तान ने कबाइली और अपनी छद्म सेना से कश्मीर में आक्रमण करवाया और क़ाफ़ी हिस्सा हथिया लिया । और कश्मीर भारत के लिए एक सदा रहने वाली समस्या बन कर रह गयी और पाकिस्तान कश्मीर को हथियाने के लिए नित्य नयी चालें चलने लगा नतीजा भारत की आज़ादी के समय कश्मीर की वादी में लगभग 15 % हिन्दू थे और बाकी मुसल्मान । आतंकवाद शुरु होने के बाद आज कश्मीर में सिर्फ़ 4 % हिन्दू बाकी रह गये हैं, यानि कि वादी में 96 % मुस्लिम बहुमत है । वादी में कश्मीरी पंडितों की पाकिस्तान समर्थित इन्ही रस्त्रद्रोही अलगाव वादियों द्वारा खुले आम हत्याएं की जा रही थी और सरकार मौन रही थी इन हत्याओं और सरकार की नपुंसकता का एक उदाहरण यहाँ दे रहा हूँ सन् १९८९ से १९९० यानि एक वर्ष में ३१९ कश्मीरी पंडितों की हत्या की गयी और इसके बाद के वर्षो में यह एक सिलसिला ही बन गया था और सरकार का रूप तब स्पष्ट हो जाता है जब जम्मू-कश्मीर के वंधामा में दस साल पहले हुए कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के बारे में गृह मंत्रालय को जानकारी नहीं है। मंत्रालय ने कहा है कि विभाग को ऐसी किसी घटना की जानकारी नहीं है, जिसमें बच्चों समेत 24 कश्मीरी पंडितों का नरसंहार किया गया था। यह घटना जग विदित है मगर सरकार को इसके बारे में मालूम नहीं, सरकार के इसी निक्कम्मा पण के वजह से आज इन रास्त्रद्रोही अलगाववादियों का हिम्मत इतना बढ़ गया है की अब ये कश्मीर को पूर्ण इस्लामिक राज्य मानकर कश्मीर को पाकिस्तान के साथ मिलाने के लिए अब कश्मीर में बहरी राज्यों से आये हिन्दू मजदूरों को बहार निकल रहे हैं स्वतंत्रता दिवस के पवन अवसर पर हिंदुस्तान के रास्त्रघ्व्ज को जलाया गया हिंदुस्तान मुर्दाबाद का नारा लगाया जा रहा है और सरकार मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए चुप बैठी है कश्मीर में आर्मी के कैंप पर हमला करके उनको जलाया जा रहा है फिर हम कैसे कह सकते हैं की कश्मीर हमारे अन्दर में है अगर कश्मीर का मुस्लिम हमारे साथ है तो क्यों वह देशद्रोही अलगाववादियों का साथ दे रही है? अगर केंद्र सरकार कश्मीर समस्या का समाधान चाहती है तो क्यों नहीं वह वहां के अलगाववादी आतंकवादियों को के खिलाफ एक्शन ले रही है ? क्यों नहीं सरकार विस्थापित कश्मीरी पंडितों को फिर से उनके जमीन को वापस दिला रही है क्यों कश्मीरी पंडितो के हक़ का दमन कर रही है ? क्यों नहीं आज तक हुए कश्मीर में कश्मीरी पंडितो के हत्याकांडो की जाँच करवा रही है ? कश्मीरी भाइयो का साथ देने वाले साम्प्रदायिक और अलगाववादी देशद्रोही सरकार के नज़र में क्यों आज़ादी का नेता बना हुआ है ? अगर इस सवाल का जवाब सरकार के पास नहीं है तो सरकार देश की जनता को धोखा देना छोर दे की कश्मीर हमारा है और अगर सरकार सच में कश्मीर समस्या का समाधान चाहती है तो कश्मीरी पंडितो को इंसाफ दिलाये और अलगाववादी आतंकवादियों को सजा देकर कश्मीर को इन देशद्रोहियों से मुक्त कराये, अंत में एक सवाल सरकार और आपलोगों से क्या हिंदुस्तान जिंदाबाद का नारा लगाने वाले अपने रास्त्रध्व्ज तिरंगे को सीने से लगाये मरने वाले साम्प्रदायिक हैं ?क्या हिंदुस्तान मुर्दाबाद का नारा लगा कर अपने रास्त्र ध्वज तिरंगे को जलाने वाला देशद्रोही नहीं और अगर देश द्रोही है तो इसके खिलाफ कोई एक्शन क्यों नहीं ?इस आंख की अंधी सरकार से इंसाफ की क्या उम्मीद इसलिए अपने दर्द का मरहम ढूंढने आपके पास आया हूँ मैं..

समझें " सलवा जुडूम "

भारत एक महान देश और यहाँ के लोग और भी ज्यादा महान हैं । ख़ुद को क्रिकेट खेलना नहीं आता होगा लेकिन क्रिकेट खिलाड़ियों पर कमेन्ट जरुर करेंगे , ख़ुद राजनीति का हिस्सा नहीं बनेगे लेकिन राजनीति को भला बुरा जरुर कहेंगे । ठीक इसी तरह अधिकतर समझदार भारतीय इस वक्त सलवा जुडूम के बारे में बात कर रहे हैं . उसे ग़लत ठहरा रहे हैं । उन समझदार लोगों को सिर्फ़ इतना ही पता है कि सलवा जुडूम में छत्तीसगढ़ की सरकार ने भोले भाले आदिवासिओं को निहत्थे मरने के लिए नक्सलियों के सामने छोड़ दिया है। जो थोड़े और समझदार हैं वो इतना और जानते हैं कि कुछ ' समझदार ' मानवाधिकार कार्यकर्त्ता सलवा जुडूम शिविर में गए थे और वहां उन शिविरों की दुर्दशा देखकर उन्होंने छत्तीसगढ़ सरकार की काफी आलोचना की है। उन सर्वज्ञानी लोगों की रिपोर्ट को सही मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इन शिविरों को बंद करने को कहा है। घर में सो कर के सलवा जुडूम के लिए छत्तीसगढ़ सरकार को कटघरे में खडे करने वाले उन सब समझदार लोगों से मेरा निवेदन है कि वास्तविकता को समझे बिना ज्यादा चिल्ल पौं न करें..पहले जमीनी हकीकत समझें फिर कुछ कहें , नही तो छत्तीसगढ़ में भी किसी राज ठाकरे को पैदा होने में ज्यादा टाइम नही लगेगा।

Monday, March 30, 2009

चुनावी फार्मूलों की राजनीति

15 वें लोक सभा के चुनाव के लिए तारीखें घोषित हो चुकी हैं. लेकिन पूरे भारत की सत्‍ता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा, न ही कांग्रेस और तीसरा मोर्चा भी नहीं जो अभी तक न संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीन दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है, उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है। इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू। तभी तो 14 वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोडा. इस बार वो इन नेताओं और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे.लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.१५ वें लोक सभा के चुनाव की तारीके पड़ चुकी हैं .लेकिन पुरे भारत की सता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .सभी बड़े राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक स्तर की पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा ,न ही कांग्रेस और न ही तीसरा मोर्चा .जो अभी न ही संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीं दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है .उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखाती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू तभी तो ४ वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुहं दिखने लायक नही छोडा.इस बार वो इन नेतावो और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे .लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.१५ वें लोक सभा के चुनाव की तारीके पड़ चुकी हैं .लेकिन पुरे भारत की सता को चला सकने की स्थिति में कोई भी दल या गटबंधन दिखाई नही देता .सभी बड़े राष्ट्रीय स्तर की पार्टियाँ अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए छोटी और प्रादेशिक स्तर की पार्टियों पर निर्भर हो गईं हैं.न तो भाजपा ,न ही कांग्रेस और न ही तीसरा मोर्चा .जो अभी न ही संगठित है न ही उसकी कोई स्थायी संरचना है। लेकिन बसपा की आलाकमान मायावती के इस मोर्चे के साथ सहयोग देने की बात ने इसे एक जमीं दी है क्योकि जिन चार वाम दलों की जुगत से ये मोर्चा तैयार हुआ है जिसमे पॉँच और छोटे प्रादेशिक दल है .उसकी वैधानिकता कांग्रेस का साथ छोड़ने के बाद से ही ना के बराबर रह गई है इसलिए तो उसने मायावती की मनसा समझ कर उन्हें तीसरे मोर्चे में लाने के लिए प्रधानमंत्री पद के उमीदवार के रूप में दिखाया । ताकि जनता उनके किए को भूल जाए .क्योकि वो जानते थे की भारतीय जनता दिखाती बेवकूफ है लेकिन है बड़ी चालू तभी तो ४ वें आम चुनाव में कैसे कांग्रेस को पटखनी दी .इतना दूर जाने की क्या जरुरत है .१४ वें आम चुनाव में ही भाजपा को ही कहीं मुहं दिखने लायक नही छोडा.इस बार वो इन नेतावो और इनकी पार्टी का क्या करेगी .ये तो चुनाव के परिणाम ही बताएँगे .लेकिन अगर हम राजग को या संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की स्थिति को देखें तो पता चलता है की दोनों की ही जड़ें हिल चुकी हैं .संप्रग के साथी लालू पासवान और तो और मुलायम भी इनका साथ छोड़ कर अपने दम पर चुनाव लड़ रहे हैं .और वही राजग के साथी नेता उनका साथ छोड़ कर किसी और दल से उमीदवार बनकर अपनी ही पार्टी के खिलाफ लड़ने को तैयार है.भाजपा की स्थिति अपने ही जन्म स्थल में कमजोर हो रही है उसमें चार चाँद लगाया पीलीभीत के उमीदवार वरुण गाँधी ने ६ मार्च को सांप्रदायिक भाषण देकर के .मुझे ऐसा लगता है की वरुण से ये भाषण सोच समझ कर दिलवाया गया है ताकि जनता के मतों का धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवी करण हो सके .वैसे भी भारत की जनता का धर्म और जाति के आधार पर हमेसा अपने ही नेतावो ने फायदा उठाया है.तभी तो कांग्रेस के सर्वाधिकारवाद को तोड़ने के लिए उन्होंने अजगर का सामाजिक समीकरण वाला फार्मूला इजाद किया चो. चरण सिंह ने . अजगर यानि अहीर ,जाट ,गुजर ,और राजपूत .इसी का विस्तार था मजगर .सियासी खेल खेलने वाले इन नेतावों ने अजगर समीकरण में मुस्लिमों को लाने के लिए मजगर बना दिया .लालू जी ने ऍमवाई यानि की मुस्लिम-यादव के रसायन से पन्द्रह साल तक काम किया लेकिन पिछले चुनाव में मुलायम सिंह ने एक कदम आगे चल कर दलित -मुसलिम -यादव यानि की डी ऍम वाई का प्रयोग किया .
लेकिन इस फार्मूले के लागु होने से पहले ही शेर पर सवा शेर मायावती जी ने मुलायम के इस समीकरण को फेल कर दिया .अपनी सोशल एन्गीनियारिंग का कमाल दिखाया और वो सता में आगई .जिस ब्रह्माण वाद के खिलाफ कासी राम जी ने बसपा की नीव डाली थी .उसी ब्राहमण समुदाय की मदद से वो उतर प्रदेश की सता में आई .ऐसा नही है की सिर्फ़ उतर भारत में ही ऐसे फार्मूले इजाद हुए .कर्णाटक और आन्ध्र में मामूली यानि मारवाडी ,मुस्लिम और लिंगायत एक तराजू में तोले गए .भारत की राजनीती में वो परिवर्तन का समय था जो अभी भी चल रहा है जिसे समझ कर ये प्रादेशिक दल उभरे .लेकिन हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राष्ट्रिय नेतावों और दलों के लिए इस परिवर्तन को समझ पाना आसान ना था क्योकि उन्होंने हमेसा माना की भारत एकता में अनेकता का देश है लेकिन इस अनेकता को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश नही की .जिसके कारन ये प्रादेशिक स्तर के नेता और दल उभरे और भारतीय राजनीती का अंग हो गए .आज पुरी भारतीय राजनीती पर हावी है.लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है की अजगर से मामूली तक सारे फार्मूले इन नेतावो की लालच के आगे छोटे पड़ गए .ऐसा नही होता तो मायावती कभी अपने दलित वोट बैंक को ब्राह्मणों और मुसलमानों से जोड़ने की कोशिश नही करती .आज वो कांग्रेस के पुराने वोट बैंक पर काबिज हैं ।
कांग्रेस ने लम्बें समय तक इसी दलित ब्रह्मण और मुस्लिम समीकरण पर काम किया .अब मायावती राष्ट्रीय ताकत बनकर उभर रहीं हैं .फर्क बस इतना है की पहले ऊपर सता में ब्राहमण थे .अब दलित नेता विराजमान है.

देश को बचाने के लिए हम क्या करें ?


देश में लोकतंत्र की स्थिति नाज़ुक होती जा रही है .नव औपनिवेशिक उदारवादी नीतियां देश में पहले से छुपे सामंतवाद और उपनिवेशवाद के तत्वों से गठजोड़ कर के एक के बाद एक जनवादी आंदोलनों को तोड़ रही है.पिछले दो दशक में कई सशक्त आन्दोलन उभरे । जिनमे से सभी आशार्यजनक रूप से भूमंडलीकरण की उन्ही नीतियों के विरुद्ध sangathit हुए जिन पर इस लोकतान्त्रिक देश की सभी राजनीतिक पार्टियाँ समान रूप से सहमत हैं.इन नीतियों के विरुद्ध अगर कोई मुहिम चलती भी दिखती है तो सिर्फ़ वोट की राजनीति के स्तर पर । असली सुगबुगाहट ईमानदार लोगों के बीच ही दिखती है.वो चाहे किसी राजनीति में शामिल हों या न हो ।ऐसे में कई बार लगता है की आख़िर जनता का असली दुश्मन है कौन ? वो शासक वर्ग जो देश की सत्ता पर काबिज़ है ?वो सभी राजनैतिक पार्टियाँ जो चुनाव होने के बाद नोटेसत्ता की गुलामी करती हैं?और अगर देश में विरोध की आंधी उठती है तो हर बार मौकापरस्त नेतृत्व का शिकार हो जाती है। ऐसे में किसी व्यापक बदलाव के लिए किसी ईमानदार सच्ची सर्वहारा पार्टी की मौजूदगी की ज़रूरत है? और विडम्बना ये है की ऐसी किसी राजनैतिक पार्टी का देश में सर्वथा अभाव दीखता है । सवाल तो और भी हैं ?पर आख़िर जवाब कैसे मिलेंगे हमें?देश की युवा पीड़ी इन मुद्द्नो के प्रति पूरी तरह से उदासीन नज़र आती है । पर हमसे पहले की पीड़ी हमें दिया दिखाने में भी असमर्थ रही है । ये सच है। समूचा राजनैतिक परिदृश्य ,जन सरोकारों से शून्य दीखता है। विकास की तूफानी आंधी चला कर मुद्द्नो से bhatkane के लिए देश का mediya है.afsos की हम esi mediya का hissa banne जा रहे हैं .मेरी इस बात पर बहुत से लोगों को आपत्ति हो सकती है पर eemandari से gambhiratapoorvak सोचने की ज़रूरत है.khaskar युवा पीड़ी को.और भी ऐसे कई सवाल हैं जो बेशक हमारी तरफ़ से उठाये jane चाहिए yakinan राजनीति पर जिससे हम सब सबसे ज़्यादा बचना चाहते हैं पर राजनीति से बचना किसी samsaya का vikalp नही.ye हमें antatah accept करना ही होगा । और yakinan युवाओं का judav chhatra राजनीति में नज़र aaega देश की सबसे ज़्यादा esi की ज़रूरत है।

