Thursday, February 19, 2009

अंतरिम बजटः 2009 - सियासी डफली, चुनावी राग

हिमांशु शेखर
जब बजट पेश करने प्रणब मुखर्जी संसद जा रहे होंगे तो उनके दिमाग में आने वाले अप्रैल में मतदाताओं की लंबी कतारें जरूर रही होंगी। उन्हें यह भी याद रहा होगा कि उन लंबी कतारों में लगे लोगों का निर्णय तय करने में उनके बजट की विशेषता कोई भूमिका निभाये या नहीं लेकिन उनकी कोई भी गलती मौजूदा सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का काम जरूर कर सकती है। हालांकि, 1984 में उन्होंने आखिरी बार बजट पेश किया था और वह पूर्ण बजट था। पर इस दफा दादा अंतरिम बजट पेश करने जा रहे थे और उन्हें ऐसे समय में वित्त मंत्री बनाया गया था जब उनसे सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सियासी चतुराई की अपेक्षा कर रहे थे। कहा जा सकता है कि प्रणब दादा ने उनके अपेक्षाओं पर खरा उतरने की भरपूर कोशिश की। अपने बजट भाषण के दौरान उन्होंने बार-बार सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह की तारीफ करते हुए वित्त मंत्रालय से गृह मंत्रालय जा चुके पी चिदंबरम की पीठ थपथपाने का भी कोई मौका नहीं छोड़ा। चुनावों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने आम आदमी, किसान, किसानी और गांवों की भलाई का राग भी जमकर अलापा।

आंकड़ों के जरिए प्रणब मुखर्जी ने जो गुलाबी तस्वीर खींची उसे सिक्के का एक पहलू ही कहा जा सकता है। विदेश मंत्री के तौर पर अहम जिम्मेदारी निभाने वाले प्रणब मुखर्जी ने मौजूदा यूपीए सरकार का आखिरी बजट पेश करते हुए अपने सियासी कौशल का बखूबी परिचय दिया। कार्यवाहक वित्त मंत्री के रूप में अगले चार माह के लिए अपना अंतरिम बजट पेश करते हुए मुखर्जी ने पिछले चार साल की यूपीए सरकार की उपलब्धियों को गिनाने में कोई कसर नहीं छोड़ा। उन्होंने बार-बार यह दुहराया कि यूपीए सरकार ने जनता से किए अपने सभी वादे पूरे किए और अर्थव्यवस्था की रफ्तार को बनाए रखा। उन्होंने कहा कि देश में ऐसा पहली बार हुआ कि लगातार तीन साल तक विकास दर 9 फीसदी के आसपास रही। दादा के इस दावे में कितना दम है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश में गैरबराबरी बढ़ती रही। अमीरों और गरीबों के बीच की खाई बढ़ती रही। देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती रही और घर से बेघर होने वालों की संख्या भी उसी तेजी से बढ़ती रही। विकास के नाम पर लोगों को उजाड़ा जाता रहा।


अपने बजटिया भाषण में प्रणब दादा ने कहा कि यूपीए सरकार ने ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य पर जोर दिया और इस मद में 39 फीसदी निवेश बढ़ा। पर उनके ये दावे भी सिर्फ कागजी ही नजर आते हैं। जहां तक सवाल है ग्रामीण शिक्षा का तो आज भी देश में ऐसे गांवों की भरमार हैं जहां शिक्षा का उजियारा नहीं पहुंचा है। अभी भी देश के प्राथमिक विद्यालयों के पचीस फीसद शिक्षक डयूटी से गायब रहते हैं। यहां प्रणब दादा के दावे को खोखला यह बात भी साबित करती है कि अभी भी देश के उन्नीस प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय सिर्फ एक शिक्षक के सहारे चल रहे हैं। रही बात ग्रामीण स्वास्थ्य की तो इसकी बदहाली की कहानी तो वैसे लोग भलीभांति जानते होंगे जो गांवों मे रहते हैं या जिनका संबंध गांवों से रहा है। अव्वल तो यह कि ज्यादातर गांवों में आज भी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं। जहां हैं भी वहां डाॅक्टर को देखना दिन में तारे देखना सरीखा होता है।