Saturday, November 28, 2009
Friday, November 27, 2009
पत्रकारों को क्या हो गया है...
घटना एक ही थी लेकिन उसे देखने का तरीका अलग अलग। कैसे कोई एक रिपोर्टर अपने ख़ास एंगल की वजह से आगे बढ़ता जाता है। लेकिन गन्ना किसानों के इस मामले में मुझे कहीं से अखबारों का कोई अलग एंगल नज़र नहीं आया। नज़र आया तो सिर्फ ये कि उन्होंने किसी दूसरे चशमे से उस घटना को देखा।
संयोगवश उस रोज़ मैं भी अपने क्लासरूम में ना होकर सड़क पर ही था लेकिन मुझे नवभारत, हिंदुस्तान, नई दुनिया, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंन्दुस्तान टाइम्स जैसी चीज़ें तो महसूस नहीं हुई। शायद इसलिए कि जिस चश्मे से ये सारे बड़े और राष्ट्रीय कहलाने वाले समूह इस घटना को देख रहे थे मेरे पास वह चश्मा नहीं था और आज भी नहीं है।
कुछ अखबारों की लीड की तरफ ध्यान चाहूंगा
KISAN JAM – TIMES OF INDIA
BITTER HARVEST, THEY PROTESTED, DRANK, VANDALISED AND PEED – HINDUSTAN TIMES
हिंसा की खेती – नवभारत टाइम्स
तर्क दिया जाता है कि इन अखबारों के टारगेट ऑडियंस को ध्यान में रखकर ही इन्होंने ख़बर को इस तरह पेश किया। जिस टारगेट ऑडियंस की बात की जाती वह लक्षित जनसमूह खुद उस मीडिया समूह की बनाई हुई एक परिधि होती है जिसके इर्द गिर्द वह घूमता रहता है। उसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। एक कमरे में बैठकर करोड़ों पाठकों की रूचि को परिभाषित कर दिया जाता है।
इस पूरे घटनाक्रम में सवाल यह उठता है कि किसी भी घटना के चरित्र को बदलने का हक इन अखबारों को किसने दिया। यह पहले भी कई अध्ययनों में साबित हो चुका है कि मीडिया छवि को बनाने में अहम भूमिका अदा करता है। ओबामा को किसने पॉपुलर बनाया, राहुल गांधी को किस तरह से प्रोजेक्ट किया जा रहा है, कलावती की चर्चाओं का बाज़ार किसने गर्म किया। बहुतेरे उदाहरण हैं जिनमें मीडिया की इस भूमिका को साफ देखा जा सकता है।
यहां जिस तरह से किसानों की तस्वीर पेश की गई उसने पूरी तरह से किसानों की छवि को दागदार बनाया। नई दुनिया को ज़रा भी शर्म नहीं आई किसानों को उत्पाती कहते हुए।
अगर यह तर्क दिया जाए कि इन अखबारों ने एक अलग एंगल लिया तो फिर इन अखबारों के संपादकों को एक बार पत्रकारिता के स्कूलों में जाकर पत्रकारिता सीखनी चाहिए। क्योंकि जिस खबर को इन्होंने ‘बनाया’ वह दरअसल कोई एंगल नहीं था। बनाया शब्द यहां इसीलिए इस्तेमाल किया गया कि इस खबर को बनाया गया, असल में वह खबर थी नहीं। एंगल में खबर के ही किसी महत्त्वपूर्ण हिस्से को लिया जाता है। अब महत्त्वपूर्ण को परिभाषित करना भी ज़रूरी हो जाता है क्योंकि अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग बातें महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं।
पत्रकारिता के सिद्धांतों के आधार पर महत्त्वपूर्ण वह है जो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को प्रभावित करे। जो नया हो और लोकहित में हो। कम से कम जाम लगना तो महत्त्वपूर्ण नहीं था। दिल्ली में जाम लगना आम बात है। कितने ही रूट ऐसे हैं जहां सुबह शाम जाम का नज़ारा आम होता है। उसमें नया क्या था।
अब समझ यह नहीं आता कि इसे पत्रकारिता का बदलता हुआ स्वरूप कहें या पत्रकारों का बदलता नज़रिया...