मुद्रास्फीति बनाम ‘वास्तविक’ महंगाई दर

मार्च के दूसरे सप्ताह, यानी 14 मार्च को समाप्त हुए हफ्तेमें महंगाई दर ०.27 फीसद दर्ज की गई है। हाल के सप्ताहों में लगातार लुढ़क रहे इस आंकड़े की यह वर्ष 1977-78 के बाद की सबसे कम दर है। दिलचस्प है कि लगातार गिर रहे महंगाई दर को अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं बता रहे जबकि सरकार इसे अपनी उपलिब्घि‍ गिनाने में लगी है। पिछले साल की ही बात है जब इस महंगाई दर ने आम आदमी को खूब रूलाया था। कारण था इसका दहाई के अंक को पार कर जाना। लेकिन अब जब यह शून्य के पास पहुंच गई है तो क्या आम आदमी खुश है? मंहगाई दर में आ रही लगातार गिरावट क्‍या लोगों को उतना शुकून दे रही है जितनी शिकन उनके चेहरे पर पिछले साल थी? विश्व बाजार में कच्चे तेल, धातु और खाने के सामानों के महंगे होने से पिछले साल महंगाई दर बढ़ी थी। तर्क यह दिए गए कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में तेल के दाम चढ़ गए हैं साथ ही अमेरिका जैसे देश जैविक ईंधन बनाने में खाद्य फसलों का उपयोग कर रहे हैं। हलकान हो रही जनता के सवाल पर घिरी सरकार ने भी आर्थिक सुधार पर जोर दिया और ब्याज दरों में कटौती शुरू की। सरकार इन्हीं सुधारों को महंगाई दर कम होने का कारण बता रही है। लेकिन अपनी पीठ थपथपाने से पहले शायद वह यह भूल गई कि बाजार में मांग नहीं रहने के कारण ही मंहगाई दर घट रही है। आर्थिक विश्लेषकों की मानें तो महंगाई की यह दर अब जीरो या डिफ्लेशन की ओर बढ़ रही है। डिफ्लेशन वह अवस्था होगी जब उत्पादन तो होगा, लेकिन बाजार में मांग नहीं होगी। ऐसी स्थिति में भी सामानों के सस्ते होने के दावे आम लोगों के लिए महज भुलावा ही साबित होंगे।
दरअसल, हमारे देश में महंगाई दर मापने की नीति ही गलत है। हम थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर इस दर को मापते है। कच्चे तेल, धातु जैसे पदार्थ इस थोक मूल्य में होते हैं। इनमें दैनिक जरूरत के सामान कम ही होते है । यही कारण है कि थोक स्तर पर सामानों के दाम कम होने पर भी इसका असर बाजार मूल्य यानि उपभोक्ता मुल्य पर नहीं दिखता। आंकडेबाजी की ही बात करें तो अभी भी उपभोक्ता मूल्य 10 फीसद के आस-पास है। पिछले सप्ताह भी फल, सब्जियों, चावल, कुछ दाल, जौ और मक्के की कीमत में 0.1 प्रतिशत की वृद्धि ही दर्ज की गई है। साथ ही मैदा, सूजी, तेल, आयातित खाद्य तेल और गुड़ भी महंगे हुए हैं। सरकार चाहे तो चीजों की कीमतों और महंगाई की दर में स्पष्ट रिश्ता कायम कर सकती है। ‘सरकारी’ महंगाई दर और ‘वास्तविक’ महंगाई दर में तभी संबंघ बनेगा जब एक बेहतर आर्थिक नीति बनेगी और उपभोक्ता मूल्य के आधार पर महंगाई दर तय किया जाएगा।

Friday, March 27, 2009

नया निर्देशक और नए विषय


संचार के सबसे प्रबल माध्यम ने जिस तरह करवट लिया है, दर्शक भी उसी तरह ढल गया है। आज सिनेमा में जितना प्रयोग हो रहा है, यकीनन उसमें नई प्रतिभाओं का हाथ है। पिछले १५ सालों से इंडस्ट्री में काम कर रहे अनुराग कश्यप को अब जाकर सफलता मिली है। कश्यप सिनेमा में जो नया अंदाज लेकर आए हैं यकीनन उसे स्‍थापित करने में समय लगेगा। अपनी दो फिल्मो से चर्चा में आए अनुराग आज इंडस्ट्री के सबसे व्यस्त निर्देशकों में हैं। देव डी के निर्दशन में अपनी प्रतिभा का परिचय देते हुए कहानी को स्ताफित करने में अपना समय ख़राब नही किया भारतीय दर्शक जो पहले से देवदास को जानता है उसके सामने कहानी को स्थापित करने की ज़रूरत नही पड़ी । बस पात्रो को समझना पड़ा। इसके बाद सारा ध्यान कहानी को स्ताफित करने में ही लगा दिया। अनुराग की यह कोशिश उसकी चालाकी और नयी सोच का परिचायक है। कहानी का अंत बदलकर अनुराग नया प्रयोग करते हैं और फिर सफलता।
गुलाल फ़िल्म में इस्तेमाल की गए विविध प्रसंग इतिहास को दिखाते हैं। फ़िल्म को ५ बार देखा और हर बार कुछ नया पाया । अनुराग की सोच और उसकी दूरदर्शिता हर वक्त उसकी फिल्मों से झलकती है। शायद उसकी फ़िल्म आज के समाज को दिखाती है। समाज के रिश्तों को दिखाती है। गुलाल का हर प्रसंग अपने आप में कुछ नए विचारों को जन्म देता है हर प्रसंग महत्त्वपूर्ण है। दूर देश के टावर में घुस जाए एरोप्लेन नामक मुजरा काफ़ी अर्थो को स्पस्ट करता है। फ़िल्म में भी ऐसे कई प्रसग हैं ।
अनुराग की यह कामयाबी कई नए निर्देशकों को नये राह नए सोच की और ले जा रहा है उम्मीद की जा सकती है की नए निर्देशकों में कुछ नया करने की होड़ दर्शकों को अच्छी फिल्म देंगी।

~रवि प्रताप भारती

Thursday, March 26, 2009

चुनाव का संदर्भ और कुछ सवाल

चुनाव आ रहे हैं....फिर से वोट मांगने का सिलसिला शुरू हो गया है.....फिर योजनाओं और घोषणाओं की बौछार हो रही है। ...कितनी अजीब बात है न ....जब चुनाव होते हैं तो नेता दयनीय स्थिति में होते हैं, लेकिन जैसे ही वो सत्ता में आते हैं, आम आदमी उस स्थिति में आ जाता है।अभी तक के सभी चुनावों में कम से कम इसकी कुछ तस्वीर तो साफ़ थी कि कौन साथ है और किन नेताओं को आप साथ में काम करते देखना चाहते हैं लेकिन इस बार यह स्थिति कुछ ज्यादा ही अजीब हो गई है। नेतागण चुनाव होने से पहले ही कई मामलों में अलग लग रहे हैं। एक तो हर दिन कौन किसके साथ जा सकता है इसकी संभावनाएं देखने सुनने को मिलती हैं लेकिन अगले दिन कुछ और ही हो जाता है। कहना मुश्किल है कि कौन किसकी टीम में अंत तक टिकेगा।
अनिश्चितता के इस माहौल में इन नेताओं की चिंता के विषय पर भी शक हो रहा है। ऐसा लगता है कि गठबंधन लोगों के हित में नहीं निजी हित में बनाये जा रहे हैं। तभी इन्हें सिर्फ़ अपनी अपनी पतंगों कि चिंता है। जो छोटी पतंगें हैं, वे इस बार ज्यादा तादाद में दिख रही हैं इसलिए बड़ी पतंगों को ख़ुद को टिकाने से पहले उनसे बचना पड़ रहा है। हर कोई ज्यादा से ज्यादा पतंगों को अपनी ओर करना चाहता है, लेकिन ये चुनाव का वसंत है और वसंत के समय कौन किसकी पतंग काट दे, कहा नहीं जा सकता। वैसे भी जो पतंग जिस पतंग के ज्यादा पास हो तो सबसे नज़दीक होने के कारण सबसे ज्यादा उसी के कटने की संभावनाएं रहती है।
इस बार कुछ और बातें भी हैं । जैसे भाजपा नेता वरुण गाँधी के साम्प्रदायिक भाषण के ख़िलाफ़ चुनाव आयोग का फ़ैसला, उन्‍हें चुनाव में टिकट ना देने की बात कहना और उन पर नजर रखने के लिए उनके पीछे सरकारी कैमरा लगाना- ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे आयोग की विश्‍वसनीयता बढ़ी है। वरूण के प्रति आयोग की यह सख्ती बाकी नेताओं के लिए भी एक सबक है। इस बार किसी को भी वोट देने से मना करने के विकल्‍प पर भी इस बार ज्‍यादा खुलकर चर्चा हो रही है। हालांकि भारतीय राजनीति में इस विकल्‍प को आजमाने की कम ही संभावना है।

'बालमजदूरों को मुक्‍‍त कराना काफी नहीं, पुनर्वास करे सरकार'

दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाई है कि उसने बाल मजदूरों को मुक्त तो करा दिया है लेकिन उनके पुनर्वास की व्यवस्था नहीं की है। दरअसल, हमारे देश में आधी समस्याओं की जड़ यही बात है की हम किसी ख़राब चीज़ को हटाने के लिए योजना तो बना लेते हैं, लेकिन उसका सकारात्‍मक विकल्प हमारे पास नहीं होता। कोई विकल्‍प है भी तो सरकारें नीतियाँ बनाने से पहले इस बारे में कोई ठोस रणनीति नहीं बनाती और नतीजा होता है कि जिन लोगों को आपने नया जीवन देने के नाम पर समस्याओं से मुक्त कराया होता है, उन्हें किसी और इससे बुरे हालत में जीना पड़ता है। ऐसे में आप उन्हें कुछ दे भी नहीं पाते और उनसे उनके पिछले साधन भी चीन लेते हो।
सरकार की ऐसी ही एक नीति पिछले दिनों सामने आई जब कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान साफ़ दिल्ली दिखाने के लिए शहर के भिखारियों को गन्दगी की तरह बाहर करने की बात की जा रही थी, लेकिन तब भी सरकार के पास उन्हें कहाँ ले जाना है और क्या काम देना है - इसके बारे में कोई जवाब नहीं था। हिंदुस्तान टाईम्स अखबार में छपे एक लेख के अनुसार पुनर्वास के नाम पर भिखारी बच्चों को एक ऐसे कमरे में रखा जाता है जहां बदबू के कारण दो मिनट खड़े रहना भी मुश्किल होता है। उन्‍हें बाहर निकलने की छूट नहीं होती। शायद उन बच्चों को लगता होगा कि इससे तो अच्छे हम सड़कों और फुटपाथ पर ही थे। कम से कम वहाँ कोई ऐसी जेल तो नहीं थी।
इसी तरह इस बार दिल्ली के ६० हज़ार बाल मजदूरों में से पाँच सौ को मुक्त तो करा लिया गया है, लेकिन सरकार के पास उनके पुनर्वास की कोई योजना नहीं है। शायद इसीलिए कोर्ट ने सही कहा है की सिर्फ़ उन्हें आज़ाद कराने से कुछ नहीं होगा, उनके लिए कोई व्यवस्था भी होनी चाहिए। दरअसल सरकार को ये देखना चाहिए की बाल मजदूरी का कारण क्या है और ये क्यों की जाती है। कोई भी माँ-बाप अपने बच्चों से खुशी से काम नहीं करवाते और अगर बच्चों को परिवार की मजबूरियों के दबाव में आकर या अपने माँ-बाप के न होने के कारण उन्हें अपने भाई बहनों को पालने के लिए काम करना पड़ता है तो इसके पीछे भी कई कारण हैं।
बाल मजदूरी का सबसे पहला कारण है गरीबी। जिससे जुड़े बाकी कारण हैं बेरोज़गारी और अशिक्षा । दिल्ली में बाल मजदूरों की एक बड़ी संख्या उन बच्चों की है जो सड़क के किनारे ठेले लगाते हैं, दुकानों में सुबह से शाम तक काम करते हैं। इसमें सबसे बड़ी तादाद बिहार और उसके आस पास के राज्यों से काम कराने के लिए लाये गए बच्‍चों की है।
एक शोध के दौरान हमने बेर सराय और मुनिरका में ऐसे कुछ बच्चों से बातचीत की थी। हमें जानकारी मिली कि बिहार जैसे राज्यों से लाये गए बच्चों को एक कमरे में रखा जाता है और उनसे सुबह आठ बजे से रात आठ बजे तक काम करवाया जाता है। अगर बाल मजदूरी स्‍वीकृत ही है तो इन बच्चों की शिक्षा और रहने के लिए सरकार को कोई व्यवस्था करनी होगी। लेकिन हम जानते हैं कि बाल मजदूरी कराना गैरकानूनी है। इसलिए आवश्‍यक है कि बच्चों को यहाँ लाने वाले ठेकेदारों से सख्ती से निबटना चाहिए। उन परिवारों की गरीबी हटाने की कोशिश की जाए जहां से ऐसे बच्‍चे आते हैं। बच्चों को अपने घर या दफ्तर में काम पर रखने वाले बड़े लोगों की मानसिकता बदलने की जरूरत है। इससे न केवल उन बच्चों का शोषण रुकेगा बल्कि उन्हें एक बेहतर ज़िन्दगी मिल सकेगी।
इस तरह से कुछ बच्चों को काम से निकाल लेने से किसी समस्या का हल नहीं होगा। कोई भी समस्या अगर समाज में पनपती है तो उसके पीछे कई कारण होते हैं। सरकार में बैठे लोगों को केवल अपने रिकॉर्ड में दिखाने के लिए या फिर कहने को समाज सेवा के लिए इस तरह अधूरे काम नहीं करने चाहिए। इसके लिए उसे समस्या की तह तक जाना चाहिए और जड़ में बैठे कारणों को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए, बड़ी समस्या ख़ुद सुलझ जायेगी। यह कोई ऐसी समस्या नहीं है जो रातोंरात पैदा हुई है और न ही ऐसी कि एक क़ानून या नीति बनाने से या कुछ बच्चों को काम से छुडा लेने से ख़त्म हो जायेगी। इसमें काफ़ी समय लगेगा । सरकार को इस बारे में सोचना चाहिए। आपका क्या कहना है?

