Sunday, May 3, 2009

कैसा और किसका चुनाव?

दुनिया के 'सबसे बड़े लोकतंत्र' में चुनाव हो रहे हैं। चुनावों को लोकतंत्र का सबसे बड़ा महापर्व कहा जाता है। कोई भी घटना महापर्व उसमें भाग लेने वालों की संख्या, माहौल आदि से बनती है। अगर यह 'घटना' भी हमारा एक महापर्व है तो जनता के बीच से उत्साह क्यों गायब है? माहौल तो ख़ैर पैसे खर्च करने वालों ने बनाने की पूरी कोशिश की है। हाँ कुछ लोग ज़रूर इस पर्व में भाग लेने को बेताब हैं। कुछ सिर्फ़ इसीलिए क्योंकि अभी तक के आंकडों से पता चलता है कि तीनों चरणों के चुनावों में ६० फीसदी से ज़्यादा मतदान नहीं हुआ है।
देश के सभी १८ साल से ऊपर के लोगों का नाम वोटर लिस्ट में नहीं होता। इस पर लगभग आधे लोगों का मत देकर किसी को नेता चुनना और उसका १०- २० फीसदी वोट लेकर संसद में जाना ये हमारे लोकतंत्र की हकीकत है। पिछले साल के आख़िर में हुए मुंबई हमले के ख़िलाफ़ सपनों की नगरी के लोगों का गुस्सा देखकर लगा शायद इस बार मुंबई वासी नींद से जग जायें। लेकिन इस बार पिछले साल(४५ फीसदी) से भी कम- ४४ फीसदी मतदान कर मुंबई ने बता दिया है कि उसकी नींद अभी खुली नही है। इस नींद को तोड़ने की कोशिश फ़िल्म जगत के सितारों ने भी की। जिन्हें देखकर पूरा देश कपड़े पहनता हो, बाल कटाता हो या उन्हीं की तरह जीने की कोशिश करता हो, जनता ने उनकी बात भी नहीं मानी। वैसे इन सितारों में से आधे ख़ुद वोट देते नज़र नहीं आए।
चुनावों में मत नहीं देने का मतलब या तो चुनावों का विरोध हो सकता है या फ़िर गहन उदासीनता। चुनावों का विरोध किसी न किसी वजह से किया जाता है। लेकिन इस तरह की उदासीनता ज़्यादा ख़तरनाक है, जब आप बिना बात किए कैकई की तरह कोपभवन में मुंह फुला कर बैठ जायें! देश के नेतृत्व को इस बात को समझना होगा कि क्यों जनता लगातार चुनावों से मुंह मोड़कर खड़ी है?

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