Saturday, January 24, 2009

लोक लुभावन लालू भैया की जय हो




पूरे देश में शायद ही कोई ऐसा भारतीय हो जो माननीय रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव को नही जानता हो। रेल का संबंध ट्रेन से है और ट्रेन का प्रत्येक व्यक्ति से है। भारत कुछ अत्यंत पिछड़े गांवो को छोड़ लिया जाये तो बच्चे बच्चे को ट्रेन की अहमियत पता है। और उसमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय जो है वो है लालू चलीसा।
लालू भैया ने इस बार रेल को एक करोड़ का मुनाफा पहुंचाने का वादा किया है। आम जनता इस भाबात से खुश हैं। और खुश क्यों न हो भाई रेल को एक करोड़ का मुनाफा मिलने वाला है और वह मुनाफा लालू जी के कारण मिल रहा है। लालू भैया ने रेल को चमका दिया। स्टेशनों के साफ सफाई का जिम्मा निजी कंपनियों को दे दिया। इससे फायदा ही हुआ रेल कर्चारी तो काम करते नही अब निजी कंपनी से तो काम की उम्मीद की जा सकती है। इसका परिणाम तुरंत देखने को मिला। कई रेलवे स्टेशन चमक गये।
अब बात होती है और मुनाफे की। तो भैया ऐसा है आप सबी जानते हैं कि लालू भैया आज सिर्फ फसल काट रहें है। जिसे बोया था किसी और ने। रेलवे में कई साल पहले जो परियोजनायें लागू की गयी थी उसका मुनाफा आज मिल रहा है। जिसे लालू भैया अपनी उपलब्धी बता रहे है। आज कोई भी रेल मंत्री होता तो यह लाब का सेहरा इसके सिर पर रहता।

रास्ता है कहाँ

मुझे बनारस से दिल्ली आये पूरे छःमहिने हो गये,जब आये थे तो मन में सिर्फ ये ख्याल था कि जल्दी से ये प्रोफेशनल कोर्स करके किसी भी संस्थान में अच्छे से काम करेगें । अपने पैरो पर खड़े होगें, अपना खर्च खुद निकालेगें क्योंकि इतने लम्बे समय से पापा के पैसे पर पढ़ते -2 बुरा लगने लगा था।
आखिर कब तक मैं पापा के पैसे पर चलूंगी अब मुझे पढ़ना है तो खुद के पैसे से। सोचा था १ साल का कोर्स हैं खत्म होते -2 काम तो मिल ही जायेगा ,फिर पापा को काम कम करना पड़ेगा। लेकिन इस दुनिया में हर चीज मेरे हिसाब से नहीं चलती , इसलिए कोर्स के शुरू होते ही वैश्विक आर्थिक मंदी आ गयी। पुरी दुनिया के साथ -2 भारत में भी आर्थिक मंदी का प्रभाव दिखने लगा। पिछले साल जहाॅ सीनियरों का प्लेसमेंट जनवरी-फरवरी में ही हो गया था,इस बार हालात उसके बिल्कुल विपरीत है। हमारे शिक्षक हम पर मेहनत तो बहुत कर रहे हैं। मैं भी पूरी कोशिश कर रही हूॅ कि उनकी उम्मीद पर खरी उंतरु। मुझे पता है कि मैं ऐसा कर लूंगी। मुझे यह भी पता है कि काम करने वाले कही भी काम कर सकते है किसी भी परिस्थिती में। पर यह मौका भी तो मिलें। किसी महान व्यक्ति ने कहा है कि यदि इस दुनिया में सब तुम्हारी मर्जी से हो तो अच्छा है यदि न हो तो समझो कि ऊपर वाले ने तुम्हारे लिए इससे भी अच्छा कुछ सोच रखा है। वैसे मेरे पसंदीदा अभिनेता शाहरूख खान ने अपनी फिल्म ‘ओम शान्ति ओम‘ में एक बहुत अच्छी बात कही है कि ‘‘हिन्दी फिल्मों के अन्त की तरह जिन्दगी में सब कुछ अच्छा -2 न हो तो समझो कि पिक्चर अभी बांकी है मेरे दोस्त .............


प्रमोद ने खुदकुशी की या टीवी ने ली उसकी जान



सुल्तानपुरी सी ब्लॉक में रहने वाला 13 वर्षीय प्रमोद को टीवी देखने का बहुत शौक था। वह पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान न लगा कर अक्सर टीवी देखा करता था। उसके परिजन उसे टीवी देखने से मना करते और हमेशा डांटते रहते थे। इसी से तंग आकर प्रमोद ने खुदकुशी कर ली।
प्रमोद की जान चली गयी। उसके परिजनों को बहुत दुख हुआ। उसके परिजनों को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसे प्रमोद को नहीं डांटना चाहिये था। प्रमोद का कसूर था कि उसने टीवी देखा। उसके परिजन शायद उसे डाक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते थे। उसके लिये अधिक पढ़ने की जरुरत होती है। लेकिन प्रमोद पढ़ाई नही करता था। वह तो सिर्फ टीवी देखता था। प्रमोद को डाक्टर इंजीनियर नही बनना था। उसे तो टीवी स्टार बनना था। एक हीरो न बन सके तो कम से कम स्लमडॉग मिलिनेयर ही तो बन सकता था।
प्रमोद में इच्छा शक्ति की कमी थी। इसलिये उसने अपनी जान दे दी। वह हालात और अपने परिजनों से लड़ नही सका। वह पढ़ाई कर सकता था। अगर उसके परिजन चाहते तो डॉक्टर और इंजीनियर बन सकता था। लेकिन उसके परिजनों ने समस्या को नहीं समज जो प्रमोद को थी। प्रमोद का लगाव टीवी की ओर था। उसके परिजनों को चाहिये था कि प्रमोद को प्रोत्साहित करते पढ़ाई करने पर और उसका रुख टीवी से धीरे – धीरे हटाते।
समाज में ऐसे कई परिजन है जो अपने बेटे को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना चाहते है लेकिन करते कुछ नही। वे एक ही काम करते है अपने बेटे को पढ़ाई नही करने पर डांटते हैं या मारते है। क्या ऐसे किसी परिजन ने कभी अपने बेटे से उनकी परेशानी के बारे में कभी पूछा है। अगर परिजनों को अपने बेटे को हो रही परेशानी के बारे में पता चल जाये तो समास्या का हल ही हो जायेगा।

दलमा में लौटी रौनक

झारखण्ड राज्य के रांची जमशेदपुर और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया में स्थित दलमा वन्य जीव अभ्यारण में एक बार फिर रौनक लौट आयी है। दलमा वन्य अभ्यारण हाथियों की सुरक्षा के लिये बनाया गया है। हाथियों के लौटने पर वहां के ग्रमीणों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। और परेशानी हो भी क्यों न जब एरावत ग्रामीणों का घर तोड़ दें अनाज खा ले। ग्रामीणों और हाथियों की सुरक्षा के लिये वन्य अधिकारियों को नियुक्त किया है। उन्होंने ग्रामीणों को सचेत करने के अलावा हाथियों से बचने के लिये जलावन और पटाखे आदि उपलब्ध कराये है।