प्रभारी वित्त मंत्री ने कहा कि श्क्षिा में सुधार के लिए सरकार वचनबद्ध है। उन्होंने कहा कि 11वीं पंचवर्षीय योजना में हमने उच्च शिक्षा के लिए आवंटन 900 फीसदी बढ़ाया गया। चालू वर्ष में छह नए आईआईटी शुरू होंगे। इसमें से हिमाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश में दो नए आईआईटी खुलेंगे। शिक्षा कर्ज को मौजूदा सरकार ने चैगुना किया और इसे 3.19 लाख से बढ़ाकर 14.09 लाख करोड़ तक किया गया। 500 आईटीआई को बेहतरीन बनाने की प्रक्रिया शुुरु हुई। दादा के ये आंकडे़ खुशफहमी पालने के लिए कुछ लोगों को बाध्य कर सकते हैं। पर हकीकत इससे अलग है। जितनी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थानों की जरूरत इस देश में है उस मात्रा में नए संस्थान नहीं शुरु हो रहे हैं। उच्च शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या गुणवत्ता को बरकरार रखने की है। सरकार अपना रिपोर्ट कार्ड सतही तौर पर ठीक बनाने के लिए संस्थानों की संख्या बढ़ा तो रही है लेकिन संस्थानों की गुणवत्ता में लगातार गिरावट आती जा रही है। प्रणब दादा ने चुनावी साल में सत्ताधारी गठबंधन को सियासी लाभ दिलाने के मकसद से यहां तक कह डाला कि पांच साल पहले लोगों ने बदलाव के लिए वोट दिया था और सरकार के साझा न्यूनतम कार्यक्रम से आम लोगों को फायदा हुआ। दादा जिस बदलाव की बात कर रहे हैं वह बराक ओबामा का प्रभाव लगता है। ओबामा चेंज का नारा उछाल जितने में कामयाब रहे तो इसी बहाने चुनावी नौका पार लगाने का मंसूबा शायद प्रणब मुखर्जी एंड कंपनी ने भी पाल रखा हो। इसलिए दादा ने अपने बजटिया भाषण में बार-बार दुहराया कि हमने अर्थव्यवस्था को मजबूत किया। उन्होंने यह भी जोड़ा कि जीडीपी के साथ-साथ हर क्षेत्र में बढ़ोत्तरी हुई। सत्ता चलाने वाले जिस जीडीपी की बात करते हैं उसके पीछे के खेल को भी समझना जरूरी है।दरअसल, जीडीपी को साधारण शब्दों में पैसे का एक हाथ से दूसरे हाथ में जाने को कहा जा सकता है। जहां भी पैसे का लेन-देन होगा और आधिकारिक तौर पर होगा वह जीडीपी में जुडे़गा। इसके खेल को इस तरह भी समझा जा सकता है कि अगर कोई पेड़ लगा रहा है तो पैसे का कोई लेन-देन नहीं हो रहा है। पर वहीं अगर कोई पेड़ काट रहा है तो वहां लकड़ी बेचने की वजह से पैसे का लेन-देन हो रहा है। इस आधार पर पेड़ लगाने पर जीडीपी नहीं बढे़गा लेकिन पेड़ काटने पर जीडीपी में बढ़ोतरी दर्ज की जाएगी। अब पाठक खुद तय करें कि वे पेड़ लगाने को विकास मानेंगे या पेड़ काटने को। प्रणब मुखर्जी ने कहा कि प्रति व्यक्ति आय में इजाफा हुआ। पर सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेन गुप्ता समिति की रपट कहती है कि देश के 84 करोड़ लोग रोजाना बीस रुपए से कम पर जीवन बसर करने को मजबूर हैं। दरअसल, प्रति व्यक्ति आय तय करने में इजाफा के पीछे कुछ ही लोगों का आय बढ़ते जाना जिम्मेवार है। अरबपतियों की संख्या तेजी से बढ़ेगी तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि किस तेजी से प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी होगी। प्रणब मुखर्जी ने यह भी कहा कि लोगों के जीवन स्तर में सुधार हुआ। पर दादा यह कहते हुए अपने मोटे चश्मे से पूरे देश को देखने की गलती कर रहे थे। वे इस बात को या तो भूल गए थे या फिर जानबूझ कर भूलने का नाटक कर रहे थे कि तथाकथित विकास के नाम पर उनकी सरकार ने जिन लोगों को उजाड़ा है, वे कैसा जीवन गुजार रहे हैं। उन्हें शायद यह भी याद नहीं रहा हो कि सेज और बांधों के नाम पर उनकी सरकार ने जिन लोगों को उजड़वाने में अहम भूमिका निभाई उनके जीवन का क्या स्तर रहा। दादा शायद यह भी भूल गए थे कि जिस दिल्ली में वह बजट भाषण पढ़ रहे थे वहीं झुग्गियों को उजड़वा दिया गया और इन झुग्गियों में रहने वालों के लिए पुनर्वास की समुचित व्यवस्था भी नहीं करवाई गई। यह सब प्रणब मुखर्जी इसलिए भूल गए होंगे कि वे जिन आर्थिक नीतियों की पैरोकारी कर रहे हैं वह 'इंडिया' बनाना चाहता है और उसकी आंखों में 'भारत' हर वक्त खटकता रहता है।