यहाँ पर चुनावों और क्रिकेट मैच के बीच अंतर सिर्फ आम चुनावों और आईपीएल के मैचों के एक साथ होने की वजह से नहीं किया जा रहा है. फिर भी इन दोनों के बीच कुछ समानताएं दिखाई दे(बनाई जा) रही हैं. जैसे क्रिकेट मैच शुरू होने से पहले ही कप्तान के नाम की घोषणा ज़रूरी होती है उसी तरह चुनावों के पहले ही नेता(प्रधान-मंत्री) की घोषणाएं आम हैं. पूरी टीम की ज़िम्मेदारी है कि अपने कप्तान का कहा माने और उसकी अगुआई में मैच खेले. ठीक इसी तरह चुनावों में भी पार्टियाँ अपने नेता की अगुआई में चुनाव लड़ती हैं.
रही बात अंतर की तो चुनावों में आपको क्रिकेट मैच की तरह दूसरा मौका नहीं मिलता. पहला ही मैच फाइनल मैच होता है. हाँ इसके लिए आपको पॉँच साल तक तैयारी का मौका ज़रूर मिलता है. इसके अलावा चुनावों से पहले क्रिकेट मैच के उलट आपको जनता को अपनी नीतियाँ बतानी होती हैं, जिसके आधार पर जनता आपको वोट देती है जबकि क्रिकेट के मैच में आप मैच से पहले अपनी नीतियाँ किसी को नहीं बता सकते. हाँ कप्तान(प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार) तय कर देने से जनता का ध्यान आपकी नीतियों की तरफ और टीम के बाकी कमज़ोर खिलाड़ियों पर नहीं जाता.
व्यक्ति-पूजन से ग्रस्त इस देश की जनता की नस को हमारे नेताओं ने क्या खूब पकडा है! प्रधानमंत्री पद का एक उम्मीदवार तय कर दो और उसके नाम पर वोट मांगने जाओ. नीतियों का क्या है, जनता तो विचारधारा की अनुयायी न होकर व्यक्ति विशेष की है.
व्यवस्था तो यह की गयी थी कि राष्ट्रपति संसद में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री चुनेगा और सरकार गठन का निमंत्रण देगा लेकिन माज़रा बदल चुका है. सभी दलों, गठबन्धनों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार पहले ही तय हो जाते हैं. वर्तमान चुनावों की छोडिये अगले चुनावों के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार(कांग्रेस-राहुल गाँधी) भी निर्धारित होते हैं. और हालात यह हैं कि कांग्रेस के इस 'उम्मीदवार' को अगर दिल्ली से भी टिकट दिया जाये तो हारने की उम्मीद नज़र नहीं आती है. जनता उसे प्रधानमंत्री बनाने को तैयार है. हालाँकि उसका अनुभव किसी राज्य की बागडोर सँभालने का तो दूर रहा एक मंत्री पद का भी नहीं है.
जनता उसमें उसके पिता की छवि जो देखती है. माना जाता है कि नेतृत्व के गुण तो उसे 'विरासत' में मिले हैं. जनता को अभी इन सब चीजों से ऊपर उठकर वोट देना सीखना है. किसी दल के लिए हो या न हो देश की जनता के लिए 'दिल्ली अभी दूर है.'
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