Thursday, August 6, 2020

काश!

किस बात से हैरान हूं?
क्यों आजकल परेशान हूं?
किस सच से अंजान हूं?
क्यों आज भी नादान हूं?
काश! ये कह पाता ।

हर जगह धोखा और मक्कारी है
संतोष पर लालच भारी है
झूठ बोलना क्यों लाचारी है?
हर जन को आज ये बीमारी है
काश! मैं सह पाता।


जमाने से बहुत पीछे हूं
लगता है धरातल से नीचे हूं
ठोकर से भी नहीं सीखा हूं
क्यों बंद पड़ा झरोखा हूं?
काश! कुछ कर पाता।







Thursday, July 9, 2020

वक़्त कठिन है, पर ये भी गुजर जाएगा

कुछ अजीब है, यह गुजरता हुआ साल। क्या कहू इसे अच्छा, बुरा या फिर साक्षी भाव से बैठ कर इसको गुजरता हुआ देखूँ। बड़ी ऊहापोह मैं है ये मन, बहुत समय से सोच रही थी की कुछ लिखूँ। फिर सोचा कुछ ऐसा लिखूँ कि बस लोग पढ़ें और सोचें, हाँ वो भी कुछ ऐसा ही सोच रहे हैं। वो भी घर मैं रह कर दिन भर विचारों के सागर मैं डुबकी लगाते रहते हैं, फिर आज बिना सोचे ही लिखने बैठ गयी हूँ। इसकी वजह है अकसर मेरे जैसे आमलोग जो सोचते हैं, वो करते नहीं, जो करते हैं, वो सोचते नहीं, है ना। खैर मेरा छोड़िए बात जो कहनी है वह यह है की 2020 का आधा साल गुजर चुका है, बाकी भी गुजर जाएगा। किसी महाज्ञानी ने कभी किसी से कहा था वक़्त कैसा भी हो अच्छा या बुरा कभी रुकता नहीं बस गुजर जाता है। वैसे इस वक्त की ये फितरत हर पल आगे बड्ने की अच्छी है, क्योकि नदी का बहता पानी और हर पल मैं गुजरने वाला वक़्त जीवन की कभी न रुकने वाली धारा की ओर हमारा ध्यान खीचता हैं। 

मुझे यह साल हमेसा याद रहने वाला है, अब आप सोचों क्यू उससे पहले ही मैं आपको मेरी सोच से परिचित करा देती हूँ। मेरी सोच बड़ी अद्भुद है ऐसा बिलकु नहीं, पर कोविद 19 को लेकर हर इंसान के मन मैं एक भय का भाव जरूर होगा, क्यूकी डर सबको लगता है। डरना बुरा नहीं। डर कर रुक जाना, ठहर जाना, जीवन को त्याग देना गलत है। मैंने कहीं पढ़ा था, "मनुष्य भय के साथ पैदा होता है" जैसे-जैसे मनुष्य बड़ा होता है, उसका डर भी बड़ा होता जाता है। बचपन मैं हमें डर या भय प्रभावित नहीं करते क्योकि उत्साह और आनंद बच्चों के रंगों मैं खून के साथ दौड़ता है। तब तक इससे बच्चा नहीं डरता जबतक कोई बड़ा उससे यह न समझाये की भाऊ आ जाएगा और तुमको खा जाएगा। हमारे बचपन मैं इस भाऊ ने बहुत डराया हम सबको। नयी पीढ़ी के बच्चे भूतु से डरते हैं भाऊ से नहीं। हो सकता है भाऊ अब नाम बदल कर या यूं कहें प्रोफ़ाइल बदल कर भूतु बन गया हो, कुछ भी हो सकता है!!!