Wednesday, March 25, 2009

कृपया ध्‍यान दें

संगत के पोस्‍ट बॉक्‍स में आपको, <स्‍पैन क्‍लास="फूलपोस्‍ट"> , जैसे एचटीएमएल कोड दिख रहे होंगे। (यहां एचटीएमल कोड पूरी तरह नहीं आ रहा है, इसलिए इसे देवनागरी में लिखना पड़ रहा है।) अपने आलेख का मुखड़ा<स्‍पैन क्‍लास="फूलपोस्‍ट"> के ऊपर टाइप/पेस्‍ट करें। शेष सामग्री इसके बाद के पहले पोस्‍ट करें।
जो लोग यह पोस्‍ट देख पा रहे हैं, संभव हो तो इसके बारे में अपने मित्रों को बता दें। यह कोड एडिट एचटीएमएल ऑप्‍शन में पोस्‍ट बॉक्‍स खुलने पर ही दिखेगा। आमतौर पर हम कंपोज वाले पोस्‍टबॉक्‍स का इस्‍तेमाल करते हैं। शुक्रिया।

नोट : उपरोक्‍त टेक्सट में भी एचटीएमएल संबंधी कुछ चीजें नहीं दिख रही हैं। उम्‍मीद है आपको सूचना का आशय समझ में आ गया होगा। ‍

तीसरी योजना

आज तीसरी योजना की चर्चा शुरू हो गई है योजना का आधार भारत की कृषि औरउसके विभिन्न अंग के रूप में खड़े हुए विकेन्द्रित उद्योग विकेन्द्रित कृषि ओधोगीक ग्राम समाज ही हमारे राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी हो सकती है उसका विकास करने के लिये संस्था सम्बधी व्यवस्थाये निर्माण करना यही शासन की योजनाओं का काम हो सकता है।

Tuesday, March 24, 2009

कौन आम आदमी और किसकी कार

आम आदमी की कार नैनो लांच हो चुकी है। नैनो अपने वादे के मुताबिक एक लाख की तो नहीं लेकिन उससे कुछ ज़्यादा की कीमत में आई है। इधर पिछले कुछ दिनों से 'आम आदमी' चर्चा में है। दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में 'आम आदमी' की बात की जाए तो थोड़ा हैरानी ज़रुर होती है।
आप भी अगर सोच रहे हैं कि आम आदमी' किस चिड़िया का नाम है, तो हैरानी की कोई बात नहीं। दरअसल आजकल यह चिड़िया इन महानगरों में उड़ती दिखाई नहीं देती। उड़ना तो दूर की बात हुजूर यह चिड़िया अब चलती भी नहीं रेंगती है। पिछले दिनों एक फ़िल्म आई रब ने बना दी जोड़ी'। इसे भी 'आम आदमी'की प्रेम-कहानी कहा गया था। हम भी 'आम आदमी'की तलाश में सिनेमा हॉल तक पहुंचे तो पता चला कि टिकट दो सौ रूपये का था। 'आम आदमी' की फ़िल्म होने का पहला ही दावा झूठा निकला। खैर हमने सोचा चलो आज खास बनकर ही 'आम आदमी' की फिल्म देखी जाये। फ़िल्म में नायक का शादी के दूसरे ही दिन पत्नी पर फबने वाले रंग की कार खरीदने के बाद हमने फ़िल्म में 'आम आदमी'की तलाश छोड़ दी। आखिर 'आम आदमी' की ऐसी हैसियत नहीं हुआ करती। फ़िल्म पूरी इसलिए भी देखी कि टिकट २०० रूपये का था।

दूसरी बार 'आम आदमी' का चर्चा कांग्रेस के चुनाव प्रचार में सुनाई दिखाई दिया। वैसे कांग्रेस अपने पूरे कार्यकाल में 'खास आदमी' के लिए ही नीतियां बनाती नजर आई, हालाँकि यह मुगालता ही रहा कि सारी भागदौड़ 'आम आदमी' के लिए है।

इधर 'आम आदमी' की कार बाज़ार'में है। नैनो के आने की ख़बर आते ही कई दोस्त और परिचितों ने इसे लेने का मन बना लिया था। ये दोस्त अक्सर चर्चाओं में ख़ुद को 'आम आदमी' की लिस्ट में गिनाना नहीं भूलते। अब थोड़ा सोचना पड़ा कि ये 'आम आदमी' होता कौन है? क्या यही भारत का 'आम आदमी' है जो 'बाज़ार' में हर नए/महंगे उत्पाद के आते ही उसे खरीदने की योजनाएं बुनने लगता है?
अगर दो जून की रोटी कमाने से 'आम आदमी' को फुर्सत मिले तो वो ऐसा कुछ सोचेगा। शायद न भी सोचे! अगर हमारे बीच से निकला बन्दा ऐसा सोचता है तो ये हमारे लिए सोचने वाली बात है। हम सभी 'बाज़ार' के दांव-पेंचों से वाकिफ हैं जबकि आम आदमी से 'बाज़ार' के बहाव के खिलाफ तैरने की उम्मीद नहीं की जा सकती। क्या हम सभी का मकसद पैदा होने के बाद सिर्फ अमीर होना ही है? अमीर होने का दर्शन आज सभी दर्शनों पर भारी है और यह बहुत खतरनाक बात है।
ऐसे समय में जब हम सभी गाड़ियों के कहर(वायु-प्रदूषण, ध्वनि-प्रदूषण आदि) से जूझ रहे हैं, नैनो का आना ख़ुशी की नहीं चिंता की बात है। नैनो की रिकार्डतोड़ बिक्री के कयास लगाये जा रहे हैं। इसका सीधा मतलब है कि सड़क पर बोझ बढ़ने जा रहा है। 'आम आदमी' जो आज भी पैदल या बसों में सफ़र करता है, उसके लिए जगह और भी कम होने जा रही है। सड़क पर चलती, सड़क पार करती भीड़ के लिए जिंदगी और कम होने जा रही है। रोज़ घर से निकलते वक़्त साबूत वापस आने की दुआ पैदल चलने वाला ही माँगा करता है। ऐसे वक्त में पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बेहतर बनने के कोई भी कोशिश सरकार की तरफ से दिखाई नहीं देती। सरकार से ये उम्मीद बेमानी है कि वो गाड़ी वालों के लिए कुछ नये कानून बनाये। मसलन एक गाड़ी में तीन से कम लोग होने पर चालक का चालान किया जाए और पहले से ही २-३ गाड़ी वालों को नई गाड़ी खरीदने की इजाजत न दी जाए। नई गाड़ी खरीदने वालों के पास मोटर बाइक हो और मोटर बाइक खरीदने वालों के पास साईकिल हो तो ही उन्हें बाइक खरीदने की इजाजत मिले (उम्मीद है कि ये लोग कम दूरी के लिए पुराने वाहनों का ही उपयोग करेंगे)। ऐसी सरकार जिसका मकसद ही आम लोगों के बहाने से खास लोगों की सेवा हो उसके एजेंडे का 'आम आदमी' कैसा होगा, साफ है।

डर के आगे जीत है....

नमस्कार दोस्तों। बहुत दिनों से ख्‍वाहिश थी कि आपसे कुछ बाटूँ। हाँ, अपना डर....। हमारी पढाई ख़त्म होने को है, नौकरी नहीं मिल रही...आगे क्या करेंगे....ऐसे कई सवाल हर पल हमें घेरे रहते हैं। ऐसे में कई बार एक तरह का डर घर कर जाता है। हाल में पढ़े एक नॉवेल ने मुझे इस सिलसिले में बहुत आकर्षित किया। इसके कुछ अंश आप लोगों के साथ शेयर कर रही हूँ.....

यह अंश 'लाइफ ऑफ़ पाई' से है। कई मायनों मैं ये एक भयावह किताब है लेकिन यह अजीब है कि जिंदगी के सबसे भयावह रूप देखने के बाद अंतत: आपका विश्वास जिंदगी की अच्छाई पर ही आकर जमता है। नोवल का यह अंश मुझे ख़ास पसंद है, क्यूंकि ये डर के अँधेरे को शब्दों की रौशनी से जीतने की बात करता है।
" डर के बारे मैं एक बात कहूँगा। यह जिन्दगी का एकलौता सच्चा दुश्मन है। डर के हारे हार है। यह चालाक, धोखेबाज दुश्मन है, यह मुझसे बेहतर कौन जानेगा। इसमें न शालीनता है, न नियमों और रीति-रिवाजों के प्रति आस्था, यह जरा भी दया नही दिखाता। यह सबसे बड़ी कमजोरी पर हमला बोलता है, जिससे वह आसानी से पहचान लेता है। यह खेल हमेशा दिमाग से ही शुरू होता है । जब आप शान्ति, आत्मविश्वास से भरे और खुश होते हैं, तभी डर शक का जामा पहने चुपचाप एक जासूस की तरह मन मैं घुस आता है । शक की लड़ाई होती है विश्वास से। विश्वास शक को भगाना चाहता है। मगर विश्वास के हथियार कमजोर हैं, वह मात्र एक प्यादा है। डर बड़ी आसानी से उसे हरा देता है। आप परेशान हो जाते हैं। बुद्धि और तर्क आपका साथ देते है। हिम्मत बढ़ती है। बुद्धि के पास तो नए से नए तकनीक के हथियार हैं। पर आश्चर्य , उत्तम चालों और पहले से अनेक जीतों के बावजूद तर्क-बुद्धि हार जाती है। आप कमजोर हो जाते हैं, लड़खड़ाने लगते हैं। बेचेनी और बढ़ जाती है...शब्दों की रौशनी...अब डर आपके शरीर पर हमला बोल देता है, शरीर को पहले से ही आभास है की कुछ गड़बड़ चल रही है। फूलती साँस उड़ती चिडिया की तरह साथ छोड़ने लगती हैं और आंतें साँप की तरह सरकने लगती हैं। जबान सूखी व बेजान हो जाती है, जबड़े हिलते हैं, दांत बजने लगते हैं। कान बहरे हो जाते हैं। अंग-अंग अपने तौर पर बिखर जाता है। बस आँखें खुली रहती हैं। डर पर उनका पूरा धयान रहता है। हड़बड़ी में जल्दबाजी भरे फैसले लेते हैं...बस, आपने ख़ुद अपने को हरा दिया। डर जो सिर्फ़ आपका एक वहम है, जीत जाता है।

इसे शब्दों में कहना मुश्किल काम है।....डर जो याददास्त में गंग्रीन की तरह समा जाता है, सब कुछ सड़ा डालता है, यहाँ तक की शब्द भी। इसे बताने के लिए बहुत कोशिश करनी होगी। उसका सामना करना होगा, ताकि शब्दों से वह रौशन हो जाए। अगर आप ऐसा नही करेंगे, अगर आपका डर ऐसा शब्दहीन अँधेरा बन गया जिससे आप बचते हैं, शायद भुला भी देते हैं, तो आप डर के भावी हमलों के लिए सहज उपलब्ध होते हैं, क्योंकि हकीकत में आपने तो विजेता दुश्मन का मुकाबला किया ही नही......"
हम सब के अन्दर कोई न कोई डर होता है। जब तक हम उसे बाहर नही करते हम उससे हारे ही रहेंगे...
प्रतिक्रिया के इंतज़ार में....

कैसे विकसित होगा भारत?

इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत की ओर दुनिया की निगाहें है । पूरे विश्व में आर्थिक नीतियों पर चर्चा के लिए होने वाली बैठकों में भारत और चीन के आर्थिक विकास का हीं मुद्दा छाया रहता है। विदेशी निवेशक यही मानते है कि भारत निवेश की उम्दा जगह हैं।
लेकिन हर तस्वीर के दो पहलू होते हैं। जो विदेशी निवेशक विभिन्न बैठकों में भारत की आर्थिक उपलब्धियों की सराहना करते है। वह जब भारत यात्रा पर आते हैं तो उन्हें दूसरा ही भारत देखने को मिलता है। देश में औद्योगिक विकास का माहौल ही नहीं मिल पाता। सड़कों की हालत खास्ता है, शहरों में झुग्गी-झोपड़ियों की विशाल श्रृंखला नजर आती है। भुखमरी और बीमारी की समस्या अभी भी बड़े पैमाने पर विद्यमान है। इन बातों से आपको हालिया फिल्म स्लमडॉग मिलिनेयर की याद आ गई होगी।
वास्तव में नीतिकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि विकास के साथ-साथ गरीबी और अमीरी की खाई पाटी जाए। इस समय दुनिया के एक तिहाई निर्धन व्यक्ति भारत में रहते है। 199 विकासशील देशों की ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत का स्थान 93 है। भारत में करीब 35 प्रतिशत आबादी यानी लगभग 35 करोड़ लोग भोजन की असुरक्षा के शिकार हैं। गर्भवती महिलाओं में खून की कमी 20 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण है। 1992 से 2006 के बीच हुए तीन नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे लगातार बताते आए हैं कि भारत में बच्चों की पोषण स्थिति दयनीय है। 21 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं और वह भी तब जब केन्द्र से लेकर राज्य और ब्लाक स्तर पर बच्चों के पोषाहार के लिए तमाम योजनाएं चलायी जा रही हैं। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दक्षिण एशिया में भारत के पीछे सिर्फ बांग्लादेश है। यह तब है जब भारत में विश्व का सबसे बड़ा पोषण अभियान चल रहा है जिसे मिड डे मील योजना नाम से जाना जाता है।
सोचने वाली बात यह है कि आखिर वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से देश में गरीबी उन्मूलन के लिए हो रहे प्रयास विफल हो रहे हैं? पहला कारण देश में उद्योगों और कृषि के विकास का बिगड़ता तालमेल है। देश का विकास केवल उद्योगों तक सीमित है। किसान आत्महत्या कर रहें हैं वे ऋण के बोझ तले दबें हैं और अपना पेट पालना भी उनके लिए मुश्किल हो रहा है। गरीबी हटाने के लिए सबसे चुनौती यही है कि कृषि क्षेत्र का विकास किया जाए। हालांकि सरकार के पास योजनाओं की कमी नहीं है पर वे कारगर नहीं हो पा रही हैं। देश की 50 प्रतिशत आबादी की उम्र 25 वर्ष से कम है और बेरोजगारी की दर लगभग 7.50 प्रतिशत है। जब तक युवाओं को रोजगार उपलब्ध नहीं कराया जाता गरीबी की समस्या बनी रहेगी। अब तो मंदी के माहौल में बेरोजगारी की समस्या और विकराल होती जा रही है।
कभी-कभी हम ऐसी खबर पढ़ते हैं कि किसी भरतीय कंपनी ने किसी विदेशी कंपनी का अधिग्रहण कर लिया है। लेकिन ऐसी घटनाएं गिनी-चुनी ही हैं। इससे हमें यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि हम वैश्वीकरण की दौड़ में अन्य देशों से आगे निकल चुके हैं। वास्तव में देश में ज्यातर कंपनियां छोटी हैं जो इस वैश्वीकरण के युग में गलाकाट प्रतिस्पर्धा का सामना न कर पाने के कारण बंद हो रही हैं। हमें समाज के प्रत्येक वर्ग के हितों का ध्यान रखना होगा। अर्थव्यवस्था के कुछ विशेष क्षेत्रों को संरक्षण देकर ही विकसित किया जा सकता है। देश में धन एवं आय की असमानता विकास के साथ-साथ बढ़ती हीं जा रही है। अमीर और अमीर और गरीब और गरीब होते जा रहे हैं। देश की जनसंख्या के सबसे अमीर 20 प्रतिशत लोग कुल आय का 42 प्रतिशत प्राप्त करतें हैं वहीं सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोग कुल आय का मात्र 9 प्रतिशत प्राप्त करते है।
भारत में गरीबी उन्मूलन की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि सरकार द्वारा की जा रही मदद गरीबों तक पहुंच ही नहीं रही है। हम जानते हैं कि बजट में ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य, प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए एक बड़ी राशि आवंटित की जाती है,पर यह बड़ी धनराशि जरूरतमंदों तक नहीं पहुँच पाती। राजीव गांधी ने भी कहा था कि बजट का मात्र 18 प्रतिशत भाग ही गरीबों तक पहंच पाता है। हमें सरकारी नीतियों को अमल में लाने के प्रयास करने होंगे।
इन प्रमुख चुनौतियों के अलावा बढ़ती जनसंख्या,शिक्षा का अभाव, सियासी तकरार आदि अन्य चुनौतियां भी हैं जिनके कारण देश में गरीबी उन्मूलन के प्रयास सफल नहीं हो पा रहें हैं। लेकिन वर्तमान स्थिति और उसकी जटिलता देखते हुए यह कहा ता सकता है कि हमें एसी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होगी जिसमें विकास का लाभ जरूरतमंदों को मिले। जनता भी सरकार से नीतियों और योजनाओं पर सियासी तकरार नहीं परिणाम चाहती है। अगर हम ऐसी व्यवस्था नहीं कर सके तो फिर हम उसी भविष्‍य पर पहुंचेगें जहां हमारे पास होंगे दो भारत। एक सम्रद्ध और दूसरा शोषित और वंचित।

Monday, March 23, 2009



रात की रौशनी मे लेक पैलेस..
सिटी पैलेस उदयपुर।
पीछोला झील के किनारे बने इस महल का निर्माण महाराजा उदयसिंह द्वारा शुरू किया गया और उनके उतराधिकारियों द्वारा पूरा किया गया। इसका निर्माण कार्य १५५९ मे शुरू हुआ और १८वि सदी तक चला. महल क अन्दर ११ खूबसूरत महल हैं जिसे समय समय पर वहां राजाओं ने बनवाया था।

सोचों की झीलों का सहर हो...लहेरों पे अपना एक घर हो!!!
-लेक पैलेस उदयपुर। पीछोला
झील मे बने इस होटल मे कुल ८३ कमरे हैं।

क्या नहीं मिलता है यहाँ .....

