Tuesday, April 7, 2009

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे जूते में है...

मुन्तज़र अल-ज़ैदी को नेताओं पर जूता फेंकने के मामले में ट्रेंड-सेटर कहा जा सकता है. बुश पर जूता पड़ते समय शायद किसी के दिमाग में ये ख्याल नहीं आया होगा कि भारत में भी किसी नेता के ऊपर जूता पड़ सकता है. लेकिन पत्रकार तो आखिर पत्रकार होता है. उसके दिमाग में (भले ही अवचेतन दिमाग में)जरुर इस ब्रह्मास्त्र को आजमाने की बात आई होगी. जरनैल सिंह ने ये साबित भी कर दिया.

ठीक पिछली बार की तरह ज़्यादातर पत्रकारों ने जरनैल सिंह के इस काम को ग़लत ठहराया है. खुद जरनैल का भी मानना है कि उसने ग़लत तरीका अपनाया. ठीक भी है, किसी पत्रकार से ऐसे आचरण की उम्मीद नहीं की जा सकती. जैसे अक्सर खिलाडी के बारे में कहा जाता है कि उसे मर्यादित व्यवहार करना चाहिए. अगर यही हाल रहा तो नेताओं की प्रेस-कांफ्रेंस होनी बंद हो जाएँगी या फिर पत्रकारों को उसमें नंगे पैर जाना होगा. जूता पड़ना किसी भी आदमी की गरिमा के खिलाफ है. कैसे और कब से है कोई नहीं जानता, बस है, इतना जानते हैं.
वैसे जरनैल सिंह की जगह किसी आदमी ने यह काम किया होता तो मामला शायद ठीक रहता(वैसे यह एक आदमी की ही प्रतिक्रिया थी). आदमी इसीलिए कि खुद जरनैल सिंह ने अपने को दो ही श्रेणियों में गिना है-१. पत्रकार (जूता फेंकते वक़्त), २. सिख (गुरूद्वारे जाते वक़्त). जूता घटनाक्रम के पीछे चुनावों का भी बहुत बड़ा हाथ है. अगर चुनाव न होते तो न कांग्रेस जल्दबाजी में जगदीश टाईटलर को क्लीन-चिट दिलवाती और न जूते खाने की नौबत आती. हाँ चुनावों की वजह से ही जरनैल सिंह को छोड़ दिया गया. वरना देश के गृहमंत्री पर जूता फेंकने वाले को 'आम माफ़ी'!
अगर विचार किया जाये तो जूता फेंकने के दो कारण बनते दिखते हैं- १. तात्कालिक कारण, २. दीर्घकालिक कारण. पी. चिदंबरम जिस बेशर्मी से कांग्रेस का बचाव कर रहे थे, निंदनीय है. देश की राजनीति की थोडी भी जानकारी रखने वाला शख्स जनता है कि सी.बी.आई. किसके इशारों पर काम करती है! और चिदंबरम के जवाब पत्रकारों के लिए थे. चिदंबरम ने जरनैल को सिखों के कत्ले-आम और जगदीश टाईटलर को सी.बी.आई.की क्लीन-चिट और इस सबमें कांग्रेस की भूमिका के बारे में प्रश्न पूछने से रोका था. इस बात ने भी जरनैल को गुस्सा दिलाया. लेकिन वह पहले से ही जूता खोल कर बैठे थे, शायद घर से ही पक्के इरादे से चले थे.
दूसरा कारण थोडा लम्बा है. कांग्रेस आये दिन खुद को सेक्यूलर पार्टी कहती रहती है. अल्पसंख्यकों के वोट बटोरने की कोई भी कोशिश नहीं छोड़ती. गिना-गिना कर बताती है कि उसने ही एक सिख को प्रधानमंत्री 'बनाया'.अगर कांग्रेस सन् १९८४ में हुए सिखों के कत्ले-आम को लेकर इतनी ही गंभीर है तो बताये कि ३००० से ज्यादा सिखों को मारने-मरवाने वालों के खिलाफ उसने क्या किया? छः कमिटियाँ गठित की, मंत्री-पद से कुछ त्यागपत्र दिलवाए, कुछ प्यादों को सजा दिलवाई? और आखिरकार असली मोहरों को लगभग क्लीन-चिट दिलवा कर चुनाव भी लड़वा रही है. एक 'धर्मनिरपेक्ष' देश में कोई अल्पसंख्यक इतना मजबूर हो जाये कि उसे अंजाम की परवाह किये बिना ऐसा कदम उठाना पड़े! यह बहुसंख्यक वर्ग के समझ से बाहर की बात है. और खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलाने वाली कांग्रेस के लिए एक सबक. अगर कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष होने का ढोंग थोड़े दिन और चलाना चाहती है तो जगदीश टाईटलर को टिकट नहीं देगी.

3 comments:

  1. aapki is post ko ratlam, Jhabua(M.P.), dahood(Gujarat) se Prakashit Danik Prasaran me prakashit karane ja rahan hoon.

    kripaya, aap apan postal addres send karen, taki aapko ek prati pahoonchayi ja saken.

    pan_vya@yahoo.co.in

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  2. bahut badia mere kal ke nami patrkaron. mujhe nahin pata tha is blog ke baare mein. iimc mein mera dil basta hai. doosre batch ka student raha hoon. tab hindi journalism ke cours mein char tabliod niklte the, voh bhi aniymit. padkar maja aa gaya. aage bhi paddonga, rai bhee doonga, senior hoon na. kabhi-kabhi bolaeto.blogspot par likhta hoon, time mile to jarror paden aur batayen. thanks.

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  3. शाबाश भारत तुम्हरी पोस्ट पढ़ कर बहुत अच्चा लगा. तुमने बहुत खूबी से जूते की राजनीती के विषय मे लिखा है. और ऊपर के कमेन्ट देख कर भी बहुत अच्चा लगा.

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