दलमा का इतिहास काफी पुराना है। लगभग 3000 फीट की उंचाई पर स्थित और लगभग 193 किमी में फैला दलमा वन्य अभयारण का उदघाटन स्वर्गीय संजय गांधी ने किया था। इस अभ्यारण में हाथियों के अलावा हिरण, तेंदुआ, बाघ आदि भी हैं। जिसकी मुठभेड़ ग्रामीणों से अक्सर हो जाती है।
दलमा के उपरी भाग में काफी पुराना एक शिव मंदिर भी है जहां शिवरात्री के दिन काफी श्रद्धालु पूजा अर्चना करने आते है।

जनता जर्नादन की जय



जो कुछ न समझे वो है जनता जर्नादन। जिसे सब भटकाये वो है जनता जर्नादन। जो बहकी बहकी बातों में आ जाये वो है जनता जर्नादन। जिसे कभी पुरे न होने वाले सपने दिखाया दिया जाये वो है जनता जर्नादन।
पिछले दिनों तमाड़ विधानसभा क्षेत्र से झारखण्ड राज्य के मुख्यमंत्री शिबु सोरेन को हराने वाले गोपाल कृष्ण पातर एक दिन में ही तमाड़ में ही नही पूरे झारखण्ड के हीरो बन गये। वैसे एक नजरिया ये भी है कि झारखण्ड से ही लंबे बालों के लिये प्रसिद्ध धोनी भी है और राज पीटर भी। एक मुख्यमंत्री को हराना वाकई में काबिले तारीफ है। लेकिन हमें उसके इतिहास को भी नही भूलना चाहिये।
राजा पीटर जमशेदपुर पुलिस का वारंटी रहा है। लगभग 25 केस में वो अधिकतर केस से बरी हो गया लेकिन कुछ केस में वो जमानत पर रिहा है। भारत मे लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जबतक अपराध साबित न हो तबतक अभियुक्त को अपराधी नही कहा जा सकता है। भारतीय न्याय प्रणाली पर उंगली नही उठाया जा यकता लेकिन उसकी लचर व्यवस्था के बारे में कहा जा सकता है। अभियुक्त साक्ष्य को मुकरने पर विवश कर दे तो साक्ष्य के अभाव में अदालत अभियुक्त को बरी कर देता है। अदालत को सबूत चाहिये और अभियुक्त सबूत को ही मिटा दे तो न्याय प्रक्रिया का क्या दोष।
इसे इस संदर्भ में देखा जा सकता है। नरसिंहा राव की सरकार में सांसदों की खरीद फरोक्त मामला प्रकाश में आया था। जिसमें झारखण्ड मुक्ति मोर्चा ने कथित रुप से रिश्वत ली थी। इस मामले में झामुमो के ही इसबू सोरेन पर रिश्वत कॉड के गवाह शशिनाथ झा की हत्या का आरोप लगा था। जिसमें सीबीआई के विशेष अदालत ने शिबू को उम्रकैद की सजा सुनाई थी। बाद में उच्च न्यायालय ने शिबू सोरेन को बरी कर दिया। उस समय शिबु सोरेन केन्द्रीय कोयला मंत्री थे और भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार किसी केन्द्रीय मंत्री को उम्रकैद की सजा हुई थी। इस पुरे प्रकरण में सबूतों के साथ खिलवाड़ किया गया था। पहुंच उंची रहने पर कुछ भी किया जा सकता है इसका प्रमाण देखने को मिला।
इधर पिछले दिनों राजा पीटर चुनाव जीतने के बाद पहली बार जमशेदपुर पधारे। जनता जर्नादन ने एक विधायक अर्थात जमशेदपुर पुलिस का अभियुक्त को जोरदार स्वागत किया । राजा ने अपने जनता को लुभाने के लिये कई डायलॉग मारे। आत्मसम्मान में उन्होंने कहा कि राजा नहीं मैं आंधी हूं झारखण्ड का गांधीं हूं। आज गांधीजी जीवित होते तो वे अपने प्रतिनिधि को देख चार आंसु जरुर बहाते। जमशेदपुर के टुइला डुंगरी में आयोजित सभा में उन्होंने जनता से लोक लुभावन बातें की। जनता बातें सुन ताली पीटने से न चुके। उन्होंने फिर एक बार कहा राज नही फकीर हूं जनता की तकदीर हूं। अब ये तो हद हो गयी कि कोई अपने को किसी का तकदीर घोषित कर रहा है।
आम जनता अपने अच्छे बुरे को क्यों नही समझ पाता है। कोई भी कुछ भी बोल देता है और वह मान जाता है। उसमें अपनी समझ क्यों नही है। क्या जनता अपने नेता कि लोकप्रियता को नही जानता। या यह माना जाये जिस नेता के पाले में जितनी अधिक अदालती केस है वो उतना ही जनता से सम्मान पाने का हकदार है। राजा पीटर के पाले में लगभग 25 केस थे। अधिकतर केस में वो बरी हो गया और कुछकेस में वो जमानत पर रिहा है। इसका मतलब यह है कि अदालती केस में वो सिल्वर जुबली मना चुका है और जल्द ही वह गोल्डन जुबली मनायेगा।

सुरमयी अंखियों में बसा संजय वन

रंग बिरंगे और सुगंधित,

फूलों से कुतंल को साजे,

इंद्रनील की माला डाले,

शंख सरीखे सुधड़ गालों में ...

बाबा नागार्जुन की यह पंक्ति संजय वन के सौंदर्य को बखुबी परिभाषित करती है। संजय वन दिल्ली के महत्वपूर्ण वनों में एक है जहां की सुरमयी सुबह कई मामलों में अन्य वनों से अलग है।यह वन करीब 626 हेक्टेयर में फैला है। पूरब में यह ऐतिहासिक कुतुब मीनार, पश्चिम में जेएनयू, उत्तर में कटवरिया सराय और दक्षिण में महरौली को छुता है।

दिल्ली के खुबसूरत वनों में एक संजय वन की सुबह मनोहारी होती है। गुलाबी ठंडक में विचरते मोरों का झुण्ड, नीलगायों की चहलकदमी, और खरगोशों की अठखेलियों को देखना आंखों को सकुन देता है। इन सबके बीच विभिन्न पक्षियों की स्वर लहरियां भी कानों में मधुर रस धोलती है।

अरावली पहाड़ी का क्षेत्र होने के कारण यह वन अपने में कई खुबसुरत पेड़ों और छोटे-छोटे पर्वतों को समेटे हुए है। यहां कींकर, टीटू जैसे पेड़ों की छाया तो मिलेगी ही साथ ही केला और अमरूद का स्वाद भी चखने को मिलेगा। कंकड़ीली पगडंडी पर इन मैदानी फलों को खाते हुए चलना ठीक वैसा ही अनुभव है जो अनुभव गन्ने के खेत में गन्ना चबाते हुए चलने में होता है। हां, अगर चलते-चलते आप थक जाएं तो आप इस वन के बीचोबीच बने पार्क में आराम भी कर सकते है। इस पार्क में न सिर्फ बड़ों के लिए आराम करने की जगह है बल्कि बच्चों के मनोरंजन के लिए तरह-तरह के झूले भी हैं।