दिल्ली में खरीदारी के लिए लोगों के पसंदीदा बाजारों में से एक है सरोजिनी नगर बाजार। एक तरफ रिबोक , केंटाबिल, एक्स कैलिबर और cotton काउंटी जैसे शोरुम तो दूसरी ओर सड़कों की पटरी पर सजी की दुकानें, हर आय वर्ग को आकर्षित करती हैं।
हर तरह के डिजाइन और साइज के कपड़ों के लिए प्रसिद्ध है यह बाजार। साथ ही साथ जूते- चप्पल, हेंड बैग, घरेलू उपयोग के सामान, कॉस्मेटिक की दुकान और तरह-तरह के खाने के स्टॉलों के कारण लोगों की खरीदारी के लिए पसंदीदा जगह है। खासकर रविवार को यहां की रौनक देखते ही बनती है। विदेशी पर्यटकों को भी यह एक अनुकूल माहौल देता है। नए से नए डिजाइन के कपड़े बड़े बुटिकों में आने से पहले यहां सस्ते दामों में उपल्ब्ध हो जाते हैं। लिवाइस, वेन हुसैन, गैप आदि कई मशहूर ब्रांडों के मामूली खराबी के कारण रिजेक्ट हुए कपड़े काफी कम दामों मे मिल जाते हैं। युवाओं का एक बड़ा वर्ग इन्ही के आकर्षण में यहां आता है।
इस बाजार की सबसे बड़ी खासियत तोल-मोल है। अगर आप तोल-मोल में अच्छे हैं तो आप 700 रुपये तक के कपड़े 300 में ले सकते हैं। लेकिन इसके अलावा कई रेड़ी वाले जींस, टॉप, स्वेटर, नाइट सूट और चप्पलों की अच्छी रेंज 100, 150, 200 जैसे फिक्स प्राइस पर भी सजाते हैं। इस बाजार में रेड़ी पर कपड़ें महज 35 रुपये में भी मिल सकते हैं और शोरुम में कीमत 4000 से 5000 तक भी पहुंचती है। दुकानों के अलावा घूम-घूम कर सजावटी सामान, धूप के चश्में, बेल्ट, रुमाल, मोजे आदि बेचते लोग खरीदारी की हर कमी को पूरी करते हैं। जगह-जगह लगे टिक्की, पकोड़े, स्वीट कार्न, मोमोज के स्थानीय बाजार के रुप में बनाया गया था। सरोजिनी नगर बाजार का यह आकर्षण नया नहीं है। दक्षिण-पश्चिम दिल्ली में स्थित यह बाजार 1950 ई. में सरोजिनी नगर आवासीय colony के स्थानीय बाजार के रुप में बनाया गया था।1960 तक यह क्षेत्र विनय नगर के नाम से जाना जाता था। बाद में इसके चार भाग कर दिए गए-उत्तर में लक्ष्मीबाई नगर, दक्षिण में किदवई नगर, पूर्व में सरोजिनी नगर और पश्चिम में नेताजी नगर।सरोजिनी नगर बाजार मुख्यतः चार भाग में बंटा हैं- बाबू मार्केट, सब्जी मार्केट, मंदिरवाली ओर और सेंट्रल मार्केट। बाबू मार्केट बाजार के उत्तर पश्चिम कोने में है। यहां चार गलियां हैं जहां ज्यादातर कपड़े की दुकाने हैं। मार्केट का आकर्षण महिन्द्रा स्वीट्स है जो ’मुच्छल हलवाई की दुकान’ के नाम से प्रसिद्ध है क्योंकि इसकी शुरुआत करने वाले की काफी बड़ी मूंछें हुआ करती थीं। इसके अलावा लाला जी का कुर्ता पैजामा की दुकान, चाचा की साड़ी की दुकान, केवल की खिलौना दुकान और खुले में चलनेवाली नाई और चायवाले की दुकान अन्य लोकप्रिय दुकानें हैं। सरोजिनी नगर बाजार के दक्षिणी छोर पर सब्जी बाजार भी है। यहां का सबसे बड़ा आकर्षण सब्जीवालों की एक सुर में आवाज लगाने की कला है। इसके ठीक सामने से सेंट्रल मार्केट शुरु होता है जहां अल्पना ट्रेडर्स, कल्पना tredors , फर्नीचर हाउस आदि मशहूर दुकाने हैं। कोने की कपड़े की दुकान के ठीक बाहर ठेले पर टिक्की और कुल्फी बिकती है जो बाजार की सबसे भीड़ वाली जगह है।यहां दुकानें एक सीध में बनी हैं जिसके सामने हाल ही में फुटपाथ बनाया गया है, लेकिन यहां भी आधे दूर तक पटरीवालों की दुकाने ही फैली होती हैं। सेंट्रल मार्केट का जो हिस्सा हनुमान मंदिर की ओर खुलता है वह jon प्लेयर, चार्ली आउटला, टी.एन.जी. और cotton काउंटी जैसे सस्ते ब्रान्डों के लिए लोकप्रिय है ।

गरीब रथ की गरीबी


Saturday, March 21, 2009

गरीब रथ की गरीबी


होली की छुटी में घर जाने के लिए डेल्ही से बनारस जाने वाली सारी गाड़ियों में सीट देखा ,लेकिन सभी में सीट फुल थी या वेटिंग में थी .घर वालो से मैंने बोल दिया की में नही आ रही हूँ .फ़िर 'जहाँ चाह वहा राह ' वाली कहावत जैसा कुछ हुआ .मेरे जीजा जी को मेरे टिकट न मिलने की ख़बर मिली उन्होंने तुंरत गरीब रथ और समर स्पेशल में वेटिंग की ही टिकट ले ली .मेरे जाने के पहले ही गरीब रथ की टीकट कन्फर्म हो गईं.मैंने मेरे जीमेल से टिकट का प्रिंट आउट निकाला .९ मार्च को शाम ६ .३० पर मेरी ट्रेन पुरानी डेल्ही से थी .मैं और अनु एक साथ स्टेशन के लिए निकले .अनु को नई डेल्ही छोड़ कर मैं पुरानी डेल्ही गई .वहा पहुची तो गरीब रथ लेट थी .ये रथ किस प्लेटफार्म पर आयेगी ये पता ही नही चल रहा था .फ़िर पूछ -ताछ केन्द्र से पता चला कि ट्रेन 3 नम्बर पर आरही है . ६.३० के बजाय ट्रेन ७.०० बजे चली .ऊपर वाले कि कृपा से चली तो .ट्रेन में जी ३ मेरा डिबबा था .जिसमे २३ मेरी सीट थी .अपने सीट पर पहुच कर मैनेसामान रखा मेरे कम्पार्टमेंट में मुझे छोड़ कर ८और लोग थे जिसमे एक दादी जी एक लड़की और५ लड़के और एक अंकल थे .हम सब लोग अजनबी थे .कोई किसी से बात नही कर रहा था .गरीब रथ पुरी एसी है .रेड और व्हाइट रंग की गरीब रथ में १५ डिब्बे थे .ट्रेन के चलते ही एसी ऑन हो गया ।मेरी उपर वाली सीट थी.कॉलेज में होली खेलने के कारन थोड़ा थकान थी,इसलिए ऊपर जाकर मैं सो गई .मेरे साथ के यात्रियों में एक लड़का था जो थोड़ा चंचल स्वभाव का था .वो भी अपने कॉलेज से होली खेल कर आया था .जिसके कारन उसे सर्दी हो गई थी.वो भी मेरे सामने वाली सीट पर लेट गया .मैं अपने फ्रेंड से फ़ोन पर बात कर रही थी .तभी उसका भी फ़ोन आया .वो अपने छोटे भाई से बात कर रहा था .की वो सोच रहा है की गाड़ी ले ले .इस बार वो अपने पापा से इस बारे मैं बात करेगा .पहले उसने बड़ी -बड़ी गाडियों के नाम लिए फ़िर अंत मैं बाईक पर आगया .मुझे उसकी बात सुनकर हसी आई पर मैंने उसे जाहिर नही होने दिया.वैसे एसी ट्रेन में मेरा ये पहला सफर था.लेकिन मुझे पता था की एसी ट्रेन मैं कम्बल और टाइम से खाना ,नास्ता मिलता है.और मजे की बात ये थी की मेरे साथ बैठे कई लोग का ये एसी से पहला सफर था क्योकि किसी को भी किसी और गाड़ी का तिक्कत नही मिला था .और गरीब रथ की ये तीसरी या चोथी यात्रा थी डेल्ही से बनारस की.क्योकि वो २ मार्च को ही पटरी पर लायी गई थी.नई ट्रेन का नयापन झलक रहा था.अन्दर -बहार से ट्रेन साफ सुथरी थी .सब लोगो अपने -अपने सीट पर बैठ कर नास्ता पानी के लिए पेंट्री वालो का इंतजार कर रहे थे .तभी मेरे सामने वाली सीट बार बैठे उसी लड़के को सर्दी लगने लगी वैसे सर्दी तो सभी को लग रही थी .वो निचे उतरा और लोगो से पूछा भइया हम सुने थे की एसी ट्रेन मैं कम्बल और नास्ता , पानी सब टाइम पर हाजिर होता है यहाँ २ घंटे हो गए न तो कम्बल वाले दिखे न ही चाय पानी वाले .ऊपर से एसी चला दिया है .वो उठा कम्पार्टमेंट से बहार जा कर एसी ऑफ़ कर आया उसके इस कम से सब को रहत मिली क्योकि सब लोगो को ही ठण्ड लग रही थी .अभी सब लोगसोच ही रहे था की क्यो पेंट्री वाले नही आ रहे तब तक टीटी साहब आते दिखे .उनके आते ही उसी बन्दे ने झट से पूछा सर कम्बल और चाय पानी मिलेगा .टीटी ने ताका सा जवाब दिया .नही मिलेगा क्योकि पुरे १५ डिब्बे की ट्रेन में केवल ६० कम्बल ही है.ये सुनकर तो सारे लोगे चकित रह गए वो बंद फ़िर बोला जब कम्बल नही मिलेगा तो हम आप को टिकट भी नही देंगे .पैसा देकर भी खाने पिने और ओड़ने के सामान के लिए तरस रहे है .इससे बेहतर होता की पैसेंजर से जाते कम से कम इतना पैसा तो नही लगता ।आप कम्बल नही दिलाएंगे तो कोण दिलवाएगा .टीटी ने कहा जा के लालू जी से कहिये की वो आप को कम्बल दे .मेरा काम टिकट देखना है न की कम्बल और खाना बाटना टीटी की ये बात सुनकर मेरे ही कम्पार्टमेंट में बैठे अंकल को गुस्सा आगया .उन्होंने टीटी को कहा ये बताईये की लालू जी आप के नोकर है या आप लालू जी के जो वो यहाँ आकार हमे कम्बल देंगे जरा अपने सुपरवाईजर का नम्बर देना उनको बात दूँ की अब लालू जी ट्रेन में कम्बल और चाय पानी की जिमेदारी संभाले.वो अंकल सरकारी ऑफिसर थे .टीटी उनकी बात सुन कर सॉरी सर मेरा मतलब ये नही था कहने लगा तब उन्होंने कहा जाओ अपने सीनियर को बुलाकर लाओ तुमसे टिकट कोई चेक नही कराये गा .टीटी चुप चाप चलता बना .थोडी दर में एक उर टीटी के साथ हमारे पास आया .फ़िर सब लोगो ने चुप -चाप टिकट दिखा दिया .टीटी के आने के पहले ही मेरे कम्पार्टमेंट के पांचो लड़के खाना लेने चले गए थे ,पेंट्री १५ वें डिब्बे में थी .वह से एक कंटेनर खाना लेकर वो लो ३० मिनट में आए करीब रात के १०.३० हो रहे होंगे .फ़िर सबने खाना खाया .खाने में वेग बिरयानी था .चावल कचे थे सभी ने थोड़ा सा खा के .और जो डिब्बे हम लोगो ने जयादा ले लिया था उसे हमारे डिब्बे में खाना न पाने वालो को दे दिया गए .इसके बाद हम सब लोबात करने लगे की ये सफर जिंदगी भर याद रहेगा .अब कभी खाना , पानी और कम्बल के बिना किसी सफर पर नही जायेंगे .फ़िर सब लोग इस बात से उबरने के लिए लैपटॉप मैंने डेल्ही ६ देखने बैठ गए थोड़े देर बाद सभी अपनी -अनपी सीट पर जा कर लम्बी तन कर सो गए .सुबह उठे तो कुछ लोग जा चुके थे .बस बनारस जाने वाले लोग ही बचे थे .फ़िर मैं सीट से निचे आई एक कप चाय किस्मत से मिल गई .फ़िर उन्ही अंकल से रात के मेड पर बात होने लगी .उनसे हम लोगो ने कहा इसका उपाय क्या है तो उन्होंने कहा उपाय तो है की ट्रेन से उतर कर अपनी प्रतिक्रिया रेलवे की नूत बुक में लिखे लिकिन कोई ऐसा करता नही समस्या होती है उसे झेलते है फ़िर भूल जाते है ऐसा नही होना चाहिए हम लोगो को उससे नोट बुक मंगा कर अपनी शिकायत लिखनी चाहिए थी ये और बात है की वो हमे नोट बुक लाकर नही देता .

ये कैसी मंदी!!!





अन्नपूर्ण की पोस्ट पढ़ कर लगा की हाँ ! ये सच है की मंदी ने नौकरियों को बिलकुल निगल लिया है मगर हाल की ख़बरों में भारतीय कंपनियों की तिमाही रिपोर्ट देखने से पता चला की अब तक भारत की किसी भी कंपनी को घाटा नहीं सहना पड़ा. बिज़नस में मैं थोडा कमजोर हूँ पर मोटा मोती बातों को समझती हूँ. ये बात पूरी तरह सच है की मंदी की मार से नौकरियों मैं भारी कमी आई है और कैम्पस प्लेसमेंट बुरी तरह प्रभावित हुआ हैं. पर ये भी एक सच है की हिन्दुस्तान की किसी भी कंपनी ने अपने को दिवालिया घोषित नहीं किया है और ऐसा भी नहीं की उन्हे प्रोफिट न हुआ हो. फर्क इतना है की उनके प्रोफिट का ग्राफ थोडा झुका हैं. यह सच हमें ये सोचने पर मजबूर कर देता है की मंदी किसके लिए है?? प्रोफिट शो करने वाली कंपनी के लिए की नौकरी न पाने वाले पढ़े लिखे बेरोजारों के लिए. मैं आई आई टी और आई आई एम्स की बात नहीं करुँगी क्यूंकि मेरा उनसे कोई सीधा सरोकार नहीं है. पर मैं आई आई ऍम सी की बात जरुर करुँगी. यहाँ भी मंदी की मार से बेहाल बच्चे नौकरी की आस मैं भटक रहे हैं. लेकिन एक ऐसा भी कोर्स है जहाँ नौकरियां बरस रही हैं. अंग्रेजी पत्रकारिता मैं ४८ मैं से ३६ बच्चों की नौकरी अब तक लग चुकी है और लगातार वहां कोई न कोई मीडिया हाउस प्लेसमेंट क लिए आ रही है. ऐसे मैं मन वापस ये सोचने पर मजबूर हो जाता है की क्या ये हिंदी अंग्रेजी का भेद तो नहीं. खैर जो भी हो सच्चाई तो ये है की कैम्पस में चाय वाले और सफाई वाली दीदी सब यही पूँछ रहे हैं की 'आप अभी तक गए नहीं. पहले वाले तो कब के चले गए थे!'
अब उनको क्या बताएं!!!!