प्रभारी वित मंत्री ने कहा कि राजस्व घाटा कम हुआ। हुआ होगा कम राजस्व घाटा लेकिन अहम सवाल यह है कि इससे फायदा किसको मिला। इसका फायदा उसी मलाईदार तबके को मिले जिसे ध्यान में रखकर नीतियां बनाई जाती हैं। प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट पेश करते हुए वफादारी निभाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने कई बार कहा कि सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के प्रयासों से हमने आकाश छुआ। सुपर प्रधानमंत्री सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रति भक्ति दिखाने के पर्याप्त कारण भी दादा के पास रहे होंगे। कृषि क्षेत्र को लेकर प्रणब दादा के दावे सबसे ज्यादा खोखले नजर आ रहे हैं। उन्होंने किसानों को भारत का असली नायक बताते हुए यह कहा कि हमने गेंहू और चावल का रिकार्ड उत्पादन किया। इस वजह से कृषि की औसत वार्षिक दर 3.7 फीसदी रही। किसानों को नायक बताते हुए उनके प्रति सरकार की हमदर्दी को बयां करते हुए प्रणब मुखर्जी ने यह भी जोड़ा कि 2003-04 से 2008-09 के बीच सरकार ने किसानी के लिए आवंटित किए जाने वाली रकम को तीन सौ फीसद बढ़ाया है यानी तिगुना कर दिया गया है। पिछली बजट में किसानों के लिए सरकार द्वारा घोषित कर्ज माफी योजना के जरिए सत्ता में बैठे लोगों ने जमकर वाहवाही लूटी थी। इस योजना की बाबत प्रणब दादा ने अंतरिम बजट भाषण में बताया कि पैंसठ हजार तीन सौ करोड़ रुपए की कर्ज माफी हुई। जिसका लाभ तीन करोड़ साठ लाख किसानों को मिला। पर वहीं सरकार यह भी मानती है कि देश के चार करोड़ चैंतीस लाख किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। अगर प्रणब दादा के दावे को ही सही मान लें तो अभी तकरीबन एक करोड़ किसान उनकी सरकार के कर्जमाफी योजना के लाभ से महरूम हैं। इसके अलावा प्रणब मुखर्जी को यह भी याद रखना चाहिए था कि आज भी भारत के आम किसान को बैंकों के बजाए साहूकार से कर्ज लेने पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है और इस कर्ज के बोझ तले दबकर आज भी हजारों किसान हर साल काल कवलित होने को अभिशप्त हैं। प्रणब मुखर्जी ने यह भी जोड़ा कि अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य में भी उनकी सरकार ने इजाफा किया है।किसानों के कल्याण का दावा चाहे मौजूदा सरकार जितनी करती रहे लेकिन वे सच से काफी दूर हैं। सरकारी दावे की पोल एक सरकारी एजंसी की रपट ही खोलती है। किसानों की आत्महत्या की बाबत राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो की रपट के मुताबिक 2007 में पूरे देश में 16,632 किसानों ने आत्महत्या की। इसमें 2,369 महिलाएं शामिल थीं। किसानों की आत्महत्या देश में हुए कुल आत्महत्याओं का साढे़ चैदह फीसद है। हालांकि, यह संख्या 2006 की तुलना में थोडी़ कम जरूर हुई है। 2006 में यह संख्या 17,060 थी। आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि 1997 से लेकर अब तक भारत के 1,82,936 किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं। याद रहे कि यहां जिस संख्या का जिक्र किया जा रहा है वे दर्ज मामले हैं। बताते चलें कि ऐसे असंख्य मामले उजागर हो चुके हैं जिनमें पुलिस किसानों के आत्महत्या के मामले ही नहीं दर्ज करती। देश की पुलिस का चरित्र व्यवस्था समर्थक होने के नाते वह हर वैसे मामले की लीपापोती की भरपूर प्रयास करती है जिससे सरकार के लिए समस्या पैदा हो। किसानों की आत्महत्या को पुलिस कुछ अन्य कारणों से हुई मौत बताकर अपने रिकार्ड में दर्ज नहीं करती। मामला दर्ज होने के बाद किसानों के परिजन मुआवजा के हकदार बन जाते हैं। हां, सोचने वाली बात यह भी है कि मुआवजा कितने लोगों को मिल पाता है। अपने परिजन को खोने के बावजूद किसान परिवार को मुआवजे के लिए इस देश में दर-दर की ठोकर खाना आम बात है। ऐसे में किसानों के कल्याण के हवाई घोषणाएं करने का कोई मतलब नहीं रह जाता है।