यहां सुबह-शाम धुमने आने वाले लोगों की कमी नहीं। इनकी तादाद लगातार बढ़ ही रही है। क्या कारण है कि यहां आने वाले लोगों की संख्या बढ़ रही है? जवाब राज कुमार टोकस देते हैं। ये नियमित यहां धुमने आते है और कटवरिया सराय में फूलों का व्यवसाय चलाते हैं। इनका कहना है कि यहां लोगों के आने का मुख्य कारण वन की खुबसूरत प्राकृतिक छटा तो है ही साथ ही इस वन क्षेत्र में स्थापित गोरक्षनाथ मंदिर भी है जो स्थानीय निवासियों के आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है। इस मंदिर में मेला का भी आयोजन होता है। अक्टूबर में होने वाले इस मेले में गुरू गोरक्षनाथ के सैंकड़ों भक्त भाग लेते है। लेकिन श्री टोकस की राय से उनके मित्र श्याम सिंह तंवर सहमत नहीं हैं। तंवर, जो मार्बल का व्यापार करते हैं, कहते हैं कि शहर में काफी शोर-शराबा है और हर व्यक्ति तनाव में जीता दिखता है। इस भागमभग भरी जीवनशेली में इन जंगलों में ही आराम मिलता है। हंसकर सलाह की मुद्रा में श्री तंवर कहते हैं कि असल में पेड़-पौधों की गोद में ही मनुष्य शान्ति से जी सकता ।

बहरहाल अपनी खुबसुरती से लोगों को लुभाने वाले इस वन के देखरेख का जिम्मा दिल्ली विकास प्राधिकरण के पास है। यह लगातार यहां विकास कार्यों को कर रहा है।

Wednesday, January 21, 2009

ये है बनारस के रंग

मैं महिमा सिंह बनारस की रहने वाली हूँ। जो भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में जानी जाती है । बनारस उत्तरप्रदेश का एक मशहूर शहर है जिसको वाराणसी ,काशी, मोझह्नागरी के नाम से भी जाना जाता है ऐसा माना जाता है की वाराणसी वरुणा नदी और पतितपावनी गंगा के अस्सी घाटों के बीच बसी भगवान शंकर की नगरी है .इसके अलावा बनारस मंदिरों के शहर औरगलियों के शहर के रूप में भी जाना जाता है.बनारस इन सब के अलावा बनारसी पान,रेल कारखाना ,बनारसी साडी ,भदोही के कालीन जैसे अनेक मशहूर चीजो के लिए जानी जाती है .बनारस के लोग अपने भोलेपन ,सादेपन के साथ ही अपनी चालबाजी और ठगी के लिए भी जाने जाते हैं .मैंने ये दोनों गुन इसलिए दिए क्योकि मुझे लगा की जैसे हर चीज के दो पहलू होते हैं वैसे ही बनारसी लोगो के दोनों रूप जानना जरुरी है.ताकि कोई गलती ना हो .ये तो बात हुई मेरे शहर की .बनारस शिक्षा के क्षेत्र में भी आगे है काशी हिंदू विश्वविद्यालय ,काशी विद्यापीठ ,संस्कृत विश्वविद्यालय ,हरिश्चंद्र महाविद्यालय के अलावा अनेक महिला महाविद्यालय के साथ कई ,सी बी एस ई तथा यू पी बोर्ड के स्कूल भी हैं .एक खास जगह जो मैं भूल गई ,वो है सारनाथ जहा भागवान बुद्ध ने पहला उपदेश दिया था .और अस्सी का एक क्षेत्र मनु बाई यानि रानी लक्ष्मी बाई के जन्म स्थान के रूप में जाना जाता है . इसके साथ ही कई मनोरंजक प्राकृतिक स्थलभीहै.जैसे लखनिया दरी ,देव दरी ,विन्डम फाल ,मिर्जा पुर का इलाका आदि.मंदिरों की नगरी काशी में हर मन्दिर का अपना महत्व है ,हर मन्दिर की अपनी कहानी है.ये निम्न हैं दुर्गाकुंड,संकटमोचन मन्दिर ,बाबा विश्वनाथ का मन्दिर ,लोलारक कुंड ,कालभैरो ,आसभैरो ,शीतलामाता ,महा काली मन्दिर ,मानस मन्दिर ,संकटामाता ,गौरी माता ,राधाकृषण मन्दिर ,बड़ा गणेश मन्दिर ,पुष्कर मन्दिर आदि अनेक है .साथ ही बनारस के काशी नरेश का रामनगर का किला ,चुनारका किला ,नौगढ़ का किला आदि ,अनेक ऐतिहासिक स्थल भी हैं जो इसकी शोभा बढाते हैं .बनारस पारम्परिकता और आधुनिकता का संगम स्थल भी है .यहाँ एक तरफ़ मेट्रो शहरों की तरह मॉल संस्कृति ,मोटर गाडिया ,मेक्दोनाल्स फास्ट फ़ूड ,बार ,रेस्टुरेंट ,होटल्स ,बनारसी लोग काम के चक्कर में सडको पर भागते नजर आते है वही दूसरी तरफ़ गुदोलिया बाज़ार में छोटी -बड़ी दुकाने ,पान की गुमटी,चाय,पकोड़ी जलेबी की दुकाने ,सड़क पर चलते घोड़ा-गाड़ी ,ढाबा और इन जगहों पर बनारसी लोगो का जुटकरदेशकी राजनीती ,क्रिकेट ,आर्थिक स्थिति पर बहस करना ,साथ ही अपने रोजगार के लिए कोई मुर्गा पकड़ना ,जैसे जो लोग बेरोजगार होते है वे बनारस आने वाले पर्यटकों को बनारस घुमाते है ,और अपना खर्चा निकालते है .यह एक छोटा सा परिचय बनारस का इस बनारसी की जुबानी ,ये परिचय का अंत नही शुरुआत है` मैं अकेली नही इस राह पर और भी है शक्स शामिल इस कांरवा में .बनारस के और भी रंग है पर इसके लिए इंतजार और सही .

