Sunday, April 12, 2020

पान की खेती

खाइके पान बनारस वाला खुल जाए बंद अकल का ताला...पान खाए सैंया हमार... जैसे गानों को सुनकर आज भी हमारा दिल मचल उठता है...और जो लोग कभी पान खाने के शौकीन थे...उनका मन तरस जाता है...पान की खुशबू और मसालों की उस महक के लिए...क्योंकि उन्हें मालूम है इसका स्वाद और इसके फायदे...पर पान की कम होती गई खेती, इसकी कीमतों में इजाफा और बाज़ार के दबाव ने इसे पीछे छोड़ दिया है...और पान की दुकानों में पान की जगह रंग बिरंगे गुटखो ने ले ली...स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और बिक्री पर बैन के बावजूद भी इन गुटखो की जबरदस्त मांग है...पान की कम होती खेती और लोगों की डिमांड में कमी के कई सारे कारण हैं...इन्हीं कारणों की पड़ताल के लिए हम आपको ले चलते हैं बिहार के सारण जिले में स्थित भैरोपुर पंचायत में...
आज से करीब 25 साल पहले भैरोपुर पंचायत के भैरोपुर और महदीपुर गांव के लोग पान की भरपूर खेती करते थे...गांव के लगभग सभी घरों में पान सजाने का काम होता था...पान सजाने का मतलब था अच्छे पान को छांटकर एक एक पचास का बंडल बनाना...इस तरह से चार पचास एक ढोली कहलाता था(एक ढोली में 200 पान के पत्ते)... इस काम में परिवार के सारे सदस्य शामिल होते थे...घर की नई बहुरिया भी खुशी खुशी इस काम को करती थीं...पान को सजाने का काम बहुत ही कलात्मक और मेहनत का होता था...इस गांव के ही संजय चौरसिया का इस बारे में क्या कहना है आइए जानते हैं-'पान खोटने(तोड़ने) के बाद पान को एक साथ मिला दिया जाता था...उसके बाद पचास पचास का बंडल बनाया जाता था...इसमें सबसे बड़े पान के पत्ते को सबसे नीचे फिर उससे छोटे को अवरोही क्रम में सजाना होता था'
पान को सजाने के बाद पान को बांस की टोकरी में रखकर 'दबका' एक खास प्रकार के ढक्कन से बांध दिया जाता था...इतना करने के बाद उसे बेचने की कवायद शुरू होती थी...इसके लिए लोग शाम वाली ट्रेन पकड़ के बनारस पहुंचते थे...रातभर मंडी में रुकने के बाद सुबह में पान की बिक्री होती थी...पान बेचने के बाद लोग जरूरी खरीदारी कर घर लौट आते थे...जबतक आमदनी अच्छी थी गांव के सारे लोग इसकी खेती करते थे...परिवार खुशहाल था...गांव में कुछ नौकरी पेशा लोग भी थे...उनके घरों में भी पान की खेती होती थी...चुकी आमदनी अच्छी थी इसलिए घर के सारे लोग इस काम में मशगूल थे...लेकिन जलवायु परिवर्तन और मौसम की मार ने पान की खेती को भी बर्बाद कर दिया...इसी का नतीजा था 'बहुती' और 'पाला' जैसी बिमारियां...इस बारे में राम नारायण चौरसिया जी का कहना है कि पान की खेती बहुत ही नाजुक खेती है इसे सर्दी और गर्मी दोनों से खतरा रहता है...हर समय इसके देखभाल की जरूरत होती है...समय समय पर दवाइयों का छिड़काव करना होता है...यह बहुत ही मेहनत का काम है...
पान की खेती में बहुत ज्यादा मेहनत,ज्यादा जोखिम और सरकारी मदद का घोर अभाव इसके पीछे छूटने के अन्य कारण हैं...इसकी वजह से विकल्प की तलाश शुरू हुई...लोग अपने बच्चों को पढ़ाने लिखाने लगे...अच्छी शिक्षा और नौकरी के लिए गांव के लड़के दूसरे प्रदेशों में गए...
कुछ को सरकारी नौकरी भी मिली...और ज्यादातर किसी निजी कंपनी में काम कर रहे हैं अपने घर और परिवार से दूर...पर गांव में आज भी कुछ लोग पान की खेती कर रहे है...इस उम्मीद के साथ कि इसके भी अच्छे दिन आयेंगे...इसलिए सरकार को चाहिए कि मृतप्राय पान की खेती में जान फूंकने के लिए जरूरी याजना बनाए जिससे गांव में खुशहाली लौट आए...

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