Thursday, November 27, 2008

विकृति पर केंद्रित होती पत्रकारिता के खतरे

आजादी के बाद के हिन्‍दी पत्रकारिता के स्‍कूलों में दिनमान, रविवार और जनसत्‍ता के नाम ज्‍यादा चमकदार हैं। इनके अलावा नई दुनिया जैसा भी स्‍कूल है जिसका किसी महानगर से रिश्‍ता नहीं रहा है। आजादी के पूर्व ऐसा ही एक स्‍कूल गुरुकुल कांगड़ी के स्‍नातकों का रहा है, जिन्‍होंने दिल्‍ली में हिन्‍दी और उर्दू पत्रकारिता की नींव रखी। हिन्‍दी पत्रकारों,संपादकों की इसी कड़ी में एक नाम नारायण दत्‍त का भी रहा है। यह हमारा सौभाग्‍य है कि हम अभी भी उनको लिखते- पढ़ते देख रहे हैं। पिछले दिनों हिन्‍दी पत्रकारिता पर बड़ा ही विचारोत्‍तेजक लेख उन्‍होंने मीडिया विमर्श में लिखा। यहां उसे साभार पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं प्रस्‍तुत है पहला भाग
आज हमारी पत्रकारिता मनुष्य की कृति पर, उसमें भी उसकी विकृति पर, अधिकाधिक केंद्रित होती चली जा रही है। अखबारों की तो बातें छोड़िए, पत्रिकाएं भी राजनीतिक उठापटक, भ्रष्टाचार और अपराधों की चर्चा से भरी रहने लगी है। पाठक का आत्मिक संसस्कार करने वाली, उसकी संवेदनाओं को सूक्ष्म और उसकी संवेदना को व्यापक तथा गहरा बनाने वाली और उसमें बौध्दिक कुतूहल और ज्ञान की पिपासा जगाने वाली सामग्री के लिए हमारी पत्र-पत्रिकाओं के पास स्थान की जैसी भयंकर की रहने लगी है, वह सचमुच भयजनक है।
दस-ग्यारह साल पहले अमेरिकी पत्रिका 'नेशनल ज्यॉग्राफिक' ने लम्बे शोध के आधार पर लिखा एक लेख छापा था। उसमें बताया गया कि मनुष्य के बाद हम्पबैक ह्वेल दुनिया का एकमात्र प्राणी है जो संगीत रचता है। उस अंक में ह्वेलों के संगीत का फोनोग्राफिक प्रिंट भी दिया गया है। मैंने लेख पढ़ा, प्रिंट को बजाकर सुना, मुझे रोमांच हो आया। इस विषय पर 'बीबीसी लिसनर' के एक पुराने लेख की कतरन मेरे पास थी। मैंने एक संपादक से कहा कि इस पर एक लेख बन सकता है। तपाक से उत्तर मिला ''इस विषय ें हमारे पाठकों को दिलचस्पी नहीं होगी,'' जिसका सीधा अर्थ यह था कि इस विषय पर लेख देने में मेरी दिलचस्पी नहीं है।
पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी ने एक बार बातचीत में मुझसे कहा था- ''हिंदी में पाठकों की दिलचस्पी के बारे में परम प्रमाण मानकर चलता है,'' अगल मैं इसमें यह जोड़ दूं कि प्राय: संपादक चौकीदार बनकर अनेक अच्छे विषयों को पाठक तक पहुंचने से रोक देता है, तो बात बहुत गलत न होगी। जहां संपादक अधिक जीवंत और जागरूक हो, वहां बहुधा पत्र के संचालन और प्रबंधक उसे टोकते रहते हैं। हाल में मेरे एक संपादक मित्र से प्रबंधक ने पूछा था कि हिंदी पाठक को रुमानिया और बल्गारिया से क्या लेना-देना।