Tuesday, January 20, 2009

वक्त के साथ बदल रही है पत्रकारिता - मधुकर

नई दिल्ली 20 फरवरी। आज के समय में निकलने वाले अखबारों की तुलना आज़ादी के समय के अखबारों से नहीं की जा सकती। अब अखबार किसी मिशन के तहत नहीं निकलते। समय के साथ पत्रकारिता के स्वरूप में व्यापक परिवर्तन हुआ है। समाचार समाज की बात को समाज के सामने लाने के लिए होते हैं, इसलिए धर्म समेत समाचार पत्रों में छपने वाले हर विषय का सरोकार सीधे सीधे समाज से जुड़ा होता है। भारतीय जनसंचार संस्थान में ‘संपादक से मिलिए’ कार्यक्रम के तहत दैनिक आज समाज के संपादक मधुकर उपाध्याय ने उक्त आशय का वक्तव्य दिया। उन्होंने क्षेत्रिय भाषाओं की स्थिति पर कहा कि मात्र ढाई ज़िलों की हिन्दी भाषा को जबरन राष्‍ट्रभाषा का दर्जा दे दिया गया। इसी कारण से आज भाषाई असंतुलन हमारे पत्रकारिता और लेखनी में झलकता है। छात्रों को संदेश देते हुए श्री उपाध्याय ने कहा कि भविष्‍य को संवारने के लिए विद्यार्थी ज़्यादा से ज़्यादा जो़र अवलोकन को दें। क्योंकि अवलोकन से ही हम समाज की हर परेशानी और ज़रूरत का निर्धारण कर उसे उजागर कर सकते हैं। पत्रकारिता कभी कक्षाओं में बैठकर सीखी भी नहीं जा सकती, ना ही कमरे में बैठकर की जा सकती है। सवाल जवाब सत्र में विद्यार्थियों के सवालों के जवाब में श्री उपाध्याय ने कहा कि कोई भी निरपेक्ष होकर नहीं रह सकता। हमारे अंदर हमेशा ही एक पक्ष विशेष के प्रति झुकाव होता है, पर एक पत्रकार की ज़िम्मेदारी दोनों पक्षों की बात रखने की होती है। समाचारों में विचारों के समावेश के सवाल पर उन्होंने कहा कि आज प्रयोग की कमी है, जिसकी भरपाई भावी पत्रकारों को ही करनी है।
रणवीर सिंह

Saturday, January 17, 2009

मैं और 1 जनवरी 2009

बिस्तर से उठते ही भगवन को प्रणाम किया और सोचा की आज की शुरुआत कुछ अलग करके की जाए । माता पिता के पैर छुए तो उन्हें लगा की यह वर्ष वाकई में इसके लिए एक नव वर्ष है और इस बार इसने कुछ कर गुजरने की सोच ली है।
रोज की तरह दूध लेने के लिए जैसे ही घर से निकला तभी जोर से एक आवाज़ आई ' हैप्पी न्यू इयर भैय्या' ! एक युवक हाथ बढ़ाये मेरे सामने खड़ा था। यह युवक मेरा पड़ोसी था जो कि आर्थिक मंदी कि मार झेल रहा था। वह बेरोजगार था और उसकी दाढ़ी बड़ी हुई थी। उसके 'हैप्पी न्यू इयर' से मैं असमंजस में पड़ गया कि इसे मैं अपशगुन मानू या आशावादी प्रवृति का सशक्तिकरण मानू। मैंने बनावटी हसी के साथ हाथ मिलाया और कह दिया 'हैप्पी न्यू इयर' !
कुछ दिन पहले ही आज के लिए एक जिम्मेदारी मेरे पल्ले बाँध दी गई थी कि मुझे अपनी बहन को छोड़ने अलवर जाना है और उसी दिन वापस भी आना है। और इस तरह नए साल का पहला दिन का मेरा अधिकांश समय ट्रेन में सफर करते बीता।
जब ट्रेन में अखबार का वह पेज पढ़ रहा था, जिसमे भारत का 2009 में विकास की संभावनाओ पर विशेष आया था, तो मेरी नज़र खिड़की की बहार लहरा रहे हरे भरे खेतो पर पड़ी। यह जगह खैरतल थी। इन हरे भरे खेतोंपर पड़ती शीतल धूप बहुत सुंदर लग रही थी। तभी मेरे पास टीटी आया और टिकेट मांगने लगा। मेरे पास सामान्य डिब्बे का टिकेट था लेकिन में स्लीपर में बैठा था। इसलिए मैंने टिकेट के साथ 100 रुपये का नोट भी चार्ज के रूप में उसे दे दिया। मेरे और मेरी बहन के कुल 80 रूपये लगने थे। जब मैंने उससे 20 रूपये वापिस देने और रसीद देने के लिए कहा तो उसने कहा - "इतने ही लगते है"। मेरा स्टेशन आने वाला था इसलिए मैंने लालू के उस भ्रष्ट दूत से बहस करना उचित नही समझा। और सामान गेट की ओर ले गया।
दिल्ली वापसी के लिए जब स्टेशन पर पंहुचा तो मैं खुश हो गया। आदत से मजबूर मैं 10 मिनट लेट था लेकिन ट्रेन 40 मिनट लेट थी। तभी मुझे उस लेडी का वो कथन याद आया जो उसने मुझसे रेल के लेट होने से खिन्न होकर कहा था - " व्हेन विल इंडिया इमप्रोवे इत्सेल्फ़" ।
ये लेडी मरीशिउस की थी और मुझे 28 मार्च 2008 को ट्रेन में उस वक्त मिली थी जब मैं भारतीय सेना में शामिल होने की लिए एस एस बी इंटरव्यू दने जा रहा था। खुश होते होते मैंने अपने मन में कहा - "व्हेन विल आई इम्प्रूव मायसेल्फ। ट्रेन आई और इस बार भी सामान्य डिब्बे की जगह स्लीपर में बैठ गया।
'चाय चाय', 'वेज कटलेट', 'चना मसाला', 'काफी काफी' की आवाज़ बार बार मेरी नींद तोड़ रही थी। अचानक मैंने महसूस किया की मेरा पाव को कोई छू रहा है। अध् -नग्न हालत (केवल फटी पैंट में) घुटनों के बल रेंगता यह युवक ट्रेन की डिब्बे के फर्श पर से अपनी शर्ट से कूड़ा साफ कर रहा था। वह सामने हाथ फैलाने लगा। मैंने जब उसकी उपेक्षा की तो उसने मेरा जूता पकड़कर अपने माथे के लगा लिया। मैंने निर्दयी होकर जूता छुडाया और थोडी दूर जाकर खड़ा हो गया। वह जिस की भाव भंगिमा बना रहा था मुझे लग गया था की वह गूंगा - बहरा है। वह अगले कम्पार्टमेंट में गया तो एक बुदी काकी उस पर चिल्ला कर बोली - " अरे कमबख्त कितनी बार लेगा, अभी तो दिया था"!
जब वह ठण्ड से ठिठुरता अध् - नग्न आदमी पास बैठी एक फैशनेबल जवान शहरी लेडी की पास गया तो उस लेडी ने उसे देख अपने शाल से अपनी नाक डाक ली और उसकी आँखों में दया की जगह घृणा का भाव पैदा हो गया। तभी डिब्बे में कुछ हिजडे आए और फटाफट सभी से 10-10 और 20-20 रूपये वसूल कर चलते बने। मैं इस बार भी अपवाद और क्रूर बना रहा। दिल्ली स्टेशन आने वाला था तो मैं दरवाजे पर आ गया। वहां बैठे उसी अध् - नग्न व्यक्ति ने मुझसे बोला भाईसाहब स्टेशन उस तरफ़ नही इस तरफ़ आयेगा! स्टेशन आया और ट्रेन से उतर कर मैंने 1 जनवरी 2010 की ओर कदम बढ़ा दिया।