 जब भी काली रात आती है या वैसी कोई परेशानी आती है, तो हमारी परछाई भी हमारा साथ नहीं देती। यह कहावत कोरोना काल मैं चरितार्थ होती दिख रही। दो गज की दूरी, हाथ धोते जाओ, धोते जाओ चाहे आपकी स्किन का रंग क्यूँ न बादल जाए, चेहरे पर मास्क। सामाजिक दूरी का पालन करते करते घर मैं कैद आम भारतीय किस बात से सबसे जादा डरा हुआ होगा, आप सब समझते हैं। हमारे मन का पहला भय अपनी जान की फिक्र, उतना ही मोह अपनों को सही सलामत बनाए रखने का भी हैं। तीसरा भय दिवालिया होने का है। घर बैठे कब आपकी कंपनी आपको घर में ही बैठा दे इसका अंदाजा सबको है, जब ऑफिस घर में आ गया और स्कूल भी, अब कॉलेज भी, मंदिर भी, हॉस्पिटल भी। अब घर घर नहीं मॉल बन गया, सब सुविधा घर के अंदर। मजा आ रहा होगा सबको नहीं। कुछ मजेदार घटनाए जो इस दौरान देखने को मिली जैसे इंसान घर के अंदर, जंगली जानवर सड़क पर और मॉल में ये देखने कही इंसान लुप्त तो नहीं हो गया। इन तसवीरों से यह साबित होता है कि इस धरती पर सबसे अधिक खूंखार और खतरनाक जीव कोई है तो वो इंसान है। ऐसा भी एहसास हुआ इस लॉक डाउन में।

मानव को चीजे संग्रह करने की कला ने आज उसके घर को ही मॉल मैं तब्दील कर दिया है। घर अब घर नहीं, वहा रिश्तों में प्रेम नहीं, अपनापन नहीं, लॉक डाउन के कारण मजबूरी में साथ रहने के कारण परिवार का ढ़ाचा भी चरमरा रहा है। इसका अहम वजह आर्थिक तंगी है। यूं खाली हाथ घर चलाना मुसकिल होने पर  मुझे तो अब से 12 साल पहले की आर्थिक मंदी जैसा माहौल दिख रहा, नौकरियाँ जा रही, कोई भी समाधान नहीं दिख रहा अर्थ को घर लाने का। पर इसका मतलब यह नहीं है की जीवन से हार मान लिया जाए। मारना तो एक दिन है ही पर उससे पहले ऐसे जियो की लोग याद रखें वह इतनी कठिन घड़ी में भी हौसला नहीं छोड़ना ही जीवन जीने की सही कला है। पर में दुखी हूँ की में अपनी ये विचार लोगों तक नहीं भेज पा रही।  लोग जीवन के लिए संघर्ष करने के बजाए मौत को गले लगा रहे। आत्महत्या के मामले बढ़ रहे। लोगों की आपसी सहनशीलता और सौहार्द गुम हो रही।

इस कोरोना ने सारी दुनिया पर चोतरफा वार किया है, हर देश कि अर्थव्यवस्था डगमगा गयी है, शेयर मार्केट में रोज गिरावट होती रहती है, तो पेट्रोल और डीजल के दाम आसमान छू रहे, बड़े बड़े ब्रांड ने दुनिया भर के अपने आउटलेट बंद कर दिये है। हर देश में बेरोजगारी और भूखमरी अपना पैर पसार रही। ऐसे समय में हमारे माननीय मोदी जी ने जनता को हाल ही में दिये अपने भाषण में भारत के निचले तबके के 80 करोड़ लोगों को नवम्बर माह तक पाच किलो चावल और पाँच किलो आटा और एक किलो दाल मुफ्त में देने का वादा किया। जो हमारे मजदूर भाइयों और गाँव की जनता के लिए बहुत जरूरी था। एक ऐसे अस्थिर और असुरक्षित माहौल में जहां दुनिया भर कि 100 से ज्यादा फ़ार्मा संस्थान कोरोना की दवा बनाने में जुटी हैं पर अभी तक कोई सफल नहीं हो पायी। कोई सही सूचना नहीं देता कि कब तक कोरोना की मैडिसिन बन जाएगी। मीडिया केवल आंकड़ों में उलझी रहती है और जनता को भी उलझाती है। ऐसे में यह सरकारी सहयोग बहुत जरूरी है। पर हम जैसे मध्यम परिवार के लोगों का क्या जो हर माह मेहनत कर कमाते है और अपने परिवार का पालन करते हैं और देश को आगे ले जाने के लिए इंकम टैक्स भी भरते हैं। सब कुछ बिगड़ा हुआ है कुछ भी सही नहीं। पर अंतरमन और आत्मा कहती है, सब कुछ ठीक हो जाएगा बस धैर्य रखो अपना कर्म करो क्योकि कृष्ण भगवान ने गीता में भी "कहा है कि कर्म करो फल की कामना मत करो, सही समय पर तुम्हारा कर्म फल अवश्य प्राप्त होगा। मुझे तो अपने ऊपर और अपने ईश्वर में आस्था है। उसमे विश्वास रख कर अपना कर्म कर रही, जीवन को आनंद में जी रही थोड़ा कठिन है, पर जो आसान है उसमे मजा भी तो नहीं आता। है ना, तो फिर मिलेंगे किसी और उलझन के साथ तब तक के लिए राधे राधे।

