Thursday, November 27, 2008

हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी का आक्रमण

हिंदी पत्रकारिता पर अंग्रेजी का आक्रमण एक नई स्थिति है, जिसकी चिंता की जानी चाहिए, पर की नहीं जाती है। हिंदी और भारतीय भाषाओं को समाचारों के मामले में हमेशा ही अंग्रेजी का मुंह देखना पड़ता रहा है। इसके अनेक ऐतिहासिक कारण हैं।
समाचार-साधनों और समाचार-प्रेषण के व्यवसाय पर पश्चिम का वर्चस्व एक बुराई है, जिससे बाकी संसार आज जूझ रहा है। अपने देश में यह लड़ाई दुहरी है - पश्चिमी वर्चस्व के विरुध्द भी, अंग्रेजी के वर्चस्व के विरुध्द भी।
इस लड़ाई में हिंदी पत्रों, उनके संपादकों व मालिकों ने वह तत्परता, वीरता और सूझबूझ नहीं दिखाई है, जो उनसे अपेक्षित थी। आज भी हिंदी पत्र न केवल विदेश के बल्कि स्वदेश और यहां तक कि अपने ही प्रदेश के समाचारों का भी बड़ा भाग अंग्रेजी में पाते हैं और अनुवाद करके छापते हैं। मुख्यत: हिंदी में ही समाचार देने के लिए स्थापित की गई दो समाचार एजेंसियां पैसे की तंगी और कुप्रबंध के कारण ठप हो गईं। पीटीआई और यूएनआई की हिंदी समाचार-सेवाएं आंशिक सेवा ही दे पा रही है। मेरी राय में इसका मुख्य कारण ज्यादातर हिंदी पत्र मालिकों की यह लोभी वृत्ति है कि खबरें उन्हें सस्ती से सस्ती और हो सके तो मुफ्त में मिल जाएं। मानो वे ऐसा मानते हैं कि हिंदी चूंकि राजभाषा है, इसलिए उसमें समाचार देने में अगर समाचार-समितियों को घाटा हो तो उसकी भरपाई सरकार करे। हिंदी पत्रों ने प्राय: इसकी व्यवस्था करने पर बहुत ही कम ध्यान दिया है कि देश के गैर हिंदी भाषी इलाकों से खासकर दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत से वहां की स्थिति और समाचारों पर वहीं के सधे हुए पत्रकारों की खबर-पातियां मंगवाई जाएं। प्राय: यह काम वहां बसे हिंदी भाषियों, हिंदी के अध्यापकों और हिंदी-प्रचारकों को सौंप दिया जाता है, चाहे उनकी पत्रकारीय क्षमताएं न के बराबर हों। या इस सारे पचड़े से बचने के लिए अखबार अंग्रेजी स्तंभकारों की शरण लेते हैं।
पर जिसे अभी मैंने हिंदी पर अंग्रेजी पत्रकारिता का आक्रमण कहा, वह कुछ और ही चीज है। उसके तीन रूप है-
1. अंग्रेजी पत्रिकाओं का हिंदी अनुवाद छपना।
2. हिंदी अखबारों और पत्रिकाओं के नाम अंग्रेजी में रखना।
3. हिंदी पत्रों में अंग्रेजी पत्रकारों के सिंडिकेटेड स्तंभों का नियमित रूप से छापना।
1. 'रीडर्स डाइजेस्ट' का हिंदी संस्करण 'सर्वोत्तम' शायद पहली पत्रिका थी, जिसने अंग्रेजी का अविकल अनुवाद हिंदी में परोसना शुरू किया। कुछ सय बाद टाइम्स-समूह ने अपनी फिल्ी पत्रिका 'माधुरी' को अंग्रेजी 'फिल्मफेयर' कर दिया। मगर 'इंडिया टुडे' के हिंदी संस्करण ने थोड़े ही समय में जैसी व्यापारिक सफलता अर्जित कर ली, वह चौंका देने वाली चीज थी। मेरी राय में इससे दो तथ्य उभरत हैं- एक तो यह कि किसी खास ढंग की समाचार-पत्रिका की भूख हिंदी भाषियों के एक बड़े वर्ग में थी, जिसकी पूर्ति हिंदी के संपादक और प्रकाशक नहीं कर पा रहे थे। दूसरा यह कि हम हिंदी प्रेमी राजभाषा-राष्ट्रभाषा के नाम