कैम्पस प्लेसमेंट पर मंदी की मार

मंदी का असर इस बार कैम्पस प्लेसमेंट पर जबरदस्त तरीके से दिख रहा है । कंपनियों ने नई नियुक्तियां घटा दी हैं और फ्रेशर्स को बहुत कम मौके मिल रहे हैं। वे सभी क्षेत्र जिनके व्यापार में निर्यात का बड़ा हिस्सा है मंदी से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। विदशों में वस्तुओं की मांग कम हो गई है और देश में भी जॉब सिक्योरिटी प्रभावित होने से घरेलू बाजार प्रभावित है। इसमें भी आई.टी. सेक्टर( सूचना प्रौद्योगिकी) और वस्त्र उद्योग पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा है। और अब सभी बड़े शिक्षण संस्थानों में इसका असर दिखने लगा है। आई.आई.टी. दिल्ली में एम.एस.सी. अंतिम वर्ष के छात्र मोहित का कहना है कि इस साल पिछले साल की तुलना में प्लेसमेंट की स्थिति काफी खराब है। कोर्स के कुल 25 छात्रो में से अब तक केवल 10 को ही नौकरियां मिली हैं। इसी संस्थान में एम.टेक. अंतिम वर्ष के छात्र विवेक का भी कहना है कि हांलाकि पैकेज पर कोई खास असर नहीं पड़ा है लेकिन जो कंपनियां पहले दस छात्र ले जाती थीं आज मात्र दो ले जा रही हैं। इसलिए 100 प्रतिशत प्लेसमेंट की उम्मीद बिल्कुल नहीं की जा सकती। जबकि संस्थान के ट्रेनिंग और प्लेसमेंट सेल में स्टूडेंट coordinator अभिमन्यु कोठारी का कहना है कि मंदी का असर आई.आई.टी. जैसे संस्थान पर बहुत ज्यादा नहीं है। ज्यादातर प्लेसमेंट दिसम्बर में होते हैं और इस बार भी काफी प्लेसमेंट हुए हैं। 22 लाख का अधिकतम पैकेज भी मिला है। लेकिन इसका अंदाजा लगाया जा सकता है कि संस्थान की छवि खराब ना हो इसलिए वे मंदी के असर को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं। फिर भी उन्होंने इस बात से इन्कार नहीं किया कि प्लेसमेंट के ऑफर बहुत घटे हैं। एक और स्टूडेंट coordinator शमित रस्तोगी का कहना है कि तेल कंपनियां, कंसल्टेंसी सेवा और सॉफ्टवेर क्षेत्र की कंपनियां तो अभी भी आ रही है पर वित्तीय और बैंकिग क्षेत्र से, जो कि काफी ज्यादा लोगों को ले जाती थी, इस बार एक भी कंपनी नहीं आयी है।वस्त्र उद्योग पर भी मंदी की काफी मार पड़ी है। ज्यादातर निर्यात अमेरिका और यूरोपीयन यूनियन में होता था जहां मांग बहुत घट गयी है। वस्त्र उद्योग मांग की कमी झेल रहा है जिसके कारण उत्पादन और रिटेल दोनों क्षेत्रों की कंपनियां लोगों को नौकरियों से निकाल रही हैं। निफ्ट गांधीनगर, गुजरात के 2008 बैच के छात्र रवि का कहना है कि पिछले साल निफ्ट से 17 छात्रों को विशाल इंटरप्राइजेज में नौकरी दी गई थी जिनमें से आठ लोगों को अब तक निकाला जा चुका है और चार अन्य को मार्च तक निकले जाने की बात की गई थी। उल्लेखनीय है कि विशाल इन्टरप्राइजेज का टर्न ओवर छः महिनों में 25 प्रतिशत तक घटा है। निफ्ट दिल्ली में अंतिम वर्ष के छात्र नीरज का कहना है कि पिछले साल तक कई बड़ी रिटेल कंपनियों ने छोटे शहरों में जो नए आउटलेट्स खोले थे वो बंद किए जा रहे हैं, इसलिए मार्केटिंग में नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं।

बड़े औद्योगिक क्षेत्रों के अलावा छोटे सेवा क्षेत्रों पर भी मंदी की मार पड़ी है। जे.एन.यू. में ऑफ़ लैंग्वेज लिटरेचर एण्ड कल्चर स्टडीज के काउंसलर शाहनवाज खान कहते हैं,"निश्चित रुप में हम पर मंदी का काफी गंभीर असर पड़ा है। बी.पी.ओ., होस्पितालिटी जो कि छात्रों का आकर्षण थीं नई भर्तियां नहीं कर रही हैं और जहां नए चयन हो भी रहे हैं वहां पहले की तरह पैकेज नहीं मिल रहा।’’ रसियन भाषा के छात्र जयप्रकाश शर्मा कहते हैं कि अब पार्ट टाइम जॉब मिलने में भी कठिनाई हो रही है। अरबी भाषा में बी.ए. अंतिम वर्ष के छात्र अखिल आगे एम.ए. और पर्सियन भाषा के छात्र गुलाम समदानी पी.एच.डी. करने का मन बना रहे हैं। इसी तरह की चिंताएं जे.एन.यू. के स्कूल ऑफ़ कम्प्यूटर एण्ड सिस्टम साइंस में भी है। स्कूल के प्लेसमेंट coordinator रंजीत रंजन का कहना है कि पहले जहां 90 प्रतिशत प्लेसमेंट जूलाई तक हो जाते थे, इस बार दिसंबर तक केवल ६० प्रतिशतछात्रों का ही प्लेसमेंट हो पाया है। जिन लोगों को पहले चुना भी गया था उनके नियुक्ति पत्र नहीं आ रहे हैं। मेडिकल, बैंकिंग, कंसल्टेंसी और माइक्रो फाइनांस सेवाओं पर बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा है इसलिए एम्स, श्री राम कॉलेज ऑफ़ कोम्मेर्स और दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स में कैंपस प्लेसमेट उतना प्रभावित नहीं है। हां विदेशीकंपनियों का आना जरुर कम हुआ है।

बेफिक्र भारत



दुनिया में आज जब सभी जगह आर्थिक मंदी को इतना जोर शोर से प्रचारित किया जा रहा है और भारत में इसे एक हौवा बनाने की कोशिश की जा रही है, तब भी आम आदमी इस मंदी से बेफिक्र नज़र आ रहा है! इस आर्थिक मंदी का मुख्य रूप से असर भारत में यह हुआ कि जो आम आदमी कुछ नई चीज़ या कुछ नया सामान खरीदने वाला था , अब उसने अपनी खरीददारी को कुछ दिन के लिए रोक लिया है.....! ऐसी बात नहीं है कि उसके पास पैसा नही है, पास पैसा तो है पर उसने जब से इस "आर्थिक मंदी" के भूत का नाम सुना है तब से उसे कहीं खर्च करने के बजाय इकठा करने में ही समझदारी दिखाई दे रही है। अब जब तक मीडिया इस आर्थिक मंदी का भूत आम आदमी के मन से नही निकालेगा तब तक खर्च करने से यूँ ही डरता रहेगा ! "जय हो"

भारतीय दुधारू रेल: मुस्कान के साथ

मैंने जयपुर का रेल टिकट लिया और जब इसे अहमदाबाद तक बढ़वाना चाहा तो रेलवे ने इसका अतिरिक्त शुल्क वसूल किया। हालांकि इस काम को करने में रेल विभाग को कोई भी खर्च अलग से नहीं करना पड़ता है। पर “ग्राहकों की सेवा मुस्कान के साथ“ ! सूत्र वाक्य वाली लालू की दुधारू रेल आज यही मिजाज रखती है।ठीक इसी तरह जब कोई यात्री अपनी यात्रा शुरु करने के स्थान से ही वापसी का टिकट भी बुक करवाता है तो रेलवे यात्री से 20 रुपये अतिरिक्त शुल्क वसूल करता है। जैसे ़ ़ ़ किसी यात्री को दिल्ली से बनारस जाना है और बनारस से वापसी का टिकट वह दिल्ली से ही बुक करवाना चाहता है तो उसे 20 रुपये अतिरिक्त शुल्क देना होता है। कंप्यूटर के माध्यम से प्राप्त हुई ये सुविधाएं यात्री को आसानी से मिलनी चाहिए थी लेकिन इसकी कीमत उसे अपनी ही जेब से चुकानी पड़ती है। तो ऐसे में तकनीकी विकास का उस यात्री को क्या फायदा मिला जिसे सुविधाजनक यात्रा के सपने दिखाए जा रहे है ?पिछले चार सालों से लगातार लाभ की गाथा लिख रहे भारतीय रेल के कर्णधारों ने किस तरह आम आदमी की जेब में डाका डाला है, यह उसकी समझ से भी बाहर है। आधुनिकीकरण और तकनीकी विकास से हासिल हुई सुविधाओं की कीमत भी सामान्य यात्रियों कों चुकानी पड़ रही है। वहीं रेलवे हजारों करोड़ का मुनाफे कमाने वाली निजी कंपनियों का रिकार्ड भी तोड़ रही है। इस कमाई के पीछे रेल विभाग की कुशलता से ज्यादा उसका व्यवसायीकरण है। यात्रियों से टिकट वसूली में रेलवे ने आरक्षण के सामान्य कोटे को घटाकर तत्काल आरक्षण का कोटा बढ़ा दिया है। जिसमें सामान्य आरक्षण शुल्क से 30 फीसदी अधिक शुल्क देना होता है। यदि यात्री को सीट;कन्फर्मद्ध नहीं मिल पाती है तो टिकट के पैसे भी वापस नहीं मिलते हंै। अब मजबूरी में यात्री को तत्काल का टिकट लेना पड़ता है क्योंकि सामान्य आरक्षण का कोटा कम होने की वजह से पहले ही खत्म हो जाता है। इस तरह की चालाकी से रेल विभाग करोड़ों कमा रहा है। डिब्बों में सामान्य यात्रियों की सीटों की जगह को छोटा किया गया है और नई सीटें बनाई गई है। इससे यात्रियों को सफर में दिक्कत तो होती ही है और उनकी सुरक्षा भी प्रभावित होती है। इस तरह रेल विभाग सामान्य यात्रियों की सीटों की जगह बेचकर ’मुनाफे का खेल’ खेल रहा है। रेलवे ने जहां अपने स्टेशनों के पास की भूमि का व्यावसायिक उपयोग किया है वहीं स्टेशनों पर निजी सार्वजनिक भागीदारी के आधार पर निजी उद्योगपतियों को मालामाल भी किया है। अब तो स्टेशनों पर आधारभूत सुविधाओं का उपयोग करने के लिए भी यात्रियों को शुल्क देना पड़ता है। सार्वजनिक सेवा के नाम पर कार्य करने वाली रेल अब पीने के पानी से लेकर यात्रियों के रात में ठहरने की जगह तक का पैसा वसूल रही है। क्या यही है भारतीय रेल ग्राहकों की सेवा मुस्कान के साथ ?

सरकारी बहानो में उलझी आदिवासी शिक्षा विकास योजनाये



जनजातिय मामलों के मंत्रालय ने सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण पर गठित स्थायी समिति की जनजातियों के लिए चलाई जा रही शैक्षिणिक उत्थान योजनाओं से संबंधित रिपोर्ट में राज्य सरकारों की दायित्वहीनता एवं केन्द्र सरकार निष्क्रियता साफ झलक रही है। समिति ने अपने प्रतिवेदन में कहा है कि जनजातियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए चलाई जा रही एकलव्य मॉडर्न रिहायशी स्कूलों की स्थापना की परियोजना के अंतर्गत मंत्रालय ने विभिन्न राज्यों के लिए 100 स्कूल मंजूर किये थे, उनमे से केवल 79 स्कूल ही कार्यरत है । शेष 21 स्कूल शुरु ही नही हुए यहां तक कि उनमें से चार स्कूल जनजाति बहुल आसाम एवं मेद्यालय से दूसरे राज्यों मे स्थान्तरित कर दिये गये। कमेटी ने पाया की राज्य सरकारों की गैर जिम्मेदारी एवं उदासीनता के कारण यह स्कूल स्थापना का कार्य समय से नही हो सका और अब कहा है कि मंत्रालय अनिर्मित सभी स्कूलो को 2 वर्ष के भीतर शुरु करने के लिए राज्य सरकारों को आवश्यक निर्देश जारी करें। समिति ने कहा है कि 2004.05 से 2007.08 में मंत्रालय द्वारा उत्तर -मैट्रिक छात्रवृत्ति के लिए अरुणाचल प्रदेश, बिहार, दमन दीव के लिए जो वित्तीय मदद नही दी गई उसे तुरंत जारी किया जाये। कमिटी मंत्रालय के इस जवाब से असंतुष्ट थी कि संबंधित राज्य द्वारा वित्तीय मांगो के प्रस्ताव नही भेजे थे। कमेटी के सामने सरकार ने अपने जवाब में कहा था, मंत्रालय ने 2007-08 के दोहराने संबंधित राज्यों एवं केन्द्र शासित प्रदेशों को कई बार लिखित स्मृति पत्र भी भेज चुकि है लेकिन राज्य सरकारों ने आवश्यक कार्यवाही नही कि, इसे कमेटी ने खारिज कर दिया तथा कहा कि मंत्रालय को आदिवासी छात्रों के लिए राज्य सरकारों पर आवश्यक दवाब बनाये ताकि उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। एवं इन कारणों का भी पता लगाये जिनके कारण राज्य सरकारे समय-समय पर प्रतिवेदन क्यों नही दे पाती है। शत प्रतिशत केन्द्र सरकार द्वारा संचालित उत्तर मैट्रिक छात्रवृति योजना के ठीक क्रियान्वयन नही होने के पीछे सरकार का तर्क है की वित्तीय रुप से पिछड़े अनुश्चिित जनजाति के छात्र छात्रवृति के लिए आवेदन नही करते है इसे कमेटी ने सिरे से खारिज कर दिया तथ टालने के रवैये की कड़ी आलोचना की है। स्थयी समिति ने अपनी अगली सिफारिश के संदर्भ में मंत्रालय से आये जवाब मे कि असम, झारखंड, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़ से इस छात्रवृति पर खर्च एवं उपयोग प्रमाण पत्र नही मिलने के कारण इनकी वित्त पूर्ति पर रोक लगा दी गई थी लेकिन कमेटी ने इससे नाराजगी जताते हुए कहा कि इसके खच्र का सुनिश्चित करते हुए यह ध्यान दिया जाये कि निर्धारित योजना का पैसा उसी योजना पर खर्च किया जाये किसी अन्य योजना मे यह डाइवर्ट नही किया जाएं। 2004-05, 2005-06 और 2006-07 में अप ग्रेजुएशन आफ मेरिट आफ एसटी स्टूडेंट स्कीम के अंतर्गत लाभार्थियों की संख्या कई राज्यों में नही के बराबर है एवं 2007-08 में उत्तर प्रदेश में तो इस योजना के अंतर्गत किसी को भी लाभ नही दिया गया यह दशा मंत्रालय की अनदेखी एवं राज्य सरकारों की जनजातियों के शैक्षणिक विकास के प्रति उदासीनता को उजागर करती है।

Saturday, March 21, 2009

वरुण गाँधी कांग्रेस में....

वरुण गाँधी भाजपा में रहते हुए रात में कुछ नामों से डर जाते हैं। क्या होता अगर वरुण ताईजी और भइया राहुल के साथ उनकी पार्टी में होते? यह अच्छी बात नहीं है, वरुण गाँधी के इस डर को चुनाव आयोग, भाजपा, कांग्रेस सभी ने गंभीरता से लिया लेकिन ताईजी या राहुल भइया ने नहीं। परिवार में रहते हुए ताईजी और बड़े भइया की ज़िम्मेदारी बनती है कि उन्हें डर के इस माहौल में हिम्मत दिलाएं जब उनकी पार्टी भी उनसे पल्ला झाड़ती नज़र आ रही है।
पिता से गाँधी का नाम और मां से पीलीभीत की सीट गिफ्ट (चुनाव लड़ने को ) में लेकर भी उनकी राह आसान नहीं हो पाई। गाँधी परिवार के हर शख्श को भारतीयों पर राज करने का हक मिला हुआ है। वैसे राज के मामले में कांग्रेस भाजपा से बीस ही साबित हुई है लेकिन वरुण के साथ दिक्कत ये है कि वो भाजपा में हैं। अगर वो कांग्रेस में रहकर ये बयान देते(शायद न भी देते) तो उन्हें हिम्मत बंधाने वालों की भीड़ लग चुकी होती। लेकिन अभी उनकी मां के ही उनके साथ होने की उम्मीद है। इसलिए नहीं कि वह भी भाजपा में हैं सिर्फ़ इसलिए कि वह उनकी मां हैं (भारतीय माएं थोड़ा इमोशनल होती हैं,मदर इंडिया को छोड़कर)। और हम भारतीयों के पास सिर्फ़ मां भी हो तो हमें सबसे ज़्यादा अमीर समझा जाता है (फ़िल्म दीवार में शशि कपूर)। अभी तो मां मेनका उनसे, शोले फ़िल्म की तमाम माओं की तरह यही कह रही होगी, "बेटा, सो जाओ / बाहर मत निकलना नहीं तो 'डराने वाले' आ जायेंगे."