जीवन को आज में और अभी इस पल में ही जीना है दोस्तों। कल का क्यो सोचना जिसका पता नहीं और जिस पर नियंत्रण भी नहीं। अपना बस केवल अब में है। उसी का आनंद लो। मिल जुल कर रहो मिल बाँट कर खाओ। भारत तो वैसे भी एक परिवार है। थोड़ा ज्यादा बड़ा है, पर फिर भी हम सब साथ मिल कर एक नया भारत बना सकते हैं। बस जीवन का अंत कर उसका अपमान न करो दोस्तों। बहुत सुंदर वक़्त भी आएगा। आत्मनिर्भर भारत का हमारा सपना पूरा होगा। हम पहले भी बहुत मुसकीलों से लड़े हैं इससे भी गुजर जाएंगे। आशा और उम्मीद दिलों में जगाए रखना है। नियम का पालन करना है। बचना है और सबको बचना है। साफ सफाई और आयुर्वेद और योगा को जीवन में आदत के रूप में सुमार कर लीजिये। सतर्क रहिए और सेवा करना मत छोड़िए। सेवा और मदद ही हमारी संस्कृति है। 

हर हर महादेव ....

Tuesday, May 12, 2020

पड़ताल

किसी को पुरानी शादियां याद है? याद है? जब शादी में पूरा गांव सरिक होता था। याद है? जब आस पास की सारी महिलाएं एक महीना पहले से तैयारियों में लग जाती थीं। याद है? जब गांव के सारे लड़के बारातियों को खाना खिलाने से लेकर सेवा सत्कार में लग जाते थे। नहीं याद है तो चलिए याद करते हैं। मंगलू चाचा की लड़की की शादी 25 साल पहले हुई थी। तब गांव असल में गांव होते थे। कस्बा, शहर और महानगर नहीं। तब हमारी सोच बंजर नहीं हुई थी। आपसी भाईचारा था, सहयोग की भावना थी, रिश्तों के प्रति समर्पण था। कुल मिलाकर  हम सामाजिक थे।

शादी की तैयारियां हो रही थी। शाम को बारात आने वाली थी। हलवाई सुबह से ही खाना बनाने में लगे थे। गांव के कुछ बच्चे आलू छिल रहे थे। कुछ नस्ता का पैकेट तैयार करने में लगे थे। गांव के कलाकार लड़के जयमाला स्टेज और मरवा (शादी का मंडप) सजाने में व्यस्त थे। गांव के लगभग सारे लोग मंगलू चाचा के घर पर थे। हंसी-ठिठोली हो रही थी। हिरामन चाचा बहुत लंबी लंबी फेंक रहे थे। लोग खूब हंस रहे थे। आनंद का माहौल था। सब मस्ती कर रहे थे। औरतें भी और मर्द भी। मर्द घर से बाहर और औरतें घर के अंदर। आलू छिल रहे बच्चे भी खूब चुस्की लेे रहे थे। सुधीर फूल और पनीर लाने पटना गया था अपने दोस्तों के साथ। उसे अपने जीजा जी के लिए उपहार और दीदी के लिए सैंडल भी लेना था। बहुत काम था उसके पास। सुधीर मंगलू चाचा का एक मात्र लड़का था। इसी साल दसवीं पास किया था।

एक तरफ मई का महीना। आंधी-पानी की। लड़की की शादी। 200 बाराती। बारात में नाच। जमींदार का लड़का। हाथी, घोड़ा जैसी चुनौतियां। दूसरी तरफ मंगलू चाचा। लड़की का बाप। साधारण किसान। लड़का नादान। शादी का खर्च। कर्ज का बोझ। अतिथियों का स्वागत। जैसी कई चिंताएं मुंह बाए खड़ी थी।

शाम के करीब 8 बजे का समय। बारात आ चुकी थी। जनमासे पर स्वागत के लिए 50 से ज्यादा लोग। ज्यादातर युवा। बारातियों के लिए बैठने की व्यवस्था, जलपान, पानी की सुविधा। हल्का होने के लिए विद्यालय का खुला परिसर। खुला आसमान। ठंडी-ठंडी हवा। पान की व्यवस्था। बाराती मस्त। जमकर भांगड़ा और नागिन डांस हुआ।

