उम्मीद के मुताबिक 'स्लमडॉग करोड़पति', माफ़ कीजिये 'स्लमडॉग मिलेनियर' को ऑस्कर अवार्ड भी मिल गया। गोल्डन ग्लोब अवार्ड मिलने के बाद हमारी उम्मीदें बढ़नी भी जायज़ थी। वैसे हम भारतीय काफ़ी हद तक उम्मीदों पर ही ज़िन्दा रहते हैं। हमारे यहाँ ऎसी कहावत भी आम है- "उम्मीद पर ही दुनिया कायम है।" इसी तरह एनडीटीवी इंडिया पर शाम आठ बजे विनोद दुआ भी कहते मिल जायेंगे- "हमारा कल आज से बेहतर हो इसी उम्मीद के साथ आपसे विदा लेते हैं..."
उम्मीद करना हमें विरासत में मिला है। हमारे पूर्वजों ने भी देश की आज़ादी की उम्मीदें पाली थी। देश को आज़ादी मिली लेकिन उनकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं। आज़ादी के बाद देश की हालत सुधरने की उम्मीद थी। हालत भी सुधरी लेकिन फ़िर उम्मीदें धरी की धरी रह गई। हुआ यह कि हालत मुट्ठी भर लोगों की ही सुधरी, बाकियों के जीवन में खास अंतर नहीं आया।
इन्हीं अंतरविहीन लोगों की कहानी है- 'स्लमडॉग मिलेनियर'। हमारी उम्मीद इस फ़िल्म से ज़रा हटकर थी। सोचा यह था कि फ़िल्म झुग्गी-निवासियों पर एक अच्छी फ़िल्म होगी। फ़िल्म अच्छी थी लेकिन अच्छाई के भी कई मायने होते हैं, ये फ़िल्म देखने के बाद समझ आया। इससे अच्छी बात क्या होगी कि फ़िल्म एक निहायत ही ग़रीब और बुरी आदतों वाले एक किशोर को 'बेहतर तरीके' से करोड़पति बनाती है जबकि यही काम उसका भाई ग़लत तरीके से करता है। ज्यादातर भारतीय भी इसी 'बेहतर तरीके' से करोड़पति बनने की उम्मीद रखते हैं
फिल्म एक निर्देशकीय रचना होती है और इस फ़िल्म के निर्देशक डैनी बोयले, ब्रिटिश फिल्मकार हैं। निर्माता- क्रिस्चन कोलसन भी विदेशी हैं। तो अब हमारा फ़िल्म में क्या बचता है? बचता है न- फ़िल्म की कहानी, पात्र (कुछ एन.आर.आई.), गीतकार, संगीतकार और आमची मुंबई तो है ही। हाँ वो महानायक भी अपना है जिसे देखने के लिए झुग्गी का एक बच्चा पखाने में कूद जाता है। वो बच्चा और पखाना भी अपना ही है।
हम भारतीयों के 'स्लमडॉग मिलेनियर' के ऑस्कर जीतने की खुशी का राज़ इतना ही है। गुलज़ार और रहमान की काबिलियत से हम पहले से ही परिचित हैं और अब तो उन्हें विदेशी प्रमाण-पत्र भी मिल चुका है। हाँ पोकुट्टी ज़रुर नई उम्मीद हैं।
फ़िर भी सभी भारतीय खुश हैं ऐसा नहीं है। किसी को इस बात का दुःख है कि यह फ़िल्म किसी भारतीय ने नहीं बनाई तो किसी में गुस्सा कि 'लगान' और 'तारे ज़मीं पर' को ऑस्कर अवार्ड नहीं मिला। खैर जो भी हो हमें विदेशी प्रमाण-पत्र मिलने की खुशी तो है ही लेकिन इस बार तो हम मुफ्त में ही खुश हैं। दूसरे की खुशी में अपनी खुशी तलाशना भी हम भारतीयों के बूते की ही बात है। तीन ऑस्कर अवार्ड खालिस भारत को मिलने के बाद हमें उम्मीद है कि यही क्रम आगे भी जारी रहेगा। "हमें कुछ और विदेशी प्रमाण-पत्र मिलें इसी उम्मीद के साथ आपसे विदा लेते हैं..."
भूमिका लंबी हो गयी है।
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