मीडिया पर मंदी की मार

देश में मंदी की शुरुआत में एक बड़ा समूह यह मान रहा था कि मीडिया में मंदी उतनी नहीं है जितनी दिखाई गई है। पर क्या अभी भी वही बात है? देश में मंदी गर्त में भले न हो पर ये गिरावट स्थायी जरूर होने लगी है । ऐसे में अब मंदी सच में मीडिया को प्रभावित करने लगी है। पिछले चार पॉँच सालो में मीडिया ने काफी तरक्की की थी,लेकिन ऐसे में बिना सोचे समझे कदम उठाय गए। जितनी जरूरत थी उससे ज्यादा लोगों को नौकरी दी गई। विस्तार और विकास का पूरा फायदा उठाया गया। और अब जब मंदी का माहौल है तो फालतू खर्चों को कम किया जा रहा है। लेकिन अब हालत इतने भर से काबू में नहीं आ रहे हैं। सच तो ये है की मीडिया इंडस्ट्री की हालत बहुत ख़राब हो चुकी है।
विज्ञापन के पेट्रोल से चलने वाली मीडिया की गाड़ी पंक्चर न सही पर उसकी हवा जरूर निकल चुकी है। मंदी से परेशान सभी कंपनियां अपने विज्ञापन खर्चों में काफी कटौती कर रही हैं । दिल्ली और मुंबई में विज्ञापन की संख्या में लगभग चालीस प्रतिशत की कमी आई है। ऐसे में विज्ञापन दरों में कमी की जा रही है। फिक्की (के पी एम जी) की रिपोर्ट के अनुसार प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक दोनों में अनियंत्रित तरीके से विज्ञापन दरों में कमी की गई है। लाभ घटने के कारण लोगों को नौकरियों से निकला जा रहा है और नई भर्तियाँ बंद कर दी गई हैं। लेकिन ये काम इतनी तेजी और आसानी से इसलिए किया जा रहा क्योंकि सच में उन्हें उनकी जरूरत कभी थी ही नहीं। कुछ कम कर्मचारियों से भी उनका काम हो रहा है।
इसलिए हालत तभी सुधर सकते हैं जब फिर से विस्तार का माहौल बने । किसी मीडिया घराने के वर्तमान अख़बारों या चैनल्स में तो नौकरियां मिलने की संभावना बहुत कम है। हाँ, जब नए संस्करण शुरू किए जायेंगे तो कुछ उम्मीद की जा सकती है । लेकिन अगर मंदी और गहराई तो हालात और बुरे होंगे। और अब तो महगाई दर एक प्रतिशत से भी कम होने के बाद यही डर सता रहा है ।

Friday, March 20, 2009

हवामहल राजस्थान की शान



हवामहल का निर्माण सन् १७९९ में जयपुर के महाराजा सवाई प्रताप सिंह ने किया इसे हवा का पैलेस भी कहा जाता है । हवामहल पाच मंजिला है जिसमे हवा आने के लिए कई खिड़की है । जिनसे हवा आती रहती है यह राजा महाराजा लिए पुरसत के समय यहाँ से शहर के नजारे हवामहल की खिड़की से लेते थे लेकिन वर्तमान मे हवामहल राजस्थान की शान बन गया है देश विदेश से सेलानी यहाँ हवामहल को देखने बड़े उत्साह से आते है

वरुण गांधी ने औपचारिक स्पष्टीकरण दिया


चुनाव आयोग के आदेश पर दो समुदायों के बीच वैमनस्य फैलाने का आपराधिक मामला दर्ज किए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी के नेता वरुण गांधी ने औपचारिक स्पष्टीकरण दिया
अपने भाषण की टेप रिकॉर्डिंग के साथ छेड़-छाड़ का दावा किया, उसकी जाँच की मांग की. लेकिन हिंदू हितों की झंडाबरदारी की जिस पहल का दावा उन्होनें कथित तौर पर पीलीभीत में किया था, उससे पीछे न हटे.
उन्होंने कहा, "जब भी कोई व्यक्ति हिंदू समुदाय के सम्मान की बात उठाता है उसे सांप्रदायिक करार दिया जाता है, यह एक राजनीतिक साज़िश है."
लगभग उसी तरह के शब्द, जिसका इस्तेमाल शिव सेना सुप्रीमो बाल ठाकरे करते रहे हैं या विवादित बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि तोड़े जाने के दौर के लालकृष्ण आडवाणी करते थे या जिसकी उम्मीद वर्ष 2002 में गुजरात दंगों के बाद 'हिंदू हृदयसम्राट' करार दे दिए गए नरेंद्र मोदी से की जाती है.
लेकिन यहाँ तो मामला इंदिरा गांधी के पोते और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के परपोते का है. वे जवाहर लाल नेहरू, जिन्होंने सारी ज़िंदगी फ़िरकापरस्ती का सख़्ती से विरोध किया और मुल्क की गंगा जमुनी संस्कृति, ख़ासतौर पर अल्पसंख्यकों के हकों की, हिमायत की.
हालाँकि बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि मामले, शाहबानो केस, दिल्ली के सिख दंगों की रोशनी में एक वर्ग नेहरु- गांधी परिवार के एक और वारिस राजीव गाँधी की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठाता है.
वरुण गांधी ने पहले से तैयार एक बयान मीडिया के सामने पढ़ा, जिसमें कहा गया कि उनके भाषण के टेप के साथ छेड़छाड़ की गई और फिर वही टेप टीवी चैनलों पर दिखे, भाषण दिए जाने के 12 दिनों के बाद.
उन्होनें कहा कि उन्हें मुसलामानों के ख़िलाफ़ कुछ आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हुए दिखाया गया है, मगर वह उनके शब्द नहीं क्योंकि उसके कुछ शब्द काट दिए गए हैं.
उदाहरण के तौर पर उन्होनें कहा की वोट कटुओं का साथ मत दो, इसमें से वोट शब्द को उड़ा दिया गया और वही लोगों को दिखा.
अपने भाषण में कथित तौर पर मुसलामानों को पकिस्तान भेजे जाने की सिफ़ारिश करने और हिंदुओं की तरफ उठे हर हाथ को काट देने की बात कहने वाले वरुण गाँधी ने कहा कि उत्तर प्रदेश के सीमांत इलाक़े में बसे उनके चुनाव क्षेत्र में भय का माहौल है, एक समुदाय विशेष के लोगों के ख़िलाफ़ 400 फ़र्ज़ी केस दर्ज किए गए हैं, गाँवों के प्रधान को डराया-धमकाया जाता है, इसीलिए "मैं उनकी रक्षा और सम्मान में खड़ा हुआ हूँ."
वरुण गांधी तीन चार साल पहले भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए. जिसकी सदस्य उनकी माँ मेनका गांधी पहले से ही हैं. वरुण गांधी को पार्टी में न कोई अहम ओहदा मिला और न ही अबसे पहले कहीं चुनाव लड़ने का अवसर.
राजनीतिक हलकों में कहा जा रहा है अब शायद हालत दूसरे हों, कम से कम इस बयान के बाद तो ज़रूर.
"मुझे इस बात पर गर्व है कि मैं हिंदू हूँ. लेकिन इससे पहले भारतीय हिंदुत्व का मतलब है सबके लिए न्याय, सम्मान और सबको समाहित यानी एक साथ करके चलना

वो तीन रातें



एक दिन क्लास में प्रधान सर ने एलुमनाई मीट की बात करते _करते आनेवाले ८ मार्च को 'महिला दिवस ' पर महिला विशेषांक निकलने की जिमेदारी हम १४ लड़कियों पर डाली .हमने बड़े उत्साह से ये जिमेदारी ले ली .फरवरी के तीसरे हफ्ते से हम लोगो ने आपस में बात -चीत करके निर्णय किया कि हम अपने पेपर में किस मुद्दे को उठाएंगे .फ़िर प्रधान सर से हमने अपना आईडिया शेयर किया .सर ने भी हमे पेपर के लिए ढेर सारे सुझाव दिये.फ़िर उन्होंने हमे अनिल सर कि मदद लेने को कहा .सर से बात करके हम लोगो ने अपने काम बाट लिए .फ़िर सभी लड़कियों ने १४ महिला पत्रकार का इंटरव्यू लिया और अपने अनुभव भी लिखे .इसके अलावा महिला प्रेस क्लब की सचिव ,ब्लॉग की दुनिया में महिला का रोल ,देल्ही में काम करने वाली बंगला देशी महिलाओ के बारे में और अपनी संस्था से पास आउट लड़कियों की स्टोरी के साथ ही भारतीय जन संचार संस्थान के लड़के और लड़कियों के बीच एक सर्वे कराया .जिसका परिणाम बड़ा ही चोकानेवाला था .कि मीडिया में आने वाली ९५ प्रतिशत लड़किया प्रेम विवाह या अपनी मर्जी से विवाह करना चाहती हैं । जबकि केवल ३५ प्रतिशत लड़के इसके पछ में थे.साथ ही लड़किया पिता की सम्पति में हक नही चाहती थी पर लड़के उन्हें ये अधिकार देने को तैयार थे.लड़कियों ने माना की प्रकृति ने उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर बनाया है वो अपनी रक्छा लड़को की तरह नही कर सकती .वही लड़को ने माना कि लड़किया अपनी रक्झा स्वयं कर सकती है । हम लोगों को २ मार्च तक सारा मटेरियल सर को दिखाना था .उस दिन तक सभी ने अपना काम लगभग कर लिया था .२ मार्च की मीटिंग में सर ने मटेरियल देखने के बाद पेपर के लेआउट को समझाया .साथ ही एक गुरु मंत्र दिया कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना जरुरी है .हम लोगो ने सर की बात को गाढ़ बांधा .ऐसा नही था कि हम मेहनत नही कर रहे थे पर उस वक्त हम लोग अकेले -अकेले अपना काम कर रहे थे .टीम की तरह काम करना और उसका क्या मजा होता है ये तो हम लोगो को उन तीन दिनों में पता चला जब हम १० लोग हॉस्टल में पेपर का लेआउट डिजाईन , एडिटिंग और प्रूफ़ रीडिंग करके पेपर तैयार करने में तीन रात सोये ही नही .८ बजे खाना खाने के बाद सब किसी एक के कमरे में अपने -अपने लैपटॉप के साथ इकठा होते और फ़िर काम पर लग जाते .एक कमरे में १० लोग, ६ लैपटॉप ,एक बेद वाले रूम में तीन गद्दे या चटाई बिछा कर दस लोग एक -दुसरे की कापिया पढ्ते औरो को सुनाते फ़िर लोट -लोट कर हस्ते फ़िर उसे सही करते .दिन में क्लास और रात में पेपर का काम .हमारी तीन रात और दिन की मेहनत में हम लोगो को बहुत कुछ शिकने को मिला तो साथ ही हम दस एक दुसरे को जानने लगे अभी तक हमारी जान - पहचान थी अब हम दोस्त है इसके अलावा जो सबसे अहम् बात सामने आई वो थी की हमलोगों में केवल सुरभि को लेआउट आता था .औरो को नही.इस कमी से हम लोगो को पेपर तैयार करने में बड़ी मुस्किल हुई .क्योकि ६ लैपटॉप के साथ ६ पेन ड्राइव थे .जो वायरस से फुल थे .जिसके कारन ६ की रात हमारा ८ पेज बनने के बाद भी ३ पेज तीन बार गायब हुआ . सुबह १० बजे तक पेपर तैयार करके देने की हमारी डेड लाइन थी .८ बजे तक हमारा पेपर तैयार था लेकिन अचानक फ़िर तीन पेज गायब हो गया .ये हमारे सब्र की इंतहा थी फ़िर से हमने तीन पेज की स्टोरी एडिट की सुरभि ने फ़िर उसका लेआउट बनाया .अंततः ११.३० बजे हमने सर से ऍप्लिकेशन साइन कराया और पेपर की सॉफ्ट कापी प्रेस में दे दी, जो हमें शाम तक मिली .पेपर के पुरा होने की खुशी थी साथ ही ७ मार्च को पेपर के विमोचन की खुशी उसे और बढ़ा रही थी .आपको ये जानकर अजीब लगेगा की ६ मार्च को सुरभि का जन्म दिन था हम लोगो ने सुरभि को बिना बताये उसका बर्थ डे मानाने का प्लान बनाया .फ़िर हमने चोरी से केक ,कोल्ड ड्रिंक ,चिप्स वगर मगाया .रात के १२ बजे हमने उसे विस किया . थोडी मस्ती की फोटो खिचवाया फ़िर सब लोग अपने काम पर लग गए .अजीब तब लगता था जब सुरभि का फोन आता था ,उसे बर्थ डे विश करने के लिए तो हमें नही चाहते हुए भी उसे ये कहना पड़ता था ,की सुरभि कल बात कर लेना आज कह दो तुम काम कर रही हो .लेकिन सुरभि ने हमारी बात का बुरा नही माना .वो कम मैं लगी रही .५ और ६ तारीख को हम में से कोई क्लास नही गया .सुबह से हॉस्टल मैं ही पेपर की एडिटिंग और लेआउट ,प्रूफ़ रीडिंग में लगे रहे .ये तीन दिन हम सभी के जीवन के होस्टल लाइफ के सबसे अच्छे पल थे .क्योकि इससे पहले हम लोगे परिचित थे लेकिन अब हम सब अच्छे दोस्त है.एक साथ काम कर के हमे बहुत अच्छा लगा .इस पेपर 'तेवर ' ने हमे पत्रकार बना दिया .इससे जुड़े कई अच्छे अनुभव है जो हम लोगो को ता उम्र याद रहेंगे .

