Thursday, May 20, 2010

लौट कर आना नीरू

कविता समर्पित हैं हमारी पूर्व साथी निरुपमा को जो हमारे बीच हो कर भी हैं


लौट कर आना नीरू
तुम चली गई यूँ ही सबसे रूठ कर
बिना कुछ कहे बिना कुछ बोले बिना लड़े
तुम चली गई नीरू
तुम्हे जाना पड़ा जानती हो क्यूँ
मैं जानती हूँ नीरू क्यूंकि मैं भी तुम्हारी ही तरह औरत हूँ
तुम्हे जाना पड़ा क्यूंकि तुम समर्थ थी स्वतंत्र थी
तुम थी एक सोच लिए तुम्हारी अपनी पसंद थी
इसका कर्ज तुमने चुकाया और चुकाना भी था
क्यूंकि तुम एक औरत थी ना नीरू
लेकिन तुम आना, फिर से आना नीरू
और मैं जानती हूँ
तुम आओगी, तुम लौट कर आओगी मुझ में
हर उस लड़की में जो तुम जैसी है
मासूम निष्पक्ष अपने दम पर जीने की चाह लिए
तुम आओगी उन हजारो आँखों में
जो तुम्हारी चमकीली आँखों सी चमक लिए है
तुम आओगी उन दिलों में जो तुम सी चाह लिए हैं
उन पंखो में जो तुम्हारी तरह उड़ने को तैयार खड़े हैं
तुम आओगी नीरू
लौट कर आना नीरु

'स्मिता मुग्धा
दैनिक भास्कर

Tuesday, May 18, 2010

आतंकवादी हैं नक्सली


बस अब बहुत हुआ....अब हम और कत्लेआम नहीं देख सकते....अभी पिछले हमले के बारे में लिखते हुए स्याही भी नहीं सूखी थी कि एक बार फिर नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में ही 40 लोगों को मौत के घाट उतार दिया....नक्सलियों ने जवानों के साथ-साथ आम लोगों से भरी बस को लैंड माइन ब्लास्ट में उड़ा दिया....बस में सवार लोगों के चिथड़े-चिथड़े उड़ गए....लेकिन कब तक आखिर कब तक ये सिलसिला इस कदर चलता रहेगा....आखिर कब तक नक्सली खूनी खेल खेलते रहेंगे....अगर अब भी सरकार नहीं चेती तो इसका परिणाम बेहद भयावह होगा....नक्सलियों को अपना आदमी अपना आदमी मानकर उनके खिलाफ सेना का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा....लेकिन कोई उनसे ये पूछे कि क्या अपना आदमी अपने आदमी के सीने पर बंदूक चला सकता है....क्या अपने आदमी को ब्लास्ट से उड़ा सकता है....शायद नहीं अगर कोई वास्तव में अपना आदमी होगा तो वो ऐसा नहीं करेगा....वास्तविकता यही है कि नक्सली अपने आदमी नहीं हैं....नक्सली आतंकवादी बन चुके हैं....वो बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार रहे हैं....जिस विचारधारा को लेकर वो अपना अभियान चला रहे हैं....अब वो विचारधारा बहुत दूर जा चुकी है....जो लड़ाई नक्सली लड़ रहे हैं....वो जल, जंगल और जमीन की लड़ाई नहीं वो सत्ता हथियाने की लड़ाई है....जल, जंगल और जमीन की आड़ लेकर नक्सली सरकार के समांतर अपने आप को खड़ा करना चाहते हैं....जैसा नेपाल में देखने को मिल रहा है....कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि सरकार आदिवासियों से उनकी जमीन छीन रही है....कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों को उजाड़ा जा रहा है....लाल डोरा के अंतर्गत आने वाले इलाकों में विकास कार्यों पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा....अलग-अलग लोगों पर नक्सलियों के खिलाफ सहानुभूति दिखाने के लिए अपने अलग-अलग तर्क हो सकते हैं....माना नक्सलियों के ये तर्क वाजिब हैं....अगर किसी से उसका घर, जमीन छिनी जाएगी तो बेशक वो हथियार उठाने को मजबूर हो सकता है....लेकिन बेगुनाहों का खून बहाना कहां तक उचित है....सत्ता बंदूक की नली से होकर गुजरती है....नक्सली माओ के इस कथन को लेकर भले ही अपनी लड़ाई लड़ रहे हों....लेकिन वो शायद इस बात से अंजान हैं कि वर्तमान दौर में सत्ता बंदूक की नली से होकर नहीं गुजरती....विशेषकर एक लोकतांत्रिक देश में सत्ता और बंदूक के बीच कोई संबंध नहीं होता....सरकार की इच्छाशक्ति की देर है वरन् आज नहीं तो कल सरकार इन आतंकवादियों के खिलाफ सेना के इस्तेमाल को हरी झंडी दे ही देगी और उसे दे देनी चाहिए....बस ज्यादा वक्त नहीं लगेगा नक्सलियों का सफाया करने में....आखिर कब तक हम अपने जवानों का खून पानी की तरह बहते देखेंगे.....


