Thursday, January 15, 2009

नकेल कसने की कवायद

हिमांशु शेखर
मीडिया पर नकेल कसने के लिए सरकार ने 1994 के केबल टेलीविजन नेटवर्क नियमों में 19 नए संषोधनों के सुझाव दिए गए हैं। इसके लिए तीस दिसंबर को एक कैबिनेट नोट लाया गया। जिसके तहत 1994 के नियमों में संषोधन करके आतंकवाद विरोधी कार्रवाई, सेक्स अपराध, नारको जांच के दौरान पूछताछ और न्यायिक पूछताछ के प्रसारण के नियंत्रण की सिफारिष की गई है।

संषोधन के इस सुझाव को टिप्पणी के लिए गृह मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के पास भेजा गया है। इस संषोधन के पक्ष में यह तर्क दिया जा रहा है कि खबरिया चैनलों के प्रसारण पर नियंत्रण के लिए सरकार पर जनदबाव के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय का दबाव भी काम कर रहा है। इस बात से तो षायद कोई भी गाफिल नहीं है कि ये सरकारें जनदबाव और उच्चतम न्यायालय के दबाव में कितना काम करती हैं। असलियत तो यह है कि इन दबावों की आड़ में अपना स्वार्थ साधने के लिए सत्ता में बैठे हुए लोग और सत्ता के बाहर रहने वाले लोगों में मीडिया को काबू में करने के लिए एक सहमति बन गई है।


इन नए संषोधनों की बाबत अखबारों में जो खबरें प्रकाषित हुईं उसमें सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा है कि इन संषोधनों के बाद मंत्रालय के पास इतने अधिकार आ जाएंगे कि कोड का उल्लंघन करने वाले चैनलों पर वह तुरंत कार्रवाई कर सके। यानि अगर कोई चैनल सत्ता में बैठे हुए दल की भावनाओं के मुताबिक काम नहीं करेगा तो उसे सरकारी कार्रवाई का सामना करना पडे़गा। मुंबई आतंकवादी हमले को आधार बनाकर तैयार किए गए इस नोट में खबरिया चैनलों के गैरजिम्मेदराना रवैये का उल्लेख विस्तार से किया गया है।


इसमें यह भी बताया गया है कि कई चैनल खबरों में लोगों की दिलचस्पी बनाए रखने के मकसद से ‘लाइव’ का कैप्षन लगाकर आपातकालिन स्थितियों में भी प्रसारण करते हैं। जबकि असल में वह प्रसारण लाइव होता नहीं है। इससे लोगों के मन में स्वाभाविक तौर पर भय, भ्रम और असुरक्षा कायम होता है। अगर इन सुझावों को मान लिया जाता है तो जांच चल रहे मामलों के गैरजरूरी प्रसारणों पर रोक लग जाएगी और किसी भी अपुश्ट जानकारी देने पर भी रोक लग जाएगी। यह भी सुझाव दिया गया है कि ऐसे मामलों में आरोपी, षिकार और जांच व सुरक्षा अधिकारियों से बातचीत करने पर भी रोक लगे।


इसके अलावा अपराधियों और आतंकवादियों के लगातार कवरेज के जरिए उसके विचारों के प्रसार पर भी रोक लगेगी। सेक्स अपराध और हिंसा के षिकार बच्चों और महिलाओं की तस्वीर और घटना के ग्राफिक प्रसारण पर भी प्रतिबंध कायम हो जाएगा। इसके अलावा नारको जांच, झूठ पकड़ने वाली जांच और न्यायिक स्वीकारोक्ति के रिकार्डिंग का प्रसारण भी नहीं किया जा सकेगा। साथ ही अंधविष्वास फैलाने वाले कायक्रमों के प्रसारण पर भी लगाम लग पाएगा।


अगर इन सुझावों को कानूनी जामा पहना दिया जाता है तो युद्ध और आतंकवादियों के विरूद्ध चल रही कार्रवाईयों के देर से किए जाने वाले लाइव यानि जीवंत प्रसारण के लिए अधिकृत अधिकारी से समाचार चैनलों को अनुमति प्राप्त करना होगा। जबकि नारको परीक्षण, पोलीग्राफ टेस्ट और न्यायिक स्वीकारोक्ति से जुड़े किसी फुटेज के प्रसारण के लिए अदालती आदेष अनिवार्य होगा।


बजाहिर, ये अनुमति और आदेष हासिल करने की प्रक्रिया आसान नहीं होगी और खबरिया चैनलों को प्रसारण में किस तरह की दिक्कत होगी, इस बात का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।इस बात को कहने का यह मकसद कतई नहीं है कि समाचार चैनलों में जैसा चल रहा है, वैसा ही चलना चाहिए। खबरिया चैनलों के प्रसारण का नियमन होना चाहिए। पर यह नियमन सरकारी नहीं होना चाहिए। नियमन खुद पत्रकारिता जगत की तरफ से होना चाहिए।


न्यूज ब्राॅडकास्टर्स एसोषिएषन में षामिल सदस्यों की संख्या को बढ़ाकर आत्मनियमन की दिषा में खबरिया चैनलों को बढ़ना चाहिए। मौजूदा हालात में एनबीए के निर्णयों का बहुत ज्यादा महत्व इसलिए नहीं रह जाता है कि इसके सदस्यों की संख्या बहुत कम है। अभी एनबीए के सदस्यों की कुल संख्या तीस है। जबकि सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अब तक समाचार और समसामयिक चैनलों के दो सौ लाईसेंस जारी किए गए हैं। जाहिर है, ऐसे में एनबीए के निर्णय का असर भी तीस चैनलों पर ही पड़ेगा। जबकि समाचार चैनलों का फलक इससे कई गुना बड़ा है। इसके अलावा एनबीए में क्षेत्रीय चैनलों की उपस्थिति नहीं है।

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