द्वारपूजा और जयमाला में थोड़ी दिक्कत हुई। दरवाजे पर बहुत भीड़ थी। ऊपर से गर्मी का मौसम उमसभरा। पंडाल का पंखा हांफ रहा था। सराती एक पांव पर खड़े थे। बाराती उतावले हो रहे थे। शर्बत पेश किया गया। रूह अफजा। थोड़ी ठंडक मिली। तभी कन्या का आगमन हुआ। अब सब शांत। सभी की नजरे वर-वधु पर। तब आज की तरह सभी के हाथ में स्मार्ट फोन नहीं था। मोबाइल फोन का आगमन भी नहीं हुआ था। इसलिए कन्या को ज्यादा कष्ट नहीं हुआ। जल्दी निपट गई।

भोजन का समय हो चला था। 11 बज रहे होंगे। बारातियों ने खाना शुरू किया। व्यंजन कम थे, पर लजीज थे। गरम-गरम पुरी,आलू दम, मटर-पनीर, बराबर   की चटनी सब स्वादिष्ट। गांव के लड़के पुरे मन से खिला रहे थे। पुछ-पुछकर खिला रहे थे। मंगलू चाचा खुश थे और बाराती संतुष्ट। स्वागत- सत्कार से बारातीगण बहुत खुश हुए। शादी समपन्न हुआ। और यादगार रहा।

क्या आज वैसी शादियां नहीं हो सकती?
क्या आज हम मेहमाननवाजी भूल गये हैं?
क्या अब हम सामाजिक नहीं रहे?
क्या आज हमारे पास इसके लिए समय नहीं है?
ऐसे कई सवाल हैं जो जायज भी हैं और जरूरी भी।

आकाश कुमार 'मंजीत'

Monday, May 11, 2020

पैसा

पैसा पास होता तो
घर के काम मैं आता
बाकी लोगों की तरह
मैं भी काबिल कहलाता।

पैसा पास होता तो
यूं आंख ना चुराता
बाकी लोगों की तरह
मैं सिना तान दिखाता।

पैसा पास होता तो
यूं खाली हाथ न जाता
बाकी लोगों की तरह
मैं भी कुछ ले जाता।

पैसा पास होता तो
सुख की रोटी खाता
बाकी लोगों की तरह
मैं राग-भैरवी गाता।

पैसा पास होता तो
यूं मोहताज ना होता
बाकी लोगों की तरह
इस सर पे ताज भी होता।

पैसा पास होता तो
कार में बाहर जाता
बाकी लोगों की तरह
रईस बन कर दिखलाता।

पैसा पास होता तो
फॉरेन टूर पे जाता
बाकी लोगों की तरह
ब्रांडेड चीजें ही लाता।

पैसा पास होता तो
हर रिश्ता काम में आता
बाकी लोगों की तरह
मैं भी इज्जत पा जाता।

पैसा पास होता तो
सोशल वेल्यू भी बढ़ता
बाकी लोगों की तरह
मेरा ग्राफ भी चढ़ता।

पैसा पास होता तो
डर जाते सब बोली से
बाकी लोगों की तरह
नहीं डरता मैं गोली से।

पैसा पास होता तो
शक्ल पे बात ना होती
बाकी लोगों की तरह
यहां भी दो चार होती।

पैसा पास होता तो
ये 'पप्पू' भी पास होता
बाकी लोगों की तरह
ये 'पप्पू' भी खास होता।

आकाश कुमार 'मंजीत'





Friday, May 8, 2020

आज

विपदा है भारी, सुनो हर नर-नारी
जिधर नजर डालो, है बेबस लाचारी

Birthday

उंगली में घी लगाकर चाट लो
इन खुशियों को दोस्तों संग बांट लो
वैसे तो आजकल बहुत व्यस्त हो
फिर भी समय हो तो केक काट लो।
अगर केक काट लेना
तो दोस्तों में बांट देना
अकेले हजम नहीं कर पाओगे
पता चल गया तो लात खाओगे

घोर अंधेरा

घोर अंधेरा, आंधी- पानी
घर में दुबके पड़े सब प्राणी
गरज गरज के बादल बरखे
रह रह कर बिजली भी चमके.
इस बिजली से डर लगता है
सबसे सुरक्षित घर लगता है

दुनिया भर में महामारी
बड़ी समस्या बेरोजगारी
घर की याद बहुत आती है
मां की बात अब याद आती है
घर में थोड़ा कम ही खाना
पर परदेस नहीं अब जाना.
(महामारी में मजदूरों का दर्द)