Wednesday, November 25, 2009
Saturday, November 21, 2009
सूचना का अधिकार : संशोधन क्यों
आम तौर पर किसी भी कानून में संशोधन करने का तात्पर्य होता है, देश के व्यापक हित में कानून में सुधार। लेकिन सूचना के अधिकार कानून 2005 के संशोधन में देश का व्यापक हित स्पष्ट नहीं हो रहा है। स्पष्ट न होने की भी ख़ास वजह है, कि क्या ये वास्तव में कानून का संशोधन है या फिर सरकारी दफ्तर और नौकरशाही ने ये तय कर लिया है कि हम नहीं सुधरेंगे। इसलिये कानून ही ऐसा बना दिया जाये कि हमारे सुधरने की कोई गुंजाइश ही न बचे। देखा जाय तो सरकारी महकमों के अलावा किसी की भी ये राय नही है कि सूचना के अधिकार में किसी तरह के संशोधन की जरूरत है।
सरकार इस संशोधन के द्वारा सूचना के अधिकार से फाइल नोटिंग दिखाने का अधिकार वापस लेने और अनावश्यक सवालों को ख़ारिज करने की बात कर रही है। अगर हम अनावश्यक सवालों की बात करें तो एक उदाहरण से सरकार की मंशा समझ सकते हैं। 14 नवम्बर को जंतर-मंतर के पास आर. टी. आई. में संशोधन रोकने के लिये धरना दिया गया। धरने में अरूणा राय भी शामिल थी। तमाम जद्दोजहद के बाद प्रधानमंत्री कार्यालय में उनकी मीटिगं तय हुयी। वहाँ से लौटने के बाद अरूणा जी ने धरने में बैठे लोगो को मीटिंग में हुयी अपनी बात-चीत का ब्योरा दिया। जहाँ उन्हे ही अनावश्यक सवाल का उदाहरण दे कर संशोधन की अवश्यकता समझाने की कोशिश की गयी।
दरअसल किसी व्यक्ती ने सूचना मांगी कि मैट्रो के निर्माण में कितने पेड़ काटे गये और उनके स्थान पर कितने पेड़ लगाये गये। ये सवाल सरकार के लिए अनावश्यक और परेशान करने वाला है। आज जब पर्यावरण वैश्विक स्तर पर एक बहुत बड़ा मुद्दा बन गया है और फिर हमारी दिल्ली सरकार ने इसी साल सितंबर माह में दिल्ली के पेड़ो की गिनती करवायी थी तो अब सवाल ये उठता है कि सरकार पेड़ो से संबंधित ये सूचना देने से क्यो कतरा रही है, अगर सरकार के पास रिकार्ड है तो उन्हे कतराना नही चाहिये।
जहाँ तक फाइल नोटिंग दिखाने की बात है, तो इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि इससे अधिकारियों को इमानदारी से काम करने में मुश्किल होगी क्योकि इससे वो बेइमानो और स्वार्थियों के नज़र में चढ़ जायेंगे। लेकिन प्रशन ये उठता है कि आज से चार साल पहले क्या सरकारी दफ्तरों और नौकरशाही में इमानदारी थी? क्या वहां कोई भ्रष्टाचार व्याप्त नहीं था? क्योकि इस कानून के आने से पहले न तो फाइल नोटिंग दिखाने की समस्या थी और नही बेइमानो के नज़र में चढ़ने की समस्या थी। ज़ाहिर है, हालात इससे बेहतर नही थे।
दरअसल आज़ादी के साठ सालों बाद भी हम ये नहीं मान पाये है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था आम आदमी में निहित होती है। लेकिन इस समस्या का समाधान इसी धरने में राजस्थान से आये एक व्यक्ती ने बखूबी सुझाया। उन्होंने कहा कि हम सरकार से जाकर बोलेंगे कि यदि आप को सूचना देने में तकलीफ हो रही है तो आप अपनी कुर्सी छोड़ दो। हममें से ही कोई ऐसा व्यक्ति कुर्सी संभाल लेगा जिसे सूचना देने में तकलीफ नही है। अब सरकार के सामने हमें अपना पक्ष मजबूती से रखना होगा कि हमें संशोधन नहीं सूचना चाहिये, गोपनीयता नहीं पारदर्शिता चाहिये।
Friday, November 20, 2009
कहाँ गए मोटे अनाज
हरित क्रान्ति के दौर में जिस एकफसली खेती को बढ़ावा मिला उसमें धान और गेहूं जैसी फसलों को केन्द्रीय भूमिका प्रदान की गई।इसका परिणाम यह हुआ कि कुल कृषि भूमि में से मोटे अनाजों की पैदावार घटती गई। उदाहरण के लिए1966 से लेकर 2006 तक के पिछले चार दशकों में चावल का उत्पादन 3.8 करोड़ टन से बढ़कर 8.6 करोड़ टन और गेहूं का उत्पादन 1.5 करोड़ टन से बढ़कर सात करोड़ टन हो गया जबकि दूसरी तरफ मोटे अनाजों का उत्पादन 1.85 करोड़ टन से घट कर 1.8 करोड़ टन हो गया। इसका मतलब यह है कि पिछले चार दशकों के बीच मोटे अनाजों की तुलना में धान का उत्पादन दो गुना और गेहूँ का उत्पादन तीन गुना बढ़ गया।