प्रभारी वित्त मंत्री ने अपने बजटिया भाषण में कहा कि दुनिया भर में मंदी छाई हुई है इसके बावजूद हमने 7.1 की विकास दर बनाए रखी जो की दुनिया की दूसरी सबसे अच्छी विकास दर है। अब तक जो दो पैकेज हमने दिए हैं उससे रोजगार का संकट खत्म हुआ है और कंपनियां डूबने से बची हैं। हमने हर स्तर पर वित्तीय मदद देकर कंपनियों की मदद की। ढांचागत क्षेत्र में पैसा लगाकर, छूट देकर मंदी को पछाड़ा है। उनके इस दावे में भी बहुत ज्यादा दम नहीं नजर आता है कि मंदी कों उनकी सरकार ने पछाड़ दिया है और भारत में रोजगार का संकट नहीं पैदा हुआ है। कई कंपनियों से छंटनी की खबर लगातार आ रही है और नई नौकरियों का तो टोटा पड़ ही गया है। दादा के दावे को खोखला साबित करने के लिए सूरत के हीरा उद्योग का उदाहरण पर्याप्त है। सरकारी आंकडे़ ही बताते हैं कि दिवाली के बाद से अब तक सिर्फ सूरत के हीरा उद्योग से दो लाख लोगांे की रोजगार चली गई। कई लोगों ने तो आत्महत्या भी कर ली। ऐसी खबरें अभी और क्षेत्रों से नहीं आ रही हैं इसलिए प्रणब मुखर्जी देश को इस भ्रम में डालना चाहते हैं कि मंदी की मार से हमने सबको बचा लिया और अब चुनावी साल में एक बार फिर बागडोर कांग्रेस के हाथ में सौंप दिया जाए। प्रणब मुखर्जी ने कहा कि रिजर्व बैंक की मदद से पैसे की दिक्कत दूर करने की कोशिशें जारी हैं। निर्यात को काबू करने के लिए सरकार ने कई कदम उठाए और इसकी दर घटने नहीं दी। उन्होंने यह भी जोड़ा कि बीते साल में रिकाॅर्ड विदेशी निवेश हुआ जो 33 अरब डाॅलर तक था। विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए नियमों में बदलाव और दिशा निर्देश सरल बनाये जे रहे हैं। पर यहां भी अहम सवाल यही है कि जिस विदेशी निवेश के बढ़ने का और बढ़ाने का राग दादा अलाप रहे हैं उससे लाभ किसे मिल रहा है?प्रणब मुखर्जी ने अंतरिम बजट में यह घोषणा की कि सर्व शिक्षा अभियान के लिए 13100 करोड़ और मिड डे मील के लिए 8300 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। पेयजल के लिए 7400 करोड़ रुपये दिए गए। रोजगार गारंटी योजना हर जिले के लिए होगी। हालांकि, यह घोषणा पहले ही हो चुकी थी लेकिन चुनावी साल में अपनी सरकार की पीठ थपथपाने का कोई भी मौका दादा गंवाना नहीं चाह रहे थे। उन्होंने कहा कि ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए 12070 करोड़ रुपये दिए गए। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के लिए 30110 रुपये और बाल विकास योजना पर 6705 करोड़ का प्रावधान किया गया। भारत निर्माण के लिए 40900 करोड़ रुपये दिए गए। पर ऐसे प्रावधान का तब तक कोई खास मतलब नहीं रह जाता है जब तक इन योजनाओं का कार्यान्वयन में ईमानदारी नहीं बरती जाए। यह बात जगजाहिर है कि सरकार की इन सारी योजनाओं में भयानक भ्रष्टाचार व्याप्त है और इन योजनाओं का फायदा उन्हें नहीं मिल रहा है जिनके लिए ये योजनाएं बनाई गईं हैं। बल्कि इन योजनाओं के जरिए उनका ही बैंक बैलेंस बढ़ रहा है जिनके ऊपर इन योजनाओं का लागू करवारने की जिम्मेवारी है। पर भारत की जनता इन सरकाड़ी आंकड़ों के जाल में नहीं फंसने वाली है। जनता तो जमीनी हालात पर वोट देती है और कांग्रेस को यह भी याद रखना चाहिए कि पिछली सरकार ने भी 2004 में फीलगुड का नारा उछाला था लेकिन जमीन पर एनडीए का खुशनुमा एहसास नहीं था और जनता ने अपने मत का प्रयोग करके एनडीए को बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेस को इससे सबक लेना चाहिए था।

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