Saturday, July 9, 2011
मेरी प्यारी सी मंजिल
समय इन दिनों काफी तेजी से निकल रहा है....ऑफिस के काम को निपटा के घर जल्दी पहुंचने की जल्दी...ऑफिस के गेट से बाहर निकलते ही...हाथ की उंगलियों और कदमों के बीच रेस होन लगता है...हाथ की उंगलियां मोबाइल फोन के कीबोर्ड पर और कदम रास्ते पर सरपट दौड़ने लगते हैं...कदम तो थोड़ी देर बाद रुक जाते हैं...लेकिन हाथ की उंगलियां बदस्तूर जारी रहती हैं...बस में बैठने के बाद ड्राइवर पर ही ध्यान लगा रहता है...ड्राइवर का ब्रेक लगाना मानो दिल पर धक्का देता है...यही समय होता है जब नींद मुझे अपनी बांहों में लेने को बेकरार ....और शायद मैं भी उसके आगोश में जाने को तैयार.....25 से 30 मिनट बस में बिताना ऐसा लगता है मानो घंटो से सफर में हो....जैतपुर मोड़ उतरने के बाद थोड़ी राहत मिलती है...अब गुस्सा ड्राइवर पर नहीं आता...ट्रैफिक नियम को ताक पर रखकर गाड़ियों की आवाजाही पर गुस्सा आता है...शायक वे भी अपनी किसी मंजिल पर जल्दी से जल्दी पहुंचना चाह रहे हो....मोड़ से न्यूज पेपर खरीदने में मुश्किल से 2 मिनट का सयम बर्बाद होता है....लेकिन वो 2 मिनट भी मेरी मंजिल में बाधा नजर आता है...पेपर खरीदना इसलिए जरूरी होत है...क्योंकि इसमें मेरी मंजिल की मर्जी शामिल होती है...आखिरकार मुझे मेरी मंजिल से मुलाकात होती है और बेकरार दिल को करार मिलता है....मेरी ये मंजिल किसी और मंजिल से इसलिए अलग होता है क्योंकि मैं रोज इस मंजिल तक पहुंचने का रास्ता तय करता हूं और पहुंचता हूं
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