गेहूं और धान के क्षेत्र-विस्तार के क्रम में स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय हालात, मि़ट्टी की संरचना, नमी की मात्रा, भू-जल आदि की घोर उपेक्षा की गई। दूसरी ओर रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक और असन्तुलित प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता काफी प्रभावित हुई। सिंचाई के लिए सब्सिडीयुक्त डीजल व बिजली ने भू-जल के अंधाधुंध दोहन बढ़ावा दिया जिससे भ-जल स्तर गिर कर पाताल में पहुंच गया।
अत: अब एक ऐसी नई हरित क्रान्ति लाने की आवश्यकता है जिससे मोटे अनाजों की पैदावार में वृद्धि हो सके। इससे जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट, भू-जल ह्रास, स्वास्थ्य और खाद्यान्न संकट जैसी समस्याओं को काबू में किया जा सकता है। इन फसलों को पानी, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरूरत कम पड़ती है जिससे मिट्टी व भू-जल स्तर पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता। इसके अलावा इन फसलों को उगाने में खेतीकी लागत भी कम आती है। सूखा प्रतिरोधी होने के साथ-साथ ये फसलें कम उपजाऊ भूमि पर भी सफलता से उगाई जा सकती है। पौष्टिकता और सेहत के मामले में भी मोटे अनाज गेहूं व चावल पर भारी पड़ते हैं। इनमें प्रोटीन, फाइबर, कैल्शियम, लोहा, विटामिन और अन्य खनिज चावल और गेहूं की तुलना में दो गुने अधिक पाए जाते हैं। इन विशेषताओं के बावजूद मोटे अनाज किसानों, कृषि-वैज्ञानिकों और नीति-निर्धारकों की नजर में उपेक्षित है तो इसके पीछे प्रमुख कारण जनसाधारण में इनके प्रति फैली उपेक्षा की भावना है।
लम्बे समय से मोटे अनाजों की खेती को मुख्य धारा में लाने के लिए प्रयासरत 'दकन डेवेलपमेन्ट सोसायटी' का सुझाव है कि मोटे अनाजों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत वितरित किया जाय, जैसे राजस्थान में बाजरा और दक्षिण भारत में रागी का वितरण हुआ है। इन अनाजों के लिए लाभकारी समर्थन-मूल्य घोषित हो और इनकी सरकारी खरीद, भंडारण व विपणन के लिए प्रभावी नेटवर्क बनाया जाए। गेहूं और धान की भाँति मोटे अनाजों के अनुसंधान व विकास की सुविधाएं देश भर में स्थापित की जाए। बैंकों, वित्तीय संस्थाओं आदि को मोटे अनाजों की खेती के लिए रियायती दर पर ऋण सुविधा देने के लिए कानून बनें। सरकार सब्सिडी नीति की दिशा मोटे अनाजों की खेती की ओर भी मोड़े तो अच्छा ही होगा। इन उपायों से न केवल रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का आयात व प्रयोग कम होगा, बल्कि मिट्टी, भू-जल के साथ-साथ मनुष्य का स्वास्थ्य भी सुधरेगा।
इस प्रकार बदलते मौसम चक्र, एकफसली खेती से हो रहे नुकसान अदि को देखते हुए मोटे अनाजों की खेती भविष्य में उम्मीद की किरण के समान है। इससे न केवल कृषि का विकास होगा बल्कि खाद्य-सुरक्षा के साथ-साथ उचित पोषण और स्वस्थ्य-सुरक्षा भी हासिल होगी।
Wednesday, November 11, 2009
पहाड़ पर प्रतिरोध
यह फिल्मोत्सव दिल्ली जैसे महानगरों में होने वाले भड़कीले फ़िल्मी समारोहों से कई मायनों में हटकर था. दस-पंद्रह कार्यकर्ताओं की टीम के साथ आयोजन को संभाले ज़हूर आलम. नई फिल्म शुरू होने से पहले दर्शकों को फिल्म की जानकारी देते और फिल्म शुरू होने के बाद बहार स्टॉल पर जा बैठते संजय जोशी. युगमंच के कार्यकर्ताओं का दो फिल्मों के बीच में सहयोग राशि के लिए डिब्बे लेकर घूमना. दीवारों पर लगे दुनिया को बदल डालने की अलख जगाते पोस्टर. हाल के बाहर लगी संघर्षों की दास्तान कहती पेंटिंग्स. सारा समां कुछ और ही कह रहा था. इन सब के बीच नैनीताल की हाड़ कंपा देने वाली ठण्ड भी थी. यहाँ नवम्बर आते-आते सूरज के मद्धम होते ही ठण्ड अपना असर दिखाना शुरू करती है और शाम होने तक पूरे रंग में आ जाती है. इसी दौरान नैनीताल में शरदोत्सव भी चल रहा था.