अमित कुमार यादव

Monday, May 10, 2010

वक्त करवट लेता है

निरूपमा की मौत के मामले में अब मीडिया ट्रायल शुरु हो गया है....निरूपमा जिसकी कोई उपमा नहीं है

उसे तरह-तरह की उपमाएं दी जाने लगी हैं....साथ ही प्रियभांशु को भी बख्शा नहीं जा रहा....इस मामले में अब मीडिया ट्रायल शुरु हो चुका है....वो प्रियभांशु रंजन जो मीडिया ट्रायल पर आईआईएमसी में किए एक नाट्य मंचन का हिस्सा था....आज वो खुद मीडिया ट्रायल का शिकार हो चुका है....निरूपमा की मौत का मामले जब प्रकाश में आया तो प्रियभांशु को निरुपमा का दोस्त बताया गया....हर चैनल प्रियभांशु को निरुपमा का दोस्त लिखकर संबोधित कर रहा था....कहानी धीरे-धीरे आगे बढी और चैनल वालों को इसमें मसाला दिखने लगा....निरुपमा का दोस्त अब निरुपमा का प्रेमी, निरूपमा का आशिक बन चुका था....यही नहीं मीडिया प्रियभांशु को ही कठघरे में खड़ा करने लगा....कई चैनलों ने अपने पैकेज में चलाया....कठघरे में आशिक....आशिक पर कसा शिकंजा....मीडिया से पूछा जाना चाहिए कि प्रेमी, आशिक जैसे फूहड़ शब्दों का प्रयोग करना कितना जायज है और किसने हक दिया इन चैनलों को जो प्रियभांशु को कठघरे में खड़ा कर रहे हैं....मुझे याद आ रहा है आईआईएमसी का वो नाटक जब एक मीडिया ट्रायल की एक सत्य घटना पर आधारित कहानी पर हमने एक नाट्य मंचन का आयोजन किया था....प्रियभांशु इस नाटक में टीवी एंकर की भूमिका में था और मैं इस नाटक में रिपोर्टर का किरदार निभा रहा था....इस नाटक में हमने दिखाने की कोशिश की थी कि कैसे मीडिया एक दंपत्ति की मौत का कारण बन जाता है....एक लड़की अपने मामा पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगाती है....ये खबर मीडिया में हाथों-हाथ ली जाती है और शुरु होता है मीडिया ट्रायल....मीडिया मामा पर आरोप साबित होने से पहले ही उसे वहशी मामा, दरिंदा मामा कहना शुरु कर देता है....नतीजा बदनामी के डर से लड़की के मामा-मामी आत्महत्या कर लेते हैं....लेकिन बाद में जब वास्तविकता से पर्दा उठता है तो सबके होश उड़ जाते हैं....इस मामले में मामा बिल्कुल बेगुनाह निकलता है....वो लड़की जो अपने मामा पर अपने साथ बलात्कार करने का आरोप लगा रही थी वो एक लड़के के साथ शादी करना चाहती थी और मामा इस शादी के खिलाफ थे....इसके चलते उसने ये सारा नाटक रचा....लेकिन इसमें मीडिया की जो भूमिका रही वो कई सवाल खड़े करती है....आखिर मामा-मामी की मौत का जिम्मेदार कौन था....क्या वो मीडिया नहीं था जिसने मामा को जमाने के सामने मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा....कभी-कभी वक्त कैसे करवट लेता....कल तक जो प्रियभांशु मीडिया की इस गंदगी को पर्दे पर पेश करने की कोशिश कर रहा था....आज वही प्रियभांशु खुद गंदमी का शिकार हो रहा है....