नवचंडी मेला


सांप्रदायिक सदभाव का अनूठा संगम है नौचंदी मेलाटूरिंग फोटो स्टूडियों मनचले युवकों का झुंड ऐश्वर्या राय के कटआउट की कमर में बॉहें डालकर फोटों खिंचवाते हुए तो कहीं पर नई नवेली दुल्हन अपने देहाती पति के साथ गज भर का घूधंट निकाले झूले पर बैठी होगी । ये किसी फिल्म का दश्य नही बल्कि दिल्ली से 60 किमी दूर मेरठ के नौचंदी मेले का दश्य है। इस मेले की खासियत का आलम यह है कि लोग पूरे साल बेसब्री से इस मेले का इंतजार काते है। यह मेला होली के बाद दूसरे रविवार से लगता है। कुंभ के बाद उत्तर भारत का यह सबसे बड़ा मेला है। सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक इस मेले में जहां हिन्दू आस्था का प्रतीक नवचंड़ी का मन्दिर है वहीं दूसरी ओर बाले मियां की मजार है। मुस्लिम लोक भाषा के अनुसार नये चांद ‘ाब्द से ही नौचंदी ‘ाब्द बना है। मजार के ठीक सामने नवरात्र ‘ाुरू होने पर श्रद्धालु भक्त नवचंड़ी के मन्दिर में सोने और चांदी के छत्र चढ़ाते है। उधर बाले मियां पर आयोजित उर्स मुबारक के मौके पर अकीदतमन्द जियारत करते है। और कव्वालियों के जरिए बाले मियां को याद किया जाता है। उनकी यह ऐतिहासिक मजार हजरत सालार मसूद बालें के नाम से उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड लखनउ में 505 संख्या से पंजीकत है। बाले मियां के बारे में कहा जाता है।11 वीं ‘ाताब्दी में अलाउददीन खिलजी के सेनापति सैयद सालार मसूद उर्फ बाले मियां ने मेरठ में भीषण युद्ध लड़ा और बाद में धन जन की क्षति और भीषण रक्त पात से द्रवित होकर उन्होंने सेनापति पद से इस्तीफा दे दिया। और फकीर हो गये। मेरठ में जहां उनकी उंगली कट कर गिरी। वहां उनकी याद में मजार बन गई। कुरान ख्वानी तथा गुस्ले ‘ारीफ इस उर्स की प्रमुख रस्में है। मेले में प्राचीन चंड़ी मन्दिर का उल्लेख 1194 के दस्तावेजों से मिलता है। तैमूर के आक्रमण के समय एक हिन्दू ललना मधु चंडी सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। उनकी पुण्य स्मति में नवचंडी देवी मंदिर की नींव रखी गयी। 1184 में कुतुबुददीन ऐबक ने इसे जलमग्न करके यहां दरगाह का निर्माण किया। फिर ग्वालियर की रानी अहिल्याबाई ने दरगाह ध्वस्त करके इस मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा की। ये तो थी इतिहास की बात।आज यहां हर साल पचास हजार लोग मेला देखने आते है। पहले यहां पशु बिकते थे। लेकिन तब स ेअब तक उनका स्थान धार्मिक, व्यवसायिक सामान और कलात्मक चीजों ने ले लिया है। ये मेला साढ़े चार वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र तक फैला है। इसका प्रबन्ध स्थानीय नगर निगम द्वारा किया जाता है।लेकिन यहां आकर ऐसा लगता है मानो दो धार्मिक संस्कतियां गले मिल रही हो। एक तरफ आध्यात्म की बहती धारा में घंटी र्कीतन ‘ांख और वेदों के मंत्रोचारण और दूसरी तरफ कुरान ‘ारीफ के सिपारे और कुरान ख्वानी की दुआंए। सांप्रदायिक दंगो के दुस्वपन को ये विराम देती नजर आती है।नौचंदी मेले के परिसर में सुभाष द्वार, विजय द्वार और इन्द्रा द्वार देखने लायक है। पटेल मंडप पर आप विविध संस्कतियों की झलक भी मिलती है। ‘ााम को बल्बों की कतारों से रोशन नौचंदी मेले की दुकानें ऐसी लगती है मानो सितारे जमीं पर सजा दिए गये है। टीवी रिएल्टी ‘ाो और फिल्मों ने आज के युवा वर्ग को कितना भी क्यों न जकड़ा हो लेकिन यहां के नाटक नौटंकी का जादू आज भी लोगों के सिर चढ़कर बोलता है। खाने के ‘ाौकीनों के लिए यहां पेशावरी हलवा पराठा, इलायची दाना नानखताई ठड़े केसर प्रमुख है। खरीददारी के लिए यहां अलग अलग राज्यों की प्रसिद्ध चीजें भी यहां मिलती है। कुल मिलाकर सांप्रदायिक एकता और संस्कति का अनूठा संगम है नौचंदी मेला

उत्तर पूर्व के लिए अलग अलग हो उच्च न्यायालय



संसदीय समिति ने उत्तर पूर्व के राज्यों में अलग-अलग उच्च न्यायलयों की स्थापना की मांग की है जिससे इन राज्यों के आदिवासी नियमों को संहिताबद्ध कानूनों में बदला जा सके।इसके साथ ही समिति ने मंत्रालय को त्वरित न्यायालय मामलों को जल्दी निपटाने से ज्यादा उचित परीक्षण और न्याय की ओर ध्यान देने की सलाह दी है।गौरतलब है कि उत्तरपूर्व क्षेत्र ;पुनर्गठनद्ध कानून 1971 के पारित होने के बाद पांच उत्तर.पूर्व राज्यों असमए मणिपुरए मेघालयए नागालैंण्डए त्रिपुरा के लिए एक ही गुवाहाटी हाईकोर्ट बनाया गया था । प्रशासनिक सुविधा के लिए गुवाहाटी हाईकोर्ट की छः ‘ााखाएं भी अलग राज्यों में थी ।उत्तर पूर्व राज्यों में मुख्यतः आदिवासी कानून को मान्यता है। जिनका संहिता करण भी नहीं हुआ है। अतः कमेटी में सरकार से सभी तथ्यों का अध्ययन करने और उत्तर पूर्व के सभी राज्यों में उच्च न्यायालय खोलने की मांग की है। ताकि राज्यों के लोगों में फैले आदिवासी नियमों का संहिताकरण किया जा सके। ऐसे फैसले मान्य होगें। जो समय के साथ लिखित कानून में बदल जाएगें।इन कदमों के द्वारा हाईकोर्ट के निर्णय मान्य होंगे जिन्हें समय के साथ लिखित कानून में बदल दिया जाएगा। भविष्य में इन असंहिताबद्ध कानून और नियमों की हाई कोर्ट द्वारा व्याख्या करने पर नियमों को संहिताबद्ध कानूनों में समायोजित किया जा सकेगा और निर्णयों में भी एकरुपता बनेगी।

मेला


मेले भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। यदि मेले शब्द को ध्यान से पढ़ा और सुना जाए तो इसका अर्थ निकलता है मेल यानि मेल मिलाप। मेलों का शुरू से ही अपना एक अलग महत्व रहा है। यदि गौर किया जाए तो सभी मेलों में एक बात समान दिखाई पड़ती है। सभी मेले चाहे वह भारत के किसी भी कोने में मनाए जाते हों। पंजाब में गेहूं की फसल कटने के बाद बैसाखी का मेला लगता है तो असम में बीहू और दक्षिण में ओणम और पोंगल मनाए जाते हैं। मेले ना केवल सामाजिक और सांस्कृतिक बल्कि आर्थिक रुप से भी काफी महत्वपूर्ण हुआ करते थे। यदि मेलों के इतिहास में जाए तो पता चलता है कि पहले मेले मेल मिलाप का एक जरिया हुआ करते थे। पहले बाज़ार नही होते थे जहां किसी भी वक्त जाओ और अपना सामान खरीद लाओ। रोज़मर्रा के काम आने वाली वस्तुओं के लिए इन्हीं मेलों का इतंजा़र किया जाता था। पूरी अर्थव्यवस्था लगभग इन्हीं मेलों से ही चलती थी। लेकिन मौजूदा दौर में लगने वाले मेलों का न केवल स्वरुप बदल गया है बल्कि उनका उदेश्य भी बदल गया है। आज मेले जरुरत की नहीं बल्कि सैर सपाटे का केंद्र मात्र बनकर रह गए है। आज मेले एक ऐसा बाजा़र बनकर रह गए है जिनका उदेश्य सिर्फ लाभ कमाना होता है। इसका एक उदाहरण है मेलों में लगातार बढ़ती विदेशी कंपनियो की भागीदारी। चाहे वह सूरजकुंड मेला हो या फिर प्रगति मैदान में लगने वाले तमाम मेले ऐसे सभी मेलो में बिकने वाले सामान आम आदमी की खरीद से बाहर ही होते है। आज के मेले अपने मौलिक रुप से भटक से गए हैं। जिनके कारण कहीं ना कहीं यह अपने महत्व को भी धीरे-धीरे खोते जा रहे हैं।

मदरसों में हिन्‍दू विद्यार्थियों की संख्‍या बढ़ी

आमतौर पर मदरसों को इस्लामिक शिक्षा के लिए जाना जाता है। और यह भी कि इसमें सिर्फ मुसलमान विद्यार्थी ही पढ़ते है। लेकिन पश्चिम बंगाल के मदरसों से एक चैंकानें वाला आंकडा सामने आया है। यहां हिन्दू विद्यार्थी मदरसों की ओर आकर्शित हो रहे हैं।
राज्य के चार मदरसो मे हिन्दू विद्यार्थियो की संख्या सबसे ज्यादा है। इनमे उतरी दिनाजपुर जिले का कासबा एम एम हाई मदरसा, कूच बिहार का इकमुखा साफियाबाद मदरसा, बर्दवान का ओरग्रम चेतुसपल्ली हाई मदरसा और मिदनापुर का चन्द्रकोना हाई मदरसा शामिल है। यहां हिन्दू विद्यार्थियो की संख्या 57 से 64 प्रतिशत है।
पश्चिम बंगाल मदरसा शिक्षण बोर्ड के अध्यक्ष के अनुसार कासबा के 1077 मे से 618 ओरग्रम के 868 मे से 554 चन्द्रकोना के 312 और इकमुखा के 480 विद्यार्थियों मे से 290 विद्यार्थी हिन्दू है। उनके अनुसार मदरसे अब इस्लामिक शिक्षा के साथ अब आधुनिक शिक्षा पर भी जोर दे रहे है। 42 मदरसों मे कम्पयूटर प्रयोगशालाए है। जिन्हे 2009 तक सौ तक किए जाने की उम्मीद है। करीब सौ से ज्यादा मदरसे व्यवसायिक शिक्षा भी दे रहे हैं। इसमें टेलरिंग से लेकर मोबाइल तकनीक का प्रशिक्षण की सुविधा भी है।
पश्चिम बंगाल में कुल 506 मदरसे है। इनमे 17 प्रतिशत विद्यार्थी और 11 प्रतिशत शिक्षक गैर मुस्लिम है। चन्द्रकोना मदरसे के सह अध्यापक बिभास चन्द्र धुरई के अनुसार इस मदरसे के एक किलोमीटर के दायरे मे सात स्कूल हैं। फिर भी लोग अपने बच्चों को यहां भेजते है। स्कूलों में उन्हें 375 रु फीस देनी पड़ती है जबकि मदरसो में 110 रु ही फीस है। बोर्ड के अध्‍यक्ष के अनुसार मदरसे विद्यार्थियों और उनके परिजनो का विश्वास पाने मे सफल हो चुके हैं। मदरसों पाठ्यक्रम भी राज्य माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से अलग नही है। इनके सर्टिफिकेट की मान्‍यता किसी अन्य राष्ट्रीय स्तर के बोर्ड के बराबर ही है।

कृषि भूमि पर मालिकाना हक का दावा

पन्द्रहवीं लोकसभा चुनाव सिर पर है और देश की राजनीतिक पार्टियां गठजोड़ में लगी है। यहां हर पार्टी एक दूसरे पर डोरे डाल रही है लेकिन इस काशिश में लोग भूल गए हैं कि चुनावी मुद्दा क्या होगा? इसी को याद दिलाने के लिए विभिन्न महिला संगठनों ने महिलाओं को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए कृषि भूमि में मालिकाना हक दिए जाने के लिए राजनैतिक पार्टियों से कहा है। लेकिन क्या सच में इन मुद्दों को याद दिलाने से महिलाओं के हित के लिए कोई कदम उठाया जाएगा? जहां संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में जीडीपी का तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर और छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च का वादा किया था, जो पूरा नहीं हुआ। 8 मार्च को मनाए जाने वाले महिला दिवस पर समाचारपत्रों में काफी कुछ लिखा गया और राजनेताओं द्वारा बड़ी-बड़ी बातें कही गई। संसद में मात्र 33 प्रतिशत आरक्षण को लागू नहीं किया जा रहा फिर भी महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने की बात कही जाती है। याद नहीं की कौन-सी ऐसी पार्टी है जिसने महिला उम्मीदवारों को आरक्षण के हिसाब से टिकट दिया हो। कृषि को शुरू से ही देश की अर्थव्यवस्था का आधार माना जाता है लेकिन इसके सुधार पर अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इस पर कृषिभूमि में महिलाओं के अधिकार को लेकर बात उठाई जा रही है। परिवार का भरणपोषण से लेकर खेतो में काम करने तक महिलाएं ही कृषि से अधिक जुड़ी है लेकिन इस पर या तो परिवार के पुरुष मुखिया का अधिकार होता है या फिर वह साहूकारो के कब्ज़े में होती है। अब ऐसे में महिलाओं के लिए यह मांग कितनी मानी जाती है इसका एक उदाहरण भी क्रांति का आग़ाज़ होगा।

बेबसी बचपन की !


केन्द्र सरकार के 14 साल से कम उम्र के बच्चों से सड़क के किनारे ढाबों होटलों चाय की दुकान व घरों में नौंकर के रुप में काम कराने पर प्रतिबंध लगा देने के बाद,यह सरकारी सपना देखा गया था, कि आने वाले दिनों में हमें अपनें घरों के आसपास छोटू ,रामू ,बबली बर्तन साफ करते झाडू देते दिखायी नही देंगे, वे स्कूल जायेंगे और हमारे घर न सॅवारकर अपना बचपन सॅवारते नजर आयेंगे, लेकिन नौकरशाही की नाकामी की नजीर बनें ये बच्चे,ं हमें दिल्ली के आलीशान बंगलांे से लेकर सड़क के ढाबों तक नजर आ जायगें। विशेष रुप से ये बच्चें देश के पूर्वी राज्यों से काम की तलाश में आते है। इन बच्चों की मजबूरी उनके घरों में पसरी गरीबी है, जिसके काऱण इन्हंे इसके मॉःबाप के द्वारा किसी रिस्तेदार के साथ या अन्य किसी जानकार के माध्यम से दिल्ली में काम करने के लिये भेज दिया जाता है। ये रिस्तेदार इन बच्चों को किसी अमीर से घर में घरेलू काम पर रखवा देते है, और अपनी जिम्मेदारी कम करने के लिये बच्चों को उन्ही घरों में काम करने के साथ-साथ रात में सोने तथा उनको मिलने वाली मजदूरी में से कुछ हिस्सा कम दिलवाने की ‘ार्त पर उसी घर में खाने की भी बात कर लेते है। उत्तरी दिल्ली के एक पॉस इलाके में स्थित एक घर में काम करने वाले बच्चे ने बताया कि वह झारखंड के एक गांव का रहने वाला है, और उम्र है 13 वर्ष, वह अपने चाचा के साथ आया था, जो कि पास में ही झुग्गीयों में रहते है, उन्हांेने मुझे इस घर में 1500 रुपये महिने की मजदूरी पर काम करने के लिये रखवाया है। मैं सुबह 6 बजे उठ़ता हूॅ और उठ़़कर रात के झूठे़ बर्तन साफ करता हूॅ। जो कि उस परिवार के हमउम्र बच्चो से लेकर बुजूर्गो तक के होते है। जब कभी रात को 11 बजे के बाद तक भी काम करने के कारण लेट हो जाता हूॅ और सुबह नींद नही खुलती तो घर की बुढिया मुझे सोफे से नीचे गिराकर बोलती है कि, तू हमारा मेहमान नही है। मुझे सुबह उठकर बरतनो की सफाई के बाद सभी को चाय बनाकर देनी होती है और फिर घर का झाडू-पोंछ़ा से लेकर कपडांे की सफाई का काम करना होता है। दोपहर का खाना बनाने के बाद तीन बजे से ‘ााम सात बजे तक उनकी पुस्तकांे की दुकान पर काम करना पडता है।यह कहानी कमोबेश हर बाल मजदूर की होती हैै। जो, ढ़ाबो, घरांे में ‘ाारिरिक हिंसा, मानसिक यंत्रणा एवं कभी-कभार यौन-‘ाोषण के भी शिकार होते है। दिल्ली विश्व विधालय के पास मजॅनू के टीला में एक रेस्टोरंेट में काम करने वाली लडकियॉ जिनकी उम्र 15 वर्ष के तकरीबन है उनके ‘ाोषण की कहानी हॉस्टलो में रहने वाले छात्रांे की जुबानी सुनी जा सकती है, जिसमंे मानसिक उत्पीडन से लेकर ‘ाारिरिक प्रताडना तक ‘ाामिल है। जो कि श्रम मंत्रालय के बाल श्रम ;निरोध एवं विनियमनद्ध अधिनियम 1986 के तहत् जारी किये गए आदेश का खुला उल्लंघन है, साथ ही और भी कई कानूनों की धज्जियां उड़ाता नजर आ रहा है।1997 में मानवाधिकार आयोग ने भारत सरकार से अनुशंसा की कि 14 साल से कम उम्र के बच्चों को किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा काम पर नहीें लगाया जाना चाहिए। भारत सरकार ने 1999 में सेंटल सर्विसेस रूल्स 1964 में संसोधन करके आदेश जारी भी किया लेकिन आज इसका कितना पालन हो रहा है यह अनुमान हमारे पड़ौस में स्थित राष्ट़ीय स्वास्थ एवं परिवार कल्याण संस्थान के आवासीय परिसर में जेएनयू की झुग्गियों से काम करने जाते बच्चों को देखकर लगाया जा सकता है।दरअसल बाल मजदूरी खत्म करने व उनके पुर्नवास से जुड़ी राजनैतिक व सामाजिक प्रतिबद्धता का सवाल अहृम है। बच्चे वोट बैंक नहीं है, लिहाजा राजनेताओं के पास उनके लिए वक्त नहीं है। जहां तक समाज का सवाल है तो वह बहुत चालाक है। मध्यमवर्गीय, उच्चवर्गीय समाज गरीब बच्चों की कीमत पर अपने बच्चों को ऐश करवाता है। छोटे गरीब बच्चे बर्तन धोते हैं, सफाइ्र्र करते हैं, और उनके बच्चे कंप्यूटर पर गेम ख्ेालते हैं, इं्रटरनेट खंगालते हैं। मॉ-बाप बड़े गर्व से दूसरों को बताते हैं कि उनका छह-सात साल का बच्चा कंप्यूटर जानता है। उनके बच्चे भोजन करने के बाद कभी भोजन की मेज साफ नही करते अपना बिस्तर नही लगाते। उनका यह काम करने के लिए घर में बहुत ही सस्ती पगार पर छोटू , बबली तैनात हैं। उनकी तैनाती से हमारी सामाजिक हैसियत तय होती है। इसलिए जब तक हमारा तथाकथित सभ्यसमाज सामाजिक हैसियत के ऐसे नकली मापदंड से बाहर नहीं निकलेगा और अपने बच्चों में घरेलू काम करने की आदत विकसित नहीं करेगा तब तक कानून को ठें़गा दिखाकर इन मॉसूमों की पिछले दरबाजे से घरों में एंट्ी जारी रहेगी।
Posted by shivram at 2:42 AM 0 comments