समारोह एक बजे से शुरू होना था. हमारे पास घंटे भर से ज्यादा का वक़्त था सो पैदल ही माल रोड से मल्लीताल की ओर निकल लिए. माल रोड पर झील के किनारे चलते जाने का अपना ही मज़ा है. इस बीच रिक्शों पर बैठे लोग हमें कमअक्ल नज़र आ रहे थे. समारोह की शुरुआत "ज़मीन छोडेबो नाहीं, जंगल छोडेबो नाहीं.." की प्रस्तुति और युगमंच के कलाकारों के कलाकारों के जनगीतों से हुई. फिल्मोत्सव की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू की सत्तर के दशक में बनी "गर्म हवा" थी. यह विभाजन की त्रासदी के ऊपर बनी फिल्म है. इसमें विभाजन के बाद भी आगरा में रह रहे एक मुस्लिम परिवार की कहानी है. फिल्म अपने सार्थक नाम के साथ उस वक़्त के माहौल को रचने और उसमें फंसे लोगों का चित्र उकेरती है. शाम के सत्र में वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह "स्याही ताल" का विमोचन और उसके बाद विभाजन की ही थीम पर राजीव कुमार की एक शॉर्ट फिल्म "आखिरी असमान" थी. फिल्म पूर्वी बंगाल के चकमा आदिवासियों के दर्द को सामने रखने का काम करती है. अगली फिल्म अजय भरद्वाज की "एक मिनट का मौन" थी. यहाँ जे.एन.यू. के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर की ह्त्या और उसके विरोधस्वरूप उपजे छात्रों के आन्दोलन को कुचलने की कहानी थी. पहले दिन की आखिरी फिल्म चार्ली चैपलिन की "मॉर्डन टाइम्स" थी. फिल्म सन् १९३६ में आई थी जब बोलती फिल्मों का दौर शुरू हो चुका था. चार्ली ने उस दौर में भी मूक फिल्म बनाने को चेतावनी की तरह लिया. यह चार्ली की आखिरी मूक फिल्म थी. फिल्म में चार्ली मंदी के दौर में बेरोजगार होते जा रहे मजदूरों की दशा दिखाते हैं.
फिल्मोत्सव का दूसरे दिन का पहला सत्र बच्चों के नाम था. इतवार का दिन होने से कुछ स्कूली बच्चे भी मौजूद थे. शुरुआत में राजेश चक्रवर्ती की एनीमेटेड फिल्म- "हिप हिप हुर्रे" थी. इसमें गीतों के जरिये कुछ बाल कहानियों को पिरोया गया था. इसके बोल जावेद अख्तर ने लिखे थे और आवाजें शान, कविता कृष्णमूर्ति आदि की थीं. दूसरी फिल्म रैगडल की बनाई "ओपन अ डोर" थी. इसमें अलग-अलग देशों के बच्चों की ज़िन्दगी के कुछ पलों को फिल्म के रूप में ढाला गया था. सभी कहानियां एक दरवाजे के खुलने और बंद होने के बीच में घटती है. कहानियां एक ओर बच्चों की दुनिया में ले जाती है तो दूसरी तरफ बच्चों के सपनों, कार्यकलापों, खेलों जरिये उस देश के समाज को दिखाने का काम भी करती हैं. सुबह के सत्र की आखिरी फिल्म माजिद मजीदी की "चिल्ड्रेन ऑव हैवन" थी. फिल्म दो भाई- बहन और उनके एक जोड़ी जूते के आस-पास बुनी है. भाई बहन के जूते गुम कर देता है और उन्हें एक ही जोड़ी जूते से काम चलाना पड़ता है. दूसरे जोड़ी जूते को हासिल करने की कोशिशों की कहानी उनके माँ-बाप, उनके समाज और उसमें मौजूद द्वंद तक को समेटते चली जाती है.
