Tuesday, August 30, 2011

कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं!

आज आकाशवाणी के लिए JNU  से निकलना चाहाँ तो ऑटो नहीं मिला.... काफी देर का इन्तजार, बार बार गोदावरी बस स्टैंण्ड के नाम पढनें के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दे रहा था ...खैंर इन्तजार को भी चैंन कहाँ जल्द ही खत्म हुआ ऑटो तय हुआ ..मीटर के डिजीटल अंको ने तय करती दूरी का खाका खीचना शुरू कर दिया.... बरसात की गर्मी और वो ऑटों ... दिल्ली को ऑटो के पर्दे से देखना चाहा तो दिल्ली मुझें ठहरे शहर में भागते हुए लोगों कि अन्धी दौड़ का शहर नजर आया (ये मेरा भ्रम भी हो सकता है क्यों कि फिल्मों मे दिल्ली का अपना बखान है).आपकी राय भी दिल्ली के बारे में मुझसे इतर हो सकती है.




                              ऑटों से बाहर की दिल्ली
बस यूँ ही सफर चलता रहा तभी ऑटो वाले ने मुझ से 5 मिनट का समय माँगा ताकि वो अपनी गाड़ी के लिए ईधन ले सके..मेरे पास भी उसकी इस माँग को स्वीकार न करने की कोई वजह नजर नहीं आई..क्योंकि अगर न मानता तो शायद ऑटो बढता ही नहीं ..खैर ऑटो की लम्बी लाईन और उसी लाइन में हमारा भी ऑटो.. खाली वक्त और जिंदगी से रोज मिलते रहने वाले सख्स से बात करने की उत्कंठा ने मुझे एक सवाल दागने पर मजबूर किया दिल्ली के ही हो आप या बाहर के ? “.. आटों वाले ने मेरी ओर देखा और बड़ी अजीब से मुस्कुराते हुए जवाब दिया ...है तो बाहर के पर 20 साल से यहीं है मन में ही उसकी हँसी का राज जानना चाहा तो जवाब मिला शायद मुझ जैसा हर आदमी अपना समय काटने के लिए यह सवाल पूछता होगा ....खैर इस सोच से बाहर निकलते है ही दूसरा सवाल दागा कहाँ से हो ?जवाब आया कानपुर ”… कानों को अच्छा लगा सुनकर ... मैनें भी धड़ाध़ड़ कानपुर और उससे जुड़े जिले उन्नाव के कुछ परिचित नाम बताए तो उसे अच्छा लगा और उसे मेरी बातो में अपनापन सा महसूस हुआ..तब ऑटो वाले ने मुझसे पूछा कि आप कौन सी पढाई करते हो ..तो मेरा जवाब उसके शब्द कोष से ऊपर निकल गया ..जवाब मिला भइया हम पढे नहीं है इस लिए समझ नहीं सकते कि आप क्या करते हो पर इतना बड़े स्कूल में हैं तो अच्छा ही करते होगें.. उसके जवाब में अपनी तारीफ सुन कर गुरूर यूं ही चढ गया ... अगला सवाल ऑटो वाले का था  भइया 12वी के बाद बच्चे को क्या पढाएँ ..हम भी उसे अपना मान कर सभी विकल्पों पर एक छोटा सा व्याख्यान दे बैढें ... उसने लम्बी सांस ली और बोला कि  लड़का तेज बहुत है पर अच्छे स्कूल में पढीं नहीं पाता ....पैसा भी हैय पर हम पढे़ ही नहीं है इस लिए एडमिशनवई नहीं लेते है .... अभी 8 वी में है पर... इस पर के बाद वो चुप और  उसकी इस चुप्पी पर  मेरी भी ताकत न थी कि मैं कोई और सवाल कर सकूँ... पर उसकी इस चुप्पी ने मेरे मुँह पर वह सवालों का वो गठ्ठर छोड़ गया जिसके जवाब मैं शायद खोज भी ना सकूँ ... तेज रफ्तार में आटो रायसीना मार्ग को पार करते हुए आकाशवाणी पर मुझे छोड़ आटो वाला फिर जिंदगी से लड़ने निकल पड़ा... मैं कुछ कह भी न सका... फिर एक भइया कि लाइन याद आ गई कि हारी हुई सी ही सही, लड़ाइयाँ तो हैं! “… यहीं सोच मैं आकाशवाणी की ओर बढ चला ....
                              आकाशवाणी से संसद