पं. श्रीनारायणजी ने ही बीस-एक साल पहले लिखा था कि हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के तीन शाश्वत विषय हैं- नेता, अभिनेता और स्थान बच जाए तो देवता। क्या कुल मिलाकर आज भी स्थिति यही नहीं है? अलबत्ता खेल, अपराध और आर्थिक भ्रष्टाचार भी हमारी पत्रिकाओं में भरपूर स्थान पाने लगे हैं। मगर चूंकि खेल में राजनीति घुस गई है, राजनीति खिलवाड़ बन गई है और राजनीति और अपराध के बीच सीमा खींचना मुश्किल होने लगा है, इसलिए हम मान सकते हैं कि नेता-अभिनेता-देवता का फार्मूला आज भी हमारी पत्रिकाओं पर लागू होता है।
यह माना जाता है और संपादकीय लेखों में हमें बार-बार याद भी दिलाया जाता है कि हम विज्ञान-युग में जी रहे हैं। परंतु क्या हमारी पत्र-पत्रिकाओं में इसकी कोई झलक मिलती है? हिंदी में सुबोध विज्ञान की कितनी पत्रिकाएं हैं? हिंदी के कितने पत्रों या पत्रिकाओं में विज्ञान का नियमित स्तंभ है? हां, कोई पत्र या पत्रिका ऐसी नहीं है जिसमें दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक भविष्य का कॉलम न छपता हो। चुनावों से पहले हम मतगणनाशास्त्रियों (सेफॉलाजिस्टों) के अनुमानों की बजाय ज्योतिषियों की भविष्यवाणियां ज्यादा शैक से छापते हैं। आज फलित ज्योतिष को हमारी पत्र-पत्रिकाओं ने परम विज्ञान का दर्जा दे दिया है। वे उसे भारतीय संस्कृति और भारतीय मानस के बुनियादी अंग के रूप में पेश करती है। हमारे अधिकांश पत्रकार शायद यह जानते ही नहीं और अगर जानते हैं तो पाठक को बताते नहीं कि फलित ज्योति की खिल्ली उड़ाने वाली चिंतन-परंपरा भी इस देश में सदा ही रही है। संस्कृत साहित्य से जुड़े चुटकुलों के दिलचस्प संग्रह 'भोजप्रबंध' में ये गजब के श्लोक हैं -
त्रैलोक्यनाथो रामोस्ति वसिष्ठो ब्रह्मपुत्रक:।
तेन राज्याभिषेके तु मुहूर्त: कथितोभत्॥
तन्मुहूर्तेन रामोपि वनं नीतोवनीं बिना।
सीतापहारोप्यभवत् वैरिंचिवचनं वृथा॥
(विष्णु के अवतार) राम तीनोंशोकों के स्वामी और वशिष्ठ ब्रह्माजी के सगे बेटे, उन वशिष्ठ ने उन राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त भाखा। पर उस मुहूर्त में राम को राज्य गंवाकर वन को जाना पड़ा और बाद में तो सीता भी हर ली गईं। ब्रह्माज के बेटे का वचन बेकार हो गया।
कहते हैं, लॉर्ड कर्जन से एक बार पूछा गया कि ब्रिटेन में बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य बना देने का क्या परिणाम हुआ। उत्तर मिला कि सार्वजनिक मूत्रालयों में दीवारों पर लिखा जाने वाला साहित्य पहले की तुलना में एक फुट नीचे से शुरू होने लगा है। क्या साक्षरता के प्रसार और पत्र-पत्रिकाओं की बिक्री बढ़ने के साथ पत्र-पत्रिकाओं की सामग्री के स्तर में गिरावट आना अपरिहार्य है? यह ख्याल उदास करने वाला है।