दोपहर के डाक्यूमेंट्री सत्र में नेत्र सिंह रावत की १९७६ में बनाई डाक्यूमेंट्री "माघ मेला" थी यह उत्तराखंडी समाज के रीति-रिवाजों, मेले-त्योहारों के दौरान यहाँ की जीवंतता के दर्शन कराती है. बीजू टोप्पो की "गाड़ी लोहरदगा मेल" थी. फिल्म रांची से लोहरदगा तक जाने वाली रेल लाइन के नैरो से ब्रॉड गेज़ होने और लोहरदगा मेल के बंद हो जाने पर बनाई गयी है. रेल में फिल्माए झारखंडी लोकगीतों के जरिये उस समाज के रिवाजों और मौजूदा दौर में वहाँ चल रही उथल-पुथल को भी दिखाया गया है. इस सत्र की तीसरी डाक्यूमेंट्री एन.एस.थापा की १९६८ में बनाई "एवरेस्ट" थी. अपने दल के साथ एवरेस्ट अभियान में आई दिक्कतों और उन पर जीत की कहानी कहती रोमांचकारी फिल्म है. दोपहर के सत्र की आखिरी फिल्म विनोद रजा की बनायी "महुआ मेमायर्स" थी. फिल्म उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में चल रहे खनन और इसके खिलाफ उठ खड़े हुए आदिवासी समूहों के संघर्षों की दास्तान है. ये आदिवासी झूम खेती करते हैं, जंगलों से अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और पहाड़ों को देवता की तरह पूजते और उनका संरक्षण करते हैं. ये आदिवासी आज वेदांत और कलिंग नगर जैसी खदान कंपनियों से अपनी ज़मीन को बचने में जान गंवाते जा रहे हैं. फिल्म में खदान कंपनियों के मालिक, सरकार, उसके सशस्त्र सैनिक बनाम इन आदिवासियों का लुप्तप्राय संघर्ष दिखाया गया है.
शाम के सत्र में अशोक भौमिक का "समकालीन भारतीय चित्रकला में जन प्रवृतियां" विषय पर सचित्र व्याख्यान चित्रकला की समझ देने में मददगार रहा. यह व्याख्यान "आम आदमी के साथ होना ही आधुनिक होना है" की थीम पर था. अवनीन्द्र नाथ टेगोर, बी. प्रभा, जैमिनी रॉय, अमृता शेरगिल, नंदलाल बोस, रज़ा, सूजा हों या एम.एफ. हुसैन ये सभी भारत में बड़े चित्रकारों के रूप में जाने जाते रहे हैं. पूरी दुनिया में इनका नाम है. लेकिन इनके काम की समीक्षा करने पर पता चलता है कि ये सभी चालू फॉर्मूले को तोड़ पाने में नाकाम रहे हैं. इनके चित्रों में धर्म, नारी शरीर जैसे पुरातन विषय बारम्बार आते रहे हैं. ये कहीं भी भारतीय जनता के अधिकांश- मेहनतकश, दबे-कुचले हिस्से की आवाज़ बन पाने में नाकाम रहे है. लेकिन बाज़ार प्रायोजित चित्रकला को कुछ चित्रकारों ने चुनौती देने का काम भी किया है. इनमें चित्तप्रसाद, ज़ैनुल आबेदीन और सोमनाथ होड़ के नाम शामिल है. मजदूरों, अकाल के चित्रों, बाल मज़दूरों की गाथा को अपने चित्रों में शामिल किये हुए इनके चित्र जन संघर्षों के साथ रहे हैं. समारोह की आखिरी फिल्म वित्तोरियो डी सिका की "बाइसिकल थीफ" थी. फिल्म में दो बार साइकिल चोरी होती है. एक चोरी सफल रहती है और दूसरी असफल. फिल्म के नायक की साईकिल काम के पहले दिन ही चोरी हो जाती है. अब वो और उसका लड़का दिन भर सड़कों पर साईकिल ढूंढते फिरते हैं. पुलिस से उन्हें कोई मदद नहीं मिलती है. साइकिल का गुम होना नायक के जीवन के हर पहलू में घुसता चला जाता है. उसे हर वक़्त साइकिल ही याद आती है. और आखिर में वह एक साइकिल चोरी करने की ठान