Shishir kumar yadav 
MPhil  Research Scholar
CSMCH - SSS, JNU 
New Delhi ...
 email. shishiryadav16@gmail.com




Monday, August 1, 2011

नार्वे हिंसा के सवाल

यूरोपीय देश नार्वे के इतिहास में पहली बार हुए विस्फोट और भीषण नरसंहार ने विश्व राजनीति के सामने कई सवाल खड़े किये हैं। इस घटनाक्रम के जिम्मेदार एंडर्स बेहरिंग ब्रेविक ने पहले एक सरकारी इमारत में विस्फोट कर आठ लोगों की जान ले ली और इसके बाद यूटोया द्वीप में सत्तारूढ़ पार्टी के यूथ कैंप में गोलीबारी कर ६८ लोगों को मौत के घाट उतार दिया। हालांकि नार्वे पुलिस ने पहले मरने वालों की संख्या ९३ बताई थी लेकिन दो दिन बाद इसमें सुधार करते हुए मरने वालों की संख्या ७६ बताई गयी। पेट्रोलियम पदार्थों, प्राकृतिक गैस, खनिज पदार्थों, पनबिजली, सीफूड से भरपूर देश नार्वे अशांत और पिछड़े एशियाई और अफ्रीकी देशों के मुकाबले अपने नागरिकों को बेहतर सामाजिक सुरक्षा प्रदान करता है। इसलिए नार्वे की हालिया हिंसा को पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे अस्थिर देशों की राजनीति से लेकर संस्कृति, समाज और आर्थिकी को प्रभावित कर रहे अमेरिकी प्रभुत्व के खिलाफ हिंसा के तौर पर नहीं देखा जा सकता। मानव विकास सूचकांक में शीर्ष क्रम में रहने वाले देश में यह विस्फोट कई मायनों में पिछड़े मगर प्राकृतिक संपदा संपन्न देशों में इनकी लूट के खिलाफ उपजने वाले असंतोष से अलग है। ब्रेविक का कहना था कि उसकी लड़ाई यूरोप के इस्लामीकरण के खिलाफ थी। उसने अपने देश की सरकार पर मुसलिमों को आयातित करके देश साथ के साथ धोखेबाजी का आरोप भी लगाया है। १५०० से ज्यादा पन्नों के घोषणा पत्र में से १०२ पन्नों में भारत का उल्लेख करते हुये यहां की दक्षिणपंथी ताकतों को दुनिया से लोकतंत्र खत्म करने में सहायक बताया है। इसके अलावा उसके ब्रिटेन प्रवास के दौरान और इंटरनेट के माध्यम से दक्षिणपंथी संगठन इंगलिश डिफेंस लीग से जुड़े होने की पड़ताल भी की जा रही है। ब्रेविक ने बहुलवादी संस्कृति से दूर रहने के लिए जापान की तारीफ की है।
इस घटना की शेष दुनिया पर तुरंत प्रतिक्रिया भी दिलचस्प थी। हर घटना को पश्चिमी नजरिये से देखने के आदी हो चुके टेलीविजन, इंटरनेट और समाचार पत्रों के वेब संस्करण जैसे तमाम समाचार माध्यमों ने आनन फानन में इसे नार्वे का ९/११ का नाम दिया। इन्होंने लगातार यह स्थापित करने की कोशिश की कि यह हमला अल कायदा या उसके किसी सहयोगी संगठन ने किया है। घटना के पीछे अल कायदा को जिम्मेदार ठहराने की होड़ मचाये समाचार माध्यमों ने इसे अफगानिस्तानी नहीं यमनी अल कायदा की शैली का हमला बताया। समाचार चैनलों पर बाकायदा बहसों का मुख्य सवाल यह था कि देश के अल्पसंख्यकों में सबसे ज्यादा संख्या रखने वाले मुसलमान नार्वे से क्यों नफरत करते हैं। हालांकि इस सब के बीच घटना के प्रत्यक्षदर्शी ट्विटर के जरिये जानकारी दे रहे थे कि हमलावर एक क्रिश्चियन है और स्थानीय भाषा नार्वेइयन (नास्को) में बात कर रहा था। इस बाद भी समाचार माध्यमों ने यह कहना जारी रखा कि अल कायदा ने स्थानीय लोगों को भर्ती करने की नयी रणनीति अपना ली है।