आतंक की जमीन पर लहराई टीआरपी की फसल

हिमांशु शेखर
मुंबई में आतंकी हमलों के दौरान ६२ घण्टों तक चली मुटभेड़ ने टीआरपी के इतिहास में नया अध्याय जोड़ दिया है. टीवी न्यूज के इतिहास में इतने दर्शक चैनलों को कभी नहीं मिले थे. इन बासठ घण्टों में मीडिया ने जो कुछ किया उस पर नीतिगत बहस जारी है, लेकिन मीडिया का काम हो गया. उन बासठ घण्टों के दौरान उसकी टीआरपी ने सारे रिकार्ड तोड़ दिये. आतंक की इस रिपोर्टिंग ने मीडिया की झोली दर्शकों और पैसों से भर दी है.
मीडिया के इस लाईव प्रसारण से आतंकवादियों से लोहा ले रहे सुरक्षाकर्मियों को अपने ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने में मुश्किलें भी आईं। मीडिया के इस गैरजिम्मेदराना रवैए की हर तरफ आलोचना होने लगी तो कई कई समाचार चैनलों के संपादक अलग-अलग समाचार पत्रों में लेख लिखकर अपनी पीठ खुद थपथपाने लगे और बासठ घंटे के लाइव प्रसारण को ऐतिहासिक तक बता डाला। इन संपादकों ने कहा कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए आतंकी कार्रवाई का सजीव प्रसारण किया ना कि टीआरपी यानि टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट के लोभ में। मुंबई आतंकी हमले के दौरान बासठ घंटे तक चले ऑपरेशन कवर करने को भले ही समाचार चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी बता रहे हैं और इस कवरेज पर अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन सच यही है कि इस दौरान खबरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ गई। जाहिर है कि इस बढ़ी टीआरपी को भुनाने के लिए इन खबरिया चैनलों के विज्ञापन दर में बढ़ोतरी होना तय है और फिर इनकी कमाई में ईजाफा होना भी निश्चित है।
टीआरपी नापने वाली एजेंसी टैम यानि टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट के आंकड़े बता रहे हैं कि छब्बीस नवंबर से तीस नवंबर के बीच समाचार चैनलों के संयुक्त दर्शक संख्या में तकरीबन एक सौ तीस फीसदी का ईजाफा हुआ। यानि खबरिया चैनल देखने वालों की संख्या इस दरम्यान दुगना से भी ज्यादा हो गई। जबकि मनोरंजन चैनलों के दर्शकों की संख्या में जबर्दस्त कमी आई। टैम के मुताबिक कुल दर्शकों में से 22.4 प्रतिशत दर्शक इन चार दिनों के दौरान हिंदी खबरिया चैनल देखते रहे। जब से टीआरपी नापने की व्यवस्था भारत में हुई तब से अब तक इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी समाचार चैनलों को कभी नहीं देखा। इससे साफ है कि आतंकवाद की यह घटना मीडिया को एक फार्मूला दे गई और तमाम आलोचनाओं के बावजूद भविष्य में भी मीडिया ऐसी घटनाओं को लाइव कवरेज के दौरान बेचते हुए दिखे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि किसी भी कीमत पर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी बटोरना और फिर अपना बिजनेस बढ़ाना ही प्राथमिकता बन जाएगी तो कम से कम वहां तो पेशेवर जिम्मेदारी की भी अपेक्षा करना ठीक नहीं है। इन चार दिनों के दौरान खबरिया चैनल जमकर आतंक की फसल काट रहे थे वहीं दूसरे सेगमेंट के चैनलों को इसका नुकसान उठाना पड़ा। इस दरम्यान मनोरंजन चैनलों का कुल दर्शकों में 19.5 फीसदी हिस्सा रहा जबकि हिंदी फिल्म दिखाने वाले चैनलों को 15.1 प्रतिशत दर्शक मिले।
खबरिया चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के शब्दों में कहें तो 26 नवंबर से तीस नवंबर मीडिया कवरेज के चार ऐतिहासिक दिन थे। मीडिया कवरेज के इन ऐतिहासिक दिनों की बदौलत 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में हिंदी खबरिया चैनलों के पास कुल दर्शकों में से 16.1 फीसदी थे। जबकि इसके पहले के चार सप्ताहों के आंकडे़ देखें तो यह पता चलता है कि इस दौरान हिंदी समाचार चैनलों को औसतन हर हफ्ते 6.7 प्रतिशत लोग देखते थे। इससे यह बिल्कुल साफ हो जा रहा है कि सही मायने में इस आतंकवादी हमले ने खबरिया चैनलों के लिए संजीवनी का काम किया। दर्शकों की संख्या दुगना से भी ज्यादा हो जाना इस बात की गवाही दे रहा है।
इस दरम्यान सबसे ज्यादा फायदा आज तक को हुआ। इस घटना से पहले समाचार देखने वाले दर्शकों में से सत्रह फीसद लोग इस चैनल को देखते थे। वहीं इस घटना के दौरान आज तक को 23 फीसद लोगों ने देखा। इसके अलावा जी न्यूज के दर्शकों की संख्या भी ८ फीसद से बढ़कर ११ फीसदी हो गई। उस सप्ताह से पहले तक कुल दर्शकों की संख्या में स्टार न्यूज की हिस्सेदारी १५ फीसद थी। इस चैनल को भी बासठ घंटे तक लाइव कवरेज का फायदा मिला और दर्शकों की संख्या में एक फीसदी का ईजाफा हुआ और इसकी हिस्सेदारी उस सप्ताह में सोलह फीसद रही। जबकि १६ फीसद के साथ इंडिया टीवी, ११ फीसद के साथ आईबीएन सेवन और ८ फीसद के साथ चल रहे एनडीटीवी के दर्शक संख्या में इस आतंकी घटना के लाइव प्रसारण के दौरान भी कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।
आतंकवादी हमले के लाइव कवरेज की फसल काटने के मामले में गंभीरता का लबादा ओढ़े रहने का ढ़ोग रचते रहने वाले अंग्रेजी खबरिया चैनल भी पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी समाचार चैनलों में इस दौरान सबसे ज्यादा फायदा एनडीटीवी 24X7 को हुआ। आतंकी हमले से ठीक पहले वाले सप्ताह तक इस चैनल के पास अंग्रेजी समाचार चैनल देखने वाले २५ प्रतिशत दर्शक थे, जो आतंक के बासठ घंटे के लाइव कवरेज वाले सप्ताह में बढ़कर ३० फीसदी हो गए। दर्शकों में हिस्सेदारी के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अंग्रेजी खबरिया चैनल टाइम्स नाउ का शेयर भी 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में 23 फीसदी से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया। इस दौरान न्यूज एक्स के दर्शकों की संख्या में भी मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। जबकि सीएनएन आईबीएन और हेडलाइंस टुडे के दर्शकों की संख्या में इस दौरान कमी दर्ज की गई।
आतंकवादी हमलों के दौरान इसके व्यावसायिक असर को लेकर हिंदी और अंग्रेजी के बिजनेस चैनलों पर भी जमकर चर्चा हो रही थी। यहां जो व्यावसायिक कयासबाजी चल रही थी वह कितना सही साबित होगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इस दौरान इन चैनलों की टीआरपी जरूर बढ़ गई। हिंदी के बिजनेस समाचारों वाले चैनलों की टीआरपी में संयुक्त तौर पर पचीस फीसदी का और अंग्रेजी के बिजनेस खबरों वाले चैनलों की टीआरपी में भी संयुक्त तौर पर तकरीबन दस प्रतिषत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। टीआरपी पर ही समाचार चैनलों की आमदनी निर्भर करती है। टीआरपी और आमदनी का सीधा सा संबंध यह है कि विज्ञापनदाताओं के लिए किसी भी चैनल की दर्शक संख्या जानने का और कोई दूसरा जरिया नहीं है। इसी टीआरपी के आधार पर चैनलों को विज्ञापन मिलता है। हालांकि, टीआरपी मापने के तौर-तरीके पर भी सवालिया निशान लगते रहे हैं, जो तािर्कक भी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आखिर महज सात हजार बक्सों और वो भी सिर्फ महानगरों में लगाकर पूरे देश के टेलीविजन दर्शकों के मिजाज का अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है। पर दूसरा रास्ता ना होने की वजह से धंधेबाज इसी के जरिए अपना-अपना धंधा चमकाने में मशगूल हैं।