लेता है. लेकिन इसमें असफल होने के साथ ही वह पकडा भी जाता है. अब नायक को शर्म, दुःख और पछतावा महसूस होता है. समारोह को फिनिशिंग टच ज़हूर आलम और साथियों ने "ये सन्नाटा तोड़ के आ, सारे बंधन छोड़ के आ..." की प्रस्तुति से दिया. अगले दिन वापसी थी. नैनीताल से काठगोदाम रेलवे स्टेशन के लिए तड़के छः बजे बस पकड़नी थी लेकिन सुबह पॉँच बजे बिस्तर छोड़ने को मन नहीं कर रहा था. इसी वज़ह से हम सूरज को पीछे छोड़ने में कामयाब रहे. माल रोड पर पैदल आते हुए अजान और उसके बाद आती कीर्तन की आवाजें अलसाए नैनीताल को जगा रही थीं. आज ही उत्तराखंड को बने नौ साल पूरे हो रहे थे. आन्दोलनकारी गैरसेण को राजधानी बनाने जैसी मांगों के साथ देहरादून को कूच कर रहे थे. पहाड़ में हालात नौ साल पहले से ज्यादा मुश्किल हुए हैं और प्रतिरोध ज्यादा प्रासंगिक.
Saturday, November 7, 2009
...पर ये जूनून कम नहीं होगा
छह नवम्बर कि सुबह मैं सो रहा था। मेरे मोबाइल पर मैसेज आया कि प्रभाष जोशी इस दुनिया में नहीं रहे। मैं हैरान रहा गया। समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। पिछली रात भारत और ऑस्ट्रलिया के बीच हुए मैच को देखते हुए दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई। मैच में सचिन ने १७५ रन बनाये, लेकिन भारत ये मैच हार गया। मैं उनकी मौत के बारे कहूँगा कि क्रिकेट के दीवाने को क्रिकेट ने ही मार दिया। सुबह जब मैं ऑफिस पहुँचा तो सबसे पहले ख़बरों की वेबसाइट्स पर उनकी मौत के बारे में पढ़ा। बहुत दुःख हुआ।
इसमे कोई दो राय नहीं कि वो क्रिकेट और सचिन तेंदुलकर के बहुत बड़े प्रसंशक थे। जब भी मैं क्रिकेट के बारे में उनके लिखे हुए किसी भी कॉलम को पढ़ता था, तो ऐसा लगता था कि मानो मैंने वो मैच देखा हो। उनकी लेखनी से मुझे इस प्रकार लगाव हो गया था कि मैं 'जनसत्ता' अख़बार केवल उनसे लिखे हुए कॉलम को पढ़ने के लिए ही खरीदता था। उनसे दोबारा मिलने के लिए मैं बैचेन था। मेरी ये बेकरारी जल्दी ही ख़त्म हुई। दूरदर्शन के एक प्रोग्राम के लिए मुझे जाना था। वहां जाकर जब मुझे पता चला कि इस कार्यक्रम में प्रभाष जोशी भी आ रहे हैं तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। इस कार्यक्रम में कई बड़े पत्रकार शामिल थे। करीब एक घंटे बाद जब कार्यक्रम ख़त्म हुआ तो मुझे उनसे मिलने को अवसर मिला। स्टूडियो के बाहर मेरी उनसे मुलाकात हुई। मुलाकात के वो पल मेरे लिए यादगार बन गए। उस समय मेरी उनसे काफ़ी बातें हुईं और पत्रकारिता के बारे में भी उन्होंने मुझे काफी बताया। उन्होंने तब एक बात कही थी, 'पत्रकारिता करने के लिए एक जूनून कि ज़रूरत होती है। तुम अभी पत्रकारिता कि दहलीज़ पर हो। यदि इसमें सफल होना चाहते हो तो अपने जूनून को कम मत होने देना।'
आज प्रभाष जोशी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन एक पत्रकार के लिए उन्होंने जिस जूनून की बात कही थी, वो जूनून अब मेरे अन्दर और तेजी से बढ़ेगा। हिन्दी के इस महान पत्रकार को मैं श्रद्धांजलि देता हूँ।
Tuesday, November 3, 2009
काबा और परदे का उठना...