पर नारेबाजी चाहे कितनी ही कर लें, हिंदी की अस्मिता और उसकी रक्षा से हमें बहुत कम सरोकार हैं। इसका विवेचन और विशेषण होना जरूरी है कि यह पाठक वर्ग कौन-सा है जो अंग्रेजी पत्रिकाओं का उलथा खरीदने-पढ़ने को इतना उत्सुक है और किस मानसिकता और आवश्यकता के कारण वह ऐसा करता है। जिस अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसा हुआ है और होने वाला है, उनसे भी हमें पूछना, पता लगाना चाहिए। शायद मिल-जुलकर हम कोई उपाय और उपचार खोज सकें।
2. पत्र-पत्रिकाओं के नामों में अंग्रेजी का एक-आध शब्द रखने की परंपरा हिंदी में बहुत पुरानी है। स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1873 में 'हरिश्चंद्र मैग्जीन' नाम की पत्रिका निकाली। (बेशक उसका नाम अगले साल उन्होंने 'हरिश्चचंद्र चंद्रिका' कर दिया)। 'हिंदी पंच' और 'हिंदू पंच' दो अन्य पुरारनी हिंदी पत्रिकाओं के नाम थे। ऑक्सफोर्ड कन्साइज डिक्षनरी के हिसाब से 'मैग्जीन' शब्द फारसी के 'मखजन' शब्द से निकला है और 'पंच' हिंदी-संस्कृत के 'पंच' (यानी पांच) शब्द से। आजादी आने के पूर्व 1946 में 'नवभारत टाइम्स' निकला। उसका साथी 'दिनमान' भी 'दिनमान टाइम्स' हो गया था। 1952 में मुंबई से 'नवनीत हिंदी डाइजेस्ट' शुरू हुआ, जो अब अपने नाम से 'डाइजेस्ट' शब्द हटा चुका है। किंतु नई प्रवृत्ति हिंदी पत्र का पूरा का पूरा नाम अंग्रेजी में रखने की है। पैकेट पर 'सर्फ' नाम चाहे रोमन में लिखा जाए या देवनागरी या तमिल लिपि में, पर पैकेट के भीतर माल एक ही रहता है। इसलिए ब्रांड के नाम का यहां महत्व है। मगर जब पाठय सामग्री की भाषा और विषयवस्तु सब अलग हों तो किसी प्रतिष्ठान के दो या तीन भाषाओं के पत्रों का साझा नाम अंग्रेजी में रखने से क्या लाभ होता होगा, मैं नहीं समझ पाया हूं।
3. अंग्रेजी के आक्रमण का तीसरा रूप तो स्वयं हिंदी संपादकों का न्योता हुआ है। अंग्रेजी के दो स्तंभकारों के सिंडिकेटेड लेखों के अनुवाद हिंदी में काफी समय से छप रहे थे - श्री इंद्रजीत और श्री कुलदीप नैय्यर। किंतु इधर के वर्षों में करीबन दस नाम और इनके साथ जुड़ गए हैं। दलील यह दी जाती है कि ये सब समर्थ समाचार-विवेचक हैं।
इससे कई सवाल उठते हैं। क्या हमारे देश में सारा सार्थक और पढ़ने योग्य समाचार-विशेषण अंग्रेजी पत्रकार ही करते हैं? क्या हिंदी में अपने स्तंभकार पैदा करने की क्षमता नहीं है? अगर हमें अनुवाद ही लेना हो तो हिंदी की बहन भाषाओं में ऐसा कोई समाचार-विशेषण कम से कम अपने-अपने प्रदेश के बारे में नहीं छपता, जिसे हम अपने पाठकों को पचा सकें? एक बात और। सुनने में यह जरा ओछी भी हो सकती है। ये सब अंग्रेजी स्तंभकार बड़े-बड़े अखबारी प्रतिष्ठानों में बड़े-बड़े वेतन पाने वाले संपादक रहकर निवृत्त हुए हैं और अब अपना योगक्षेम चलाने या पत्रकार-पेशे में अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए स्तंभ लिखते हैं। क्या हमने जीवन-भर प्राय: अल्प वेतनों पर हिंदी पत्र-पत्रिकाओं की सेवा करके निवृत्त होने वाले सुयोग्य संपादकों और पत्रकारों के योगक्षेप की कभी चिंता की है?