Friday, January 16, 2009

झारखण्ड में न बदले हर साल मुख्यमंत्री


झारखण्ड के तमाड़ विधानसभा क्षेत्र के लिये हुये उपचुनाव में राज्य के मुख्यमंत्री शिबू सोरेन राजा पीटर जैसे उम्मीदवार से हार जाना। पश्चिम बंगाल के नंदीग्रम विधानसभा क्षेत्र में हुये उपचुनाव में वामपंथी उम्मीदवार परमानंद भारती का तृणमूल कांग्रेस की प्रत्यासी फिरोजा बीबी से हार जाना और इसके पहले विगत माह पांच राज्यों में हुये विधानसभा चुनाव के मिले परिणाम संकेत दे रहे हैं कि लोकतंत्र मजबूत हो रहा है और जनता के सामने उम्मीदवारों का बड़ा कद बड़ा नाम या किसी पार्टी का बैनर लग जाना भर पर्याप्त नही होगा यदि अपने विवेक से बदलाव कर रही है तो यह लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है और नाम से काम नही चलने वाला बल्कि काम ही काम आयेगा। झारखण्ड की राजनीति में शिबू सोरेन इक आसे व्यकित का नाम है जो वर्षों से यहां राजनीति का पर्याय बने रहे है। लेकिन उन्हें एक छोटी पार्टी के उम्मीदवार राजा पीटर से हारना पड़ा। राजा पीटर पिछले कई वर्षों से तमाड़ में अपना जनाधार बनाने में लगे हुये हैं। झारखण्ड में राजनीतिक स्थिरता के बाद आदिवासियो ने कहा कि उन्होंने ऐसे राज्य का सपना नही देखा था जहां हर साल मुख्यमंत्री बदले। आदिवासियों ने राष्ट्रपति शासन व नया जनादेश ही उचित विकल्प माना है। कुड़मी समुदाय उप मुख्यमंत्री सुधीर महतो को मुख्यमंत्री बनाने पर जोर दे रहे हैं।

congress :

Thursday, January 15, 2009

" चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन : स्वर्ग के पवित्र बच्चे "


" गुची या प्रादा " आज आप कौन सा जूता पहन रही हैं मैडम ?

फ़िल्म शुरू होते ही इस बाज़ार संसार में से ये बोली सुनाई देने लगती है। उनके लिए .....जो आवश्यकता की सीमा से बहुत ऊपर बसे किसी सितारा लोक में रहते है ।

समाज में दो फाड़ है । एक जिनके पास जूतों के लिए भी महँगे चुनाव मौजूद है । संसाधनों की अतिवृष्टि उन पर बारह महीने होती रहती है। दूसरे जिन्हें जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकताएँ भी नही मिल पाती हैं। आवश्यकता की पूर्ति यहाँ सदैव अनुपस्थित रहती है ।

ईरान में महिलाओं के सिर खुला रखने और पाश्चात्य परिधान पहनने पर समाज में पाबन्दी है। मगर भूमंडलीकरण का ऊँट गुची और प्रादा जैसे जूतों की शक्ल में अरब पार पहुँच चुका है। मजीद मजीदी अपनी फ़िल्म ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन ' में दुनिया भर के बच्चों की मासूमियत का प्रतिनिधित्व करते हैं । फ़िल्म में समाज का यथार्थपरक विश्लेषण मौजूद है ।

9 साल का अली फ़िल्म का मुख्य किरदार है। घर में छोटी बहन जाहरा , माँ और पिता करीम है । पिता दफ्तरों में चाय पिलाता है । माँ लोगों के कपड़े धोती है। फ़िल्म की कहानी अली से शुरू होती है जो अपनी बहन के गंठवाए जूतों को लेकर सब्जी लेने पहुँचता है । अली भीतर नीचे पड़ी सस्ती सब्जियों में से आलू छांटने लगता है। एक बूढा कचरा बीनने वाला अखर आगा की सब्जी की दुकान के सामने पहुँचता है । वह अखर आगा से बाहर पड़ा कचरा उठाने की अनुमति माँगता है । बूढा जूतों को भी कचरे संग बीन ले जाता है । अली बाहर आकर जब जूतों को नही पाता तो उसकी आँखों में पानी बहने लगता है। एक छोटे मेमने की तरह डरा -सहमा इधर - उधर जूते ढूंढ़ता है, लेकिन सब्जीवाला उसे डाँटकर भगा देता है।

घर में क़र्ज़ ग्रस्त माँ - बाप अपनी-अपनी परेशानियों में घिरे हैं । बच्ची जाहरा के जूते गुम है। बच्चा डरा हुआ है कि जाहरा माँ को न बताए ....पिता से न कहे । रात को स्कूल का गृहकार्य लिखते बच्चे ....लिखकर आपस में बातचीत करते हैं। अली लिखता है....." तुम मेरे जूते पहन लो ....मैं तुम्हारी चप्पल पहन लूँगा । ....भगवान के लिए ...... । "

ये मासूम बच्चे इस साँसारिक दुनिया में अपने - अपने पवित्र तरीकों से जीते हैं। बच्ची भाई के बड़े पी टी शू पहनकर जब चलती है तो देखने वालों को हँसी भी आएगी और ॥रोना भी। जब जाहरा स्कूल से छुट्टी के बाद संकरी , कीचड़ - खड्डों भरी गलियों में से दौड़ती -हाँफती अली के पास पहुँचती है तब ही जूते-चप्पल बदलकर अली अपनी स्कूल जा पाता है ।

आँगन में बने छोटे पोखर में केसरिया- संतरी मछलियाँ तैरती हैं। मछलियों को दाना खिलाकर और जूते धोते समय पैदा हुए झाग उड़ाकर खुश होते भगवान के ये बच्चे ....अली-जाहरा । दुनिया भर के इन्द्रधनुषी उत्पादों से दूर यही इनका सुख है। गीले जूते अली को दोस्तों संग खेलने जाने से रोकते हैं। रात को बरसात आती है। जूते फिर भीग जाते हैं।

रात का खाना पूरा परिवार साथ खा रहा है। टेलीविजन चल रहा है। कार्यक्रम आ रहा है कि सही जूते न पहने जाएँ तो सरदर्द और कमरदर्द होने लगता है । बाज़ार का ये दावा दोनों बच्चों को भीतर तक सहमा जाता है । तभी टेलीविजन ख़राब आने लगता है । जब इसका परदा सही आता है तो अकस्मात ही एक बम धमाके का दृश्य दिखाई देता है । निर्देशक ने विश्व राजनीति और बाज़ारवाद के बीच का संधान सांकेतिक रूप में इस अन्तिम दृश्य के माध्यम से किया है।