Wednesday, May 5, 2010

एक थी निरूपमा


आज मेरी जुबान लड़खड़ा रही है....मेरे गले से शब्द नहीं निकल रहे....मैंने कभी नहीं सोचा था कि अपने बीच से ही किसी को खबर बनते देखूंगा....कल तक जो निरुपमा मेरी एक दोस्त हुआ करती थी और दोस्त से ज्यादा मेरे करीबी दोस्त प्रियभांशु की होने वाली जीवनसंगिनी यानि हमारी भाभी....आज वो साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है....मेरे सामने उसी निरुपमा पाठक की स्टोरी वाइस ओवर के लिए आती है....एक आम स्टोरी की तरह जब मैं इस स्टोरी को अपनी आवाज में ढालने की कोशिश करता हूं तो मेरी जुबान लड़खड़ाने लगती है....मेरे गले से शब्द नहीं निकलते....इस स्टोरी को पढ़ता-पढ़ता मैं अपने अतीत में लौट जाता हूं....मुझे याद आने लगते हैं वो दिन जब आईआईएमसी में प्रियभांशु और निरुपमा एकांत पाने के लिए हम लोगों से भागते-फिरते थे और हम जहां वो जाते उन्हें परेशान करने के लिए वही धमक जाते....हमारा एक अच्छा दोस्त होने के बावजूद प्रियभांशु के चेहरे पर गुस्से की भंगिमाएं होतीं लेकिन हमारी भाभी यानि नीरु के मुखड़े पर प्यारी सी मुस्कान....हम नीरु को ज्यादातर भाभी कहकर ही बुलाते थे हालांकि इसमें हमारी शरारत छुपी होती थी....लेकिन नीरु ने कभी हमारी बातों का बुरा नहीं माना....उसने इस बात के लिए हमें कभी नहीं टोका....नीरु गाती बहुत अच्छा थी....हम अक्सर जब भी मिलते थे नीरु से गाने की फरमाइश जरुर करते और नीरु भी हमारी जिद को पूरा करती....शुरुआती दिनों में हमें इन दोनों के बीच क्या पक रहा है इस बारे में कोई इल्म नहीं था....बाद में एक दिन प्रियभांशु जी ने खुद ही नीरु और अपने सपनों की कहानी हमें बतायी....दोनों एक-दूसरे से बेइंतहा मोहब्बत करते थे....दोनों एक-दूसरे से शादी करना चाहते थे....दोनों अपने प्यार की दुनिया बसाने के सपने संजो रहे थे....मजे की बात ये कि प्रियभांशु बाबू भाभी की हर बात मानने लगे थे....आईआईएमसी के दिनों प्रियभांशु बाबू और मैं सुट्टा मारने के आदि हुआ करते थे....एक दिन जब मैंने प्रियभांशु से सुट्टा मारने की बात कही तो उसने ये कहते हुए मना कर दिया कि नीरु ने मना किया है....मतलब प्रियभांशु पूरी तरह से अपने आप को नीरु के सपनों का राजकुमार बनाना चाहता था....वो क्या चाहती है क्या पसंद करती है प्रियभांशु उसकी हर बात का ख्याल रखता....हालांकि उस वक्त हम उसे अपनी दोस्ती का वास्ता देते लेकिन तब भी वो सिगरेट को हाथ नहीं लगाता.....अचानक वॉइस ओवर रुम के दरवाजे पर थपथपाने की आवाज आती है....मैं एकदम अपने अतीत से वर्तमान में लौट आता हूं....वर्तमान को सोचकर मेरी रुह कांप उठती है....मेरी आंखें भर आती हैं....टीवी स्क्रीन पर नजर पड़ती है और उस मनहूस खबर से सामना होता है कि वो हंसती, गाती, नीरु अब हमारे बीच नहीं है....समाज के ठेकेदारों ने उसे हमसे छीन लिया है....नीरु अब हमारी यादों में दफन हो चुकी है....नीरू साल की सबसे बड़ी मर्डर मिस्ट्री बन चुकी है....वो मर्डर मिस्ट्री जिससे पर्दा उठना बाकी है....क्यों मारा गया नीरु को....किसने मारा नीरु को....आखिर नीरु का कसूर क्या था ?....क्या अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनना इस दुनिया में गुनाह है....क्या किसी के साथ अपनी जिंदगी गुजारने का सपना देखना समाज के खिलाफ है....हमें मर्जी से खाने की आजादी है....मर्जी से पहनने की आजादी है....मर्जी से अपनी करियर चुनने की आजादी है तो फिर हमें इस बात की आजादी क्यों नहीं है कि हम किस के साथ अपनी जिंदगी बिताएं....आज ये सवाल मुझे झकझोर रहे हैं....

Monday, May 3, 2010

हरित क्रांति

हरित क्रांति के सन्दर्भ में मेरे द्वारा जो भी बात कही गयी है, उन सबसे यंही निष्कर्ष निकलता है कि देश को कृषि क्षेत्र में दूसरी हरित क्रांति कि जरुरत है..