तीन नवम्बर की शाम रिमोट से खेलते-खेलते अचानक ही एन.डी.टी.वी. पर विनोद दुआ नज़र आ गए तो उनसे पार जाने का मन नहीं हुआ. समाचार को समझने के दौर से ही सुनते आ रहे थे कि एन.डी.टी.वी. इस मामले में औरों से अलग है. शायद कभी कुछ अलग रहा भी हो. अब तो एन.डी.टी.वी. भी हमाम में कूदा पड़ा नज़र आता है. अपने खास शो "विनोद दुआ लाइव" में उन्होंने तीन मुद्दों पर बात की. पहली, महाराष्ट्र और कर्नाटक में कुर्सियों के बँटवारे को लेकर चल रही खींचतान को लेकर थी तो दूसरी, मुंबई में कुछ लोगों के अपने घर के सामने से पिछले एक महीने से कूड़ा न उठाये जाने पर नगर निगम के ऑफिस में ही कूड़ा डालने को लेकर और तीसरी में उन्होंने हमेशा की तरह आखिर में एक मधुर गीत सुनवा कर अपनी बात ख़त्म की.
पहली खबर में उन्होंने नेताओं के लिए "छोटे" शब्द का इस्तेमाल किया. कहा कि नेता अपने स्वार्थों के लिए छोटे हो गए हैं. छोटा होना मतलब कमतर होना. छोटा होना किसी से कम हो जाना कब से बन गया होगा कहना मुश्किल है. लेकिन अब हालत यह है कि कद या उम्र आदि में छोटा होना कमतर होना माना जाता है. छोटे लोगों में अपनी लम्बाई को लेकर हीनग्रंथि होना सामान्य बात है. कोई दवाइयाँ खाकर तो कोई ऊंचे एड़ी के जूते-चप्पल पहनकर अपनी इस कमी को दूर करने की कोशिश करता है. लंबा होना आकर्षक माना जाता है. इस तरह से चलन में आ चुकी इस घटिया उपमा के प्रयोग की उम्मीद उनसे नहीं थी.
दूसरे मुद्दे पर उन्होंने बड़े ही रोचक अंदाज़ में बात शुरू की. उसका लब्बोलुआब ये था कि, नगर-पालिका के अधिकारी जो आई.ए.एस. से आते हैं, और इनमें से कुछ तो गरीब परिवारों से भी आते हैं. ये लोग इन पदों पर आने के बाद वापिस अपने घरों या गावों में नहीं जाते हैं और अपने पुराने दिनों को भूल जाते हैं और उन्हें इन लोगों ने (कूड़ा फेंकने वालों ने) ये बात (गन्दगी) याद दिला दी. विनोद दुआ को ये बात इस सन्दर्भ में कहना इतना ज़रूरी क्यों लगा, ये वो ही बेहतर जान सकते हैं. बात इस सन्दर्भ के बिना भी असरदार तरीके से कही जा सकती थी.
आखिर में उन्होंने कहा कि हम आपको खूबसूरत यादों के साथ छोड़ जाते हैं. और उन्होंने हमें सन् १९६५ में आई अमरजीत की फिल्म "तीन देवियाँ" का गाना- "कहीं बेख्याल होकर..." सुनवाया. इस गाने के बारे में उन्होंने कहा, "ये गाना मोहम्मद रफी ने गाया है, संगीत दिया है- एस.डी.बर्मन ने, बोल हैं मजरूह सुल्तानपुरी के और फिल्म के हीरो हैं देव आनंद." फिल्म का नाम "तीन देवियाँ" था तो जाहिर है फिल्म में तीन अभिनेत्रियाँ भी रही होंगी लेकिन विनोद दुआ ने उनका नाम लेने की जहमत नहीं उठायी. ये तीन अभिनेत्रियाँ थी- नंदा, कल्पना और सिमी ग्रेवाल. हैरत है कि इतने महत्वपूर्ण तथ्य को दुआ जैसा पत्रकार कैसे अनदेखा कर गया. शायद हम अनचाहे और अनजाने में ही अपने होने का सबूत दे जाते हैं. विनोद दुआ के बात कहने में किसी को कमी नज़र आ सकती है तो किसी को नहीं भी आ सकती है. फर्क सिर्फ देखने का है.