मंडी और चर्च

महिला देह व्यापार आज के इस आधुनिक युग की देन नहीं अपितु यह हमारे ही पूर्वजों के ज़माने से चला आ रहा है। क्लास में मंडी फिल्म में देह व्यापार से जुड़ी महिलाओं और इसके पीछे छुपे कारणों पर चर्चा हुई। इस चर्चा में ज्यादातर लोगों का मानना था कि इसकों कानूनी करार देना हमारे समाज को आदर्शो से भटकाना होगा। उन महिलाओं की दयनीय स्थिति और मजबूरियों को टटोलने की कोशिश की जानी चाहिए। लेकिन कहते है ना इस मेहफिल में कोई भी पाक़ साफ नहीं। इसी का उदाहरण है सिस्टर जैस्मी की आत्मकथा। सिस्टर जैस्मी केरल के एक चर्च में नन थीं और उनके इस पुस्तक को लिखने का भी एक उद्देश्य है। उनकी इस किताब को हफते भर में ही ज़बरदस्त लोकप्रियता मिली और 2,000 प्रति बिक चुकी है। इसका हिंदी अनुवाद भी जल्द ही आएगा। अब आप सोच रहे होंगे की इस पुस्तक में ऐसा क्या है? यह पुस्तक चर्च के ऐसे रहस्यों को खोलती है जिससे सभी वाकिफ है लेकिन बोलने की हिम्मत कोई नहीं करता। सिस्टर ने इस पुस्तक में अपनी आप बीती बताते हुए उन हज़ारो ननों की व्यथा को भी उजागर किया है। चर्च में होने वाली समलैंगिक संबंधों और पादरीयों द्वारा किए जाने वाली ज़ोर ज़बरदस्ती को बताया गया है। उनको भी यह सब सहना पड़ा और जब वह बर्दाश्त नहीं कर सकीं तो उकताकर उन्होंने चर्च की घुटन भरी ज़िदगी को त्याग दिया। यह पहला उदाहरण नहीं है ऐसे कई मामले सामने आए लेकिन उस विषय में कुछ नहीं किया गया। ननों के साथ जबरन शारीरिक संबंध बनाने और उनके द्वारा इसका विरोध करने पर उनकी हत्या तक कर दी जाती है। जैस्मी ने पहली बार हिम्मत जुटाकर इस पुस्तक को लिखा। धमकी और मानसिक तनाव के बावजूद उन्होने इसको लिखने का साहस किया है। इससे साफ है कि समाज का वह तबका जो अपने आप को सभ्य और दुसरो को आध्यात्म का ज्ञान देने का दावा करता है, वह उन महिलाओं को बदनाम कर रहा है जिन पर मंडी को चलाने का आरोप लगाया जाता है।

माया के राज में एफआईआर का रेट

सर्वेश का प्रसव पीड़ा में तड़पना जब उसकी 8 साल की बहन से सहन नहीं हुआ तो उसने उसकी सास से दाई बुलाने के लिए कहा लेकिन सारे परिवार पर तो जैसे दहेज में मोटरसाइकिल ना मिलने का भूत सवार था। किसी ने कुछ नहीं किया और सर्वेश पीड़ा से तड़पती रही। बहन के ससुराल आई 8 साल की लक्ष्मी ने मजबूर होकर खुद दाई बुलाई और अपनी जिज्जी को पीड़ा से मुक्त करवाया। सर्वेश को बच्चा हो गया था लेकिन इस पर भी ससुराल वालो का जी नहीं भरा तो सास ने सुबह ठंडे पानी से भरी 8 से 10 बाल्टी उस पर उढ़ेल दी। ठंठ से ठुठरती सर्वेश का स्वास्थ्य निरंतर बिगड़ता चला गया और अंत में उसने इम तोड़ दिया। यह घटना है कानपुर शहर से करीब ६५ किलोमीटर कानपुर देहात के गांव सम्भर-मुरीदपुर की। 11 लोगों का परिवार पालने वाले भूमिहीन किसान देवी प्रसाद ने अपनी बेटी सर्वेश की शादी सन् 2004 में कि थी। बेटी की मृत्यु की खबर पाकर जब वह अपने बेटे के साथ उसके ससुराल पहुंचे तो उनको और उनके बेटे को कमरे में बंद कर दिया गया और सर्वेश को जला दिया गया। इसकी शिकायत जब देवी प्रसाद ने पुलिस स्टेशन में दर्ज करानी चाही तो पहले आनाकानी और दसों चक्कर लगाने के बाद उनसे एफआईआर दर्ज करने के लिए 20 हज़ार रुपए मांगे गए।
यह हाल उस प्रदेश का है जहां की मुख्यमंत्री बसपा सुप्रिमो मायावती है। सोशल इंजीनियरिंग का नारा देकर यूपी को प्रगति की राह पर चलाने का दावा करने वाली मायावती के इस प्रदेश में बिगड़ी कानून व्यवस्था से आप भी वाकिफ हो जाएं। उन्होंने विपक्षियों पर शिकंजा कसने के लिए भले की प्रदेश भर में पुलिस अधीक्षक कार्यालयों तक पर एफआईआर दर्ज करवाने के लिए स्पेशल बूथ बनावा दिये हों लेकिन गरीब जनता के लिए कहीं कोई बूथ नहीं है।

सास बहु से देश की लाडलियों तक

टीवी के डेली सोप से जिनका पाला पड़ा है वही जानता है की इन दिनों सास बहू का मुद्दा ठंडा पड़ा है और देश की लाडलियों का मुद्दा गरमाया है। एकता कपूर के ‘‘के‘‘ का जादू खत्म हो गया है। नए चैनल कलर ने अपने प्रोग्राम के कंटेंट के ज़रिए सिर्फ एक ही साल के अंदर टीआरपी के सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं। बालिका वधू से उसकी यह यात्रा शुरू हुई थी। ऐसा नहीं है कि नारी उत्थान के लिए पहले कोई कार्यक्रम ना बनाया गया हो लेकिन महिला पुरुष के लिंग अनुपात का निरंतर कम होते जाना चिंता का बड़ा विषय बन गया है। इस ओर यह कदम सराहनीय है। समाज की जड़ता को दिखाने से शुरू हुआ यह सिलसिला अब लगता है थमेगा नहीं बलिका वधू, उतरन, ना आना इस देस लाडो के बाद सबका चहेता बना कलर चैनल अब एक और नया सीरियल शुरू करने वाला है भाग्यविधाता। जिसमें लड़कियों के लिए वर अपहरण कर के लाए जाते हैं। हालांकि इस तरह के सीरियल पेश करना कलर का कोपीराइट था लेकिन अब स्टार और ज़ी ने भी इसकी शुरुआत कर दी है। ‘मेरे घर आई एक नन्ही परी‘ और अगले जनम मोहे बिटिया ही किजो इसी श्रंखला को आगे बढ़ाते हैं। इस संदर्भ में यह कहना गलत ना होगा कि देर से ही सही टीवी ने ज़मीनी हक़ीकत को पहचानना तो शुरू किया। देश का एक बड़ा तबका जो अभी भी बेटियों को बोझ और तिरस्कार की दृष्टि से देखता है आशा है कि इससे कोई सीख लेगा। यह रुढ़िवादी सिर्फ ग्रामीण परिवेश में है ऐसा नहीं है यह सोच पढ़े लिखे लोगों में भी है। जहां भी लड़कियों को अधिक प्राथमिकता मिलती है वहां इस पुरुष प्रधान समाज में उन लोगों को यह कहने का मौका मिल जाता है कि "लड़की है इसलिए" वह यह मानने को तैयार ही नहीं होते की महिलाएं भी उतनी क्षमता रखती है और अपने बलबूते सब कुछ कर सकती है। औरत ही औरत की दुश्मन होती है यह पुरुषवादी सोच और षड्यंत्र ही है। बराबरी का हक़ पाने के लिए महिलाओं को ना जाने कितना वक्त और लगेगा।

Thursday, March 19, 2009

कच्ची सड़क के पार है असली हिंदुस्तान



गाँधी जी के बलिदान दिवस पर नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान के हिंदी विभाग की ओर से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया।जिसमें मुख्य वक्ता के रुप में गांधी स्मारक निधि के सचिव रामचंद्र राही और गांधीवादी कार्यकर्Ÿाा देवदŸा मौजूद थे। आज का समय ,पत्रकारिता और गाँधी विषय पर बोलते हुए राही ने कहा की बापू ने समाज के अंतिम आदमी की बेहतरी को भारत के नवनिर्माण और विकास की कसौटी माना था। जबकि आज अखबारों से यह बात गायब हो चुकी है।मीड़िया जगत समाज के उपेक्षित वर्ग की बात नहीं करना चाहता वह केवल उन 20 फीसदी तबके की बात करता है जो की प्रभावशाली है।दोहरी जिंदगी जीने के सिलसिले को आज समाज में विकास की दौड़ का हिस्सा माना जाता है।उन्होनें कहा कि समस्याओं को जानना और उससे जूझने का ज़ज्बा पैदा करना ही एक पत्रकार की जिम्मेदारी है। इस मौके पर गाँधीवादी कार्यकर्Ÿाा देवदŸा ने समाज को समझने के लिए पक्की सड़क को पार कर पगडंड़ियों से आगे जाने की जरुरत पर जोर दिया।उन्होनें कहा कि खुद को समाज से अलग करके हम समाज को नहीं समझ सकते।सही विचारों को जनता के बीच लाना एक पत्रकार का काम है।गोष्ठी की ‘ाुरुआत से पहले विभाग के दो लेब जर्नल “दिल्ली मेल” और ””दिल्ली एक्सप्रेस‘‘ का विमोचन भी किया गया।संगोष्ठी का सचांलन विभागाध्यक्ष डॉ आनंद प्रधान ने किया।

मेला



मेले का नाम सुनते ही आपके दिमाग में सबसे पहली चीज़ क्या आती है? झूले ,हस्तशिल्प ,लोकगीत ,लोकनृत्य,खाने पीने की तमाम चीजे़?सही भी है मेलों का मतलब ही यही होता है जहाँ यह सब चीजे़ एक साथ देखने को मिलती है।मेले में यही सब चीजे़ सबको अपनी ओर आकर्षित करती है।मगर मैं आन सभी को एक ऐसे मेले के बारे में बताने जा रही हूँ जहाँ यह सभी चीजे़ होगी मगर आकर्षण का केंद्र नहीं।जी हाँ, यह मेला है उत्तरी बिहार में गंगा और गंडक नदी के किनारे लगने वाला सोनपुर मेला।यह मेला हर साल नंवबर महीने की पांच-छह तारीख से कार्तिक पूर्णिमा पर लगता है जो कि पूरे महीने चलता है। सोनपुर मेले की खासियत है यहां बिकने वाले यह न केवल बिहार का सबसे प्रसिद्ध और पुराना मेला है बल्कि एशिया का भी पुराना, प्रसिद्ध और सबसे बड़ा पशु मेला है। इस मेले के कई एतिहासिक पहलु भी है। माना जाता है कि चंद्रगुप्त मौर्य पाटलिपुत्र (पटना) से गंगा पार करके यहां हाथी और घोड़े खरीदने आता था। वहीं अंग्रेजी शासन के दौरान अफगानिस्तान और ब्रिटेन से अनकों व्यापारी इस मेले में आया करते थे। इस मेले की धार्मिक महत्ता भी है। यहां हरिहर नाथ मंदिर है। कहा जाता है कि लंका जाते समय भगवान राम ने इस मंदिर की स्थापना की थी। लोगों की मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां स्नान करने से 100 गांवो के दान का पुण्य लगता है। सोन पुर मेले के विशेषता यह है कि यहां छोटे से लेकर बड़े सभी प्रकार के पशु पक्षी बेचने के लिए रखे जाते है। सभी नस्लों के कुत्तों से लेकर ऊंट, भैंस, गधे, बंदर, पर्शियन, घोड़े, भेड़े, खरगोश, भालू, बिल्ली से लेकर और भी बहुत सी तरह के पशु आज यहां से खरीद सकते है। इसके अलावा यदि आपकी दिलचस्पी तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षियों में है तो वह भी यहां उपलब्ध होते है। पूरे विश्व में यही एक ऐसी जगह है जहां पर एक बड़ी संख्या में हाथी बेचे जाते है। इन्हें मुख्यतः वन विभाग के लोगों द्वारा अधिक खरीदा जाता है। यह न केवल एशिया का बल्कि बहुत हद तक विश्व का भी सबसे बड़ा पशु मेला है यह तो हुई मेले में मुख्य आकर्षण की बात।अब बात करते है मेले के कुछ दूसरी मेले के कुद दूसरी खासियतों के बारे में। यहां पर हस्तशिल्प, पेंटिंग्स और तरह तरह के मिट्टी के बने अनकों सामान भी मिलते है। घर मे रोजमर्या की जरुरतों में प्रयोग होने वाले सामानों के साथ ही ब्रांडेड कपड़े आदि भी यहां से खरीद सकते है। हाल ही के कुद सालों से सरकार अलग अलग कंपनियां अपने उत्पादो के प्रचार के लिए इस मेले में अपनी दुकानें लगानें लगे है। इतना ही नहीं मेले में लाए गए सभी पशुओं घासकर हाथियों के स्वास्थय के लिए कैंप भी लगाए जाते है। तो है न यह मेला अपने आप में बिल्कुल अलग, जहां पारंपरिक मेलों से हटकर कूछ और भी देखने को मिलता है। बस यही खारियत है इस मेले की जो कि इसे बाकि सभी मेलों से अलग करती है। जहां आकर्षण का मुख्य केंद्र कुछ और नहीं बल्कि तरह तरह के पशु पक्षी होते है।