मैं भाषाई छुआछूत की भावना से प्रेरित होकर यह सब नहीं कर रहा हूं। महत्वपूर्ण समाचार या विचार किसी भी भाषा के माध्यम से आए, उसे तुरंत और सुलझे ढंग से अपने पाठकों तक पहुंचाना पत्रकार का पहलार् कत्तव्य है। फिर वैदेशिक संबंध, प्रतिरक्षा, शस्त्रास्त्र, अर्थतंत्र और वित्त व्यवस्था, विज्ञान और टेक्नालॉजी की विविध शाखाएं, कानून और संविधान आदि अनेक क्षेत्र ऐसे हैं, जिनमें प्रतिभा और कठोर परिश्रम से ही विशेषज्ञता अर्जित की जा सकती है। इन क्षेत्रों के विशेषज्ञ जब कोई महत्वपूर्ण बात देशवासियों से कहना चाहें तो वे भले ही किसी भी भाषा का सहारा लें, उनकी बात तुरंत अपने पाठकों तक पहुंचाने की शक्ति और तत्परता हममें होनी चाहिए। वरना हम अपने पाठकों की सच्ची सेवा नहीं कर सकते और न सच्चे पत्रकार कहला सकते हैं।
मगर रोजमर्रा की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं का विशेषण और विवेचन करने के लिए तो हमारे पास अपनी भाषा और अपने मुहावरे में लिखने वाले लोग होने ही चाहिए और अगर नहीं हैं तो उन्हें तैयार करना हमारे अखबरों और उनके संपादकों की जिम्मेवारी है। ऊपर बताए गंभीर विषयों के हिंदी भाषी विद्वानों को हिंदी में लिखने के लिए फुसलाना भी हमारार् कत्तव्य समझा जाना चाहिए। हमारा हिंदी प्रेम अगर हिंदी को राजभाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने के नारे तक ही सीमित रहता है तो निश्चय ही वह खोखला है। हिंदी से प्रेम करने का अर्थ हिंदी के मुहावरे, व्याकरण के नियमों और शुध्द वर्तनों का आग्रह और आदर करना भी है। इस दृष्टि से इस समय अराजकता की सी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे किसी अनुशासनकर्ता की आवश्यकता तीव्रता से अनुभव होती है। हिंदी के अपने मुहावरे की उपेक्षा और अंग्रेजी से अनुवाद किए हुए गैर मुहावरेदार प्रयोगों की भरमार, व्याकरण के सामान्य से नियमों का उल्लंघन और वर्तनी की भद्दी भूलें आज हिंदी के अच्छे से अच्छे पत्रों और पत्रिकाओं में इतनी आम चीजें हो चली हैं कि कई बार यह पूछने की इच्छा होती है कि क्या ये पत्र-पत्रिकाएं अर्ध्दशिक्षितों द्वारा चौथाई शिक्षितों के लिए छापी जाती है?