दुनिया को इसलामी आतंकवाद की शब्दावली देने वाले अमेरिका ने ब्रेविक की मंशा का खुलासा होने के बावजूद इस हत्याकांड की व्याख्या के लिए क्रिश्चियन आतंकवाद का नाम नहीं गढ़ा। ब्रेविक का मौजूदा हमला और बकौल ब्रेविक उसे प्रेरित करने वाले भारतीय हिंदू संगठनों के कारनामे धर्म शांति का माध्यम है, का संदेश देने वालों के लिए लगातार सवाल हैं। अगर धार्मिक रास्तों पर चलकर एक समतामूलक समाज का निर्माण संभव होता तो सबसे पहले धर्म ने ही अपने स्वभाव में समानता लाने की कोशिश की होती। एक ही पंथ या धर्म के अंदर लोगों को लिंग, जाति, वर्ग आदि आधार पर बांट कर उनके साथ होने वाला भेदभाव देखने को नहीं मिलता। ब्रेविक ने अपनी कार्रवाई को भारतीय हिंदू धार्मिक संगठनों की तरह मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ एक कदम बताया है। उसने अपने कदम पर अफसोस जताने की बजाय इसे नृशंष लेकिन बहुत जरूरी कहा था। इस हमले को विस्फोट बहुल
भारत के संदर्भ में समझने की कोशिश करें तो यह आजादी के पहले क्रांतिकारियों की हुकूमत के कान खोलने के लिये की गई कोशिश से बिल्कुल अलग है। उस धमाके में आसान और साफ-साफ लक्ष्य होते हुए भी किसी को निशाना नहीं बनाया गया था। यह देश के बीहड़ मगर खनिज तत्वों से संपन्न इलाकों में आदिवासियों की जमीन पर कब्जा किये बैठे सरकारी तंत्र के नुमाइंदों पर होने वाले हमलों से भी हटकर है। यहां पर अपने जंगलों, पहाड़ों, नदियों पर सरकारी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आधिपत्य के खिलाफ लड़ाई का नारा काम करता है। यह देश के सिर (मस्तक/भाल) कश्मीर में भारत-पाकिस्तान के हुक्मरानों, उनके लड़ाकों और अमेरिका की कारगुजारियों से बना रहने वाले दर्द (हिंसा) से भी हटकर है. यह भारत के कई हिस्सों में सामने आई दक्षिणपंथी अतिवादी तत्वों की प्रतिक्रियावादी अभिव्यक्ति और पश्चिमी देशों में पहचान के संकट से जूझ रही पीढ़ी की मानसिकता का मिला जुला रूप है। नार्वे के हमलावर ने अपने कारनामे के पीछे वही तर्क दिए हैं जो भारतीय हिंदू संगठन भारत में विस्फोटों के पीछे रखते हैं. इसके अलावा यह पश्चिमी देशों में महज खुद को सामने लाने, भीड़ से अलग अपनी पहचान बनाने की खातिर किशोरों के अपने स्कूलों, कॉलेजों में भीषण गोलीबारी से साथियों की जान ले लेने वाली पीढ़ी की मनोवैज्ञानिक समस्या से उपजी हिंसा है।