Friday, May 15, 2009

क़साब को हँसीं क्यों आती है?

कहने का ये मतलब नहीं है कि क़साब हँस नहीं सकता. अब किसी के हँसने या रोने पर तो रोक नहीं लगाई जा सकती. लेकिन क़साब से शिकायत है कि वो ज़रूरत से ज़्यादा और ग़लत मौकों पर हँसा करता है. अभी सोमवार को कोर्ट में सुनवाई के दौरान वह अपने हथियारों की पहचान के वक़्त फिर से हँसने लगा. जज साहब को ये अच्छा नहीं लगा. लगता भी कैसे जिस अदालत में जज की मर्ज़ी के बिना पत्ता भी नहीं खडकता और जो पूरी अदालत को अपनी एक कड़कती आवाज़ से शांत कर देता हो और जिसे आज भी 'मेरे आका' कहकर बुलाया जाता हो, क़साब उस आदमी से पूछे बिना हँस रहा था. सो जज साहब से उसे टोक दिया. उसे गंभीरता अपनाने के लिए कहा गया. लंच-ब्रेक के बाद अदालत में आते उसने जज को मुस्कुराकर गुड-आफ्टरनून कहा तो उनका कहना था, 'तुम ज़रुरत से ज़्यादा हँसते हो.'

आप अदालत में लगातार तो नहीं हँस सकते. चाहे आप कितने भी बड़े अपराधी क्यों न हो. अदालत में हँसने की एक सीमा होती है. आखिर अदालत एक पवित्र स्थान जो ठहरा, जहाँ आपको पवित्र धर्म-ग्रंथों की कसमें खिलाई जाती हैं और उम्मीद रखी जाती है कि अब आप सच बोल रहे हैं.

हम और आप बस ये कल्पना कर सकते हैं कि क़साब को इतनी हंसीं क्यों आती है और वो भी हमारी अदालतों में? क़साब को पकड़े जाने के बाद पता चला होगा कि उसके लिए लोगों के दिल में कितना गुस्सा है! उसकी वजह से भारत के गृह-मंत्री को त्याग-पत्र देना पड़ा. एक राज्य के मुख्य-मंत्री और उप-मुख्य-मंत्री को अपने पद से हाथ धोना पड़ा. और तो और हमारे अत्यंत जागरूक विपक्षी दलों को सरकार को उखाड़ फेंकने को एक और मुद्दा मिल गया. कुल मिलाकर पूरे के पूरे इंडिया की ऐसी की तैसी कर दी एक क़साब ने. उसी क़साब को सज़ा दिलवाने के लिए जब वक़ील मुश्किल से मिला/मिली तो क्रोधित जन-मानस ने वक़ील को धमकाने की कोशिश की. क़साब को लगा होगा कि ये लोग मुझे जल्द से जल्द सज़ा दिलवाने के ख्वाहिशमंद भी हैं और ज़रूरी प्रक्रिया 'पूरी' भी नहीं होने देते.

ज़रूर उसे हँसी आयी होगी, और फिर ये सिलसिला चल पड़ा. जेल में जाकर उसे मालूम हुआ होगा कि भारत में कई ऐसे केस हैं जहाँ ह्त्या(इरादतन और गैर-इरादतन दोनों) के मामले सालों साल चलते जाते हैं-चलते ही जाते हैं.. और मुंबई में होकर उसे सलमान खान के बारे में पता न चले ये कहना थोडा मुश्किल है. सलमान इसीलिए क्योंकि वह पाकिस्तान में भी जाना पहचाना नाम है और हत्या और शिकार करने के आरोपों से जूझते हुए कई तारीखों का सामना करने के बाद उसने ये बयान दिया कि 'या तो उसे लटका दिया जाये या छोड़ दिया जाये.'

क़साब को वरुण गाँधी पर भी हँसी आई होगी, वो इसीलिए कि वरूण को शिकायत थी कि क़साब को जेल में तंदूरी चिकन खिलाया जाता है और उन्हें लौकी की सब्जी, जबकि उन पर आरोप क़साब से ज्यादा गंभीर हैं.(वरुण पर रासुका और क़साब पर हत्या, षडयंत्र जैसे मामले हैं.) क़साब को पता चला होगा कि भारत में आरोप किस आधार पर लगाए जाते हैं और वो मन ही मन कह रहा होगा, 'बेटा तंदूरी चिकन खाने के लिए काम भी बड़ा करना पड़ता है'(बशर्ते उसे तंदूरी चिकन मिलता हो).

क़साब ने जेल में टीवी की भी मांग की थी. उसने ज़रूर ग्रीनवुड प्लाई के उस विज्ञापन के बारे में भी सुना होगा जिसमें वकील, जज, अभियुक्त सभी बूढे हो जाते हैं लेकिन अदालत का फैसला नहीं आता है, केस चलता ही रहता है और वक़ील साहिबा कहते-कहते थक जाती है की मुजरिम जीवनलाल को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जाये. क़साब इस विज्ञापन को देखना और समझना चाह रहा होगा कि भारत में अदालती कार्यवाही कैसे होती है! उसे लग रहा होगा कि अगर वह भी फैसले के इंतजार में बूढा हो गया तो...

अब क़साब जज साहब की इस बात पर कैसे अमल कर सकता है कि 'वह अदालत में गंभीरता दिखाया करे!'

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