हमें याद रखना चाहिए कि जैसलमेर से लेकर पूर्णियां और कांगड़ा से लेकर खंडवा तक के विशाल प्रदेश में हिंदी शिष्ट व्यवहार की भाषा बनी हुई है तो खड़ी बोली के व्याकरण के नियमों की बदौलत ही। भाषा सिखाने के स्तर पर गिरावट, कंपोज करने और छापने की नई विधियों की आवश्यकताओं को न समझने और प्रूफ रीडिंग के बारे में घोर उपेक्षाभाव के कारण हमारी पत्र-पत्रिकाओं में वर्तनी की कितनी गलतियां रहने लगी हैं, वे पाठकों की अगली पीढ़ियों को हिंदी शब्दों के सही स्वरूप को पहचानने में असमर्थ बना देंगी। भाषा के सही रूप और प्रयोग के प्रति जागरुकता किसी भी सभ्यता की बौध्दिक उन्नति का एक लक्षण है। उसकी उपेक्षा करना अपनी सभ्यता के बौध्दिक स्तर को नीचे उतारना है। खोजी पत्रकारिता की आज बड़ी धूम है। वह बहुत ही महिमामंडित हो गई है। वह मदिरा की तरह मादक और मनमोहक भी है। खुली अनीति और अन्याय का विरोध करने की तरह, छिपे तौर पर चल रही दुरभिसंधियों और स्वार्थ भरे दुष्कर्मों का पता लगाना और उनका परदाफाश करना पत्रकारिता का विशेषाधिकार ही नहीं, कर्त्तव्य भी है। किंतु यह प्रक्रिया शल्यक्रिया की तरह है, जिसे समाज की हितकामना से, सुलझे दिमाग और बहुत सधे हाथ से ही किया जाना चाहिए।
जनहित सारी ही पत्रकारिता की तरह खोजी पत्रकारिता का भी पाट है, और न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा उसके कगार हैं। इन कगारों को तोड़कर अपने पाट से बाहर बहने पर खोजीपत्रकारिता विनाश भी मचा सकती है। न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा से विहीन खोजी पत्रकारिता पुलिसिया तहकीकात या निजी खुफिया एजेंसियों की खोजबीन से बहुत भिन्न नहीं रह जाती, क्योंकि तब सत्य का पता लगाना और जनहित में उसे उघाड़ना उसका उद्देश्य नहीं रह जाता है। तब तथ्यों का चयन और निरूपण करने में वह सत्य की अपेक्षा करने लगती है। ऐसी खोजी पत्रकारिता बहुत शीघ्र अखबारी आतंकवाद में परिणत हो सकती है।
सच्ची खोजी पत्रकारिता की दिलचस्पी सिर्फ अधिकार संपन्न व्यक्तियों या संगठनों के छिपे दुष्कर्मों और दुरभिसंधियों का पता लगाने और प्रमाणों के साथ उन्हें पाठकों के सामने पेश करने में नहीं होती। किसी निर्दोष पर आरोप-आक्षेप लगने पर वह उसकी रक्षा में भी अपनी खोजी वृत्ति का पूरा-पूरा उपयोग करती है। हर ड्रेफ्युस की ओर से वह एमिली जोला बनकर खड़ी होती है। खोजी पत्रकारिता का यह तेवर हमारे देश में अभी बहुत कम देखने में आया है। जिसे अमेरिका में 'चेकबुक जर्नलिनज्म' कहा जाता है, वह भी धीरे-धीरे हमारी खोजी पत्रकारिता के साथ जुड़ती जा रही है। घूस देकर, चोरी करवाकर दस्तावेज प्राप्त करना और छापना भी उसमें वर्जित नहीं समझा जाता। साधन-शुध्दता का विचार उसे दकियानूसी लगता है। इसमें दो खतरे हैं। हमारे पत्र मालिकों की थैलियां उन्हीं दस्तावेजां के लिए खुलेंगी जो ऐसे व्यक्तियों या संगठनों के खिलाफ जाते हों, जो उन्हें नापसंद हैं या उनके स्वार्थों में आड़े आते हैं। इस तरह हम अपने मालिकों के हाथों में खेल रहे होंगे। दूसरे, हम ऐसे भी दस्तावेज छाप बैठ सकते हैं जो गढ़ंत हैं और बुरी नीयत से हमें मुहैया किए गए हैं।
जनहित और न्यायबुध्दि से प्रेरित और तथ्यों को छांटने-परखने में दक्ष पत्रकार ही इन सब खतरों से बचते हुए खोजी पत्रकारिता कर सकता है। धर्म, संघ और बुध्द जिस तरह बौध्द धर्म के त्रिरत्न हैं, उसी तरह जनहित, न्यायबुध्दि और सत्यनिष्ठा सच्ची खोजी पत्रकारिता के त्रिरत्न हैं। इस त्रिरत्न की उपेक्षा करने वाली खोजी पत्रकारिता चाहे कितनी ही मादक और उत्तेजक क्यों न हो, परंतु पत्रकार और पाठक के लिए और अंतत: समाज के लिए हितकारी नहीं हो सकती।

नारायण दत्‍त

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