Sunday, January 24, 2010

क्यों माने हम बात ?


तुम मां-बाप की बात मान क्यों नहीं लेतीं। वह बड़े हैं हमारा भला चाहते हैं। उन्होने दुनिया देखी है, वह हमारे लिए सही फैसले लेते आए हैं। हमारे लिए उन्होने इतने त्याग किए हैं तो हम क्या उनकी खुशी के लिएअपनी इतनी छोटी-छोटी खुशियां कुर्बान नहीं कर सकते।

ये ऐसे जुमले हैं जो शायद हर घर में तब सुनाई देते हैं जब घर की युवा पीढ़ी अपनी समझ के मुताबिक प्रचलित रिवाजों के विरुद्ध जा कर निर्णय लेती है। निर्णय अगर लड़की ने लिया है तो मुखालफत का दबाव और विरोध का स्वर और भी तीव्र होता है।

जरा सोच कर देखते हैं कि युवा पीढ़ी का अपने मन मुताबिक निर्णय लेना पुरानी पीढ़ी के लिए इतना विस्फोटक क्यों होता है कि हमारे घर की बरसों पुरानी दीवारें चरमरा उठती हैं। सालों से सहेजे गए संबंध अचानक सड़ांध मारने लगते हैं। क्यों होता है ऐसा।

क्या ऐसा इसलिए है कि अपनी परंपराओं और मूल्यों के नाम पर सदियों सदी से हमे गुलाम मानसिकता और रूढ़ सोच पिलायी जाती है। क्या हमारे परिवारों का प्यार भरा माहौल  एक ऐसी शोषणकारी व्यवस्था के अंदर निर्मित है जो जन्म से घुट्टी के रूप में सिर्फ दबना और दबाना सिखाती है। संबंध हर किसी को प्यारे होते हैं, बिना संबंधों के किसी समाज को निर्माण नहीं होता। लेकिन संबंधों की परिभाषा इतने बंधनों में क्यों लिखी होती है। नियम और कानून सीमा रेखाएं खींचते हैं लेकिन व्यवस्था उन नियमों और कानूनों से हमारे मस्तिष्क के दायरे खींचने लगती है। क्यो ऐसा होना हर व्यवस्था की परिणिति है। यही संबंधों का सच है। इस व्यवस्था में मानवीय संबंध मकड़ी के ऐसे महीन तागों की  तरह बुने जाते हैं कि एक मच्छर भी फंस जाए तो पूरा का पूरा जाला ही टूट जाए । 


ऐसे में क्या व्यवस्था से ये प्रश्न नहीं होना चाहिए की यदि यह हमे अनुशासित करने के नाम पर हमे अंदर ही अंदर खा रही है तो हम इसे ढोने को बाध्य क्यों हैं? यही वह प्रश्न है जो युवा पीढी अपने हर नये फैसले के साथ पुरानी पीढ़ी से पूछती है। व्यवस्था की दो पर्तों के समान परिवार में नयी पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी का संघर्ष चलता है। पुरानी पीढ़ी के साथ स्थापित व्यवस्था और मूल्य होते हैं। ये पुराने मूल्य या मानसिकता अपनी जगह छोड़ कर कभी भी नये मूल्यों को सहज ही खुद के  ऊपर स्थापित नहीं होने देते। वह इसके लिए संघर्ष करते हैं और अधिकांश बार जीतते भी हैं।


नये मूल्यों का खून पी कर उनका रक्त भक्षण कर के परजीवियों की भांति पुराने मूल्य और परंपराएं, नयी सोच को अपना गुलाम बना लेती हैं। इन नयी और पुरानी सोच की वाहक बनती हैं पीढ़ियां। व्यवस्था की ताजपोशी या नाकामी के गवाह बनते हैं, पीढ़ियों के संघर्ष। समय अपनी गति से चलता रहता है और उस के साथ बदलती रहती है दुनिया की हर चीज। लेकिन हमारी चाहत से अछूती नहीं होती है व्यवस्था यदि हम चाहें तो व्यवस्था के इस बदलाव के सिद्धांत को समझ कर समाज को सड़ने से बचा सकते हैं।

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