सन 1951 में देश में साक्षरता का प्रतिशत 16.23 था। 1920 वाले दशक में यह प्रतिशत 10-11 के आसपास रहा होगा और हिंदी प्रदेश में तो और भी कम, क्योंकि साक्षरता के मामले में हिंदी प्रदेश बाकी भारत से जरा पीछे रहता आया है। फिर भी 1925 में हिंदी में 'भूगोल' नाम की पत्रिका शुय हुई, जिसमें पूरे विश्व की भौगोलिक जानकारी बड़ी सहज और स्वच्छ हिंदी में आम पाठकों को दी जाती थी। यह पत्रिका आजादी आने के बाद कालकवलित हुई। ऐसा लगता है कि आजादी आने के बाद हमने गैरमुनाफादेह पत्रिकाएं और पुस्तकें छापना सरकार का फर्ज मान लिया है। बिक्री और मुनाफा निजी प्रकाशकों के पार्वती-परमेश्वर बन गए हैं और उनके दबाव में या कई बार तो स्वेच्छा से भी संपादक पाठकों की रुचि का महत्तम समापवर्तक निकालता बैठा रहता है।
होना यह चाहिए कि हम पाठकों को लुभाकर एक-एक सीढ़ी ऊपर चढ़ाने का यत्न करें। पर हो यह रहा है कि हम पाठक से एक सीढ़ी नीचे खड़े होकर उसे नीचे उतरने को फसलाते हैं। हम उसकी बौध्दिक पाचनशक्ति बढ़ाने की बजाय घटाते हैं। नए विषयों, नए तथ्यों के अस्तित्व से उसे हम अनजान रखते हैं।
चिली के महान कवि पाब्लो नेरूदा का लिखा एक संस्मरण मुझे याद आता है। एक बार उन्हें सांतियागो की सब्जी मंडी के मजदूरों के संघ ने अपने जलसे में कविताएं पढ़ने बुलाया। असावधानी से नेरूदा अपना वह संकलन अपने साथ वहां ले गए, जिसमें उनकी सबसे कठिन समझी जाने वाली और सबसे लंबी कविताएं थीं। लाचारी में उन्होंने उन्हीं में से दो-तीन कविताएं पढ़कर सुनाईं। जब कविता पाठ पूरा हुआ तो किसी ने ताली नहीं बजाई, सन्नाटा छाया रहा। फिर दो क्षण बाद एक मजदूर उठा और उसने भर्राए गले से कहा, ''कवि, आज तक किसी ने हमें यह सब बताया ही नहीं था,'' और उसकी आंखों से आंसू बह निकले। मेरे ख्याल से हर संपादक को उस मजदूर का चित्र अपने मन की आंखों के सामने रखना चाहिए।
हिंदी पाठक में सब कुछ जानने की इच्छा है। उसमें सब कुछ समझने की शक्ति है, बशर्ते कि हम समझना जानते हों। आम आदमी की बुध्दि, शक्ति और विवेक में यह आस्था प्रजातंत्र का मूल आधार है और प्रेस स्वातंत्र्य के समर्थन में मूल दलील भी यही है। जो पत्रकारिता इसे समझती और स्वीकारती नहीं है, वह प्रजातंत्र को अंतत: कुंठित करती है। पत्रकारिता को बुध्दुओं का दिल बहलाने का धंधा मानकर चलना पत्रकारिता की जड़ काटना है और अफसोस की बात है कि यह कसूर आज बड़े पैमाने पर बेझिझक हो रहा है।
श्रेष्ठ पत्र या पत्रिका का लक्षण यह है कि वह पाठक और संपादक का साक्षा बौध्दिक और रसात्मक पराक्रम है। उसका मंत्र होता है- ''सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्य करवावहै,'' जिसे हमारे पुरखे स्वाध्याय और प्रवचन के लिए पढ़ा करते थे, आज की तरह भोजन के पहले नहीं। यह प्रबुध्द पाठक का जन्मसिध्द अधिकार है कि जब कोई पत्र या पत्रिका उसकी बौध्दिक भूख और रसात्मक प्यास को तृप्त न करे तो वह दूसरी पत्र-पत्रिकाएं तलाशे, चाहे वे दूसरी भाषा की ही क्यों न हों। संपादक की श्रेष्ठता की कसौटी यह है कि वह इसकी नौबत न आने दे।

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