जाहरा के मनोभाव भी तस्वीर के रंगों से शेड्स लेते हैं। बाज़ार में दुकान पर रंग - बिरंगे जूते देख पहनने को आतुर जाहरा , परीक्षा पत्र लिखते सोचती जाहरा कि अली को जूतों बिना स्कूल को देर हो जायेगी और उसे सज़ा मिलेगी , प्रार्थना कि पंक्ति में लड़कियों के पैरों में जूते देखती जाहरा। परीक्षा के बाद वह दौड़ती जाती है कि पानी के तेज़ बहाव वाले नाले में एक जूता गिर जाता है। उसे पाने के लिए हिरणी सी व्याकुल संघर्ष करती , दौड़ती...... कभी इधर-कभी उधर ...रोती जाहरा क्योंकि जूता नाले के अन्दर कहीं कचरे के साथ अटक गया है। सामने खड़ा बूढा दुकानदार रोते देख उसकी मदद करता है । जूता निकल आता है । अली अभी भी इंतजार कर रहा है। जाहरा फिर दौड़ रही है। जूते लंबे हैं। बार -बार पैरों से निकल आते है।

प्रार्थना की कतार में प्यारी बच्ची को दूसरी लड़कियों के पैरों में पड़े जूते ही नज़र आते हैं। ....लाल , काले , अलग-अलग आकर्षक जूते । सहसा उसके जूते किसी दूसरी लड़की के पैरों में दिखाई देते हैं । हमउम्र आबेल के पैरों में। आबेल का पिता अँधा है । अली-जाहरा जूते ढूंढ़ते उसके घर पहुँचते हैं मगर आबेल के अंधे पिता को देखकर लौट आते हैं। इतिहास में त्याग और बलिदान के बड़े उदहारण हैं। बाल फिल्मों के इतिहास में अली-जाहरा का यह त्याग अपूर्व और यादगार है।

रात की नमाज और इबादत के स्वरों के बीच अली अपने पिता करीम की चाय की दुकान पर आए लोगों के जूते सिलसिलेवार करता है । उन्हें चाय पिलाता है। करीम के लिए चाय की दुकान घर चलाने को अपर्याप्त है।

अगले दिन अली अपने पिता के साथ साइकिल पर आगे बैठा शहर के बीच से गुजर रहा है । साइकिल ओवरब्रिज के ऊपर से निकल रही है। हाँफता , साइकिल चलाता , पसीना-पसीना करीम रईसों की बस्ती के संगमरमरी बंगलों में बागवानी कर पैसा कमाने की आस में आया है । संकरी गलियों में रहने और जूतों के लिए संघर्ष करने वाले अली के लिए यह नई दुनिया है।

" यहाँ गेट बजाने पर गाली निकालते ...मना करते बड़े घरों के लोग हैं । घंटी पर घंटी बजाओ ...पर कोई काम नही करवाना चाहता है। एक घर में से कुत्ता भौंकता है.......और बाप-बेटा दोनों साइकिल समेत भाग छुट्तें हैं। ये दुनिया का कैसा विभाजन है ? बड़े घर ....रईस लोग ॥लेकिन बात करने को कोई नहीं । घर में झूलों का जमावड़ा है पर साथ में झूलने को कोई नहीं । एक घर में करीम को बागवानी का मौका मिलता है क्योंकि घर के बूढे मालिक का एकलौता पोता अकेला है । साथ में खेलने और बांटने को कोई बच्चा नहीं है । सितारा संसार .....कैसा ? ....सुखी या खोखला ? "

करीम लौटते समय सोचता है कि मोटर साइकिल , प्रेस , अलमारी , बड़ा फ्रिज भी हम खरीद सकते हैं अगर यहाँ काम किया जाए तो । वह खुश है । तभी ढलान आती है । साइकिल के ब्रेक फेल हो जाते हैं। दोनों गिरते हैं और चोटों के साथ घर पहुँचते हैं । परेशानियों या कहें तो इस दुनिया के लोगों के लिए यंत्रणा का दौर जारी है ।

अली के स्कूल में दौड़ प्रतियोगिता होने वाली है । प्रतिभागियों का चुनाव हो चुका है। अली जब देखता है कि तीसरा पुरस्कार जूतों की एक जोड़ी है तो वह शिक्षक के सामने फूट-फूटकर रोता है कि वह जरुर जीतेगा ...उसे ले लिया जाए । उसे रोता देख पी टी आई उसका ट्रायल लेता है । उसकी रफ़्तार देख सहर्ष उसका नाम दर्ज कर लेता है ।


अब भाई -बहन खुश हैं कि जीतने पर जूते मिलेंगे। आज दौड़ का दिन है। इकट्टे सैंकड़ों बच्चे रंग-बिरंगी खेल पौशाक पहने दौड़ने का अभ्यास कर रहे हैं। लेकिन अली अपने रोज वाले कपड़ों में बैचेन है कि कब रेस शुरू हो और वह जूते पाए ।

5 किलोमीटर की झील तक होने वाली यह दौड़ शुरू होती है । हजारों बच्चों में एक अली .....दौड़ता जाता है। आँखों के आगे जाहरा के जूते , उन गलियों की स्मृति जहाँ दौड़ते-हाँफते दोनों जूतों की अदला-बदली करते थे और छोटी बहन का चेहरा घूमता रहता है। अग्निपरीक्षा है । अंततः अली जीत जाता है । .....उसका पहला सवाल ....."क्या में तीसरा स्थान जीता ?" ....जवाब आता है ॥बच्चे तुम जीत गए ...तीसरा स्थान क्या । "अली रो रहा है...जीतकर .....हजारों से । क्योंकि वह सोना जीता । एक जोड़ी जूते नहीं । हमेशा देर से आने वाले अली ने आज अपनी स्कूल का नाम रोशन किया है । अभाव में रहकर भी वह.....प्रचुर संसाधन वालों से जीता है।

अली को नहीं पता है कि आज उसके पिता ने दोनों भाई-बहनों के लिए नए जूते खरीदें हैं । वह मायूस घर लौटता है । फटे जूते और मौजे उतारता है । बहन की आशा भरी आँखों से उसकी दुखी नज़रें मिलती हैं । वह समझ जाती है ।

घर के बीच बने छोटे पोखर में अली अपने घायल पैर डाल देता है । तभी केसरिया मछलियाँ तैरती आती है । अपने स्पर्श से उसके घावों को राहत देती हैं । शीतलता के साथ यह बाल कथा यहीं ख़त्म होती है । कहा जाता है कि अली आगे चल कर एक सफल रेसर बनता है ।

1997 में मूल रूप से पर्शियन में बनी " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " में ऑस्कर पुरस्कारों की विदेशी भाषा की श्रेणी में नामांकित होने वाली पहली ईरानी फ़िल्म थी । मजीद मजीदी ने लेखन और निर्देशन में बेहद शानदार काम किया है । बाल कलाकारों के रूप में आमिर फारुख ने अली के किरदार में जान फूँकी है । परवेज़ जहानशाही का छायांकन फ़िल्म के यथार्थ को उभारने में रीढ़ साबित हुआ है ।मिनट की " चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन " की अधिकतर शूटिंग तेहरान में हुई है ।

आलोचकों ने इसकी तुलना वित्तोरियो दी सीका की 1948 में बनी फ़िल्म " बाईसाइकिल थीव्स " से की है । जेक नियो की 2003 में बनी ' होम रन ' चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन से प्रभावित थी । हालाँकि होम रन में मुख्य तत्व दोस्ती के इर्द - गिर्द घूमता है । भारत में 2007 में इसकी नक़ल करके " सलाम बच्चे " बनाई गई थी ।

चिल्ड्रेन ऑफ़ हेवन बच्चों की फ़िल्म होते हुए भी सामजिक यथार्थ के विश्लेषण से युक्त है । विश्व सिनेमा से जुड़ा यह पन्ना विशाल भारद्वाज निर्देशित और पंकज कपूर अभिनीत " ब्लू अंब्रेला " की याद दिलाता है ।

गजेन्द्र सिंह भाटी

नकेल कसने की कवायद

हिमांशु शेखर
मीडिया पर नकेल कसने के लिए सरकार ने 1994 के केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमों में 19 नए संषोधनों के सुझाव दिए गए हैं। इसके लिए तीस दिसंबर को एक कैबिनेट नोट लाया गया। जिसके तहत 1994 के नियमों में संषोधन करके आतंकवाद विरोधी कार्रवाई, सेक्स अपराध, नारको जांच के दौरान पूछताछ और न्यायिक पूछताछ के प्रसारण के नियंत्रण की सिफारिष की गई है।

संषोधन के इस सुझाव को टिप्पणी के लिए गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के पास भेजा गया है। इस संषोधन के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि खबरिया चैनलों के प्रसारण पर नियंत्रण के लिए सरकार पर जनदबाव के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय का दबाव भी काम कर रहा है। इस बात से तो षायद कोई भी गाफिल नहीं है कि ये सरकारें जनदबाव और उच्चतम न्यायालय के दबाव में कितना काम करती हैं। असलियत तो यह है कि इन दबावों की आड़ में अपना स्वार्थ साधने के लिए सत्ता में बैठे हुए लोग और सत्ता के बाहर रहने वाले लोगों में मीडिया को काबू में करने के लिए एक सहमति बन गई है।


इन नए संषोधनों की बाबत अखबारों में जो खबरें प्रकाषित हुईं उसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा है कि इन संषोधनों के बाद मंत्रालय के पास इतने अधिकार आ जाएंगे कि कोड का उल्लंघन करने वाले चैनलों पर वह तुरंत कार्रवाई कर सके। यानि अगर कोई चैनल सत्ता में बैठे हुए दल की भावनाओं के मुताबिक काम नहीं करेगा तो उसे सरकारी कार्रवाई का सामना करना पडे़गा। मुंबई आतंकवादी हमले को आधार बनाकर तैयार किए गए इस नोट में खबरिया चैनलों के गैरजिम्मेदराना रवैये का उल्लेख विस्तार से किया गया है।


इसमें यह भी बताया गया है कि कई चैनल खबरों में लोगों की दिलचस्पी बनाए रखने के मकसद से ‘लाइव’ का कैप्षन लगाकर आपातकालिन स्थितियों में भी प्रसारण करते हैं। जबकि असल में वह प्रसारण लाइव होता नहीं है। इससे लोगों के मन में स्वाभाविक तौर पर भय, भ्रम और असुरक्षा कायम होता है। अगर इन सुझावों को मान लिया जाता है तो जांच चल रहे मामलों के गैरजरूरी प्रसारणों पर रोक लग जाएगी और किसी भी अपुश्ट जानकारी देने पर भी रोक लग जाएगी। यह भी सुझाव दिया गया है कि ऐसे मामलों में आरोपी, षिकार और जांच व सुरक्षा अधिकारियों से बातचीत करने पर भी रोक लगे।


इसके अलावा अपराधियों और आतंकवादियों के लगातार कवरेज के जरिए उसके विचारों के प्रसार पर भी रोक लगेगी। सेक्स अपराध और हिंसा के षिकार बच्चों और महिलाओं की तस्वीर और घटना के ग्राफिक प्रसारण पर भी प्रतिबंध कायम हो जाएगा। इसके अलावा नारको जांच, झूठ पकड़ने वाली जांच और न्यायिक स्वीकारोक्ति के रिकार्डिंग का प्रसारण भी नहीं किया जा सकेगा। साथ ही अंधविष्वास फैलाने वाले कायक्रमों के प्रसारण पर भी लगाम लग पाएगा।


अगर इन सुझावों को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो युद्ध और आतंकवादियों के विरूद्ध चल रही कार्रवाईयों के देर से किए जाने वाले लाइव यानि जीवंत प्रसारण के लिए अधिकृत अधिकारी से समाचार चैनलों को अनुमति प्राप्त करना होगा। जबकि नारको परीक्षण, पोलीग्राफ टेस्ट और न्यायिक स्वीकारोक्ति से जुड़े किसी फुटेज के प्रसारण के लिए अदालती आदेष अनिवार्य होगा।


बजाहिर, ये अनुमति और आदेष हासिल करने की प्रक्रिया आसान नहीं होगी और खबरिया चैनलों को प्रसारण में किस तरह की दिक्कत होगी, इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।इस बात को कहने का यह मकसद कतई नहीं है कि समाचार चैनलों में जैसा चल रहा है, वैसा ही चलना चाहिए। खबरिया चैनलों के प्रसारण का नियमन होना चाहिए। पर यह नियमन सरकारी नहीं होना चाहिए। नियमन खुद पत्रकारिता जगत की तरफ से होना चाहिए।


न्यूज ब्राॅडकास्टर्स एसोषिएषन में षामिल सदस्यों की संख्या को बढ़ाकर आत्मनियमन की दिषा में खबरिया चैनलों को बढ़ना चाहिए। मौजूदा हालात में एनबीए के निर्णयों का बहुत ज्यादा महत्व इसलिए नहीं रह जाता है कि इसके सदस्यों की संख्या बहुत कम है। अभी एनबीए के सदस्यों की कुल संख्या तीस है। जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक समाचार और समसामयिक चैनलों के दो सौ लाईसेंस जारी किए गए हैं। जाहिर है, ऐसे में एनबीए के निर्णय का असर भी तीस चैनलों पर ही पड़ेगा। जबकि समाचार चैनलों का फलक इससे कई गुना बड़ा है। इसके अलावा एनबीए में क्षेत्रीय चैनलों की उपस्थिति नहीं है।

Monday, January 12, 2009

यह चुप्‍पी बहुत खतरनाक है

दो महीने से कार्यशाला सूनी पड़ी हुई है। लगता है लिखने की जगह इस ब्‍लॉग की प्राथमिकताएं कुछ और हो गयी हैं। चुप्‍पी तोड़कर कुछ संवाद बनाने की जरूरत है। शुरुआत शालिनी की तरह दो शब्‍दों से भी हो सकती है लेकिन दो शब्‍दों का दुहराव ठीक नहीं हैं।
शुभकामनाएँ